गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

भारतीय होने की सुविधा!

टाइगर वुड्स के माफ़ीनामे के बाद अमेरिका और पश्चिमी देशों में ‘सच के सामने घुटने टेकने’ की कमज़ोरी एक बार फिर उजागर हुई है। समाजशास्त्रियों को ज़रूर विचार करना चाहिए कि आखिर क्यों ये लोग वे सब बातें सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लेते हैं, जो हम बंद कमरे में खुद के सामने भी स्वीकार नहीं कर पाते। ऐशो-आराम और तमाम व्यसनों का आख़िर मतलब क्या है, जब उनके इस्तेमाल पर इतना हंगामा होना है? इतना नाम-दाम क्या आदमी इसलिए कमाता है कि सिर्फ वो काम करे, जिसके बूते उसे ये सब मिला है। कतई नहीं!

ये समझना बहुत ज़रूरी है कि किसी भी सफल पुरूष के लिए अपनी प्रतिभा के दम पर किया गया सबसे बड़ा हासिल ‘औरत’ है! भले ही उसे रिझाना हो या किसी भी तरह पाना हो। आपने जो किया उस पर दोस्तों ने तारीफ कर दी, पैसा भी मिल गया, सम्मान भी ले लिए...अब? और जैसा कि खुद वुड्स ने अपने माफीनामे में कहा कि उन्हें लगता था कि जो सब उन्होंने हासिल किया उसके लिए उन्होंने काफी मेहनत की है, इसलिए उन्हें पूरा हक़ है अपनी ‘टेम्पटेशन्स’ को पाने का! और यहीं अमेरिका का दोगलापन साफ हो जाता है। आप उन ‘टेम्पटेशन्स’ की सुविधा तो देते हैं, जैसा कि वुड्स को दी, मगर पकड़े जाने पर ज़लील भी करते हैं। यहीं भारत पूरे अमेरिकी और यूरोपीय समाज पर लीड करता है। बात चाहे मीडिया की हो या फिर उन लोगों की जो ऐसे मामलों में शामिल होते हैं, कभी सेलिब्रिटी को शर्मिंदा नहीं होने देते!

इक्के-दुक्के मामलों को छोड़कर कभी किसी ने नहीं कहा कि फलां से मेरे नाजायज़ सम्बन्ध हैं। ये जानते हुए की फलां शादीशुदा है, सम्बन्ध तो बनाए जा सकते हैं, मगर इतना नहीं गिरा जा सकता कि दुनिया को बता दें। ऐसा नहीं है कि इतना गिरने पर कोई सरकारी रोक है मगर चरित्रहीनता, दुस्साहस मांगती है और वो किसी भी समाज में आते-आते ही आता है। पर्दा हमारी संस्कृति का अहम हिस्सा है इसलिए तमाम कुकर्म भी भी यहां पर्दे के पीछे ही रह जाते हैं। लिहाज़ा, ऐसे मामलों से कभी घूंघट नहीं उठता!

रही बात मीडिया की, तो वो अपने व्यावसायिक हितों के चलते ऐसा कोई रिस्क नहीं लेता। कालांतर में ये साबित भी हो चुका है कि कैसी भी सनसनी की तलाश में रहने वाले चैनल, राजनीतिक दबाव के चलते हाथ में सीडी होने के बावजूद उसे नहीं चलाते। चैनल चालू रहे इसलिए कभी-कभी किसी के चालू होने को नज़रअंदाज़ भी किया जा सकता है!

वैसे भी आइकॉन्स को हमारे यहां ईश्वर का दर्जा हासिल है, इसलिए उनसे जुड़ी ऐसी कोई बात हम सार्वजिनक करने से परहेज़ करते हैं, जिससे ईश्वर को शर्मिंदा होना पड़े। लिहाज़ा, ऐसे माहौल में सेलिब्रिटी को कभी पकड़े जाने का डर नहीं रहता। और यही एक प्रतिभाशाली व्यक्ति के साथ सही सलूक भी है। ऐसी शोहरत का आख़िर फायदा ही क्या जो आदमी को इतना ‘स्पेस’ भी न दे! तभी तो चाहे शेन वॉर्न हों, बिल क्लिंटन हों या टाइगर वुड्स, सभी के लिए मुझे बहुत बुरा लगा। वक़्त आ गया है कि योग के बाद पश्चिम अब सेलिब्रिटी आरक्षित भारत के इस ‘भोग’ को भी समझे।

