मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

सारे आरोप बेबुनियाद हैं!

जब से चुनाव प्रचार शुरू हुआ है नेताओं पर इल्ज़ाम लग रहा है कि वो मुद्दों की बात न कर व्यक्तिगत छींटाकशी कर रहे हैं। बिजली,पानी, सड़क की चिंता छोड़ जाति-सम्प्रदाय की राजनीति कर रहे हैं। मगर मैं ऐसे किसी आरोप से इतेफाक नहीं रखता। मेरा मानना है कि नेता अपने भाषणों में सड़क की बात नहीं कर रहे हैं तो क्या हुआ, सड़क छाप बात तो कर ही रहे हैं। ये उनका सड़क प्रेम ही है जो वो अपने झगड़ें लेकर भी सड़क पर आ गए हैं। पानी के हालात भी भले ही चुल्लू भर पानी में डूब मरने जैसे हों, मगर अपनी हरक़तों से तो वो लोकतंत्र को पानी-पानी कर ही रहे हैं। इसी तरह बिजली को भी उन्होंने मुद्दा नहीं बनाया तो क्या हर्ज़ है, जली-कटी, जली-भुनी और दिलजली बातें तो मुसलसल हो ही रही हैं। कचरा प्रबंधन की भी उन्हें चिंता नहीं तो ये भी माफ है, गुंडे मवालियों को टिकट दे कर वो अनजाने में ही सही 'सामाजिक कचरे' का प्रबंधन भी तो कर रहे हैं।

वहीं नेताओं की तरफ से विकास की बात न करने की बात भी मुझे हज़म नहीं होती। मेरा मानना है कि असली परफॉर्मर बात नहीं करते सिर्फ काम करते हैं। हमारे नेता भी विकास की बात न कर, सिर्फ विकास (व्यक्तिगत) करते हैं। नामांकन के दौरान घोषित उनकी सम्पति के आंकड़े देखिए ...दस करोड़ के पचास करोड़ हो गए। तीन मकान से छह मकान बना लिए। चार गाड़ियों का आदर्श परिवार भी परिवार नियोजन की धज्जियां उड़ाते हुए आठ सदस्यीय हो गया। पांच साल में क्या इतना विकास कम है। और ये भी तब जब वो इस बीच दिन-रात जनता की सेवा कर रहे थे। सेवा के इस 'हैक्टिक शेड्यूल' में अगर कोई इतना विकास 'मैनेज' कर जाए तब वो आपकी का गाली नहीं, तूसाद म्यूज़ियम में जगह का हक़दार है।

वहीं जिसे आप साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ना कहते हैं दरअसल वो नेताओं के मनोरजंन करने का तरीका है। भाषण सुनते-सुनते जनता सो न जाए इसलिए वो ऐसी बातें करते हैं जिससे लोग जागते रहे। 'आप मुझे एक बार मौका दे, मैं आपके इलाके का नक्शा बदल दूगा।' ऐसी पंक्तियों की रिपीट वैल्यू अब बची नहीं। लोग कहते हैं, यार, बोर मत करो। इससे बढ़िया है कि फैज की कोई नज़्म सुना दो। कुछ नेता यहां-वहां सुना या फिर ट्रक के पीछे पढ़ा शेर सुना भी देते हैं। कोई जादूगर बुला लेता है। कोई फोक सिंगर से समां बांधने की कोशिश करता है। तो वहीं कोई नौसीखियां सनी देओल स्टाइल में कह डालता है, 'मैं हाथ काट दूंगा'। और सोचता है कि लोगों का मनोरजंन होगा। धर्म नाज़ुक मसला है। विकास बुनियादी ज़रूरत है। अब जो लोग विकास के नाम पर देश के साथ मज़ाक करते आए हैं आज वो धर्म के नाम पर मनोरजंन करने लगे हैं तो बुरा न मानें। ये सोच कर ही माफ कर दें कि उनका सैंस ऑफ ह्यूमर ही ख़राब है।

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

राजनीति के अपराधीकरण के फायदे!

