शनिवार, 12 जुलाई 2008

फुटबॉल में गोल!

ख़बर पढ़ी कि यूरो कप में जीत के बाद स्पेन फीफा रैंकिंग में पहले स्थान पर पहुंच गया। कुछ बड़ी टीमों की रैंकिंग के अलावा आख़िर में लिखा था कि ताज़ा रैंकिंग में भारत ने 153 वां स्थान बरकरार रखा है। वाह! कैसा गौरवशाली क्षण है! दिल किया भोंदूराम हलवाई की दुकान से 5 किलो जलेबी ला पूरे मोहल्ले में बांटूं। रिक्शे पर ढोल बजाता शहरभर घूमूं। महिलाएं घरों के आगे रंगोली बनाएं। लड़कियां मेहंदी लगवाएं। बच्चे पटाखे फोड़ें। कवि ओजपूर्ण कविताएं लिखें। पीने का बहाना ढूंढने वाले ठेकों का रुख करें। राष्ट्रीय प्रवक्ता महेश भट्ट जीत की महिमा बताएं और सरकार में ज़रा भी राष्ट्र प्रेम बाकी है तो वो राष्ट्रीय अवकाश घोषित करे। आख़िर मामला 153 वां स्थान ‘बरकरार’ रखने का है।

जहां तक मेरा भाषायी ज्ञान है इंसान उपलब्धियों को बरकारार रखता है शर्मिंदगी को नहीं। जैसे वित्तमंत्री कहते हैं नौ फीसदी विकास दर ‘बरकरार’ रखना चुनौती होगा लेकिन 153 वें स्थान को बनाए रखने के लिए भारत को क्या चुनौतियां झेलनी पड़ीं, ये शोध का विषय है। क्या ये स्थान हमने अच्छी फुटबॉल खेल कर बरकरार रखा है या फिर इसके लिए राजनयिक स्तर पर कोशिशें की गईं। गरीब देशों को धमकाया गया कि हमें पछड़ाने की कोशिश की तो चावल सप्लाई रोक दी जाएगी या फिर गृहयुद्द के चलते कुछ देश फुटबॉल नहीं खेल पाए। कहीं तुनकमिजाज राजा ने खेल पर प्रतिबंध लगा दिया तो कहीं छोटे देशों ने आपस में विलय कर लिया। जानना चाहता हूं कि इस महान उपलब्धि के लिए हम खुद ज़िम्मेदार हैं या फिर बाहरी कारण।

कुछ लोगों को लग सकता है कि मैं दीन-हीन भारतीय फुटबॉल का मज़ाक उड़ा रहा हूं। तो राष्ट्रीय फुटबॉल टीम के कोच बॉब हॉटन का बयान मुलाहिज़ा फरमाएं। ‘अगर भारत 2018 के विश्व कप फुटबॉल के लिए क्वॉलिफाई करना चाहता है तो राज्य संघों को अपना रवैया सुधारना होगा।‘
कहना नहीं चाहिए मगर भारतीय दंड विधान के तहत अगर अव्यावहारिक सपने देखना अपराध की श्रेणी में आता तो हॉटन को सज़ा से बचाने के लिए उनके वकील को काफी मेहनत करनी पड़ती। 153 वां स्थान बरकरार रखना अगर मज़ाक है तो 2018 विश्व कप के लिए क्वॉलिफाई करने की बात करना गैर ज़मानती अपराध है। फुटबॉल संघ के मुखिया प्रियरंजन दास मुंशी से कुछ वक़्त पहले एक पत्रकार ने उनके कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि पूछी तो उनका जवाब था मेरे आने से पहले संघ घाटे में चल रहा था जबकि अब मुनाफा पांच करोड़ हो गया है। कह सकते हैं कि जब संघ के मुखिया को ही खेल की बेहतरी इसके बहीखाते में दिखती हो ऐसे में 153 वां स्थान ‘बरकरार रखना’ भी तो उपलब्धि हो ही सकता है।

शुक्रवार, 11 जुलाई 2008

सलाह छोड़ना मना है! (हास्य-व्यंग्य)

