मंगलवार, 30 जून 2009

होनी ने बनने नहीं दिया धोनी!

क्रिकेट में हर बड़ी हार के बाद औसत भारतीय नौजवान बिना किसी बाहरी दबाव के एक ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है। वो ये कि-इनसे कुछ नहीं होगा, अब मुझे ही कुछ करना पड़ेगा। भले ही गली की टीम में उसकी जगह पक्की न हो, मगर वो मानता है कि इस देश में अगर कोई ऐसा प्रतिभावान, ऊर्जावान, पहलवान माई का लाल है, तो वो मेरी ही माई का है।

इस लिहाज़ से टीम इंडिया की ट्वेंटी-ट्वेंटी विश्वकप में हुई हार का कुछ हद तक मैं भी ज़िम्मेदार हूं। मगर, यकीन मानिए दोस्तों, इसके लिए पूरी तरह मैं भी कसूरवार नहीं हूं। जोश मुझमें भी खूब था, बिना फोटोशॉप में गए टीम इंडिया की तस्वीर मैं भी बदलना चाहता था, मगर हालात कभी मेरे साथ नहीं रहे।

बचपन में जब ये बात संज्ञान में आई कि मैं एक ऐसे देश में पैदा हुआ हूं जहां नागरिकता का सबूत देने के लिए क्रिकेट खेलना ज़रूरी है, तो मैंने भी देशभक्ति दिखाई। शुरूआत लकड़ी के ऐसे टुकड़े से हुई, इत्तेफाक से जिससे घर में कपड़े भी धुलते थे। मां उससे कपड़े धोती और मैं गेंदबाज़। इलाके की दुकानों और मेरे शब्दकोष में उस समय तक क्रिकेट बैट का कोई वजूद नहीं था। शुरूआती क्रिकेट करियर उसी थापे के सहारे आगे बढ़ा। फिर कद बढ़ा तो बड़े बल्ले की ज़रूरत महसूस हुई। अपने-अपने मां-बाप से झगड़कर गली के दस-एक लड़कों ने मिलकर ‘एक बैट’ खरीदा।

खेलते समय हम आईसीसी के किसी नियम के दबाव में नहीं आते थे। खिलाड़ियों की संख्या इस बात पर निर्भर करती कि कितनों के बाप घर पर हैं और कितनों के काम पर। गली में दाएं-बाएं घर थे लिहाज़ा, कवर ड्राइव और ऑन ड्राइव की मनाही थी। हम सिर्फ मुंह और गेंद उठा सामने मार सकते थे। उसमें भी कुछ ऐसे घरों में गेंद जाने पर आउट रखा था, जहां गेंद के बदले गालियां मिलती थीं।

कोलतार की सड़क अब भी हमारे लिए अफवाह थी। कच्ची सड़क पर जगह-जगह गड्ढे रहते। उन्हीं गड्ढों में अपनी योग्यता के हिसाब से निशान साध हम लेग स्पिन और ऑफ स्पिन करते। गेंदबाज़ी एक्शन में अपने पसंदीदा गेंदबाज़ों की घटिया नकल करते। गली क्रिकेट के दौरान बरसों तक मैं खुद को महान स्पिनर मानता रहा। मगर इस बीच हमारे यहां पक्की सड़क का आगमन हुआ। सड़क से गड्ढे और गेंदों से स्पिन गायब हो गई। तब पहली बार मुझे एहसास हुआ कि इस देश का पूरे का पूरा सिस्टम उभरती प्रतिभाओं को दबाने में लगा है।

ऐसे किसी दबाव को नकार हम गली से कूच कर मैदान पहुंचे। किसी को इंसान कहने के लिए जिस तरह उसमें अक्ल अनिवार्य शर्त नहीं है, उसी तरह बिना घास, बिना पिच और स्टैंड्स के इसे भी क्रिकेट स्टेडियम कहा जाता था। शहर के सभी लड़के अपनी भड़ास यहीं निकालते। क्रिकेट की जिन बारीकियों पर जानकर घंटों बहस करते हैं जैसे-बल्लेबाज़ का फुटवर्क, गेंदबाज़ का सीधा कंधा, हमें ज़रा भी प्रभावित नहीं करतीं। नियम इंसान की सहज बुद्धि ख़त्म कर देता है, ये मान हम ‘अपने तरीके’ से खेलते। फिसड्डी बल्लेबाज़, पैदल गेंदबाज़ों की बैंड बजाते और खुद को ब्रैडमैन मानते। थके हुए गेंदबाज़ खुद से ज़्यादा थके हुओं की पिटाई कर मुगालतों में जीते।

इन्हीं मुगालतों को सीने से लगाए हम टीवी पर क्रिकेट मैच भी देखते। टीम की हर हार पर उसे चुन-चुन कर गालियां देते। यही सोचते कि जब मैं स्टेडियम में कोदूमल की गेंदों की धज्जियां उड़ा सकता हूं तो भारतीय बल्लेबाज़ एम्ब्रोज़ की रेल क्यों नहीं बना सकते। हमारी नज़र में नाई मौहल्ले के बिल्लू रंगीला और ऑस्ट्रेलिया के ब्रेट ली में कोई फर्क नहीं था। इस तरह अपने-अपने विश्वास से हम टीम इंडिया में चुने जाने की कगार पर थे। मगर तभी हमारे सारे सपने एक ही झटके में सूली पर चढ़ गए। कथित स्टेडियम में नई धान मंडी ट्रांसफर कर दी गई। विकेटों की जगह ट्रक और खिलाड़ियों की जगह आढ़तियों ने ले ली। जिस स्टेडियम से हम गेंदों को बाहर फेंकते थे, जल्द ही हमें उससे बाहर फेंक दिया गया। आज भी सोचता हूं तो लगता है कि शायद होनी को मेरा धोनी बनना मंज़ूर ही नहीं था।

सोमवार, 22 जून 2009

इस शहर में हम भी भेड़ें हैं!

ब्लूलाइन में घुसते ही मेरी नज़र जिस शख़्स पर पड़ी है, बस में उसका डेज़ीग्नेशन कन्डक्टर का है। पहली नज़र में जान गया हूं कि सफाई से इसका विद्रोह है और नहाने के सामन्ती विचार में इसकी कोई आस्था नहीं । सुर्ख होंठ उसके तम्बाकू प्रेम की गवाही दे रहे हैं और बढ़े हुए नाखून भ्रम पैदा करते हैं कि शायद इसे ‘नेलकटर’ के अविष्कार की जानकारी नहीं है।

इससे पहले कि मैं सीधा होऊं वो चिल्लाता है- टिकट। मुझे गुस्सा आता है। भइया, तमीज़ से तो बोलो। वो ऊखड़ता है, 'तमीज़ से ही तो बोल रहा हूं।' अब मुझे गुस्सा नहीं, तरस आता है। किसी ने तमीज़ के बारे में शायद उसे 'मिसइन्फार्म' किया है !

टिकिट ले बस में मैं अपने अक्षांश-देशांतर समझने की कोशिश कर ही रहा हूं कि वो फिर तमीज़ से चिल्लाता है-आगे चलो। मैं हैरान हूं ये कौन सा 'आगे' है, जो मुझे दिखाई नहीं दे रहा। आगे तो एक जनाब की गर्दन नज़र आ रही है। इतने में पीछे से ज़ोर का धक्का लगता है। मैं आंख बंद कर खुद को धक्के के हवाले कर देता हूं। आंख खोलता हूं तो वही गर्दन मेरे सामने है। लेकिन मुझे यकीन है कि मैं आगे आ गया हूं, क्योंकि कंडक्टर के चिल्लाने की आवाज़ अब पीछे से आ रही है!