पिछले दिनों हुई राजनीतिक हत्याओं के बाद राजनीति में अपराधीकरण का मुद्दा फिर से गर्माने लगा है। लोग सवाल करने लगे हैं कि क्या इन्हीं लोगों को हम संसद में पहुंचाना चाहते हैं। क्या यही लोग महान भारतीय लोकतंत्र की परम्परा को आगे बढ़ाऐंगे। मगर मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि लोगों को आपत्ति क्या है। अपराधियों के राजनीति में आने और सासंद बनने में मुझे तो फायदे ही फायदे नज़र आ रहे हैं।

फायदा नम्बर एक-पाकिस्तान में इतने दिनों से जो कुछ चल रहा है लगता है उससे हमने कोई सबक नहीं लिया। लिया होता तो ऐसी बातें नहीं करते। तालिबान हर रोज़ पाकिस्तान के नए इलाकों पर कब्ज़ा कर रहा है। दुनिया थू-थू कर रही है। लेकिन वहां के सरकारी हुक्मरान तो मानो हिंदी फिल्मों की पायरेटिड डीवीडी देखने में मशगूल हैं। ऐसे में क्या बचेंगे लोग, और क्या बचेगा लोकतंत्र। ऐसे 'बनाना रिपब्लिक' में लोगों का 'बनाना' बनना तय है जिन्हें कोई भी आसानी से छील कर खा सकता है, सरेआम कोड़े मार सकता है।

अब भारत में अगर ऐसी ही तालिबानी सोच और कर्म वाले लोग सासंद बनना चाहते हैं तो आपत्ति क्या है। अपराधियों के हाथों सरकार के सतारूढ़ से सत्ताविहीन होने अच्छा है, क्यों न उन्हें ही सत्तासीन होने दिया जाए। कम से कम दुनिया ये तो नहीं कहेगी कि देखो, वहां सरकार को बेदखल कर आतंकियों ने कब्ज़ा कर लिया। हम शान से कह सकते हैं हम व्यर्थ की प्रक्रिया से नहीं गुज़रते। किसी का हक़ नहीं मारते। ज़्यादा से ज़्यादा होगा क्या ...तालिबान ने अगर 'शरीया कानून' लागू किया तो सत्ता में आने के बाद ये 'सरिया कानून' लागू कर देंगे। लेकिन इससे 'लोकतांत्रिक देश' होने के हमारे गौरव पर तो कोई आंच नहीं आएगी। वैसे भी हमारे यहां मान्यता है कि शासन करने के किसी और तरीके में सफल होने से कहीं बेहतर है कि लोकतांत्रिक रह भ्रष्ट और असफल हो जाना। अब इस लोकतंत्र की रक्षा अगर अपराधियों को ही करनी है तो ये ईश्वर की मर्ज़ी है!

फायदा नम्बर दो- जब सारे गुंडे-मवाली सत्ता में भागीदार हो सम्मानित जीवन बिताएंगे तो देश के बाकी अपराधियों की अक़्ल को क्या पाला मार जाएगा जो वो परम्परागत पेशे से चिपके रहेंगे। वो भी राजनीति में आ समाज की मुख्य धारा से जुड़ने की कोशिश करेंगे। वही ताकत, वही पैसा, वही रसूख जब कम झंझट में मिले, तो कोई अपराधी क्यों बने, सांसद न बने। राजनीतिक निरमा के डिटर्जेंट में नहाकर जब सफेदपोश होने का विकल्प मौजूदा होगा तो भला कौनसा अपराधी दागदार वस्त्र पहन शर्मिंदा होना चाहेगा। इस तरह जल्द ही राजनीति, जनसेवा के एक माध्यम से आगे बढ़कर, सुधार आश्रम में तब्दील हो जाएगी। ऐसा आश्रम, जहां प्रवेश कर गुंडे-मवाली आने वाले सालों में अपराधबोध से मुक्ति पाएंगे।

फायदा नम्बर तीन- अपराधियों के राजनीति में आने का सबसे बड़ा फायदा होगा क्रिकेट प्रेमियों को। आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवार अपनी इसी पृष्ठभूमि को 'यूएसपी' के तौर पर पेश करेंगे। जनता को समझाऐंगे कि 'संभावित ख़तरा' जब खुद सत्ता में आ जाएगा तो सुरक्षा कारणों से कोई टूर्नामेंट बाहर नहीं करवाना पड़ेगा। जनता भी जान जाएगी कि जो शख़्स सारी उम्र दूसरों के लिए ख़तरा रहा हो, वो खुद को ख़तरा बता कर कभी सुरक्षा की मांग नहीं करेगा। इससे उसी की मार्केट वैल्यू कम होगी।