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

मेरी सम्पत्ति घोषणा! (हास्य-व्यंग्य)

हाल-फिलहाल वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों के यहां पड़े आयकर विभाग के छापों के बाद से मैं काफी सहम गया हूं। उससे पहले मधु कोड़ा के यहां हुई छापेमारी में भी मुझे काफी घबराहट हुई थी। रोज़-रोज़ के तनाव से तंग आकर मैंने तय किया है कि हाईकोर्ट के जजों की तर्ज पर मैं भी अपनी सम्पत्ति घोषित कर देता हूं। इससे पहले की मैं अपने ‘साजो-सामान’ के बारे में मैं कुछ बताऊं ये कहना चाहूंगा कि ईर्ष्या भले सहज़ मानवीय गुण/अवगुण हो, फिर भी इससे बचा जाए तो बेहतर है। दिल थाम लें।

सम्पत्ति के नाम पर मेरे पास 70 के दशक का एक लैमरेटा स्कूटर है, जिसे पिताजी ने सन् सत्तर में सैकिंड हैंड खरीदा था। मशीनों को अगर इच्छामृत्यु की इजाज़त होती तो आज मैं इसकी 15 वीं बरसी मना रहा होता। जैसे ही इसे ले घर से निकलता हूं, पास-पड़ौस की कई महिलाएं पतीले ले बालकॉनी में आ जाती हैं, इस भ्रम में कि दूध वाला आ गया। मेरे पास तो पैसे नहीं थे मगर इस दुविधा से निजात दिलाने के लिए दूधवाले ने अपनी मोटरसाइकिल में साइलेंसर लगवा लिया। एक-आध बार मैंने इसे बेचने की कोशिश भी की मगर बदले में दुआओं से ज़्यादा कोई कुछ देने के लिए तैयार नहीं हुआ।

इसके अलावा अस्सी के दशक का एक कलर टीवी है। उसके कलर होने का रहस्य मेरे और टीवी के अलावा किसी को नहीं पता। जब इसे लिया था तब ये इक्कीस इंच था मगर अब घिसकर उन्नीस-साढ़े उन्नीस रह गया है। बुढ़ापे में जिस तरह दांत झड़ने लगते हैं, उसी तरह इसके भी बटन टूटने लगे हैं। मुझे विश्वास है कि अख़बार में इसके साथ मेरी फोटू छपने पर कोई अमीर शख़्स मुझे गोद ले सकता है या फिर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष गरीबी उन्मूलन फंड से मुझे दो करोड़ डॉलर दे सकता है।

इसके अतिरिक्त घर में एक फ्रिज है। है तो वो घर में मगर उसकी असली जगह नेशनल म्यूज़ियम में है। बर्फ तो उसमें हीर-रांझा के दिनों से नहीं जमी। अब तो पानी भी ठंडा नहीं होता। ये फ्रिज का कम और अलमारी का रोल ज़्यादा निभा रहा है। वैजिटेबल कम्पार्टमेंट में मैं जुराबें रखता हूं और फ्रिजर में बीवी चूड़ियां। दिल करता है कि फ्रिज की इस नामर्दानगी पर उसे भी दो-चार चूड़ियां पहना दूं।

अन्य सम्पत्तियों में एक डबल बेड भी है जिसकी हालत काफी बैड है। मगर वफादर इतना है कि सोने के बाद भी रातभर चूं-चूं कर घर की रखवाली करता है। ठीक उसके ऊपर एक पंखा है जो चलने के साथ ही चीं-चीं करता है। डबल उर्फ ट्रबल बेड की चूं-चूं और सीलिंग फैन की चीं-चीं जुगलबंदी कर हमें रात भर लोरियां सुनाते हैं।

नकदी की बात करूं तो मेरे पास, सुबह सब्ज़ी लाने से पहले, तीन सौ सत्तावन रूपये थे। ये देखते हुए कि महीना ख़त्म होने में दस दिन बाकी है इतनी रक़म ‘जस्टिफाइड’ है। बैंक में एक हज़ार रूपये हैं (जो न्यूनतम बैलेंस मैनटेन करने के लिए रखे हैं)। इसके अलावा घर में लोहे की अलमारी के लॉकर के सिवा, मेरे पास किसी बैंक मे कोई लॉकर नही हैं। उसमें भी मेरी और बीवी की दसवीं, बारहवीं और ग्रेजुएशन की मार्कशीट्स रखी हैं। रही ज़ेवरात की बात तो जिस सोने की कीमत 17 हज़ार तौला हो गई है, उससे मेरा कोई वास्ता नही है जिस सोने से किसी का बाप मुझे नहीं रोक सकता वो मैं खूब सोता हूं, बिना इस डर के कि कहीं घर में छापा न पड़ जाए!