कुछ ही पल में मैं जान जाता हूं कि सांस आती नहीं लेना पड़ती है....मैं सांस लेने की कोशिश कर रहा हूं मगर वो नहीं आ रही। शायद मुझे आक्सीज़न सिलेंडर घर से लाना चाहिये था। लेकिन यहां तो मेरे खड़े होने की जगह नहीं, सिलेंडर कहां रखता।

मैं देखता हूं लेडीज़ सीटों पर कई जेन्ट्स बैठे हैं। महिलाएं कहती हैं कि भाईसाहब खड़े हो जाओ, मगर वो खड़े नहीं होते। उन्होंने जान लिया है कि बेशर्मी से जीने के कई फायदे हैं। वैसे भी 'भाईसाहब' कहने के बाद तो वो बिल्कुल खड़े नहीं होंगे। खैर.. कुछ पुरुष महिलाओं से भी सटे खड़े हैं, और मन ही मन 'भारी भीड़' को धन्यवाद दे रहे हैं!

इस बीच ड्राइवर अचानक ब्रेक लगाता है। मेरा हाथ किसी के सिर पर लगता है। वो चिल्लाता है। ढंग से खड़े रहो। आशावाद की इस विकराल अपील से मैं सहम जाता हूं। पचास सीटों वाली बस में ढाई सौ लोग भरे हैं और ये जनाब मुझसे 'ढंग' की उम्मीद कर रहे हैं। मैं चिल्लाता हूं - जनाब आपको किसी ने गलत सूचना दी है। मैं सर्कस में रस्सी पर चलने का करतब नहीं दिखाता। वो चुप हो जाता है। बाकी के सफर में उसे इस बात की रीज़निंग करनी है।

बस की इस बेबसी में मेरे अंदर अध्यात्म जागने लगा है। सोच रहा हूं पुनर्जन्म की थ्योरी सही है। हो न हो पिछले जन्म के कुकर्मों की सज़ा इंसान को अगले जन्म में ज़रुर भुगतनी पड़ती है। लेकिन तभी लगता है कि इस धारणा का उजला पक्ष भी है। अगर मैं इस जन्म में भी पाप कर रहा हूं तो मुझे घबराना नहीं चाहिये.... ब्लूलाइन के सफर के बाद नर्क में मेरे लिए अब कोई सरप्राइज नहीं हो सकता !

बहरहाल....स्टैण्ड देखने के लिए गर्दन झुकाकर बाहर देखता हूं। बाहर काफी ट्रैफिक है... कुछ समझ नहीं पा रहा कहां हूं। तभी मेरी नज़र भेड़ों से भरे एक ट्रक पर पड़ती है। एक साथ कई भेड़ें बड़ी उत्सुकता से बस देख रही हैं। एक पल के लिए लगा.... शायद मन ही मन वो सोच रही हैं.....भेड़ें तो हम हैं!

शनिवार, 20 जून 2009

सरकारी लापरवाहियों का सौंदर्यशास्त्र!

कुछ दिन पहले मध्यप्रदेश के एक सरकारी स्कूल में मिड डे मील में मेंढक मिला जिस पर खूब हाय-तौबा मची। ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई की बात की गई। स्कूल बंद करवाने की मांग तक उठी। इससे पहले कि मैं मेंढक की प्रजाति और मेन्यू में आई तब्दीली पर विचार करता, एक और धमाका हो गया। झारखंड के एक शासकीय स्कूल में मिड डे मील में सांप पाया गया और इंदौर के एक स्कूल में छिपकली। मैं सोचने लगा कि कैसा दिलचस्प नज़ारा है। बारहवीं में साइंस स्टूडेंट छाती पीट-पीट मर जाते हैं कि सर, प्रेक्टिल के लिए मेंढक दिलवा दो, मगर नहीं मिलता। देशभर के सपेरे जंगलों में सीसीटीवी कैमरे लगा डिजिटल बीन की धुन पर सांप खोजते हैं पर नहीं ढूंढ पाते। और इत्तेफाक देखिए कि वो मिड डे मील की थाली में मिल जाते हैं। साग की जगह सांप और मटर की जगह मेंढक। सरकार कहती है कि हम मुम्बई को शंघाई बना देंगे, विकास दर को चीन के बराबर ले आएंगे। मुझे लगता है और किसी मामले में हम चीन बनें न बनें, सांप और मेंढक डाल अपनी थाली को ज़रूर चीनी थाली बना देंगे। और ऐसा हुआ तो आने वाले दिनों में कछुआ और खरगोश बच्चों को कहानियों में ही नहीं, खाने की थाली में भी मिलेंगे।

दोस्तों, सवाल थाली और उस पर पड़ने वाली गाली का नहीं है बल्कि उससे आगे सरकारी लापरवाहियों के हुस्न का है। मैं देखता हूं कि इन लापरवाहियों में भी ख़ास तरह की सतर्कता बरती जाती है। मसलन, सांप की जगह खाने में मछली भी तो निकल सकती थी। चूंकि मछली हमारे यहां खाई जाती है, इसलिए नहीं निकली। उसी तरह मेंढक की जगह मुर्गा भी निकल सकता था। अब मुर्गा चूंकि बच्चों को बनाया जाता है, खिलाया नहीं इसलिए नहीं निकला।


हमारे मोहल्ले में एक दुकानदार हुआ करते थे। उनका नाम था बनवारी लाल। सौदा लेने के बाद अक्सर वो बकाया पैसों में हेरफेर करते थे। एक बार मैंने शिकायत की तो कहने लगे बेटा चूक हो जाती है। मैंने कहा-लाला जी, हमेशा कम की चूक क्यों होती है, ज़्यादा की तो नहीं होती। ग़लती से कभी चालीस की बजाए एक सौ चालीस तो नहीं लौटाए। खिंचाई के बाद लाला जी सतर्क हो गए। इसके बाद उन्होंने ऐसी बदमाशी नहीं की।

मगर सरकारी तंत्र में जो बनवारी लाल बैठे हैं, उनकी खाल थोड़ी मोटी है। अपनी अल्पसमझ से मैं कभी नहीं जान पाया कि बिजली के बिल हमेशा ग़लती से ज़्यादा ही क्यों आते हैं, ग़लती से कम भी तो आ सकते हैं। गरीब किसान को मुआवज़े का चैक कम क्यों मिलता है, ज़्यादा का भी तो मिल सकता है। ये किस ग्रह की बदमाशी है जो गरीब आदमी को राशन की दुकान से लाल गेंहू तो दिलवाती है मगर धरती के इस गरीब लाल को बासमती चावल नहीं दिलाती। ग़लती से भी इस तंत्र से ऐसी कोई ग़लती क्यों नहीं होती, जो जनता को फलती हो, मसलती न हो। इसलिए मैं चाहता हूं कि इस पूरे तंत्र का नारको टेस्ट करवा ये पता लगाया जाए कि इसके अवचेतन मन की आखिर कौन सी बुनावट है जो इसे भूलकर भी अपना नुकसान और जनता का भला नहीं करने देती।

मैं सरकार से गुज़ारिश करता हूं कि अब से हर ग़लती की सफाई में वो ‘भूलवश’ के बजाए ‘भूलवंश’ शब्द का इस्तेमाल करे क्योंकि यहां ग़लतियां व्यक्तिगत नहीं वंशवादी समस्या है। सरकारी तंत्र का लापरवाह वंश। और यह वंश सरकार गठन में हो या सरकारी तंत्र के चलन में, इस देश में हमेशा से रहा है।

शुक्रवार, 19 जून 2009

गत विजेता की गत!