यकीन मानिए दोस्तों इस देश में क्रिकेट की जैसी दीवानगी है उसे देखते हुए भविष्य में हर पार्टी चुन-चुन कर अपराधियों को टिकट देगी। संगीन अपराधों में जेल में बंद अपराधियों की लिस्ट मंगवायी जाएगी। अपराध की गंभीरता के आधार पर उम्मीदवारों की प्राथमिकता तय की जाएगी। चोर-लूटरों जैसे को तो दरवाज़े से ही भगा दिया जाएगा। हत्यारों, बलात्कारियों के पास प्रस्ताव ले पार्टी अध्यक्ष खुद थाने जाएंगें। टिकट के दावेदार झूठे मामलों की एफआइआर बनवा खुद को नामी अपराधी बताने की कोशिश करेंगे। प्रभाव पैदा करने के लिए वो नाम बदलने लगेंगे। जीवन बाबू, जलजला सिंह हो जाएंगे। गोवर्धन लाल खुद को गब्बर सिंह बताएंगे। पार्टियां स्टिंग ऑपरेशन कर विपक्षी उम्मीदवार के 'बेदाग' होने का भंडाफोड़ करेंगी। बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस एक सीडी जारी की जाएगी। आरोपित अपनी सफाई में 'खुद को बेदाग कहे जाने को' विपक्ष की साजिश बताएगा। ऐसे दौर में पार्टियों के नारे भी कुछ इस तरह होंगे..खूंखार नेता, बेरहम सरकार। ज़ालिम चेहरा, ज़ोरदार आवाज़....नेता चाहिए ऐसा आज।

ऐसा हुआ तो जल्द ही संसद में अपाराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की तादाद सौ फीसदी हो जाएगी। सांसद-विधायक से लेकर पंच-सरपंच तक सभी पदों पर भूतपूर्व गुंडे, लठैत, हत्यारे बलात्कारी विराजमान होंगे। तब सुरक्षा कारणों से कोई घरेलू टूर्नामेंट बाहर नहीं करना पड़ेगा। कोलकाता की टीम केपटाउन और जयपुर की टीम जोहानसबर्ग में नहीं खेलेगी। इसलिए राजनीतिक पार्टियां अगर आज अपराधियों को टिकट दे रही हैं तो इसके पीछे उनके बेशर्म स्वार्थ नहीं बल्कि दूरदर्शिता है, उनका बेपनाह क्रिकेट प्रेम है। इसलिए जो हो रहा है, होने दो। हम सही रास्ते पर जा रहे हैं।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

अरमानों का अभिनय!

ख़बर है कि देवानंद की आगामी फिल्म 'चार्जशीट' में अमर सिंह गृहमंत्री की भूमिका निभा रहे हैं। अमर सिंह का कहना है कि देवानंद साहब ने उनसे सम्पर्क किया और वो मना नहीं कर सके। ख़बर पढ़ मेरे ज़ेहन में अनेक सवाल कौंधने लगे हैं। पहला ये कि जिस तरह मॉडल अपनी पहली ही फिल्म में मॉडल की भूमिका करती है तो उसके सामने कोई चुनौती नहीं होती। उसी तरह अगर नेता पहली फिल्म में नेता का ही रोल करता है तो उसके लिए क्या चुनौती होगी। उसे चुनौती लेनी ही है तो वो किसी फिल्म में 'इंसान' की भूमिका करे। फिल्म के माध्यम से ही सही कम से कम लोग को ये तो लगे कि ये भी हमारी तरह एक इंसान है! दूसरी बात ये कि फिल्म में अगर गृहमंत्री की कोई भूमिका थी तो इसके लिए शिवराज पाटिल को अप्रोच क्यों नहीं किया गया। उनसे पास फुरसत भी है और अनुभव भी। वैसे भी गृहमंत्री रहते हुए भी तो वो गृहमंत्री का अभिनय ही कर रहे थे। ऊपर से ग्लैमर को लेकर उनकी चाहत भी है और कपड़े बदलने का उन्हें शौक भी। मगर उन्हें इस रोल में लेने का एक नुकसान ये होता कि जनता पहले से जान जाती कि इस फिल्म में गृहमंत्री नेगिटिव रोल कर रहा है!


