शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

जैक फोस्टर, तुमने मुझे मरवा दिया


जो लोग हिंदी लेखकों से शिकायत करते हैं कि वो उन्हीं घिसे-पिटे पांच छह विषयों पर कलम चलाते हैं, ट्रैवल नहीं करते, दुनिया नहीं देखते, उन्हें समझना चाहिए कि किसी भी तरह की मोबिलिटी पैसा मांगती है और जिस लेखक की सारी ज़िंदगी दूसरों से पैसा मांगकर गुज़र रही हो, वो मोबाइल होना तो दूर, एक सस्ता मोबाइल रखना तक अफ़ोर्ड नहीं कर सकता। ये लेख चूंकि फ्रेंच से हिंदी में अनुवाद नहीं है, लिहाज़ा ये स्वीकारने में मुझे भी कोई शर्म नहीं कि हिंदी लेखक होने के नाते ये सारी सीमाएं मेरी भी हैं। मगर इस बीच मेरे हाथ अमेरिकी एडगुरु जैक फोस्टर की किताब ‘हाऊ टू गैट आइडियाज़’ लगी जिसमें उन्होंने बताया कि लेखक को रूटीन में फंसकर नहीं रहना चाहिए। लॉस एंजलिस के साथी लेखक का ज़िक्र करते हुए उन्होंने बताया कि कैसे नौ साल की नौकरी के दौरान कुछ नया देखने के लिए वो रोज़ नए रास्ते से ऑफ़ि‍स जाता था। ये पढ़ मैं भी जोश में आ गया। पूछने पर ऑफ़ि‍स में किसी ने बताया कि कचरे वाले पहाड़ के बगल में जो मुर्गा मंडी है, उस रास्ते से चाहो तो आ सकते हो। अगले दिन मैं उस सड़क पर था। कुछ ही चला था कि अचानक बड़े-बड़े गड्ढ़े आ गए। गाड़ी हिचकोले खाने लगी। कुछ गड्ढ़े तो इतने बड़े थे कि भ्रम हो रहा था कि यहां कोई उल्का पिंड तो नहीं गिरा। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता गाड़ी उछलकर ऐसे ही एक छिपे रुस्तम गड्ढ़े से जा टकराई। ज़ोरदार आवाज़ हुई। ऑफ़ि‍स पहुंचने से पहले गाड़ी गर्म होकर बंद हो गई। मैकेनिक ने बताया कि गड्ढ़े में लगने से इसका रेडिएटर और सपोर्ट सिस्टम टूट गया है। इंश्‍योरेंस के बावजूद आपका दस-बारह हज़ार खर्चा आएगा! ये सुनते ही गाड़ी के साथ मैं भी धुंआ छोड़ने लगा। दस हज़ार रुपये! मतलब अख़बार में छपे 18-20 लेख। मतलब अख़बार की छह महीने की कमाई और बीस नए आइडियाज़! जबकि मैं तो वहां सिर्फ एक नए आइडिया की तलाश में गया था। हे भगवान! रेंज बढ़ाने के चक्कर में मैं रूट बदलने के चक्कर में आख़िर क्यों पड़ा। रचनात्मकता साहस ज़रूर मांगती है मगर एक आइडिया के लिए दस हज़ार का नुकसान उठाने का साहस, हिंदी लेखक में नहीं है। शायद मैं ही बहक गया था। जैक फोस्टर, तुमने मुझे मरवा दिया!

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

काश! हम औपचारिक रूप से एलियन होते!


एक राष्ट्र के रूप में भारत के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि अपनेआप में स्वतंत्र ग्रह न होकर हम इसी धरती का हिस्सा हैं जिसके चलते हमें बाकी राष्ट्रों से मेलमिलाप करना पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों का हिस्सा बनना पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय मापदंड़ों पर खरा उतरना पड़ता है। इस सबके चलते हम सफोकेशन फील करते हैं। हमें लगता है कि हमारी निजता भंग हो रही है। हमारे बेतरतीब होने को लेकर अगर कोई उंगली उठाता है तो हमें लगता है कि वो ‘पर्सनल’ हो रहा है। हमारी हालत उस शराबी पति की तरह हो जाती है जो कल तक घऱ में बीवी बच्चों को पीटता था और आज वो मोहल्ले में भी बेइज्जती करवाकर घर आया है। अब घर आने पर वो किस मुंह से कहे कि मोहल्ले वाले कितने गंदे हैं क्योंकि पति के हाथों रोज़ पिटाई खाने वाली उसकी बीवी तो अच्छे से जानती है कि मेरा पति कितना बड़ा देवता है। दुनिया देवता समान पति को घर में शर्मिंदा कर देती है। उसके लिए ‘डिनायल मोड’ में रहना कठिन हो जाता है। और नाराज़गी में वो घर बेचकर किसी निर्जन टापू पर चला जाता है। जहां वो ‘अपने तरीके’ से रहते हुए बीवी बच्चों को पीट सके और उसे शर्मिंदा करने वाला कोई न हो। मगर राष्ट्रों के लिए इस तरह मूव करना आसान नहीं होता। होता तो एक राष्ट्र के रूप में हम भी किसी और ग्रह पर शिफ्ट कर जाते जहां हम अपने तरीके से जीते। विकास नीतियों की आलोचना करते हुए जहां कोई रेटिंग एजेंसी हमारी क्रेडिट रेटिंग न गिराती, सरकारी दखल पर इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी ओलंपिक से बेदखल न करती, ट्रांसपेरंसी इंटरनेशनल जैसी संस्था हमें भ्रष्टतम देशों में न शुमार करती। एमनेस्टी इंटरनेशनल मानवाधिकारों के हनन पर हमें न धिक्कारती। और अगर कोई उंगली उठाता तो हम उसे विपक्ष का षड्यंत्र बताते, अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ का दलाल बताते, संवैधानिक संस्थाओं पर शक करते और आम आदमी के विरोध करने पर उसे 66ए के तहत भावनाएँ आहत करने का दोषी बता गिरफ्तार करवा देते। काश! हम एक स्वतंत्र ग्रह होते तो दुनिया से बेफिक्र, अपने ‘डिनायल मोड’ में जीते और खुश रहते। वैसे भी दुनिया का हिस्सा होते हुए दुनिया को एलियन लगने से अच्छा है, हम औपचारिक रूप से एलियन होते!

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

सम्मान की लड़ाई और लड़ाकों का कम्फ़र्ट ज़ोन


‘अहम’ आहत होने पर इंसान सम्मान की लड़ाई लड़ता है। वजूद को बचाए रखने के लिए लड़ाई चूंकि ज़रूरी है इसलिए लड़ने से पहले बहुत सावधानी से इस बात का चयन कर लें कि आपको किस बात पर ‘अहम’ आहत करवाना है! दुनिया अगर इस बात के लिए भारत को लानत देती है कि सवा अरब की आबादी में एक भी शख्स ऐसा नहीं जो सौ मील प्रति घंटा की रफ्तार से गेंद फेंक पाए, तो आपको ये सुनकर हर्ट नहीं होना। भले ही आप मौहल्ले के ब्रेट ली क्यों न कहलाते हों, जस्ट इग्नोर दैट स्टेटमेंट। सम्मान की लड़ाई आपको ये सुविधा देती है कि दुश्मन भी आप चुनें और रणक्षेत्र भी! इसलिए जिस गली में आप क्रिकेट खेलते हैं, उसे अपना रणक्षेत्र मानें और जिस मरियल-से लड़के से आपको बेबात की चिढ़ है, उसे कहिए, साले, तेरे को तो मैं बताऊंगा तू बैटिंग करने आइयो! ये एक ऐसा नुस्खा है जिसे आप कहीं भी लागू कर, कुछ ढंग का न कर पाने के व्यर्थता बोध से ऊपर उठ सकते हैं। मसलन, आपकी बिरादरी का कोई भी लड़का अगर आठ-दस कोशिशों के बाद भी दसवीं पास नहीं कर पा रहा, आपके समाज में बच्चों के दूध के दांत भी तम्बाकू खाने से ख़राब हो जाते हैं, तो इन सबसे एक पल के लिए भी आपके माथे पर शिकन नहीं आनी चाहिए। पढ़ने के लिए, कुछ रचनात्मक करने के लिए आपको पूरी दुनिया से लोहा लेना होगा और ये काम आपसे नहीं होगा, क्योंकि आप तो सारी ज़िंदगी पब्लिक पार्क की बेंच का लोहा बेचकर दारू पीते रहे हैं। दुश्मन के इलाके में जाकर हाथ-पांव तुड़वाने से अच्छा है, अपने ही इलाके में दुश्मन तलाशिए। ऐसे में औरत और प्रेमियों से आसान शिकार भला और कौन होगा? आप कह दीजिए... आज से लड़कियां मोबाइल इस्तेमाल नहीं करेंगी, जींस नहीं पहनेंगी, चाउमीन नहीं खाएंगी। लड़के-लड़कियां प्यार नहीं करेंगे। आप फ़रमान सुनाते जाइए और धमकी भी दे दीजिए किसी ने ऐसा किया, तो फिर देख लेंगे। इन फ़रमानों को अपने ‘अहम’ से जोड़ लीजिए। औरत जात आपसे लड़ नहीं सकती। दो प्रेमी पूरे समाज से भिड़ नहीं सकते। आप ऐसा कीजिए और करते जाइए क्योंकि सम्मान की लड़ाई का इससे बेहतर कम्फर्ट ज़ोन आपको कहीं और नहीं मिलेगा।

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

वो आया, खाया और चला गया!