मैं चेतावनी जारी करता हूं कि मेरे आस-पास जितने भी लोग हैं, सावधान हो जाएं। इंडियन टीम का तो मैं कुछ नहीं बिगाड़ सकता मगर मेरी रेंज में आने वालों ने अगर बद्तमीज़ी की, तो उनकी खैर नहीं। किराने वाला जान ले कि राशन देने में उसने ज़्यादा वक़्त लगाया तो अपने सार्वजनिक जुलूस का वो खुद ज़िम्मेदार होगा। वहीं दूध वाला एक से ज़्यादा घंटी न बजाए, कचरे वाला जल्दी आ नींद का कचरा न करे, पड़ोसी घर के आगे कार न लगाएं और दफ्तर की राह के सभी राहगीर चलते वक़्त तमीज़ का परिचय दें, वरना वो मेरे भन्नाए सिर और खौलते खून की बलि चढ़ जाएंगे।

दोस्तों, टीम इंडिया ने जितनी बार हार कर अपना मुंह काला करवाया, मां काली की कसम, उसे हारता देख उतनी ही रातें मैंने भी काली की। दसियों बार चेहरे पर पानी के छींटें फेंक, तेज़ पत्ती की चाय पी, खुद को जैसे-तैसे इस उम्मीद में जगाए रखना कि प्यारे, आज वो होगा जो अब तक नहीं हुआ, और फिर वही होना जो अब तक होता आया है, बड़ी तकलीफ देता है। और ये तकलीफ, सौजन्य टीम इंडिया, एक नहीं, तीन-तीन बार सहनी पड़ी। पिछले तेईस साल से खुद को बाईस का बताने वाले लौंडे जब गेंद के पीछे भागते थे तो लगता था मानो ये बाईस के नहीं एक सौ बाईस साल के हैं। तेज़ गेंदबाज़ों की गेंद हाथ से छूटने और बल्लेबाज़ तक पहुंचने में इतना वक़्त लेती थी कि बल्लेबाज़ चाहे तो अलार्म लगा कर सो जाए, और जब उठे, तो स्नूज़ लगा कर फिर सो जाए!

भाई लोगों, कहीं तो उम्मीद छोड़ी होती। वेस्टइंडीज़ के खिलाफ तुम पहले बल्लेबाज़ी कर हारे तो अफ्रीका के खिलाफ बाद में। इंग्लैंड के तेज़ गेंदबाज़ों से पिटे तो अफ्रीका के स्पिनरों से। न तुम तेज़ गेंदबाज़ी खेल पाए, न स्पिन और ये गली क्रिकेट तो था नहीं जो तुम्हें कोई अंडरआर्म गेंद फेंकता। हार पर तुमने जितने बहाने बनाए, उसके आधे भी रन बनाए होते और विज्ञापनों में जितनी देर दिखाई दिए, उसका दसवां हिस्सा भी क्रीज पर दिखते, तो ये हश्र नहीं होता। ‘कान महोत्सव’ तो तुम शायद कभी नहीं गए होंगे मगर तुम्हारे झुके कंधे और ढीली फील्डिंग देख यही लगा कि तुम ‘थकान महोत्सव’ में शिरकत करने आए हो। तुमसे बढ़िया तो महिला टीम निकली जो सेमीफाइनल तक तो पहुंची। शर्माओ मत, बता दो, अगर वाकई थक गए हो तो वेस्टइंडीज़ दौरे पर तुम्हारी जगह महिला टीम भेज देते हैं। वैसे भी मर्दों को औरतों की तरह खेलते देखने से अच्छा है, क्यों न सीधे उन्हें ही खेलते देखा जाए।

बुधवार, 17 जून 2009

किस रिएलिटी शो में जाऊं मैं!

दौलत और शोहरत की मुझे बरसों से तमन्ना है। वैसे भी इंसान उसी चीज़ की तमन्ना करता है जो उसके पास नहीं होती। यूं तो अक्ल भी मेरे पास नहीं है, मगर वो आ जाए ऐसी कोई ख़्वाहिश भी नहीं। ख्वाहिश, पैसे और पॉपुलेरिटी की है मगर हासिल कैसे करूं, तय नहीं कर पा रहा। मौजूदा तनख्वाह में, आगामी दस सालों के लिए, सालाना दस फीसदी की बढ़ोतरी जोड़ूं, और उसमें से खर्च घटाऊं, तो कुल जमा कुछ हज़ार रूपये ही मेरे बचत खाते में बचेंगे और इसी अनुपात में लोकप्रियता बढ़ी तो इन दस सालों में तीस-चालीस नए लोग ही मुझे जान पाएंगे। मतलब ये कि मौजूदा पेस पर दस सालों में कुछ हज़ार रूपये और अपनी प्रतिभा से कायल या घायल हुए तीस-चालीस लोगों की कुल जमा-पूंजी ही मेरे पास होगी, जो मुझे कतई मंज़ूर नहीं है। मैं चाहता हूं कि जल्द ही मेरे पास लाखों रूपये हों, करोड़ों दीवाने हों, जिसमें भी दीवानियों की संख्या ज़्यादा हो, टीवी-अख़बार, हर जगह मेरा इंटरव्यू हो, देश का हर बच्चा-बूढ़ा मेरा ही नाम लेकर सोए, और हर जवां लड़की मेरी ही तस्वीर देख जागे।

जब मैंने अपनी ये ख्वाहिश मित्र को बताई तो उसने कहा कि इसका एक ही तरीका है, किसी रिएलिटी शो में चले जाओ। टीवी पर मेनली तीन तरह के रिएलिटी शो आते हैं। गाने का, नाचने का या अन्य किसी नायाब किस्म की मूर्खता का। सोचने लगा कि मैं इनमें से किस रिएलिटी शो में जा सकता हूं। जहां तक गाने का सवाल है, उससे जुड़ा मेरा और उनका, जिन्होंने मेरा गाना सुना, अनुभव अच्छा नहीं रहा। मुझे याद है जब पहला इंडियन आइडल देख मुझे भी रातोंरात सिंगर बनने का जोश चढ़ा था। सुबह चार बजे मैंने भी रियाज़ शुरू किया मगर क्या देखता हूं। पड़ौस के अंकल हाथ में फायर एक्सटिंग्विशर लिए दरवाज़ा तोड़ते हुए हमारे घर के अंदर घुस आए। मैं एकदम घबरा गया। मुझे लगा शायद कोई मानव बम है। इससे पहले कि मैं उनसे कुछ पूछता, वो बोले-कहां लगी है आग? मैंने कहा-कहीं नहीं। मगर अभी तो मुझे चिल्लाने की आवाज़ आ रही थी। मैंने कहा-शायद आपको कुछ ग़लतफहमी हुई है। वो चिल्लाने की नहीं, मेरे गाने की आवाज़ थी। अंकल बोले-बेटा! ग़लतफहमी मुझे नहीं तुम्हें हुई है, वो गाने की नहीं, चिल्लाने की ही आवाज़ थी!