जिस तरह ताने मारने के लिए, चुगली करने के लिए और मज़ाक उड़ाने के लिए होता है, उसी तरह सलाह देने के लिए होती है। हर आदमी सलाहों की फैक्ट्री खोले बैठा है। सलाहों के गोदाम भरे पड़े हैं। इस रूट में सारा ट्रैफिक वन-वे है। इस क्नेक्शन में सारी कॉल्स आउटगोइंग हैं। सलाहों के मैसेज सेंड किये जा रहे हैं लेकिन डिलीवरी रिपोर्ट नहीं आ रही। पूरे माहौल में सलाह ही सलाह है। दम घुटने लगा है। सलाह प्रदूषण हो गया है। ज़रूरत है, 'सलाह नियंत्रण मशीनें' लगाई जायें। रास्ते में रोक लोगों की जांच की जाए कि कहीं कोई ज़्यादा सलाह तो नहीं छोड़ रहा!

पूरा मुल्क सलाहों की रणभूमि में तब्दील हो गया है। हर तरफ सलाहों के तीर छोड़े जा रहे हैं। मूर्ख समझदार से सलाह कर रहा है। मूर्ख, मूर्ख से भी सलाह कर रहा है। मूर्ख अपने अनुभव से मूर्खतापूर्ण सलाह दे रहे हैं। मूर्ख उन सलाहों को मान वैसी ही मूर्खता कर रहे हैं। तमाम मूर्खताओं पर परम्पराओं के लेबल चिपके हैं। लिहाज़ा सभी खुश है!

जिस तरह डाकू लोगों को लूटते हैं। बाप, बच्चों की अक़्ल लूट रहे हैं। बच्चे पेड़ से बंधे हैं। मुंह में कपड़े ठूंसे हुए हैं। बच्चे बेहाल है। लेकिन बाप सलाह दे कर रहेगा क्योंकि उसके बाप ने भी उसे सलाह दी थी। बच्चे सलाह मान रहे हैं, फ़ेल हो रहे हैं। वो नहीं जानते उन सलाहों की एक्सपायरी डेट आ गयी है!

प्रकृति के आधार पर सलाह देने वालों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है-
-शौकिया सलाहदाता
-स्वयंभू बुद्धिजीवी सलाहदाता
और पेशेवर सलाहदाता

हममें से ज़्यादातर शौकिया यानी 'एमेच्योर' सलाहदाता की श्रेणी में आते हैं। इनमें सलाह देने की विशेष उत्कंठा नहीं होती। न ही ये सलाह देने के लिए माहौल बनाते हैं। लेकिन मौका मिले तो चूकते नहीं हैं।

दूसरी श्रेणी स्वयंभू बुद्धिजीवी सलाहदाताओं की है। हर शहर में ये 10 से 15 प्रतिशत के बीच पाये जाते हैं। आम आदमी से दो अख़बार ज़्यादा पढ़ते हैं। वक़्त निकाल कर गीता के कुछ उपदेश रटते हैं और किसी भी न समझ आने वाली बात को, कबीर या तुलसीदास के दोहे का हिंदी रूपांतरण बता, लोगों को धमकाते हैं। ओए गुरु!

सलाह के रंगमंच पर ये शुरूआत तो आत्मसंशय से करते हैं, लेकिन दाद मिलने के बाद ओवरएक्टिंग शुरू कर देते हैं। ज़बरदस्ती की छूट लेने लगते हैं। राह चलतों पर घात लगाकर हमला करते हैं। पढ़ने वालों को कहते हैं, धंधा करो। धंधा करने वालों को समझाते हैं कि 'जीवन के और भी मायने हैं' और जीवन समझने में लगे लोगों को धिक्कारते हैं, 'किस फिज़ूल के काम में लगे हो, भला आज तक कोई जान पाया है जीवन क्या है!' समझो गुरू समझो!