ज़िंदगी में बहुत सी चीज़ें और लोग स्थायी चिढ़ बन हमेशा माहौल में रहते हैं। चाहकर भी हम उनका कुछ उखाड़ नहीं पाते और जो उखाड़ सकते हैं, वो कुछ करते नहीं। ऐसे में मजबूर होकर हम चिढ़ से निपटने के लिए उनका मज़ाक बनाते हैं। चिढ़ का मज़ाक बन जाना और बने रहना व्यवस्था पर उसकी नैतिक जीत है और अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि पिछले 4 सालों से कसाब ऐसी ही नैतिक जीत का आनन्द ले रहा था। आम आदमी उस पर चुटकुले बनाकर खुश था और वो डाइट कोक के साथ बिरयानी खाकर! ऐसे में जब उसे फांसी दी गई तो बहुतों की तरह मुझे भी यकीन नहीं हुआ। ये जांचने के लिए कि मैं सपना तो नहीं देख रहा, मैंने बीवी से दो बार मुझे नाखून से नोंचने के लिए कहा और उसने रूटीन वर्क समझ बड़ी सहजता से इसे अंजाम दे दिया। दसियों चैनल पर ख़बर देखने के बाद मैं उसकी मौत को लेकर आश्वस्त तो हो गया मगर तभी अंदर के आशंकाजीवी ने सवाल पूछा कि ऐसा तो नहीं कि कसाब डेंगू से ही मरा हो, और सरकार ने शर्मिंदगी से बचने के लिए बाद में उसे फांसी पर लटका दिया हो। अगर ऐसा है, तो वाकई शर्मनाक है। मच्छर बीएमसी की लापरवाही से पनपा। बीएमसी पर शिवसेना का कब्ज़ा है। लिहाज़ा कसाब की मौत का क्रेडिट कांग्रेस को नहीं, शिवसेना को जाता है। शाम होने तक चूंकि शिवसेना ने ऐसा कोई दावा नहीं किया, लिहाज़ा मैंने भी ज़िद्द छोड़ दी। मगर मन अब भी आशंकाओं से भरा था। सिवाय अफज़ल गुरू के, कसाब की मौत पर पूरा देश खुश था। उसकी हालत वैसी ही हो गई थी जैसे बड़ी बहन की शादी के बाद सभी छोटी के पीछे पड़ जाते हैं। उसे छोड़ दें तो हर कोई इस काम के लिए सरकार की तारीफ कर रहा था। तभी मुझे लगा कि माहौल का फायदा उठा सरकार फिर से कहीं तेल की कीमतें न बढ़ा दे। सब्सिडाइज़्ड सिलेंडर की संख्या छह से दो न कर दे। कलमाड़ी फिर से आईओसी अध्यक्ष न बन जाएं। मगर रात होते होते ऐसा भी कुछ नहीं हुआ। कसाब आया, खाया और चला गया। मगर मुझे उसके चले जाने पर अब भी यकीन नहीं हो रहा। शायद निराशाभरे माहौल में इंसान को आसमान में छाए बादल भी चिमनी का धुआं लगते हैं।

पानी नहीं, पार्किंग के लिए होगा तीसरा विश्व युद्ध!


हिंदुस्तान में एकमात्र ऐसी जगह जहां मैंने लोगों को बिना किसी तनाव के गाड़ी चलाते देखा है, वो है टीवी विज्ञापन! बंदे ने शोरूम से गाड़ी निकाली और खाली पड़ी सड़क पर बेधड़क चला जा रहा है। तीस सैकेंड के विज्ञापन में उसे न तो कोई रेडलाइट मिलती है, न कोई गड्ढ़ा आता है, न कोई बाइक वाला गंदा कट मारता है और न ही उसके आजू-बाजू से सरिये लहराते कोई हाथ-रिक्शा गुज़रता है। उसका सारा ध्यान बैकग्राउंड में बज रहे जिंगल पर लिप मूवमेंट करने और बगल में बैठी बीवी को देख फ़ेक स्माइल देने में होता है। उस बाप के बेटे को इस बात की रत्तीभर भी फिक्र नहीं कि रास्ते में कहीं कोई भिड़-विड़ न जाए, नई गाड़ी पर कहीं कोई स्क्रैच न मार दे। ऐसा लगता है शोरूम से गाड़ी खरीदने से पहले उसने ज़िला कलेक्टर को इसकी जानकारी दे दी थी और उन्हीं के आदेश पर शोरूम से लेकर उसके घर तक सारा ट्रैफिक क्लियर करवा दिया गया है ताकि नई गाड़ी खरीदने से हमारे शहज़ादा सलीम के मन में जो कविता उपजी है वो घर पहुंचने से पहले ही गद्य में तब्दील न हो जाए। कहीं उस बेचारे का मूड ख़राब न हो जाए। तभी मेरी नज़र विज्ञापन में ढल रहे सूरज पर पड़ती है और ख्याल आता है कि कलेक्टर की मेहरबानी से ये घर तो फिर भी पहुंच जाएगा मगर इस वक्त गाड़ी लगाने के लिए क्या इसे सोसाइटी में जगह मिलेगी? नहीं, बिल्कुल नहीं...शोरूम से निकलने के बाद हमारा हीरो गाड़ी लेकर मंदिर जाएगा और घर लौटते-लौटते उसे काफी देर हो चुकी होगी। और ये उम्मीद करना कि इसकी नई गाड़ी के सम्मान में पड़ौसी आज एक पार्किंग खाली छोड़ देंगे, गाड़ी के विज्ञापन में उसके माइलेज के दावे को सच मान लेने जैसी मूर्खता होगी। घर पहुंचने पर बंदे को पार्किंग मिली या नहीं, विज्ञापन इस बारे में कुछ नहीं बताता। वो उन्हें किसी अनजाने पहाड़ की हसीन वादियों में जिंगल गुनगुनाते छोड़ देता है। ठीक वैसे ही जैसे फिल्म में तमाम संघर्षों के बाद लड़का लड़की की शादी हो जाती है और आख़िर में लिखा आता है, ‘एंड दे लिव्‍ड हैप्पिली एवर आफ्टर’। जबकि शादी के बाद आज तक कितने लोग हैप्पिली जी पाए हैं, ये बताने की ज़रूरत नहीं। कुछ इसी अंदाज़ में ये विज्ञापन भी ख़त्म हो जाता है और आख़िर में लिखा आता है, ‘एंड दे ड्रोव हैप्पिली एवर आफ्टर’! और मेरा दिल करता है पलटकर पूछूं कि दे ड्रोव हैप्पिली एवर आफ्टर...बट कुड दे पार्क देयर कार ईज़ली एवर आफ्टर! मैं ऐसा कोई सवाल नहीं पूछता लेकिन जानता हूं कि फिल्मी हीरो के स्टाइल में लड़की को पा लेना कोई बड़ी चुनौती नहीं है, शादी के बाद उससे निभा लेना है। उसी तरह ड्राइविंग स्कूल से पंद्रह दिन में ड्राइविंग सीख लेना और ‘एक मिनट में कार लोन’ पास करने वाले किसी बैंक से लोन ले गाड़ी खरीदना कोई चैलेंज नहीं है; असली चुनौती उस कार के लिए पार्किंग ढूंढना है! घर से ऑफिस के लिए निकलो तो बचा हुआ असाइनमेंट, धूर्त सहकर्मी, नकचढ़ा बॉस इंसान की चिंताओं में बहुत पीछे होते हैं, सबसे पहले ये सोच-सोचकर उसका खून सूखने लगता है कि क्या ऑफिस पहुंचने पर मुझे पार्किंग मिलेगी! और अगर आप ऑफिस पहुंचने में ज़रा लेट हो गए तो पार्किंग में जगह बनाना, जवानी में किसी खूबसूरत लड़की के दिल में जगह बनाने से ज़्यादा मुश्किल हो जाता है। मेरा दावा है कि जब एक आदमी वर्कप्रेशर की बात करता है तो उसका 30 फीसदी हिस्सा ऑफिस जाकर खुद के लिए पार्किंग ढूंढने का होता है। व्यक्तिगत जीवन के तनाव का 40 फीसदी सोसाइटी में पार्किंग रिज़र्व न होने से होता है और जब वो कहता है कि आजकल खरीदारी मुश्किल हो गई है तो उसका मतलब महंगाई से नहीं, बाज़ार में पार्किंग न मिलने से होता है! मेरा मानना है कि ये समस्या इतनी गंभीर है कि ‘व्यावसायिक भविष्यफल’ और ‘प्रेम भविष्यफल’ की तर्ज पर अख़बारों को रोज़ ‘पार्किंग भविष्यफल’ भी देने चाहिए ताकि बंदा घर से निकलने से पहले पार्किंग में आने वाली मुश्किलों के लिए खुद को तैयार कर पाए। जानकार कहते हैं कि अगर तीसरा विश्वयुद्द हुआ तो पानी के लिए होगा मगर मुझे लगता है इस वक्त पार्किंग की जो स्थिति है उसमें तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए नहीं, पार्किंग के लिए होगा। हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर कल को ख़बर मिले कि किसी बड़े देश ने छोटे देश पर सिर्फ इसलिए हमला कर दिया ताकि उसे अपने पार्किंग लाउंज के तौर पर इस्तेमाल कर पाए! और जिस तरह आजकल चीन नेपाल के साथ नज़दीकी बढ़ा रहा है, मुझे उसका इरादा नेक नहीं लगता! (नवभारत टाइम्स 22 नवम्बर, 2012)