इससे पहले कॉलेज में भी एक बार ऐसा हादसा हुआ था। मित्रों के प्रोत्साहन पर, बाद में पता चला कि उन्होंने मज़े लिए थे, मैंने सालाना फंक्शन में गायन प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था। जैसे ही मैंने गाना शुरू किया जनता तो जनता वहां मौजूदा कौओं तक ने अपने कान बंद कर लिए, बाग के फूल मुरझाने लगे, कुत्ते भौंकने लगे और माइक में शॉर्ट सर्किट के बाद धुंआ निकलने लगा। कार्यक्रम संचालक ने बीच गाने में आकर मेरे कान में कहा कि हम वादा करते हैं कि पहला पुरस्कार तुम्हें ही देंगे, मगर भगवान के लिए अभी-इसी वक़्त गाना बंद कर दो।

इसी तरह के कुछ और वादों से आहत हो मैंने तय किया कि संगीत की शिक्षा लूंगा। इसी सिलसिले में एक गुरूजी के पास पहुंचा। अपनी महत्वाकांक्षाएं सामने रख उनसे शिक्षा देने का आग्रह किया। उन्होंने पहले नमूना पेश करने को कहा। नमूने की मैं दूसरी पंक्ति ही सुना रहा था कि उन्होंने हाथ उठा चुप होने का इशारा किया। मुझे लगा चावल का एक दाना देख उन्होंने पूरी हांडी का अंदाज़ा लिया है। गुरूजी कैसा लगा-मैंने बेसब्री से पूछा। गुरूजी (कुछ सैकिंड पॉज़ के बाद)-बेटा, तुम में प्रतिभा तो बहुत छिपी है मगर मानवजाति की भलाई इसी में है कि तुम उसे छिपा कर ही रखो!

इसके बाद मैंने तय किया कि अपनी गायन प्रतिभा के रहस्य को कभी उजागर नहीं करूंगा। लिहाज़ा ये ऑप्शन मेरी लिए ख़त्म हो गया। रही डांस की बात। तो लाख चाह कर भी उस पर चांस मारने की हिम्मत नहीं पड़ती। डांसने के लिए पैर चलने बहुत ज़रूरी है। कुछ-एक नचनिया टाइप मित्रों ने सिखाने की कोशिश भी की मगर उन्हें भी लगा कि ‘भारी न होने के बावजूद’ हिलने के मामले में मेरे पांव अंगद के समान हैं।

कुल मिलाकर दोस्तों, तय नहीं कर पा रहा हूं किस रिएलटी शो में जाऊं। सिगिंग-डांसिंग मेरे बस की नहीं है। आख़िर में यही लगता है कि बेमतलब बातों की अंतहीन सड़क पर आवारा-निकम्मे दोस्तों के साथ बेहिसाब दौड़ने का मेरे पास बेशुमार अनुभव है। पांव चलें न चलें, ज़बान खूब चलती है। कभी ज़बान चलाने का कोई रिएलिटी शो हो तो बताइएगा, फिर कोशिश करेंगे।

सोमवार, 15 जून 2009

प्यार के साइड इफेक्ट्स!

कॉलेज चुनने को लेकर लड़कों के सामने एक सवाल यह भी होता है कि गर्लफ्रेंड किस कॉलेज में जा रही है। वो कौन-सा सब्जेक्ट ले रही है। अच्छे-भले पढ़ाकू भी प्यार में बेकाबू हो जाते हैं। बनना तो कलेक्टर चाहते थे, मगर दाखिला होम साइंस मे ले लिया। इस पर भी मज़ा ये कि जिस रुपमती के लिए करियर दांव पर लगा दिया, उसे कानों-कान इसकी ख़बर नहीं।


चार साल स्कूल में साथ गुज़ारे। कॉपियों के पीछे तीर वाला दिल बना उसका नाम लिखा। दोस्तों में उसे ‘तुम्हारी भाभी’ कहा। स्कूल में ही पढ़ने वाले ‘उसकी सहेली के भाई’ से दोस्ती की। उसी मास्टर से ट्यूशन पढ़ी जहां वो जाती थी। इस हसरत में कि घंटा और पास रहेंगे, बावजूद इसके बात करने की हिम्मत नहीं।

फिर एक रोज़ ‘प्रेम पत्रों के प्रेमचंद’ टाइप एक लड़के से लैटर लिखवाया। सोचा, आज दूं, कल दूं, स्कूल में दूं या बाहर दूं। डायरेक्ट दूं या सहेली के भाई से कूरियर करवाऊं जिससे इसी दिन के लिए दोस्ती गांठी थी। मगर किया कुछ नहीं। बटुए में पड़े-पड़े ख़त की स्याही फैल गई। पता जानने के बावजूद उसकी डिलीवरी नहीं हो पाई। वो पर्स में ही पड़ा रहा। और ये बेचारा बिना महबूब का नाम पुकारे हाथ फैलाए खड़ा रहा।


मगर अब कॉलेज में पहुंचे गए हैं। दोस्तों ने कहा रणनीति में बदलाव लाओ। रिश्ते की हालत सुधारना चाहते हो तो पहले अपना हुलिया सुधारो। दर्जी से पैंटें सिलवाना बंद करो, रेडीमेड लाओ। अपनी औकात भूल आप उनकी बात मानते हैं। बरबादी के जिस सफर पर आप निकले हैं उस राह में हाइवे आ चुका है। आप गाड़ी को चौथे गीयर में डालते हैं।

और इसी क्रम में आप गाड़ी के लिए बाप से झगड़ा करते हैं। वो कहते हैं कि बाइक की क्या ज़रुरत है? 623 कॉलेज के आगे उतारती है। इस ख़्याल से ही आप भन्ना जाते हैं। अगर उसने बस से उतरते देख लिया तब वो मेरे वर्तमान से अपने भविष्य का क्या अंदाज़ा लगाएगी। आप ज़िद्द करते हैं। मगर वो नहीं मानते। आप इस महान नतीजे पर पहुंचते हैं कि सैटिंग न होने की असली वजह मेरा बाप है। और ऐसा कर वो खुद को बाप साबित भी कर रहा है। इधर जिस लड़की के लिए आप बाप को पाप मान बैठे हैं उसे इस दीवाने की अब भी कोई ख़बर नहीं।


हो सकता है फिर एक रोज़ आपको लड़की के हाथ में अंगूठी दिखे और आप सोचें कि करियर की बेहतरी के लिए उसने पुखराज पहना है। पर सवाल ये है कि पुखराज ही पहना है तो सहेलियां उसे बधाई क्यों दे रही ह

शनिवार, 13 जून 2009

एक आध्यात्मिक घटना!(हास्य-व्यंग्य)