खैर, नेताओं के फिल्म में काम करने का ये विचार मुझे लगातार रोमांचित कर रहा है। अब भगवान न करें (बीजेपी का भगवान) आडवाणी साहब अब भी प्रधानमंत्री न बन पाए तो उनके सामने एक ही उपाय होगा कि वो किसी फिल्म में प्रधानमंत्री बन जाएं। ऐसा शख़्स जो शुरू में ग़लत मान लिया गया है मगर बाद में पूरा देश उसका जलवा देखता है। वो ग़लत मान लिए गए हैं, ये हक़ीकत है। दुनिया उनका जलवा देखे, ये उनकी ख़्वाहिश है। ऐसे में प्रधानमंत्री न बनने पर सिर्फ फिल्म के माध्यम से ही दुनिया उनका जलवा देख पाए तो इसमें बुराई क्या है।

इसी तरह देश के तमाम नेता अपनी सारी भड़ास या अरमान फिल्म में रोल कर निकाल सकते हैं। जैसे-लालू यादव किसी भोजपुरी फिल्म में प्रधानमंत्री की भूमिका कर सकते हैं। उनके साले साधु यादव किसी फिल्म में बागी साले का रोल कर सकते हैं। ऐसा साला जो हर हाल में अपने जीजा को सबक सीखाना चाहता है। फिल्म का नाम होगा....स्साला जीजा! आरएलडी सुप्रीमो अजित सिंह को भी सिद्धांत-विवादी आदमी की भूमिका ऑफर की जा सकती है। फिल्म का नाम होगा-यत्र तत्र सर्वत्र! इसी तरह वरूण गांधी भी महात्मा गांधी पर बनी एक फिल्म के सिक्वल में आ सकते हैं। सिक्वल का नाम होगा- मैंने गांधी को भी नहीं छोड़ा! एंड लास्ट बट नॉट द लीस्ट अर्जुन सिंह भी कांग्रेस अध्यक्ष की अनुमति के बाद किसी फिल्म में राष्ट्रपति का रोल कर सकते हैं। सुधी पाठकों को यहां बताना ज़रूरी है कि पुराने कांग्रेसी काल्पनिक भूमिकाएं भी पार्टी प्रमुख की सहमति के बाद निभाते हैं। यहां तक कि सपने में भी खुद को किसी बड़े पद पर बैठ देख लें तो अगले दिन दस जनपथ पर जा कर माफी मांगते हैं।

(दैनिक हिंदुस्तान, 10 अप्रेल,2009)

(सौंवी प्रकाशित रचना)

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

ऐसे मिलेगा योग्य उम्मीदवार! (हास्य-व्यंग्य)

हर उम्मीदवार से लोगों को कुछ न कुछ शिकायत रहती है और यही शिकायत बाद में उन्हें वोटिंग के प्रति उदासीन बनाती हैं। मसलन, नेता जी दावा तो करते हैं कि वो पांच साल में इलाके का नक्शा बदल देंगे मगर उनकी हालत देख लगता नहीं कि पांच महीने भी और निकाल पाएंगें। वो कहते तो हैं कि गुंडागर्दी ख़त्म कर देंगे, मगर वो खुद फॉर्म से भरने से दो दिन पहले ज़मानत पर रिहा हुए हैं। राजनीति में निष्ठा की महत्ता पर दो-दो घंटे भाषण दे सकते हैं, बावजूद इसके की वो हर बडी पार्टी में छे-छे महीने प्रोबेशन पर बीता आए हैं। ऐसे में सवाल ये है कि क्या इसी तरह छले जाना हमारी नियति है या फिर चारा घोटाले के इतने सालों बाद भी पास कोई चारा बचा है। मेरी समझ में इसका एक इलाज ये है कि स्कूल विद्यार्थियों की तरह नेताओं के भी कुछ टेस्ट लिए जाएं। उसके बाद ही उनकी उम्मीदवारी फाइनल की जाए। कुछ संभावित टेस्ट या सर्टिफिकेट इस तरह से हो सकते हैं।

मेडिकल टेस्ट-जिस तरह बीमा कम्पनियां बीमा करने से पहले हमारे मेडिकल टेस्ट करवाती हैं उसी तरह नामांकन से पहले चुनाव आयोग सभी उम्मीदवारों के मेडिकल करवाए। आख़िर जनता को पता तो हो कि जो शख़्स उनके जीवन की गारंटी ले रहा है खुद उसकी क्या गारंटी है। लिहाज़ा नेताओं से उनकी ब्लैड प्रशेर रिपोर्ट, डायबिटिक रिपोर्ट और एनजियोग्राफी का ब्यौरा मांगा जाए। उनसे पूछा जाए कि तुम्हें कोई बड़ी बीमारी तो नहीं। है तो कब से है। नेताओं में सबसे बड़ी बीमारी मानी जाती है... शॉर्ट टर्म मैमरी लॉस। एक सर्वे के मुताबिक आज़ादी के बाद से तिहतर फीसदी भारतीय सांसद शॉर्ट टर्म मैमरी ल़ॉस का शिकार पाए गए हैं। गजनी के आमिर से ये बीमारी इस तरह अलग है कि उन्हें सिर्फ पंद्रह मिनट ही सब याद रहता था और फिर भूल जाते थे। वही नेताओं को चुनाव से पंद्रह दिन पहले सब याद आ जाता है और फिर पांच साल तक सब भूल जाते हैं। इस तरह नेताओं में ये बीमारी शॉर्ट टर्म और लांग टर्म मैमरी लॉस के रूप में बारी-बारी काम करती है। मेडिकल साइंस अगर इतने सालों में कैंसर का इलाज नहीं ढूंढ पाई तो पॉल्टिक्ल साइंस सैंकड़ों सालों भी नेताओं के शॉर्ट टर्म मैमरी लॉस का कुछ नहीं उखाड़ पाई।