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

छुट्टियां लेने का टेलेंट!


जैसे यूनिवर्सिटीज़ में विज़ि‍टिंग प्रोफेसर होते हैं, उसी तरह हर ऑफिस में कुछ विज़ि‍टिंग एम्पलॉई होते हैं। स्थायी होने के बावजूद, ये रोज़ ऑफिस आने की किसी बाध्यता को नहीं मानते। ऐसे लोग ऑफिस तभी आते हैं जब इन्हें ऑफिस की तरफ कुछ काम पड़ता है। और अगर ये दो दिन लगातार दफ्तर आ जाएं तो लोग इन्हें इस हैरानी से देखते हैं कि जैसे दिल्ली की सड़क पर किसी अफ्रीकन पांडा को देख लिया हो। मगर मेरा मानना है कि ज्यादा छुट्टी लेने वाले यही लोग किसी भी ऑफिस में सबसे ज्यादा क्रिएटिव होते हैं। अब अगर आप हर हफ्ते एक-दो छुट्टी ले रहे हैं तो बॉस को जाकर ये तो नहीं कहते होंगे कि सर, मैं ये वाहियात काम कर-करके थक गया हूं, मुझे छुट्टी चाहिए। न ही हर हफ्ते आपको ये कहने पर छुट्टी मिल सकती है कि मुझे कानपुर से आ रही बुआ की लड़की को लेने स्टेशन जाना है। बुआ की लड़की जो एक बार कानपुर से आ गई है, उसे वापिस कानपुर की ट्रेन में बैठाने के लिए आप ज्यादा से ज्यादा एक छुट्टी और ले सकते हैं। जाहिर है अगली बार छुट्टी लेने के लिए आपको कुछ और बहाना बनाना पड़ेगा। अब ये तो आपको मानना पड़ेगा कि जो आदमी हर हफ्ते इतने बहाने सोच पा रहा है, उसकी कल्पनाशक्ति अच्छी है। उसका दिमाग विचारों से भरा है। और देखा जाए तो एक तरह से ये काम सप्ताह में दो हास्य कॉलम लिखने से ज्यादा मुश्किल है। कालम लिखने के लिए आपको सिर्फ आइडिया सोचना है जबकि छुट्टी लेने के लिए आपको न सिर्फ आइडिया सोचना है बल्कि पूरी कंविक्शन के साथ बॉस के सामने उसे एग्‍ज़ीक्‍यूट भी करना है। मतलब आप जानते हैं कि आप झूठ बोल रहे हैं। बॉस भी जानता है कि आप झूठ बोल रहे हैं। बावजूद इसके बहाना इतना अकाट्य हो, एक्टिंग इतनी ज़बरदस्त हो कि बॉस को भी समझ न आए कि मैं इसे कैसे मना करूं। ऐसे ही छुट्टी लेने वाले एक साथी कर्मचारी से जब मैंने पूछा कि वो कैसे हर हफ्ते इतने बहाने कैसे सोच पाते हैं, तो उनका जवाब था...मेरे ऊपर कोई वर्कप्रेशर नहीं रहता न इसलिए! वैसे भी बनियान का विज्ञापन कहता है...लाइफ में हो आराम तो आइडियाज़ आते हैं। अब ये आइडिया आते रहें इसीलिए मैं छुट्टियां लेता रहता हूं।

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

क़ातिल भी तुम, मुंसिफ भी तुम!


कहीं न होने के बावजूद राजनीति में शुचिता के अपने मायने हैं। आरोपों का कलंक यहां बहुत बड़ा होता है। ये देखते हुए कि अदालतों पर काम का पहले ही काफी बोझ है, एक नेता ज़्यादा दिन तक खुद को आरोपी कहलवाना अफोर्ड नहीं कर सकता। ऐसे में क्या किया जाए....किया ये जाए कि प्राइवेट सिक्योरिटी की तर्ज पर खुद के लिए प्राइवेट जस्टिस की व्यवस्था की जाए। अपनी ही पार्टी के दो-चार लोग जिनके साथ चाय के ठेले पर आप अक्सर चाय पीने जाते हैं, उन्हें अपने ऊपर लगे आरोपों की जांच करने का ज़िम्मा सौंपा जाए। उनकी न्यायप्रियता का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि चाय के साथ एक मट्ठी लेने पर जब वो उसे तोड़ते हैं, तो खुद बड़ा टुकड़ा अपने पास तो नहीं रखते या फिर संसद की कैंटीन में आलू का परांठा लेने पर उसके किस हद तक बराबर हिस्से करते हैं। एक बार जब इन गंभीर मुद्दों पर इंसाफ करने की उनकी काबिलियत से आश्वस्त हो जाएं तो अपने ऊपर लगे आरोपों की जांच शुरू करवा सकते हैं। अपने लोगों से जांच करवाने एक फायदा ये है कि वो इस बात को समझते हैं कि बुरा इंसान नहीं, हालात होते हैं पर अदालतें ऐसी किसी ‘इमोश्नल अपील’ को काउंट नहीं करतीं। हिंदी फिल्मों के अंदाज़ में कहूं तो अदालत सिर्फ सबूत देखती है। वहीं आपके नज़दीकी लोग सबूत के अलावा आपकी नीयत भी देखते हैं। वो देखते हैं कि आपका इरादा तो नेक था पर बरसात की रात और फायरप्लेस में जल रही आग को देख आप भड़क गए और अनजाने में भूल कर बैठे। नतीजा आप बाइज्ज़त बरी कर दिए जाते हैं और आपके पार्टी प्रवक्ता मीडिया के सामने दावा करते हैं कि हमने उनकी पूरी जांच कर ली है और हम दावे से कह सकते हैं कि उन्होंने कोई गडकरी, सॉरी गड़बड़ी नहीं की! मेरे पड़ौसी कल ही शिकायत कर रहे थे कि उनका लड़का पढ़ने में बहुत होनहार है मगर पांच साल से दसवीं में फेल हो रहा है। मैंने सवाल किया कि अगर फेल हो रहा है तो होनहार कैसे हुआ, नालायक हुआ। उनका जवाब था... ये तो सीबीएसई का आकलन है, पर मेरी उम्मीदों पर वो हमेशा ख़रा उतरता है। मैं दावा करता हूं कि इस बार सीबीएसई की जगह मुझे उसकी कॉपियां जांचने दी जाएं, वो फर्स्ट डिवीज़न लाकर न दिखाए, तो फिर कहना! (दैनिक हिंदुस्तान 9 नवम्बर, 2012) *

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

हज़ार करोड़ तक के घोटालों को मिले कानूनी मान्यता!