आजकल परीक्षा परिणामों का सीज़न चल रहा है। रोज़ अख़बार में हवा में उछलती लड़कियों की तस्वीरें छपती हैं। नतीजों के ब्यौरे होते हैं, टॉपर्स के इंटरव्यू। तमाम तरह के सवाल पूछे जाते हैं। सफलता कैसे मिली, आगे की तैयारी क्या है और इस मौके पर आप राष्ट्र के नाम क्या संदेश देना चाहेंगे आदि-आदि। ये सब देख अक्सर मैं फ्लैशबैक में चला जाता हूं। याद आता है जब मेरा दसवीं का रिज़ल्ट आना था। अनिष्ट की आशंका में एक दिन पहले ही नाई से बदन की मालिश करवा ली थी। कान, शब्दकोश में न मिलने वाले शब्दों के प्रति खुद को तैयार कर चुके थे। तैंतीस फीसदी अंकों की मांग के साथ तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को सवा रूपये की घूस दी जा चुकी थी और पड़ौसी, मेरे सार्वजिनक जुलूस की मंगल बेला का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे।

वहीं फेल होने का डर बुरी तरह से तन-मन में समा चुका था और उससे भी ज़्यादा साथियों के पास होने का। मैं नहीं चाहता था कि ये ज़िल्लत मुझे अकेले झेलनी पड़े। उनका साथ मैं किसी कीमत पर नहीं खोना चाहता था। उनके पास होने की कीमत पर तो कतई नहीं। दोस्तों से अलग होने का डर तो था ही मगर उससे कहीं ज़्यादा उन लड़कियों से बिछड़ जाने का था जिन्हें इम्प्रैस करने में मैंने सैंकड़ों पढ़ाई घंटों का निवेश किया था। असंख्य पैंतरों और सैंकड़ों फिल्मी तरकीबें आज़माने के बाद ‘कुछ एक’ संकेत भी देने लगी थीं कि वो पट सकती हैं। ये सोच कर ही मेरी रूह कांप जाती थी कि फेल हो गया तो क्या होगा! मेरे भविष्य का नहीं, मेरे प्रेम का! या यूं कहें कि मेरे प्रेम के भविष्य का!

कुल मिलाकर पिताजी के हाथों मेरी हड्डियां और प्रेमिका के हाथों दिल टूटने से बचाने की सारी ज़िम्मेदारी अब माध्यमिक शिक्षा बोर्ड पर आ गयी थी। इस बीच नतीजे आए। पिताजी ने तंज किया कि फोर्थ डिविज़न से ढूंढना शुरू करो! गुस्सा पी मैंने थर्ड डिविज़न से शुरूआत की। रोल नम्बर नहीं मिला तो तय हो गया कि कोई अनहोनी नहीं होगी! (फर्स्ट या सैकिंड डिविज़न की तो उम्मीद ही नहीं थी) पिताजी ने पूछा कि यहीं पिटोगे या गली में.....इससे पहले की मैं ‘पसंद’ बताता...फोन की घंटी बजी...दूसरी तरफ मित्र ने बताया कि मैं पास हो गया...मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था....पिताजी भी खुश थे...आगे चलकर मेरा पास होना हमारे इलाके में बड़ी 'आध्यात्मिक घटना' माना गया....जो लोग ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे, वो करने लगे और जो करते थे, मेरे पास होने के बाद उनका ईश्वर से विश्वास उठ गया!

शुक्रवार, 12 जून 2009

जिम पुकारे… आ रे! आ रे! आ रे!

पैंट और विचारधारा में मूलभूत फर्क लोचशीलता का है। विचारधारा हालात बदलने पर खुद को एडजस्ट कर लेती है मगर पेंट की अपनी सीमा है। कुछ दिनों से कमर के हालात बदले हैं और पैंट ने उसे आगोश में लेने से इंकार कर दिया है। अब दो ही रास्ते मेरे सामने हैं। दर्ज़ी को बीस रूपये दे, पैंट की कमर चौंतीस से अड़तीस करवा लूं या जिम में पसीना बहा अपनी कमर चौंतीस कर लूं। मैं दूसरा रास्ता चुनता हूं। वैसे ये दूसरा रास्ता पहली बार नहीं चुना है। वजन घटाने और इंसान दिखने का लक्ष्य ले इससे पहले एक दर्जन बार जिम ज्वॉइन कर चुका हूं। इतनी कोशिशों के बाद असफलता का डर जा चुका है, शर्मिंदगी का रसायन बनना भी बंद हो गया है। लिहाज़ा तय हुआ कि सोमवार से जिम जाऊंगा।

मन में भरपूर जोश है मगर वॉड्रोब में जिम लायक कपड़े नहीं। बीवी को समस्या बताता हूं तो वो कुछ दिन पुराने कपड़ों के साथ जिम जाने की सलाह देती है। कहती है जिम जाने को ‘इवेंट’ मत बनाओ। तीन दिन से ज़्यादा आप जिम नहीं जाओगे, जिम के पैसे तो वेस्ट होंगे ही, नए कपडों को देख मेरा खून अलग खौलेगा। खून बीवी का है मगर उसके खौलने का सीधा सम्बन्ध मेरी सेहत से है। वैसे भी मैं सेहत सुधारने के मिशन पर निकला हूं, इसलिए सहमत हो जाता हूं।

‘भइया कितने दिन लगेंगे’- कमरे को कमर बनाने से जुड़ी ये मेरी पहली जिज्ञासा है, जिसे मैं जिम इंस्ट्रक्टर के सामने रखता हूं। ‘हर रोज़ दो घंटे एक्सरसाइज़ करें। परांठें, आइसक्रीम, पिज्ज़ा-विज़्जा सब छोड़ दें तो तीन महीने में आप पतले हो जाएंगे’-जिम वाला जवाब देता है। ‘और ये सब न छोड़ूं और सिर्फ एक्सरसाइज़ करता रहूं तो कब तक पतला हो सकता हूं’? ‘तब तो आप सिर्फ ‘स्टेटस मेनटेन’ रख सकते हैं’। मैं समझ गया कि जिम जाने का तभी फायदा है जब वो सब छोड़ दूं जो आज तक जीमता रहा हूं।

दीवार पर आमिर का ‘एट पैक एब्स’ का पोस्टर है तो सामने आईने में मेरे ‘एट पैक फ्लैब्स’ दिखाई दे रहे हैं। मुझे भी जोश चढ़ता है। इसी जोश के साथ मैं मशीनों से भिड़ पड़ता हूं। खुद को आर्मस्ट्रांग समझ कुछ देर साइक्लिंग करता हूं, उसेन बोल्ट मान ट्रेड मिल पर दौड़ता हूं। स्किपिंग करता हूं, एब क्रंच करता हूं।

जिम जाते हुए अब हफ्ता बीत चुका है। आईना भी इस हफ्ते की गवाही दे रहा है। व्यायाम की मेरी बगावत से नाराज़ हो गाल झड़ने लगे हैं। कमर मुरझाने लगी है। फूले गालों की ओट में छिपी आंखें भी अब दिखने लगी हैं। बीवी को भी विश्वास हो चला है कि इस बार तो कुछ हो कर ही रहेगा।


मगर तभी पतला होने के मेरे इरादों और बीवी की उम्मीदों के बीच मेरा पहला प्यार आड़े आ जाता है। इस बार तो उसकी टाइमिंग भी बहुत ग़लत है। वो मुझसे वक़्त मांगता है और मैं उसकी मांग के आगे मजबूर हूं। बीवी भी जानती है अब कुछ नहीं हो सकता। भारतीय समय के अनुसार रात साढ़े दस बजे मैच शुरू होते हैं। ख़त्म होते-होते दो बज जाते हैं। सुबह नौ बजे मुझे ऑफिस जाना होता है। और दो बजे सोने वाले आदमी से ये उम्मीद करना कि वो छह बजे उठ जाएगा, नासमझी होगी। बीवी समझदारी दिखा रही है, मैं मैच देख रहा हूं, गाल जिम न जाने की खुशी में फूल गए हैं और पतले होने के अरमान फिर से काल के गाल में समा गए हैं।

बुधवार, 10 जून 2009

विज्ञापन प्रदेश की लड़कियां!