कैरेक्टर सर्टिफिकेट- न दिखाई देने के बावजूद राजनीति में चरित्र की आवश्यकता हमेशा से रही है...लिहाज़ा....नामांकन से पहले नेताओं से उनका चरित्र प्रमाण पत्र मांगा जाए। मगर इस अनिवार्यता के पीछे दिक्कत ये है कि चरित्र प्रमाण पत्र स्कूल-कॉलेज जारी करते हैं और ज़्यादातर भारतीय नेता शिक्षा के दकियानूसी विचार से असहमत होने के चलते जीवनपर्यंत स्कूल का रूख नहीं करते। ऐसे में इन नेताओं से कहा जाए कि जिन-जिन मौहल्लों में ये आज तक रहे हैं वहां कि लड़कियों से 'नो ऑब्जैक्शन' सर्टिफिकेट ले कर आएं। जब वो लिख कर दे दें कि ये शख़्स जो सांसद बनने की हसरत पाले है.. इसने आज तक मेरे साथ कभी कोई छिछोरी हरकत नहीं की, तभी उनकी उम्मीदवारी पर आयोग विचार करें।

वाणी सर्टिफिकेट- आप कन्फयूज न हो, ये वो सर्टिफिकेट नहीं है जो प्रसार भारती जारी करती है। दरअसल वैश्विक मंदी का सीधा असर हमारे नेताओं की अक्ल-मंदी पर भी पड़ा है। इसलिए जब भी वो कुछ बोलने लगते हैं उनका दिमाग उनकी ज़ुबान का साथ छोड़ देता है नतीजतन वो कुछ ऐसा कह देते हैं जिस पर टीवी में बीप की आवाज़ आती है और अख़बार में***** डालना पड़ता है। इसलिए ज़रूरी है कि इन नेताओं को इनके विपक्षी की तस्वीर दिखा नॉन स्टॉप पांच मिनट तक बोलने के लिए कहा जाए। अब हमारे नेताओं में भाषा और गालियों के जैसे संस्कार है उसमें वो दो मिनट तक तो सभ्यता का ढोंग कर सकते हैं मगर तीसरे मिनट ही वो 'अपनी वाली' पर उतर आएंगे। इस अपनी वाली को पकड़ने के लिए ही ये वाणी सर्टिफिकेट जारी किया जाएं।

नार्को टेस्ट-जिस तरह हर क़त्ल के पीछे मक़सद होता है। उसी तरफ राजनेता के हर क़दम के पीछे एक मकसद होता है। अब नेता से ये उम्मीद करना कि वो कभी असल मक़सद बता देंगा, मूर्खता होगा। लिहाज़ा ये ज़रूरी है कि नेताओं का वक़्त-वक्त पर नार्को टेस्ट करवाया जाए। पारदर्शिता के लिए इस नार्कों टेस्ट का टीवी पर लाइव प्रसारण हो। जनता जाने कि फलां जी ने आख़िर क्यों अपनी पार्टी छोड़ी। क्यों वो ए समूह को लतिया बी की गोद में जा बैठे हैं। ये साफ हो पाए कि उनकी सीडी से छेड़खानी की गई है या वो सच में ऐसा सोचते हैं। क्या सच में साम्प्रदायिक ताकतों को हराना ढिमकाना जी का उनका मक़सद है या फिर तीसरे मोर्चे के अस्तित्व में आने के बाद वो ब्लैकमेलिंक की रणनीति अपना रहे हैं। उसी तरह अगर नेता अचानक अपनी कोई ग़लती कबूल कर लें तो मंच पर ही उसका अल्कोहल टेस्ट होना चाहिए जिससे पता चल सकें कि कहीं वो नशे में तो नहीं है।