बुराइयों का भी अपना अर्थशास्त्र होता है। फिर चाहे वह वेश्यावृत्ति हो या सट्टेबाज़ी। तभी तो दुनिया के बहुत से देशों ने इन पर लगाम लगाने के बजाए इन्‍हें कानूनी मान्यता दे दी। इससे हुआ ये कि जो पैसा पहले पिछले दरवाज़े से पुलिस और प्रशासन के हाथों में जाता था, वो सरकारी ख़जाने में आने लगा। इससे धंधे में शामिल लोगों को तो सुकून मिला ही, सरकार की भी आमदनी बढ़ी। अब ये देखते हुए कि भ्रष्टाचार भी हिंदुस्तानी समाज की एक बड़ी बुराई है और अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद हम इसे रोकने में कामयाब नहीं हो पा रहे, सरकार को चाहिए कि रोज़-रोज़ की किचकिच से बचने के लिए अब वो इसे कानूनी मान्यता दे दे। मंत्री से लेकर विधायक तक और अधिकारी से लेकर चपरासी तक, सभी को उनकी औकात के हिसाब से एक निश्चित सीमा तक भ्रष्टाचार करने की छूट दी जाए। मसलन, केंद्रीय मंत्री को छूट हो कि वो एक हज़ार करोड़ तक का घोटाला कर सकेगा जिसमें से दो सौ करोड़ तक का घोटाला टैक्स फ्री होगा और इसके बाद हज़ार करोड़ के घोटाले तक उसे एक निश्चित दर से सरकार को टैक्स देना होगा। साल के आख़िर में उसे फार्म 16 की तर्ज पर फार्म 420 दिया जाएगा। वित्तीय वर्ष के अंत में सीटीआर (करप्शन टैक्स रिटर्न) फाइल करना अनिवार्य होगा जिससे सरकार को पता लग पाए कि अमुक व्यक्ति ने तय सीमा में रहकर भ्रष्टाचार किया है या नहीं। और जिसने भ्रष्टाचार किया है, उसके लिए ये ‘सीटीआर’, अपने भ्रष्टाचार की वैधानिक मान्यता होगी। जैसे ही उस पर कोई घपला करने का आरोप लगाए तो वो ‘सीटीआर’ की कॉपी उसके मुंह पर मारकर कह सके कि मैंने ये सब कुछ कानून की हद में रहकर किया है। इससे घपला करने वाले आदमी की आत्मा पर कोई बोझ भी नहीं रहेगा और सरकार ये सोचकर ही तसल्ली कर लेगी कि टैक्स के बहाने ही सही, उसने अपना कुछ नुकसान तो कम किया। दूसरी तरफ जब हम घोटालों के अर्थशास्त्र की बात करते हैं तो हमें ये भी समझना होगा कि अगर हर किसी घोटाले से सरकार को नुकसान होता है, तो उस घोटाले के विरोध में होने वाले प्रदर्शनों से निपटने में भी तो उसका अच्छा-खासा पैसा खर्च हो जाता है। मसलन, पचास लाख के घोटाले के विरोध में अगर पांच हज़ार लोग सड़कों पर उतर आएं तो उनसे निपटने के लिए पुलिस के दस हज़ार जवान लगाने पड़ेंगे। अब ये जवान अगर दिनभर उन लोगों से निपटते रहे तो इनकी एक दिन की तनख्वाह जोड़िए। इन पांच हज़ार लोगों को काबू करने के लिए अगर एक रात स्टेडियम में रखना पड़ा तो स्टेडियम का किराया जोड़िए। अब बंदी बनाया है, तो भूखा तो रख नहीं सकते, लिहाजा पांच हज़ार लोगों को रात का खाना खिलाना पड़ेगा। सुबह छोड़ने से पहले चाय देनी होगी। इसके बाद जिस आदमी पर इल्ज़ाम लगाया है, अगर वो दिन में प्रेस कांफ्रेंस कर दो घंटे अपनी सफाई देगा तो उसे कवर करने वहां दसियों ओबी वैन लगेंगी। बीसियों रिपोर्टर होंगे। बाद में सरकार जांच कमीशन बैठाएगी। उसकी असंख्य बैठकें होंगी। उन अंसख्य बैठकों में बिस्किट-भुजिया के हज़ारों पैकेट खाए जाएंगे। और जब तक जांच कमीशन का रिपोर्ट आएगी, पता चला कि अकेले उस बिस्किट-भुजिया का खर्च ही पचास लाख से ऊपर चला गया और जिस आदमी पर आरोप लगा था उसके खिलाफ भी कोई सबूत नहीं मिला। और अगर सरकार इस तरह के विरोध-प्रदर्शनों से होने वाली फिज़ूलखर्ची से बचना चाहती है तो उसे भ्रष्टाचार की सीमा तय करते हुए उसे कानूनी मान्यता दे देनी चाहिए। वैसे भी निवेश को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि अभी अच्छी नहीं है। दुनिया क्या सोचेगी कि जिस देश में कल तक पौने दो-दो लाख के घोटाले हुआ करते थे, आज वो कुछ एक लाख के घोटाले पर हाय तौबा मचा रहा है। हो सकता है कि घोटालों की गिरती रकम देख कोई क्रेडिट एजेंसी फिर से भारत की साख गिरा दे। एक मंत्री तो पहले ही कह चुके हैं कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन की वजह से निवेशक भारत से दूर भाग रहे हैं, अगर ऐसा हुआ तो उन्हें सबूत और मिल जाएगा। (नवभारत टाइम्स 6 नवम्बर, 2012)

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

ईमानदारी का परसेंटेज तय हो!


ज्यादा ईमानदारी जानलेवा भी साबित हो सकती है। आत्महत्या करना चूंकि विकल्प नहीं है इसलिए जानकार सलाह देते हैं कि ‘व्यवहारिक’ बनो। मतलब ईमानदारी का आह्वान मानों, मगर हालात के हिसाब से भ्रष्ट भी हो जाओ। और यहीं से सारी गड़बड़ शुरू होती है। जो स्वाभाविक तौर पर भ्रष्ट हैं, उन्हें लगता है ‘हमें बदलने की ज़रूरत नहीं’ और जो थोड़े बहुत ईमानदार हैं, वो ‘हालात के हिसाब से’ का ठीक से हिसाब से नहीं लगा पाते। तभी आप देखते हैं कि मंत्रिमंडल फेरबदल में एक मंत्री को इसलिए अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी क्योंकि उसने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए नज़दीकियों को फायदा पहुंचाया और दूसरे का विभाग इसलिए बदला गया क्योंकि उसने पद पर रहते हुए कुछ ख़ास लोगों को फायदा नहीं पहुंचने दिया। मतलब एक को बेईमानी की सज़ा मिली और दूसरे को ईमानदारी की। हर मंच से चूंकि आहवान ईमानदारी का ही किया जाता है, इसलिए जो इस फेरबदल से अप्रभावित रहे, वो तय नहीं कर पा रहे कि उन्हें ईमानदारी की कौनसी मुद्रा अपनानी है। अपनी कार्यशैली में ऐसे कौनसे भाव लाने हैं जिससे वो दुनिया को शराफत का पुतला दिखें और अपनी शराफत में इतना भी आक्रामक नहीं होना कि सरकार इस पुतले का ही दहन कर दे। लिहाज़ा मेरी सरकार से गुज़ारिश है कि वो आज ही ईमानदारी को लेकर एक गाइडलाइन जारी करे। गणितिय विश्लेषण में माहिर कपिल सिब्बल बताएं कि एक मंत्री और नौकरशाह को कितने परसेंट ईमानदार होना चाहिए। कितने प्रतिशत से कम ईमानदार होने पर उसे मंत्रिमंडल से निकाला जा सकता है और कितने फीसद से ज्यादा कर्तव्यनिष्ठ होने पर उसका विभाग बदला जा सकता है। सरकार, नौकरशाहों को आदेश दे कि तुम्हें किसी भी भ्रष्टाचारी को छोड़ना नहीं है सिवाए...अब इस ‘सिवाए’ के अंतर्गत उन कम्पनियों, रिश्तेदारों, परिचितों के नाम दिए जाएं जिनसे सरकार में बैठे लोगों के नज़दीकी सम्बन्ध हैं। जैसे ही ये लोग कोई ज़मीन हड़पें तो उसका लैंडयूज़ बदलकर उसे ‘एसआरज़ेड’ यानि स्पेशल रिलेटिव ज़ोन की श्रेणी में डाल दिया जाए। और एक बार कोई ज़मीन एसआरज़ेड की श्रेणी में आ जाए तो उस पर भूमि अधिग्रहण के मौजूदा कानून अमान्य माने जाएं। मेरी सलाह है कि इस गाइडलाइन को आज ही तबादलों की धमकी के साथ तमाम मंत्रियों और अधिकारियों को भेजा जाए। उम्मीद है वो मान जाएंगे। आख़िर ईमानदारी भी तो स्टेबिलिटी चाहती है।

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

प्लीज़! अपनी प्यास घटाओ!