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

चरित्रहीन चप्पल!

हिंदुस्तान में रहते हुए अगर आप रचनात्मक हो गए हैं तो इसे आपका दुस्साहस ही माना जाएगा वरना तो नई सोच पर हमारे यहां इतने पहरे हैं कि लकीर के प्रति फकीरी छोड़ना बेहद मुश्किल है। यही वजह है कि घटिया चुटकुलों, वाहियात फिल्मों, बेहूदा विज्ञापनों का हमारे यहां असीम भंडार है। मगर खुशी इस बात कि है कि कुछ लोग स्तरहीनता के इस स्तर में गुणात्मक सुधार करने में बराबर लगे हुए हैं। कुछ साल पहले अगर अमिताभ की ‘झूम बराबर झूम’ आई तो उसके कुछ वक़्त बाद ही राम गोपाल वर्मा अपनी ‘आग’ ले आए। (जिसकी चपटे में आकर फिल्म के डिस्ट्रीब्यूटर्स ने आत्मदाह कर लिया था)

ऐसे माहौल में आपकी पाचनशक्ति को हर वक़्त नई चुनौतियों के लिए तैयार रहना पड़ता है। ऐसी ही एक चुनौती से मैं कुछ रोज़ पहले वाबस्ता हुआ। दिखने में तो ये एक चप्पल का घटिया किस्म का सामान्य-सा विज्ञापन था। मगर जैसे ही इसकी पंचलाइन आई धमाका हो गया। चप्पल की तारीफ में लिखा था-आपकी सोच से भी हल्की! अगर ये निजी कटाक्ष होता तो भी इसे मैं हंस के टाल देता, लेकिन ये मेरे मेल बॉक्स में आया मेल नहीं, टीवी पर आया विज्ञापन था इसलिए समझ सकता था कि इसके चपेट में समस्त भारत आ गया है! आपकी सोच से भी हल्की चप्पल! दूसरे शब्दों में गिरी हुई चप्पल! बेहया चप्पल! लूच्ची चप्पल! चरित्रहीन चप्पल!

हल्की सोच को हम छोटी सोच के संदर्भ में लें तो एक गुंजाइश ये भी हो सकती है कि चप्पल छोटे बच्चों के लिए हो, मगर ऐसा भी नहीं था। जिस लड़की के चक्कर में मैं ये विज्ञापन देख रहा था वो तो काफी बड़ी थी। सोचता हूं मुझे जीवन में वैसे भी किसी मक़सद की तलाश थी, बाकी बची ज़िंदगी इस विज्ञापन को समझने में लगा दूं!

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

महंगाई पीड़ित लेखक का ख़त!