टीवी पर इन दिनों मोटरबाइक का एक विज्ञापन आ रहा है जिसमें दिखाया गया है कि कैसे एक लड़का अपनी गर्लफ्रेंड को गुड नाइट का एसएमएस करने की बजाय नई मोटसाइकिल उठा उसे गुडनाइट कहने जाता है। लड़की भी मोटरसाइकिल देखते ही उस पर फिदा हो जाती है। विज्ञापन का संदेश साफ है। गर्लफ्रेंड को इम्प्रैस करना है तो आज ही हीरो गुंडा कम्पनी की मोटरसाइकिल ले आएं। मोटरसाइकिल से तो मैं प्रभावित नहीं हुआ मगर उस पर फिदा हो जाने की लड़की की अदा का ज़रूर कायल हो गया।

विज्ञापन प्रदेश में रहने वाली ज़्यादातर लड़कियों का मैंने यही चरित्र देखा है। ये ज़रा भी डिमांडिंग नहीं होतीं। लड़का डेढ़ सौ सीसी की बाइक चलाए तो उस पर लट्टू हो जाती हैं, सवा सौ सीसी की बाइक ले आए तो भी फ्लैट हो जाती हैं। गाड़ी के इंजन का इनके पिकअप पर कोई फर्क नहीं पड़ता। ये आदतन सैल्फ स्टार्ट होती हैं। प्रभावित होने के लिए कोई शर्त नहीं रखतीं। बंदरछाप लड़का कबूतरछाप दंतमंजन भी लगाता है तो उसे दिल दे बैठती हैं। ढंग का डियो लगाने पर उसके कपड़े फाड़ देती हैं। आम तौर पर लड़कियों को पान-गुटके से भले जितनी नफरत हो लेकिन विज्ञापन बालाएं उसी को दिल देती हैं जो ख़ास कम्पनी का गुटका खाता है। मानो बरसों से ऐसे ही लड़के की तलाश में हो जो जर्दा या गुटका खाता हो।

दोस्तों, मैं जानना चाहता हूं कि ऐसी परमसंतोषी लड़कियां दुनिया के किस हिस्से के कौन से टापू पर रहती हैं। जहां भी हैं उनसे मिल उनके ‘यथास्थिति मोह’ का कारण जानना चाहता हूं। उनसे पूछना चाहता हूं कि हर छोटी-मोटी चीज़ पर लट्टू हो जाने की तत्परता उनके संस्कारों का हिस्सा है, या फिर उनका उत्पाद प्रेम। अपने लिए कुछ तो स्टैंडर्ड सैट करो यार। बीएमडब्ल्यू पर भी जान छिड़कती हो और बिमला छाप बीड़ी पर भी। प्लास्टिक की कुर्सी देख भी डांवाडोल होती हो और पान मसाले पर भी।


हसीन लड़कियों को स्कूल से घर और घर से स्कूल हमने भी कम नहीं छोड़ा...उन्हें पटाने की आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक और ऐलोपैथिक विधियों पर हमने भी कम रिसर्च नहीं की...मगर प्लास्टिक कुर्सी में ऐसा कौन सा हुस्न छिपा है, ऐसी क्या रूमानियत घुसी है जो तुम उसके मालिक को दिल दे बैठती हो। बताओ प्रिय, मैं दुनिया के तमाम असफल प्रेमियों के प्रतिनिधि के नाते पूछता हूं.... आज तुम्हें जवाब देना ही होगा। तुम विज्ञापन में इतनी सहज उपलब्ध हो तो असल ज़िंदगी में क्यों नही। क्या कॉलेज के दिनों में मेरे पास सवा सौ सीसी की बाइक नहीं थी। क्या तुम जैसियों का पीछा करते हुए मैंने हज़ारो लीटर ईंधन नहीं फूंका। कर्कश हॉर्न बजाते हुए क्या तुम्हारी गलियों के सैंकड़ों चक्कर नहीं काटे। चक्कर काटने के इसी चक्कर में क्या तुम्हारे मोहल्ले वालों से नहीं पिटा। और इस सबका जवाब हां है तो बताओ प्रिय, पटने को लेकर तुम्हारी व्यवहार भिन्नता की वजह क्या है। जिस अदा पर तुम विज्ञापन में पट जाती हो, असल ज़िंदगी में तुम क्यूं उसी से कट जाती हो। तुम्हारा कटना मेरे दिल का फटना है।

प्रिय, मैं गुज़ारिश करता हूं कि अपने प्रिय उत्पादों की तुम आज ही एक सूची जारी करो। बताओ कि मुझे इस कम्पनी का पंखा, उसकी झाड़ू, इसकी कुर्सी, इनवर्टर, कार, स्कूटर पसंद है। इससे न सिर्फ तुम्हारी लोकतांत्रिक और पारदर्शी छवि बनेगी बल्कि देश का युवा भी जान जाएगा कि लड़की पटाने के लिए उसे क्या करना है। दोस्तों से प्रेम पत्र लिखवाने के बजाए वो शोरूम मे जा प्रोडक्ट्स की ईएमआई पूछेगा। सोचो ज़रा...ऐसा हुआ कितना सुलभ हो जाएगा इक्कीसवीं सदी का प्रेम। लड़के की लड़की से आंख मिली। लड़के ने पूछा-दीदी, क्या आप फ्री हैं? लड़की ने कहा दस लड़कों की एप्लीकेशन लगी है, कुछ तय नहीं किया, फ्री ही समझो। लड़का-तो बताओ ऐसा क्या खरीदूं कि तुम सुध-बुध खो मेरी हो जाओ। लड़की-मुझे धूल-धक्कड़ कम्पनी की फूलझाड़ू पसंद है और अल्सर कम्पनी का फोर स्ट्रोक स्कूटर। लड़का-अरे अल्सर कम्पनी का स्कूटर तो मैंने कल ही खरीदा है। रही बात फूलझाड़ू की तो पिता जी का किराना स्टोर है। अपनी होने वाली बहू को वो फूलझाड़ू तो मुफ्त दे ही देंगे। दोस्तों, अगर ऐसा हुआ तो आनी वाली नस्लें फूलझाड़ू के रास्ते अपना प्रेम परवान चढ़ाएंगी और एक झाडू प्रेम की राह में आने वाले सारे जाले हटाएगी।

रविवार, 7 जून 2009

समस्या की टेली प्रजेंस!