चुनावों से पहले हर पार्टी दफ्तर के बाहर कार्यकर्ताओं की फौज लगी रहती है। हर किसी की यही कोशिश होती है कि जैसे-तैसे उसे टिकिट मिल जाए। इसी कोशिश में कार्यकर्ता अक्सर आपस में भिड़ पड़ते हैं। एक-दूसरे के सिर फोड़ देते हैं, गाली-गलौज करते हैं, लहूलुहान हो जाते हैं। और ये सब सिर्फ इसलिए कि किसी तरह उन्हें टिकिट मिल सके और चुनाव जीतकर वो देश की सेवा कर पाएं। अब अगर आप अपने आसपास नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि सेवा को लेकर ऐसी मारा-मारी शायद ही कहीं और मची हो। और अगर आप ये सोच रहे हैं कि सिर्फ चुनाव जीतने से राजनीति में लोगों की सेवा करने की तड़प शांत हो जाती है, तो आप ग़लत हैं। कोरा विधायक या सांसद बनने पर इन्हें व्यर्थता बोध सताने लगता है। ये महसूस करते हैं कि सेवा करने के जो ‘मंसूबे’ लेकर ये राजनीति में आए थे, वो तब तक पूरे नहीं हो सकते, जब तक कि इन्‍हें कोई मंत्री पद न मिल जाए। कुछ को मिल भी जाता है। मगर उनके अंदर का सेवादार इतना डिमांडिंग होता है कि कुछ समय बाद वो किसी महत्वपूर्ण मंत्रालय की मांग करने लगता है। इस तरह ये सिलसिला चलता रहता है। कालांतर में औकात के हिसाब से एक राजनेता राजनीति में सेवा करने की अपनी समस्त संभावनाओं को पा भी जाता है। मगर फिर किसी रोज़ पता चलता है कि उसने तो गरीब, बेसहारा लोगों की मदद के लिए एक ट्रस्ट भी खोल रखा है। बस, ये जानकर मैं अपने आंसू नहीं रोक पाता। खुद पर कोफ्त होने लगती है। अपने स्वार्थी जीवन पर मेरा सिर घुटने तक शर्म से झुक जाता है। दिल करता है कि इनसे पूछूं, भाई, एक जीवन में तुम इतनी सेवा कैसे मैनेज कर लेते हो। क्या लोगों की सेवा करते-करते तुम्हारा पेट नहीं भरता। तुम्हारी प्यास नहीं बुझती। मैं तो दिनभर में पांच मिनट से ज़्यादा अच्छी बात कर लूं तो मुझे मितली आने लगती है। और एक तुम हो कि...सच बताओ...कहीं तुम विज्ञापन वाली उस अभिनेत्री की बातों में तो नहीं आ गए जो कहती है...अपनी प्यास बढ़ाओ। अगर ऐसा है तो मैं आज ही उससे गुज़ारिश करता हूं कि एक बार तुमसे कह दे...अपनी प्यास घटाओ। प्लीज़ घटाओ...ये देश तुमसे रहम की भीख मांगता है। ************************************************************

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

घोटालेबाज़ों का क्रिएटिव ब्लॉक!


हिंदुस्तान में जैसे ही कोई घोटाला सामने आता है तो आप घपला करने वालों की कल्पनाशक्ति और मौलिकता पर फिदा हो जाते हैं। अकेले बैठे आप यही सोचते हैं कि क्या ऐसा भी हो सकता था, क्या ये भी किया जा सकता था? वाह! ये सब लोग कितने महान और क्रिएटिव हैं। मौका मिले तो ज़रूर इनके चरण स्पर्श करना चाहूंगा। मगर ये देख अफसोस होता है कि घोटालाशील व्यक्ति घोटाले के दौरान जितना कल्पनाशील होता है, पकड़े जाने पर वो उतना ही मामूली बर्ताव करने लगता है। तभी तो बचाव में हर भ्रष्टाचारी की दलीलें एक सी होती है। मसलन, ‘ये आरोप मेरे खिलाफ एक साज़िश हैं’। आप सोचते हैं, भाई, पांच साल में आम आदमी की तनख्वाह पांच हज़ार नहीं बढ़ी और तुमने अपनी सम्पत्ति पांच हज़ार गुणा बढ़ा ली। ऊपर से कहते हो कि ये आरोप मेरे खिलाफ साज़िश है। अगर ये साज़िश है तो तुम शुक्रिया अदा करो माता रानी का जिसने इस साजिश का शिकार बनने के लिए तुम्हें चुना। वरना तो पांच हज़ार कमाने वाले आदमी को ज़िंदगी ही अपने खिलाफ एक साज़िश लगने लगती है। वो फिर कहता है कि नहीं, ये आरोप मेरे खिलाफ साज़िश हैं और आप कहते हैं, यार, मज़ा नहीं आया। ऐसा करो तुम दो दिन और ले लो मगर किसी बढ़िया बहाने के साथ आओ। प्लीज़ बी मोर क्रिएटिव। इस लाइन में पंच नहीं है! वो दो दिन और लेता है और फिर कहता है, ‘मेरे खिलाफ ये आरोप सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लिए लगाए गए हैं’। आप अपना सिर पीटते हैं और कहते हैं, क्या हो गया है तुम्हें मेरे काबिल दोस्त। ‘सस्ती लोकप्रियता’ का बहाना तो शाहिद आफरीदी के बर्थ सर्टिफिकेट से भी पुराना है। वैसे भी महंगाई के इस दौर में जब तुम सस्ते या मुफ्त लोन ले सकते हो तो क्या दुनिया सस्ती लोकप्रियता नहीं बटोर सकती। कुछ नया बताओ। आपके बार बार कहने पर भी वो कुछ नया नहीं बता पाता और बताए भी कैसे? इस देश में भ्रष्टाचार करते वक्त आदमी को ये अटूट विश्वास होता है कि वो कभी पकड़ा नहीं जाएगा। इसलिए वो अपनी सारी कल्पनाशक्ति भ्रष्टाचार में तो लगा देता है मगर पकड़े जाने के बाद क्या कहना है, इस बारे में कभी नहीं सोचता। तभी तो जो नवीनता उनके घोटालों में होती है, वो उनके बहानों में नहीं।

बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

आलसियों से बची है दुनिया की शांति!


अगर आप बेहद आलसी हैं और हर वक्त इस गिल्ट में जीते हैं कि आपका सारा दिन पड़े रहने में बीतता है और कोई भी काम आप वक्त पर नहीं करते तो आपको ज़रा-भी शर्मिंदा होने की ज़रूरत नहीं है। मेरा मानना है कि मौजूदा समय में दुनिया में जो थोड़ी-बहुत शांति बची है, उसका सारा क्रेडिट आलसियों को जाता है। रजनीश ने कहा भी है, पश्चिम का दर्शन कर्म पर आधारित है और भारतीय दर्शन अकर्मण्यता पर। और अगर आप इतिहास पर नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि दुनिया का इतना कबाड़ा ‘न करने वालों’ ने नहीं किया, जितना ‘करने वालों ने’ किया है। दरअसल कर्म इक्कीसवीं सदी का सबसे बड़ा संकट है और वैश्विक शांति को लेकर आलसी; इक्कीसवीं सदी की आख़िरी ‘होप’ है। लिहाज़ा आलसियों को कोसने के बजाए, मानव व्यवहार के अध्येताओं को इन शांति दूतों को समझना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियां इनसे सबक ले अमन के रास्ते पर आगे बढ़ पाएं। दरअसल ज़्यादातर आलसी बचपन से ही मानकर चलते हैं कि उनका जन्म कुछ महान करने के लिए हुआ है। नहाने के बाद तौलिये को रस्सी पर सुखाने और खाने के बाद थाली को रसोई में रखने जैसे मामूली काम करने के लिए वो पैदा नहीं हुए। इसलिए वो हमेशा कुछ ‘अलग’ करने की सोचते हैं। मगर इस ‘सोचने’ में उन्हें इतना आनन्द आने लगता है कि वो ‘सोचने’ को ही अपना पेशा बना लेते हैं। घरवालों की नज़र में जिस समय एक आलसी ‘पड़ा’ होता है, उस समय वो दूसरी दुनिया से कनेक्ट होता है। वो कुछ सोच रहा होता है। उसे साफ-साफ कुछ दिखाई दे रहा होता है। घरवाले सोचते हैं कि उसने चाय पीकर गिलास जगह पर नहीं रखा, मगर वो ये नहीं देख पाते कि ‘शून्य’ में ताकता उनका लाडला उस समय किसी महान नतीजे पर पहुंच रहा होता है। दुनिया की किसी बड़ी समस्या का हल निकाल रहा होता है। अब सोचना चूंकि इत्मीनान का काम है, इसलिए वो कोई डिस्टरबैंस नहीं चाहते। यही वजह है कि ज़्यादातर आलसी बहस और झगड़े अवोयड करते हैं। उन्हें लगता है कि झगड़ने से सोचने का क्रम टूटेगा। बीवी से झगड़ा होने पर अपनी ग़लती न होने पर भी आलसी माफी मांग लेता है। इस तरह आसानी ने हथियार डालने पर आलसियों की बीवियां अक्सर नाखुश रहती हैं। पति से झगड़ों में कोई चैलेंज न मिलने पर उनमें एक अलग किस्म का डिप्रेशन आने लगता हैं। इस बारे में मैंने प्रसिद्ध मनोवैग्यानिक चिंटू कुमार से बात की तो उनका कहना था कि दरअसल झगड़ा एक ऐसी क्रिया है जिसके लिए किसी भी व्यक्ति को अपने कम्फर्ट ज़ोन से निकलना पड़ता है। उसके लिए या तो आपको अपना बिस्तर छोड़ना होगा या फिर अपने डेली रूटीन से समझौता करना होगा और दोनों ही बातें आलसी के बस की नहीं। चिंटू कुमार आगे कहते हैं “हम सभी ये तो कहते हैं कि मोटे लोग स्वभाव से बड़ा मज़ाकिया होते हैं मगर क्या कभी सोचा है, ऐसा क्यों है। दरअसल मोटे लोगों को उनका भारी भरकम शरीर झगड़ने की इजाज़त नहीं देता। ज़्यादा वजन के चलते वो न तो किसी को मार के भाग सकते हैं और न ही किसी के मारने पर भागकर खुद को बचा सकते हैं। इसलिए मोटा व्यक्ति या तो झगड़े की स्थिति पैदा ही नहीं होने देता और अगर कोई और बदतमीज़ी करे, तो बड़ा दिल दिखाते हुए उसे माफ कर देता है। इस तरह अपवाद को छोड़ दें तो पहले आप अपनी अकर्मण्यता की वजह से मोटे हुए और फिर इस मोटापे की वजह से शांतिप्रिय बनें और समाज में ये ख्याति बटोरी कि ‘भाईसाहब तो बड़े मज़ाकिया हैं’, सो अलग!” मुझे याद है दलाई लामा ने एक दफा कहा था कि ज़्यादातर भारतीय नई जगहों को इसलिए नहीं खोज पाएं क्योंकि वो स्वभाव से आलसी हैं। इसका दूसरा पहलू ये है कि जो लोग नई जगह खोजने गए भी, उन्होंने भी वहां जाकर स्थानीय लोगों को लूटने और उनसे झगड़ने के अलावा क्या गुल खिलाया। सोचें ज़रा...अगर कोलम्बस ज़रा भी आलसी होता तो ये दुनिया आज उससे कहीं अधिक शांत होती, जितनी आज ये है। सच... कोलम्बस की सक्रियता ने हमें मरवा दिया।

