हिंदुस्तान में एकमात्र ऐसी जगह जहां मैंने लोगों को बिना किसी तनाव के गाड़ी चलाते देखा है, वो है टीवी विज्ञापन! बंदे ने शोरूम से गाड़ी निकाली और खाली पड़ी सड़क पर बेधड़क चला जा रहा है। तीस सैकेंड के विज्ञापन में उसे न तो कोई रेडलाइट मिलती है, न कोई गड्ढ़ा आता है, न कोई बाइक वाला गंदा कट मारता है और न ही उसके आजू-बाजू से सरिये लहराते कोई हाथ-रिक्शा गुज़रता है। उसका सारा ध्यान बैकग्राउंड में बज रहे जिंगल पर लिप मूवमेंट करने और बगल में बैठी बीवी को देख फ़ेक स्माइल देने में होता है। उस बाप के बेटे को इस बात की रत्तीभर भी फिक्र नहीं कि रास्ते में कहीं कोई भिड़-विड़ न जाए, नई गाड़ी पर कहीं कोई स्क्रैच न मार दे।
ऐसा लगता है शोरूम से गाड़ी खरीदने से पहले उसने ज़िला कलेक्टर को इसकी जानकारी दे दी थी और उन्हीं के आदेश पर शोरूम से लेकर उसके घर तक सारा ट्रैफिक क्लियर करवा दिया गया है ताकि नई गाड़ी खरीदने से हमारे शहज़ादा सलीम के मन में जो कविता उपजी है वो घर पहुंचने से पहले ही गद्य में तब्दील न हो जाए। कहीं उस बेचारे का मूड ख़राब न हो जाए।
तभी मेरी नज़र विज्ञापन में ढल रहे सूरज पर पड़ती है और ख्याल आता है कि कलेक्टर की मेहरबानी से ये घर तो फिर भी पहुंच जाएगा मगर इस वक्त गाड़ी लगाने के लिए क्या इसे सोसाइटी में जगह मिलेगी? नहीं, बिल्कुल नहीं...शोरूम से निकलने के बाद हमारा हीरो गाड़ी लेकर मंदिर जाएगा और घर लौटते-लौटते उसे काफी देर हो चुकी होगी। और ये उम्मीद करना कि इसकी नई गाड़ी के सम्मान में पड़ौसी आज एक पार्किंग खाली छोड़ देंगे, गाड़ी के विज्ञापन में उसके माइलेज के दावे को सच मान लेने जैसी मूर्खता होगी।
घर पहुंचने पर बंदे को पार्किंग मिली या नहीं, विज्ञापन इस बारे में कुछ नहीं बताता। वो उन्हें किसी अनजाने पहाड़ की हसीन वादियों में जिंगल गुनगुनाते छोड़ देता है। ठीक वैसे ही जैसे फिल्म में तमाम संघर्षों के बाद लड़का लड़की की शादी हो जाती है और आख़िर में लिखा आता है, ‘एंड दे लिव्ड हैप्पिली एवर आफ्टर’। जबकि शादी के बाद आज तक कितने लोग हैप्पिली जी पाए हैं, ये बताने की ज़रूरत नहीं। कुछ इसी अंदाज़ में ये विज्ञापन भी ख़त्म हो जाता है और आख़िर में लिखा आता है, ‘एंड दे ड्रोव हैप्पिली एवर आफ्टर’! और मेरा दिल करता है पलटकर पूछूं कि दे ड्रोव हैप्पिली एवर आफ्टर...बट कुड दे पार्क देयर कार ईज़ली एवर आफ्टर!
मैं ऐसा कोई सवाल नहीं पूछता लेकिन जानता हूं कि फिल्मी हीरो के स्टाइल में लड़की को पा लेना कोई बड़ी चुनौती नहीं है, शादी के बाद उससे निभा लेना है। उसी तरह ड्राइविंग स्कूल से पंद्रह दिन में ड्राइविंग सीख लेना और ‘एक मिनट में कार लोन’ पास करने वाले किसी बैंक से लोन ले गाड़ी खरीदना कोई चैलेंज नहीं है; असली चुनौती उस कार के लिए पार्किंग ढूंढना है!
घर से ऑफिस के लिए निकलो तो बचा हुआ असाइनमेंट, धूर्त सहकर्मी, नकचढ़ा बॉस इंसान की चिंताओं में बहुत पीछे होते हैं, सबसे पहले ये सोच-सोचकर उसका खून सूखने लगता है कि क्या ऑफिस पहुंचने पर मुझे पार्किंग मिलेगी! और अगर आप ऑफिस पहुंचने में ज़रा लेट हो गए तो पार्किंग में जगह बनाना, जवानी में किसी खूबसूरत लड़की के दिल में जगह बनाने से ज़्यादा मुश्किल हो जाता है।
मेरा दावा है कि जब एक आदमी वर्कप्रेशर की बात करता है तो उसका 30 फीसदी हिस्सा ऑफिस जाकर खुद के लिए पार्किंग ढूंढने का होता है। व्यक्तिगत जीवन के तनाव का 40 फीसदी सोसाइटी में पार्किंग रिज़र्व न होने से होता है और जब वो कहता है कि आजकल खरीदारी मुश्किल हो गई है तो उसका मतलब महंगाई से नहीं, बाज़ार में पार्किंग न मिलने से होता है!
मेरा मानना है कि ये समस्या इतनी गंभीर है कि ‘व्यावसायिक भविष्यफल’ और ‘प्रेम भविष्यफल’ की तर्ज पर अख़बारों को रोज़ ‘पार्किंग भविष्यफल’ भी देने चाहिए ताकि बंदा घर से निकलने से पहले पार्किंग में आने वाली मुश्किलों के लिए खुद को तैयार कर पाए।
जानकार कहते हैं कि अगर तीसरा विश्वयुद्द हुआ तो पानी के लिए होगा मगर मुझे लगता है इस वक्त पार्किंग की जो स्थिति है उसमें तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए नहीं, पार्किंग के लिए होगा। हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर कल को ख़बर मिले कि किसी बड़े देश ने छोटे देश पर सिर्फ इसलिए हमला कर दिया ताकि उसे अपने पार्किंग लाउंज के तौर पर इस्तेमाल कर पाए! और जिस तरह आजकल चीन नेपाल के साथ नज़दीकी बढ़ा रहा है, मुझे उसका इरादा नेक नहीं लगता!
(नवभारत टाइम्स 22 नवम्बर, 2012)