इंसानों की तरह समस्याएं भी आजकल बेहद महत्वकांक्षी हो गई हैं। कल ही एक समस्या मिली। कहने लगी कि इतनी भीषण होने के बावजूद मेरी कोई पूछ नहीं। कहीं कोई चर्चा नहीं। आत्मसंशय होने लगा है। सोचती हूं उतनी विकराल हूं भी या नहीं। ऐसी लाइमलाइटविहीन ज़िंदगी से तो अच्छा है सुसाइड कर लूं। मैंने टोका-इतनी नेगटिव बातें मत करो। ये बताओ तुम हो कौन? समस्या क्या है? वो बोली-मेरा नाम पानी की समस्या है। कहने को तो मैं खुद समस्या हूं। मगर मेरी समस्या अटैंशन की है।

मैंने पूछा-मगर तुम अटैंशन चाहती क्यों हो। वो तपाक से बोली-ओबिवियसली डिज़र्व करती हूं इसलिए। हैंडपंप में आती नहीं। कुंओं से गायब हो चुकी हूं। नदियों में सिमट चुकी हूं। जब कभी टैंकर में लद किसी मोहल्ले में पहुंचती हूं एक-एक बाल्टी के लिए तलवारें खिंच जाती हैं। क्या अख़बारों में सिटी पन्नों में छप गुमनामी के अंधेरे में मर जाने के लिए मेरा जन्म हुआ है। मेरा भी अरमान है टीवी पर आऊं। प्राइम टाइम में मुझ पर डिस्कशन हो। आख़िर क्या कसूर है मेरा?

मैंने कहा डियर वजह बेहद सीधी है। जिस तरह सिर्फ अच्छा दिखने मात्र से कोई मॉडल नहीं बन जाता। मॉडल बनने के लिए चेहरे का फोटोजनिक होना ज़रूरी है। या हीरो बनने के लिए अच्छी स्क्रीन प्रजेंस होनी ज़रूरी है। उसी तरह समस्या सिर्फ समस्या होने भर से पर्दे पर आने की हक़दार नहीं हो जाती। उसमें नाटकीयता लाज़मी है।

पर्दे पर आने का तुम्हारा चांस तब बनता है, जब कोई आदमी पानी की टंकी पर चढ़ जाए और कहे कि चौबीस घंटे के अंदर मेरे मोहल्ले में पानी नहीं आया तो मैं जान दे दूंगा। ऐसे में महापौर से पूछा जा सकता है लोग जान देने पर उतारूं हैं और आप कुछ कर नहीं रहे। इस पर महापौर कहे कि जो आदमी टंकी पर चढ़ा है वो विपक्षी पार्टी का कार्यकर्ता है। और आप कैसे कह सकते हैं कि मैंने कुछ किया नहीं। जिस टंकी पर चढ़ कर वो जान देने की धमकी दे रहा है वो मेरी ही बनवाई हुई है। और चाहें तो देख लें वो टंकी पूरी तरह फुल हैं। ऐसे में पानी की समस्या की बात सरासर झूठ है।

ऐसी सूरत में पानी की समस्या पर चर्चा हो सकती है। लेकिन ध्यान रहे कि कोई पानी की टंकी पर चढ़े तब, पेड़ पर नहीं। पेड़ पर चढ़ना कोई विज़ुअली रिच नहीं है। और खाली पानी की समस्या....उसकी तो कोई औकात ही नहीं है।

बुधवार, 3 जून 2009

अकर्मण्यता का दर्शन!

काम करने से अनुभव आता है। अनुभव से इंसान सीखता है। सीखने पर जानकार हो जाता है। ये एहसास कि मैं जानता हूं, अहंकार को जन्म देता है। अहंकार तमाम पापों की जड़ है। मतलब, पाप से बचना है तो कर्म से बचो। इसीलिए भारतीय कर्म में जीवन की गति नहीं, दुर्गति देखते हैं और हर काम को तब तक टालते हैं जब तक वो टल सकता है। रजनीश ने कहा भी है, पश्चिम का दर्शन कर्म पर आधारित है और भारतीय दर्शन अकर्मण्यता पर। यही वजह है कि हमारे यहां कर्म व्यर्थ माना गया है, समय लोचशील और जीवन मिथ्या।

ऐसे में मुक्ति का एक ही मार्ग है-बेकारी। लिहाज़ा जब जानकार आंकड़े पेश करते हैं कि देश में इतने करोड़ बेरोज़गार हैं तो इसके लिए आप सरकार को साधुवाद दीजिए। ये करोड़ों बेकार नहीं बल्कि संन्यासी हैं। नौकरी नहीं-छोकरी नहीं, तनख़्वाह नहीं-टीडीएस नहीं, घर नहीं-होम लोन नहीं। मतलब, न ज़र, न ज़ोरू, न ज़मीन। एक बेकारी और सभी झंझटों से मुक्ति।

बेकारों के इतर असल चुनौती उनके सामने है जो किसी काम-धंधे में फंसे हैं। ऐसे लोगों को अपनी पूरी उर्जा ये सोचने में लगानी पड़ती है कि काम से कैसे बचा जाए। मतलब तनख्वाह तो मिलती रहे मगर करना कुछ न पड़े। ये ऐसी आदर्श काल्पनिक स्थिति है जो कम ही लोगों को नसीब होती है और जिन्हें नसीब होती है उनमें सरकारी कर्मचारी भी एक हैं। वे जानते हैं कि तनख्वाह शाश्वत है और कर्म मिथ्या। लिहाज़ा किसी के बाप में दम नहीं जो उनसे कुछ करवा पाए। सुधी पाठकों को यहां बताना ज़रूरी है कि सरकारी कर्मचारी वो जीव होता है जो कर्म की चोरी करता है और निजी कर्मचारी वो पशु होता है जो लाचारी में काम करता है। लेकिन ध्यान रहे करने को लेकर दोनों के संस्कार भारतीय ही हैं। मतलब, कर्म कर कोई भी पाप का भागीदार नहीं बनना चाहता।

बहरहाल, दफ्तरी ज़िंदगी के इतर निजी ज़िंदगी में सभी को काम टालने की समान स्वतंत्रता होती है। मतलब कर्महीनता के क्षेत्र में प्रतिभा प्रदर्शन के लिए आप किसी बड़े मंच के मोहताज नहीं। चीज़ जगह पर न रख, ज़रूरत के वक़्त सब भूल, हर काम में चलताऊ रवैया दिखा, मां-बाप की गालियां खा आप दोस्त-रिश्तेदारों में ख़ासी ख़्याति बटोर सकते हैं।

इसके अलावा जो काम जितना लटक सके, उसे उसकी सीमाओं तक ले जाएं। मसलन सात तारीख़ को आपको बिजली का बिल मिला। इसे भरने की आख़िरी तारीख 25 है। वक़्त और पैसे की आपके पास कोई कमी नहीं है। फिर भी इसे न भरवाएं। इसे लटकाएं। हो सकता है 18-20 तारीख़ तक आपको आपकी आत्मा धिक्कारने लगे या फिर यहां-वहां पड़े बिल पर चाय गिर जाए, लेकिन घबराना नहीं है। याद रहे अब भी पूरे पांच दिन बाकी हैं। तीन-चार दिन और बीतने दें। 24 को देर रात पिक्चर देखकर सोएं। अगली सुबह 11 बजे आंख खोलें। आज 25 तारीख है। शनिवार का दिन है। 12 बजे के बाद बिल जमा नहीं होंगे। फुर्ती दिखाएं, सांस फुलाएं, धड़कन बढ़ाएं, पैनिक करें। परांठे का रोल मुंह में डाल, शर्ट को पेंट के भीतर घुसा गाड़ी के पास पहुंचें। जी हां, कहानी शानदार क्लाइमेक्स की तरफ बढ़ रही है। आप दफ्तर पहुंचते हैं, बारह बजने में सिर्फ पांच मिनट बाकी। खिड़की के पास कोई नज़र नहीं आ रहा। लगता है खिड़की बंद हो गई, बंदा भाग गया।


नहींईईईईईईईईईईईईई.....रूको भइया...रूको सौ-सौ के नोटों के साथ हाथ और बिल अंदर...ये लगी स्टाम्प, ये मिले खुल्ले पैसे और जमा हो गया बिल। शाबाश....निठल्ला फिर चैम्पियन!