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

प्यार अंधा होता है, वो बर्थ सर्टिफिकेट नहीं देखता!


हिना रब्बानी खार और बिलावल भुट्टो के अफेयर की ख़बर सामने आने के बाद चारों ओर उसकी आलोचना हो रही है। पर मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इन आलोचनाओं में तर्क कम और लोगों की फ्रस्‍ट्रेशन ज्यादा झलक रही है। कुछ लोगों का कहना है कि हम तो समझते थे हिना रब्बानी खार पाकिस्तान की ‘एक्सटर्नल अफेयर्स मिनिस्टर’ हैं, मगर वो तो पाकिस्तान की ‘एक्सट्रा मैरिटल अफेयर्स मिनिस्टर’ निकलीं। वहीं कुछ का कहना है कि हिना ने खुद से 11 साल छोटे बिलावल से सम्बन्ध बनाए हैं, अब हमें ये समझ नहीं आ रहा कि वो उनसे शादी करेंगी, या उन्हें गोद लेंगी। वैसे उनकी पहले से दो बेटियां हैं, अगर वो बेटा गोद लेना चाहें, तो बिलावल लड़का बुरा नहीं है! बहरहाल लोगों की इसी तरह की आलोचनाओं और विवाहेतर सम्बन्धों के बारे में ज्ञान बढ़ाने के लिए मैंने स्थानीय कलंक कथाओं के एक जानकार से बातचीत की। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश: सर, बिलावल भुट्टो और हिना रब्बानी खार के सम्बन्ध के बारे में आपका क्या कहना है क्योंकि ज़्यादातर लोगों का मानना है कि दोनों की उम्र में 11 साल का फर्क है, इसलिए उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। जानकार: बरखुरदार, मुझे नहीं पता कि तुम प्यार के बारे में कितना जानते हो। मगर क्या तुमने सुना नहीं कि प्यार अंधा होता है। ये जात-पांत रंग-रूप कुछ नहीं देखता। अब जब वो जात-पांत नहीं देखता, तो बर्थ सर्टिफिकेट कैसे देख सकता है। लड़के को अगर लड़की से प्यार हुआ है तो क्या पहला सवाल वो उससे ये पूछेगा, “मैं आपसे प्यार तो करता हूं मगर आप बुरा न मानें तो क्या मैं आपकी दसवीं की मार्कशीट देखकर आपकी उम्र जान सकता हूं। एक बार अगर ये कंफर्म हो जाए कि आप उम्र में मुझसे बड़ी नहीं हैं, तो हम इस प्यार पर आगे बात कर सकते हैं।” ये कोई कमर्शिल डील नहीं होती बेटा। दिलों का लेन-देन सामान का लेन-देन नहीं है, जहां आप सौदा करने से पहले नियम और शर्तें पढ़ते हैं। ये तो बस हो जाता है। मैंने कहा, “सर वो तो ठीक है मगर एक शादीशुदा इंसान के अफेयर को आप कैसे जायज़ ठहरा सकते हैं”। जानकार (खीझते हुए): बच्चे उम्र के साथ-साथ अगर तुम्हारे दिमाग का भी बराबर विकास हुआ होता तो तुम ऐसा सवाल न पूछते! जी, मतलब? जानकार:मतलब ये कि मैंने तुम्हें अभी समझाया कि प्यार अंधा होता है। अब जब वो बर्थ सर्टिफिकेट नहीं देख सकता, तो भला मैरिज सर्टिफिकेट कैसे देखेगा...क्या तुम्हें इतनी सी बात भी समझ नहीं आती! लेकिन सर, विवाहेतर सम्बन्धों से आदमी का वैवाहिक जीवन ख़राब होता है, उसका क्या? जानकार:ये तुमसे किसने कह दिया। उल्टा एक्सट्रा मैरिटल अफेयर के बाद तो इंसान की वैवाहिक ज़िंदगी पहले से बेहतर हो जाती है। जो बीवी आपको सालों से खुद पर ध्यान न देने का ताना देती है, विवाहेतर सम्बन्धों के बाद आप जब भी उसे देखते हैं, तो आपको गिल्ट होता है। आप मन ही मन सोचते हैं कि ये मैं इसके साथ अच्छा नहीं कर रहा। और इसी गिल्ट से बचने के लिए आप उसे ज़्यादा प्यार करते हैं। बीवी ये सोचकर खुश होती है कि उसने जो 11 सोमवार के व्रत रखे हैं, ये उसका प्रताप है, फव्वारे वाले शनि मंदिर के पंडित जी से जो काला धागा बंधवाया है, उसकी कृपा है। इस सबका असर ये होता है कि बीवी पहले से ज्यादा धार्मिक हो जाती है और आप ‘आउट आफ गिल्ट’ ही सही, बीवी से प्यार तो करने लगते हैं। वैसे भी मेरा तजुर्बा है, शादी के कुछ साल बाद बिना किसी गिल्ट के बीवी से प्यार किया ही नहीं जा सकता। हां, विवाहेतर सम्बन्धों को लेकर अगर मेरी कोई शिकायत है, तो वो इसके नाम को लेकर है। अंग्रेज़ी का ‘एक्सट्रा मैरिटल अफेयर’ शब्द कितना खूबसूरत है। कितना म्यूज़िक है इस शब्द में। जबकि हिंदी का ‘विवाहेतर सम्बन्ध’ काफी औपचारिक साउंड करता है। अगर कोई नाम देना ही है तो हमें इसे ‘विवाहेतर सम्बन्ध’ नहीं, ‘विवाहेतर जीवन’ कहना चाहिए। विवाह के इतर जीवन। ऐसा जीवन जिससे एक उबाऊ वैवाहिक जीवन को नया जीवनदान मिलता है!

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

राजनीतिक दलों में उठी एफडीआई की मांग!