सम्पादक महोदय,

पिछले दिनों महंगाई पर आपके यहां काफी कुछ पढ़ा। कितने ही सम्पादकीयों में आपने इसका ज़िक्र किया। लोगों को बताया कि किस तरह सरिया, सब्ज़ी, सरसों का तेल सब महंगे हुए हैं और इस महंगाई से आम आदमी कितना परेशान है। ये सब छाप कर आपने जो हिम्मत दिखाई है उसके लिए साधुवाद। हिम्मत इसलिए कि ये सब कह आपने अनजाने में ही सही अपने स्तम्भकारों के सामने ये कबूल तो किया कि महंगाई बढ़ी है।दो हज़ार पांच में महंगाई दर दो फीसदी थी, तब आप मुझे एक लेख के चार सौ रुपये दिया करते थे, यही दर अब सात फीसदी हो गई है लेकिन अब भी मैं चार सौ पर अटका हूं।आप ये तो मानते हैं कि भारत में महंगाई बढ़ी है, मगर ये क्यों नहीं मानते कि मैं भारत में ही रहता हूं? आपको क्या लगता है कि मैं थिम्पू में रहता हूं और वहीं से रचनाएं फैक्स करता हूं? बौद्ध भिक्षुओं के साथ सुबह-शाम योग करता हूं? फल खाता हूं, पहाड़ों का पानी पीता हूं और रात को 'अनजाने में हुई भूल' के लिए ईश्वर से माफी मांग कर सो जाता हूं! या फिर आपकी जानकारी में मैं हवा-पानी का ब्रेंड एम्बेसडर हूं। जो यहां-वहां घूम कर लोगों को बताता है कि मेरी तरह आप भी सिर्फ हवा खाकर और पानी पीकर ज़िंदा रह सकते हैं।महोदय, यकीन मानिये मैंने आध्यात्म के ‘एके 47’ से वक़्त-बेवक़्त उठने वाली तमाम इच्छाओं को चुन-चुन कर भून डाला है। फिर भी भूख लगने की जैविक प्रक्रिया और कपड़े पहनने की दकियानूसी सामाजिक परम्परा के हाथों मजबूर हूं। ये सुनकर सिर शर्म से झुक जाता है कि आलू जैसों के दाम चार रुपये से बढ़कर, बारह रुपये किलो हो गए, मगर मैं वहीं का वहीं हूं। सोचता हूं क्या मैं आलू से भी गया-गुज़रा हूं। आप कब तक मुझे सब्ज़ी के साथ मिलने वाला 'मुफ़्त धनिया' मानते रहेंगे। अब तो धनिया भी सब्ज़ी के साथ मुफ्त मिलना बंद हो गया है।नमस्कार।
इसके बाद लेखक ने ख़त सम्पादक को भेज दिया। बड़ी उम्मीद में दो दिन बाद उनकी राय जानने के लिए फोन किया। 'श्रीमान, आपको मेरी चिट्ठी मिली।' 'हां मिली।' 'अच्छा तो क्या राय है आपकी।' 'हूं.....बाकी सब तो ठीक है, मगर 'प्रूफ की ग़लतियां’ बहुत है, कम से कम भेजने से पहले एक बार पढ़ तो लिया करो!

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

चंचल बाला ठाकरे!

बचपन में गली क्रिकेट खेलते हुए हममें से बहुतों ने खुद को स्टार माना है। हद दर्जे की बेसुरी आवाज़ के बावजूद सिर्फ ‘स्टेज पर गा लेने की हिम्मत’ के कारण हम कॉलेज के किशोर भी कहलाए। कॉलोनी में एक-आध को चपत लगा हम मोहल्ले के दादा भी हुए। मगर मान्यता का यही दायरा गली, कॉलेज और मोहल्ले से बाहर फैले इसके लिए ज़रूरी है कि हम बड़े मंच पर परफॉर्म करें। गली स्टार को राष्ट्रीय होरी बनने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलना पड़ता है और कॉलेज किशोर को ‘इंडियन ऑयडल’ टाइप कुछ जीतना पड़ता है। ठीक इसी तरह जब से अर्द्ध विक्षिप्तता हुनर मान ली गयी है तब से उसकी चुनौतिया भी बढ़ी हैं। दोस्तों या परिवार के बीच खुद को मूर्ख साबित करना कोई मुश्किल नहीं है। मगर असल चुनौती तब है जब आपका लक्ष्य एक राष्ट्र या उसके बढ़कर एक महाराष्ट्र हो!

जिस गुंडई और अंट-शंट बयानबाज़ी को चंचल बाला ठाकरे अपनी सबसे बड़ी ताकत समझते थे, उन्हीं के पुराने इंटर्न ने उसका बार रेज़ कर दिया है। और जैसा कि हर जीनियस से उम्मीद की जाती है कि वो हर बदलते समय में खुद को साबित करे। जैसे सचिन,अमिताभ और फेडरर कर रहे हैं। ठीक उसी तरह चंचल बाला ठाकरे भी कर रहे हैं। तभी तो विधानसभा चुनाव हारते ही पहले उन्होंने ईश्वर से विश्वास उठाया। महाराष्ट्र की जनता को कोसा। फिर मुकेश अंबानी को लताड़ा। सचिन तेंदुलकर को लपेटा। शाहरूख-आमिर को घसीटा। राहुल गांधी को धमकाया। और ये सब कर वो खाज ठाकरे जैसे छुटभैया बदतमीज़ों को बता रहे हैं कि बेलगाम बयानबाज़ी के असली बादशाह आज भी वहीं है।

सम्बोधित भले ही वो आमिर-शाहरूख-अंबानी को कर रहे हैं, मुखातिब तो वो खाज ठाकरे से ही हैं। आतंकवादियों के पास जैसे हिट लिस्ट रहती है, ठाकरे साहब के हाथ में सेलिब्रिटी लिस्ट है। सावधान!