अब आप ही सोचिए बिल भरने जैसे मामूली और फिज़ूल काम में ज़रा सी कोताही बरत आप खुद के लिए रोमांच और उत्तेजना के कितने अनमोल पल जुटा सकते हैं । तो दोस्तों, भगवान न करे पहले तो ये नौबात आए कि आप को कुछ करना पड़े और आ जाए तो उसे बेशर्मी की सीमा तक लटकाएं। याद रहे कोई कर्म सद्कर्म नहीं है, कर्म अपने आप में ही दुष्कर्म है। ऐसा सोच और इस महान रास्ते पर चल ही आप मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।

(कादम्बिनी, जून 2009)

सोमवार, 1 जून 2009

वो सुबह कभी नहीं आएगी।

पिछले दिनों इंटरनेट पर अमिताभ बच्चन का एक पुराना रेडियो इंटरव्यू सुना। इंटरव्यू में उनकी फिल्मों, शोहरत, पंसद-नापसंद के अलावा उनके पिता हरिवंश राय बच्चन की भी चर्चा हुई। पिता के बारे में पूछे जाने पर अमिताभ का कहना था कि बाबूजी सुबह चार बजे उठते थे। फिर सैर पर जाते, हल्का-फुल्का नाश्ता करते और पढ़ते-लिखते। इसके बाद दो-चार सवाल और हुए और बातचीत ख़त्म हो गई। एक-आध मेल चैक कर, मैं भी बाकी कामों में मसरूफ हो गया मगर एक बात मेरे ज़ेहन में कौंधती रही, ‘बाबू जी सुबह चार बजे उठते थे’। मैं सोचने लगा कि अमिताभ बच्चन कितने गर्व से बता गए कि बाबू जी सुबह चार बजे उठते थे। ईश्वर ने अगर मेरी तकदीर में भी मशहूर होना लिखा है और मेरे बच्चों को भी मुझसे जुड़ा ऐसा कुछ बताना पड़ा तो क्या बताएंगे वो मासूम....बाबू जी आख़िर कितने बजे उठते थे! मेरे होने वाले बच्चों के बाबूजी यानि मैं, तो कभी ग्यारह बजे से पहले उठा नहीं। और जिस तेज़ी से वक़्त और ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ रही है, हो सकता है कि जब तक उनके इंटरव्यू की बारी आए तब तक ग्यारह बजे का समय, सुबह के बजाए दोपहर में शामिल होने लगे। ये सोच कर ही मेरी रूह कांप उठती है कि ऐसा हुआ तो बच्चों को मेरी वजह से कितना शर्मिंदा होना पड़ेगा। बीवी को मैंने तकलीफ बताई तो उसने कहा कि बेफिक्र हो जाओ, कुछ और साल ग्यारह बजे तक सोते रहे तो ऐसी नौबत ही नहीं आएगी! मतलब न आप मशहूर होंगे, और न ही बच्चों को शर्मिंदा होना पड़ेगा।

बीवी ने ये कोई पहली बार तंज नहीं किया और न ही वो कोई पहली है जिसने तंज किया हो। शादी से पहले मां-बाप ने भी कई बार समझाया कि बेटा जल्दी उठा करो। जल्दी उठने के कई फायदे भी बताए। फायदों से तो मैं सहमत था, मगर जल्दी उठने से नहीं। दरअसल ‘अविश्वास’ मेरे चरित्र में कभी रहा ही नहीं। बचपन में किताबों में पढ़ा, जानकारों ने भी बताया और इतने गुणी लोग जब एक ही बात कह रहे हैं तो क्या ज़रूरत है उनकी ईमानदारी और अक्ल पर संदेह करूं। अगर सब कहते हैं कि सूर्य पूर्व से उगता है और पश्चिम में अस्त होता है, तो ठीक ही कहते होंगे। क्रॉस चैकिंग की ज़रूरत क्या है? और मैं पूछता हूं कि सुबह उठने के अपने फायदे हैं तो क्या देर तक सोने का अपना मज़ा नहीं और अगर आनन्द ही अंतिम लक्ष्य है तो विवाद किस बात का? तुम जल्दी उठ कर आनन्द उठाओ, मैं देर तक सो कर उठाता हूं। तुम सूरज उगने से पहले उठो, मैं सूरज डूबने से पहले उठता हूं। तुम मुर्गे की बांग सुनकर उठो, मैं वादा करता हूं कि सोने से पहले बांग देने के लिए उस मुर्गे को ज़रूर उठा दूंगा।

मित्रों, मैं आह्वान करता हूं कि इतना सोओ कि सो-सो कर थक जाओ और उस थकावट को मिटाने के लिए फिर सो जाओ। सोना खोना नहीं है, सोना ही तो असली सोना है। इसलिए इतना सोओ कि लोग तुम्हें सोने की खदान कहने लगे। सोओ, उठो, खाद्यान्न लो और फिर से लम्बी तान लो।

वक़्त आ गया है कि ज़्यादा सोने वाले अलग एक मंच बना लें। नुक्कड़ नाटकों के ज़रिए लोगों को सोने के फायदे समझाएं। उन्हें बताएं कि जो जग गया है वो कुछ करेगा और ‘कर्म’ ही इक्कीसवीं शताब्दी का सबसे बड़ा संकट है। दुनिया का इतना कबाड़ा ‘न करने वालों’ ने नहीं किया, जितना ‘करने वालों ने’ किया है इसलिए घंटा, दो घंटा फालतू सोने से अगर दुनिया बर्बाद होने से बचती है तो हर्ज़ क्या है?

उल्टे दुनिया को ऐसे लोगों को धन्यवाद देना चाहिए जो देर तक सोते हैं। अगर ये लोग भी रातों-रात सुधरने की ठान लें तो सुबह उठने की जिस आदत पर तुम इतराते फिरते हो, उसकी मार्केट वैल्यू क्या रह जाएगी। प्रिय, अच्छाई के मामले में अल्पसंख्यक होना ही बेहतर है। बुद्धिजीवियों की कद्र अपनी काबिलियत की वजह से नहीं, समाज में मूर्खों की अधिकता के कारण है। जो बुद्धिजीवी मूर्खों को गाली देते नहीं थकते, उन्हें तो उनके चरण धो कर पीने चाहिए। चरण धुलवाने की मेरी कोई ख़्वाहिश नहीं। ना ही मैं ये चाहता कि तुम किसी तरह का दूषित जल पी प्राण त्यागो। भगवान के लिए मुझे बस सोने दो। रही बेटे के जवाब की चिंता, तो बीवी ठीक ही कहती है कि यूं ही सोता रहा तो उसकी नौबत ही नहीं आएगी!