रिटेल सेक्टर में एफडीआई की मंज़ूरी के बाद जिस तरह की राजनीति हो रही है उससे आम आदमी तंग आ चुका है। वो मांग कर रहा है कि क्यों न राजनीति में भी एफडीआई को मंज़ूरी दे दी जाए ताकि अमेरिका की डेमोक्रेट और इंग्लैंड की लेबर पार्टी भारत में आकर वैसे ही अपनी गतिविधियां संचालित कर पाएं, जैसे वॉल मार्ट या अन्य रिटेल कम्पनियां भविष्य में करेंगी। जो लोग राजनीति में एफडीआई की बात कर रहे हैं, उनके पास अपने तर्क हैं। इस बारे में मैंने प्रमुख राजनीतिक चिंतक दिलीप शूरवीर से बात की तो उनका कहना था, “देखिए, जब ये कहा जाता है कि भारत में राजनीति धंधा हो गई तो हमारा मतलब होता है कि राजनीति में हर आदमी पैसा बनाने आता है, और उसे किसी के नफे-नुकसान की कोई फिक्र नहीं होती। दूसरा, अगर आप राजनीतिक दलों पर नज़र डालें तो पाएंगे कि हर जगह बाप की विरासत को बेटा या बाकी रिश्तेदार संभाल रहे हैं। कांग्रेस से लेकर समाजवादी पार्टी और शिवसेना से लेकर डेएमके तक, हर पार्टी में यही नज़ारा है। इस रूप में ये पार्टियां राजनीतिक दल न होकर, राजनीति की दुकानें हैं और पार्टी अध्यक्ष का पद वो गल्ला है, जिसे बाप के बाद बेटा संभालता है। जैसे मिठाई की, जूस की, किराने की, नाई की दुकान होती है उसी तरह अलग-अलग पार्टियों के रूप में हिंदुस्तान में राजनीति की भी बहुत सारी दुकानें हैं। इसलिए मेरा मानना है कि अगर रीटेल सेक्टर में विदेशी कम्पनियों को आने की इजाज़त दी जा रही है, तो विदेशी राजनीतिक दलों को भी मौका मिलना चाहिए। वैसे भी एक ग्राहक के नाते हमारे लिए जितना ज़रूरी उचित कीमत और अच्छी क्वॉलिटी की चायपत्ती खरीदना है, उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरी है कि अपने लिए ईमानदार और सक्षम राजनेता चुनना। चाय का पैकेट तो फिर भी दस दिन में नया ला सकते हैं, मगर एक बार ख़राब नेता चुनने लिया तो पांच साल तक पछताना पड़ेगा।” इस पर जब मैंने उनसे पूछा कि मगर विदेशी जब भारत आएंगे तो क्या हमारी जनता उन्हें स्वीकार करेगी, वो तो हमारी भाषा तक नहीं जानते? तो श्री शूरवीर ने कहा, “देखिए पिछले डेढ़ दशक की हमारी राजनीति ने ये साबित किया है कि ‘विदेशी मूल’ हमारे लिए कोई मुद्दा नहीं है। रही बात भाषा की, तो जैसे हमारे बहुत-से नेता रोमन में लिखा भाषण हिंदी में पढ़ते हैं, उसी तरह विदेशी राजनेता भी पढ़ लेंगे।” “मगर क्या इस तरह का भाषण जनता को समझ आएगा और भाषण ही समझ नहीं आएगा तो फिर आम आदमी अपने नेता से संवाद कैसा करेगा?” श्री शूरवीर (हंसते हुए), “देखिए श्रीमानजी, गंभीर बात करते-करते अब आप मज़ाक पर उतर आए हैं। अगर हमारे नेता जनता से संवाद करते होते, तो राजनीति में एफडीआई की मांग उठती ही क्यों? वैसे भी बात कर आम आदमी नेताओं को अपनी हालत ही बताएगा और जो हालत उन्हें इतने सालों में देखकर समझ नहीं आ रही है, वो बात करने से भला ज़्यादा कैसे समझ आ जाएगी!” सशर्त समर्थन को तैयार बहरहाल, राजनीति में एफडीआई के बारे में जब हमने एक नेता जी से उनकी प्रतिक्रिया ली तो उनका कहना था कि कोई भी चीज़ एकतरफा नहीं होती। अगर विदेशी राजनीतिक दल भारत आना चाहतें हैं तो उनका स्वागत है, मगर हमारी पार्टियों को भी वहां न सिर्फ जाने की, बल्कि अपने तरीके से राजनीति करने की इजाज़त दी जाए! मसलन, अगर हमारी पार्टी की लॉस एंजेलिस में कोई सभा है तो हमें छूट मिले कि हम न्यूयार्क से ट्रालियों में लोगों को भरकर लॉस एंजेलिस ला सकें। चुनाव जीतने के बाद लंदन के हर गली-चौराहे पर अपनी मूर्तियां स्थापित कर सकें, यूरोपियन यूनियन की मज़बूती के लिए स्पेन से लेकर फ्रांस तक रथ यात्रा निकाल सकें, और तो और बारबाडोस और मालदीव में जब चाहें किसी भारतीय मूल के किसी दलित परिवार के घर धावा बोलकर खाना खा सकें। अब अगर वो अपने-अपने देशों में भारतीय नेताओं को ये सब गुल खिलाने देने के लिए तैयार हैं तो जब चाहें भारत आकर हमसे दो-दो हाथ कर सकते हैं!

सोमवार, 17 सितंबर 2012

सरकार जनता को भंग कर दे!


ये कतई ज़रूरी नहीं है कि जनता को ही योग्य सरकार न मिले। ऐसा भी हो सकता है कि सरकार को ही योग्य जनता न मिल पाए। और मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि हम भारतवासी जनता के रूप में सरकार के योग्य नहीं। तभी तो सरकार जब बिना बोली के टेलीकॉम स्पेक्ट्रम और कोयला ब्लॉक बेचती है तो हम कहते हैं लाखों करोड़ का घोटाला हुआ है। वो समझाती है कि इससे तुम्हें ही कॉल रेट सस्ती पड़ेगी, सस्ती बिजली मिलेगी, मगर हम नहीं मानते। हम शिकायत करते हैं कि ये राष्ट्रीय संसाधनों के साथ खिलवाड़ है, इसकी उचित कीमत वसूली जानी चाहिए थी। सरकार अच्छे बच्चे की तरह हमारी बात मान अगले दिन जब डीज़ल और रसोई गैस की कीमत बढ़ाती है तो हम चिल्लाते हैं, अरे, ये तुमने क्या किया। हमारे ‘ओवररिएक्शन’ को सरकार समझ नहीं पाती और पूछती है, “क्यों अब क्या हुआ, तुमने ही तो कहा था कि राष्ट्रीय महत्व की चीज़ों की उचित कीमत वसूलनी चाहिए।” आम आदमी कहता है,“वो तो ठीक है, मगर हमसे क्यों?” सरकार को चूंकि अगले चुनाव में आपसे फिर वोट मांगना है इसलिए वो इस ‘हमसे क्यों’ का जवाब नहीं देती। मगर मैं पूछता हूं कि अगर तेल कम्पनियों को रोज़ाना लाखों का घाटा हो रहा है तो ये घाटा आपसे नहीं, तो क्या मिस्र की जनता से वसूला जाएगा? हर वक्त ये मानते रहना कि सारे बलिदान हम ही कर रहे हैं, खुद को ज़बरदस्ती शहीद मानने वाली बात है। अगर आपको सालभर में सब्सिडी वाले सिर्फ छह सिलेंडर ही मिलेंगे तो उन नेताओं के बारे में भी सोचिए, जिनके ग्यारह-ग्यारह बच्चे हैं। उनके तो सारे सब्सिडाइज्‍ड सिलेंडर पहले महीने में ही ख़त्म हो जाएंगे। इसी तरह डीज़ल की बढ़ी कीमतों पर ऐसे लोग भी हायतौबा मचा रहे हैं जो सालों से पेट्रोल कार यूज़ कर रहे हैं। जिस दुख से वो वाकिफ नहीं, उसके बारे में चिल्लाकर भ्रम पैदा कर रहे हैं। इससे समाज में तनाव फैल सकता है। लिहाज़ा मेरा सरकार से अनुरोध है कि सख्त कार्रवाई करते हुए ऐसे लोगों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाए तभी वो सुधरेंगे। ब्रेताल्ड ब्रेस्ट की एक कविता की पंक्ति है, “सरकार इस जनता को भंग कर दे और अपने लिए नई जनता चुन ले”! यूपीए सरकार चाहे तो ब्रेताल्ड की ये सलाह मान सकती है। (दैनिक हिंदुस्तान, 17 सितम्बर)

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम है भ्रष्टाचार

दोस्तों, पहचान का इस बात से कोई ताल्लुक नहीं है कि वो अच्छी है या बुरी। ज्यादा मायने रखता है उस पहचान को बनाने के लिए की गई मेहनत। मसलन अगर कोई आदमी मोहल्ले का सबसे बड़ा गुंडा कहलाता है तो वो छह महीने पहले किसी को एक चपत लगाकर तो गुंडा बना नहीं। इसके लिए उसने सच्ची लगन और निष्ठा से महीनों तक न जाने कितनों की हड्डियां तोड़ी। उसी तरह कोई एक्टर एक हिट फिल्म देकर सुपरस्टार नहीं बनता, इसके लिए उसे दसियों सुपरहिट फिल्में देनी पड़ती है। मतलब, पहचान कोई ‘हादसा’ नहीं है, ये एक दिशा में किया गया ‘डेलीब्रेट एफर्ट’ हैं। इसलिए जब कोई इंसान या राष्ट्र अपनी पहचान नकारता है, तो मुझे समझ नहीं आता वो चाहता क्या है। सालों तक पहचान बनाने के लिए एक तो तुमने इतनी मेहनत की और जब दुनिया तुम्हें उस रूप में मान्यता देने लगी है, तो तुम नखरे कर रहे हो। और यही मेरी सबसे बड़ी आपत्ति है कि आज जब पूरी दुनिया भ्रष्ट राष्ट्र के रूप में भारत को मान्यता दे रही है, तो हम इतने नखरे क्यों कर रहे हैं। ऐसा करके हम दुनिया से तो अपने सम्बन्ध तो ख़राब कर ही रहे हैं, उस मेहनत का भी अपमान कर रहे हैं जो पिछले साठ सालों में हमारे हुक्मरानों ने की है। वक्त आ गया है कि दुनिया की इस मान्यता के लिए हम उसका शुक्रिया अदा करें और उसे बताएं कि कैसे भ्रष्टाचार हमारे यहां ‘सांस्कृतिक अभिव्यक्ति’ का सबसे बड़ा माध्यम है। उन्हें समझाए कि हमारी लाइफ में भ्रष्टाचार नहीं है बल्कि भ्रष्टाचार हमारे लिए ‘वे आफ लाइफ है’। और ये तमाम बातें निम्नलिखित बिंदुओं के ज़रिए समझाई जा सकती है। वस्तु से पहले व्यक्ति: ऐसे समय जब दुनिया, दुनिया न होकर एक बहुत बड़ा बाज़ार हो गई है और हर चीज़ बिकने के लिए उपलब्ध है, इसे हमारे संस्कार ही कहे जाएंगे कि आज भी हम हर बिक्री में वस्तु से पहले व्यक्ति को तरजीह देते हैं। तभी तो हम अरबों की कोयला खदानों को ‘जनता के फायदे’ के लिए बिना ऑक्शन के कौड़ियों के भाव बेच देते हैं और दो कोडी के खिलाड़ियों को आईपीएल के ऑक्शन में करोड़ों रूपये दिलवा देते हैं। ‘आम आदमी’ को काल रेट मंहगा नहीं पडे इसलिए टेलीकाम मंत्री स्पेक्ट्रम की बोली नहीं लगवाते और ऊर्जा मंत्री दलील देते हैं कि अगर खदानों की बोली लगाई जाती तो ‘आम आदमी’ को बिजली महंगी पड़ती। अब ध्यान देने लायक बात ये है कि जिसे दुनिया लाखों करोड़ का घोटाला कहते नहीं थक रही, उसके केंद्र में आम आदमी की चिंता है! अब आम आदमी की चिंता कर अगर हम कुछ नुकसान उठा रहे हैं तो ये हमारी मूर्खता नहीं, हमारे संस्कार हैं और जैसा कि सभी जानते हैं, व्यक्ति हो या राष्ट्र संस्कारवान होने की कुछ कीमत तो सभी को चुकानी ही पड़ती है! सामाजिक न्याय का अस्त्र: प्रमोशन में आरक्षण के लिए भले ही कुछ लोग राजनेताओं को कोस रहे हो मगर उन्हें ये भी देखना चाहिए राजनीति में भ्रष्टाचार के मौके सभी को देकर हमारे नेता अपने स्तर पर तो उसकी शुरूआत कर ही चुके हैं। तभी तो दलित होने के बावजूद ए राजा पौने दो लाख करोड़ का टेलीकाम स्पैक्ट्रम घोटाले कर देते हैं और आदिवासी होने के बावजूद मधु कोड़ा चार हज़ार करोड़ का मनी लांडरिंग घोटाला। पिछड़ी जाति के लालू यादव एक सौ पचास करोड़ का चारा घोटाला कर भैंसों का निवाली छीन लेते हैं और मुस्लिम होने के बावजूद हसन अली को 80,000 करोड़ की टैक्स चोरी करने में कोई दिक्कत नहीं आती। अगर इस देश में आप आदमी से पूछे कि क्या कभी उसे उसकी जाति या धर्म की वजह से कोई भेदभाव झेलना पड़ा तो हो सकता है वो आपको दसियों कारण बता दें मगर किसी घपलेबाज़ को शायद ही कभी उसकी जाति या धर्म की वजह से भ्रष्टाचार करने से किसी ने रोका हो। आर्थिक शक्ति का परिचायक: अगर आपके किसी पड़ोसी के यहां चोरी हो जाए और आपको पता लगे कि चोर उसके यहां से तीस तौले सोना और बीस लाख रुपये नगद ले उड़े तो आपको उसके लिए हमदर्दी बाद में होगी पहले ये ख्याल आएगा साले के पास इतना पैसा था क्या? ठीक इसी तरह हम सालों से खुद के आर्थिक महाशक्ति बनने का दावा कर रहे हैं मगर ट्रेन के सफर के दौरान विदेशी जब देखते हैं कि लाखों भारतीय सुबह सबुह अपनी सारी शक्ति खुले में फ्रेश होने में लगा रहे हैं तो उन दावे की पोल खुल जाती है। वो हमारी बातों पर यकीन नहीं करते। लेकिन जैसे ही वो अख़बारों में पढ़ते हैं कि भारत में पौने दो लाख करोड़ का स्पैक्ट्रम घोटाला हुआ, 1 लाख छियासी हज़ार करोड़ का कोयला घोटाला और 48 लाख करोड़ का थोरियम घोटाला तो उन्हें भी हमारे पैसा वाला होने पर यकीन करना पड़ता है। अंग्रेज़ लेखक चार्ल्स कोल्टन ने कहा था कि भ्रष्टाचार बर्फ के उस गोले की तरह है जो एक बार लुढ़कने लगता है तो फिर उसका आकार बढ़ता जाता है। 1948 में हुए 80 लाख के जीप घोटाले से लेकर 2012 में 1 लाख छियासी हज़ार करोड़ के कोयला आवंटन घोटाले तक भ्रष्टाचार रूपी ये बर्फ का गोला, गोला न रहकर बर्फ का पहाड़ बन चुका है। पूरे देश पर सफेद चादर बिछी है। ऐसा लगता है मानों मृत उम्मीदों को किसी ने कफन ओढ़ा दिया हो।

शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

मूर्खताओं को चाहिए बड़ा मंच!

मैं हमेशा इस बात का पक्षधर रहा हूं कि व्यक्ति हो या राष्ट्र, उसकी एक पहचान होनी चाहिए। अब इस पहचान का इस बात से कोई ताल्लुक नहीं है कि वो अच्छी है या बुरी। इसके लिए ज़रूरी है कि जो मूर्खताएं या करतब अब तक आप छोटे स्तर पर दिखाते रहे हैं, उसे बड़े मंच पर परफॉर्म करें ताकि आपका हुनर ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंच पाए। जैसे मोटे तौर पर हर हिंदुस्तानी ये जानता है कि हमारे यहां 8 से 10 घंटे बिजली न रहना आम बात है। मगर ‘हमारे यहां घंटों बिजली नहीं रहती’ ये अपने आप में एक कैज़ुअल स्टेटमेंट है, इस पर कोई ध्यान नहीं देने वाला। और इसका नुकसान ये हो रहा है कि रोज़ाना घंटों बिजली गुल रहने के बावजूद विश्व मानचित्र में भारत की ‘पावर कट नेशन’ के तौर पर कोई पहचान नहीं बन पा रही। ऐसे में क्या किया जाए...किया ये जाए कि नदर्न ग्रिड फेल कर दो...अब एक साथ देश के नौ राज्यों में बिजली चली गई...पूरे देश में हाहाकार मच गया...टीवी से लेकर अख़बार तक हर जगह बिजली गुल रहना सुर्खियां बना...जबकि माई लॉर्ड ध्यान देने लायक बात ये है कि इस कट के दौरान भी रोज़ाना की तरह बिजली सिर्फ आठ से दस घंटे तक ही नहीं आई। तो सवाल ये है कि जो कटौती हमारी सामान्य दिनचर्या का हिस्सा है, उस पर इतना क्लेश क्यों? शायद इसलिए क्योंकि इस बार बिजली गुल रखने का ये गुल हमने एक साथ कई राज्यों में खिला दिया। नतीजा ये हुआ कि एक साथ चारों ओर से सरकार को गालियां पड़ीं। भारत सहित विश्व मीडिया में इसकी चर्चा हुई... भारत को लानत देते हुए दुनिया ने कहा, ‘अरे! ये कैसा देश है जहां घंटो बिजली नहीं रहती’, और आख़िरकार हमने एक ऐसे अवगुण के लिए वर्ल्ड लेवल पर अपनी पहचान बना ली, जो सालों से हममें विद्यमान तो था मगर हम उसे एनकैश नहीं कर पा रहे थे! और जैसा कि होता है जब आप बड़े मंच पर परफॉर्म करते हैं तो आपको उसका रिवॉर्ड भी बड़ा मिलता है। लगातार दो दिनों तक नदर्न ग्रिड फेल हुआ, आधा देश अंधेरे में डूब गया और इस सबसे खुश होकर कांग्रेस ने ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे को गृहमंत्री बना दिया। मानो वो संदेश देना चाह रही हो कि लोगों को अंधेरे में रखने का हम क्या इनाम देते हैं! (दैनिक हिंदुस्तान 3 अगस्त, 2011)