आपके सुख-दुख से इन्हें कोई सरोकार नहीं। इन्हें बस सलाह देनी है। सलाह देना ही इनका जीवन है। इसी में ये पूर्णता महसूस करते हैं। ऐसे लोग सामाजिक दायरे के जिस टापू में रहते हैं, वहां ऐसे आठ-दस लोगों की पहचान कर ही लेते हैं जो इनकी सलाहों के परमानेंट ग्राहक बन पाये।

तीसरी श्रेणी में आते हैं पेशेवर सलाहदाता। ऐसे सलाहदाता जिनके पास सलाह देने का लाइसेंस हैं। इनमें करियर काउंसलर हैं, मनोविज्ञानी हैं, डाइटिशयन हैं। लेकिन विडम्बना है कि हम आधों को हिंदी के नाम तक नहीं दे पाये हैं। ये सब पैसे लेकर सलाह देते हैं लेकिन हम अपने मौहल्ले की किसी भी मुफ्त क्लिनिक में अपना इलाज, 'बड़े भाई' या 'दुनिया देख चुके' सरीख़े किसी शख़्स से करवा लेते हैं। लेकिन ये सलाहदाता परवाह नहीं करते। उदारीकरण से लाभान्वित हुए कुछ चुनिंदा लोग इनके 'मोटे ग्राहक' हैं।

दिल कर रहा है सलाह पर और लिखूं मगर मित्र सलाह दे रहा है कि लोगों को बहुत पका लिया इससे पहले की वो झड़ कर गिर पड़े, रुक जाओ। मैं रुकता हूं, आप पढ़ें।

सोमवार, 7 जुलाई 2008

चीनी ग़म है!

इन दिनों दो लोग ख़ासी चर्चा में हैं। डॉक्टर मनमोहन और कम्पांउडर कृष्णा। मगर दोनों के इधर जिन पर सब की निगाहें हैं वो हैं वहम के मरीज़, वहमपंथी। पांचवी पास से तेज़ भी नहीं समझ पा रहा है कि परमाणु डील पर उनका एतराज़ क्या है। वहमपंथी लगातार कह रहे हैं कि डील देशहित में नहीं है। मगर ये नहीं बता रहे, किस देश के हित में? भारत या चीन? जानकारों को वहमपंथियों की मंशा पर श़क है। लिहाज़ा वो सलाह दे रहे हैं कि उनका लाई डिटेक्टर टेस्ट करवाया जाए। वहीं कुछ अति-उत्साहित ब्रेन मैपिंग की बात भी कर रहे हैं। कुल मिलाकर देश नहीं जान पा रहा कि डील पर एतराज़ की असली वजह वहमपंथियों की स्वाभाविक राष्ट्रीय चिंता है, अनुवांशिक अमेरिकी एलर्जी या फिर पैदाइशी चीन प्रेम। ख़ैर, इस मामले पर मैंने एक वरिष्ठ वहमपंथी से बात की। पेश हैं उसके कुछ अंश।

मैं-सर, देश नहीं समझ पा रहा कि डील को लेकर आख़िर आपका एतराज़ क्या है। वहमपंथी-बेटा, जो बात देश नहीं समझ पा रहा, वो तुम्हारे भेजे में क्या बैठेगी। ‘फिर भी कुछ तो बताएं।‘ वहमपंथी-संघी हो क्या? एक बार में समझ नहीं आती। ‘मतलब आप डील पर बात नहीं करेंगे।‘ वहमपंथी-बिल्कुल नहीं। ‘तो फिर ऐसा क्या पूछूं आपसे, जिस पढ़ने में लोग इंटरेस्टेड हों।‘ वहमपंथी- हल्की-फुल्की बात तो हो ही सकती है।

‘अच्छा तो ये बताएं आख़िरी फिल्म कौन-सी देखी आपने।‘ वहमपंथी-चीनी कम। ‘अरे वाह! वो तो काफी बोल्ड सब्जेक्ट पर थी। वहमपंथी-बोल्ड-इटैलिक को गोली मारो, मुझे तो लगा शायद किसी ने चीन के खिलाफ साज़िश की है। चीनी कम है, हमला करो।

‘चलिए, चीनी को छोड़ते हैं। खाने की बात करते हैं। बंगाली फूड के अलावा ज़्यादा क्या पसंद है। वहमपंथी-चाइनीज़! ‘मगर चाइनीज़ का टेस्ट आपने कैसे डिवेलप किया।‘ वहमपंथी- वो मेरी डिवेलपमंट के साथ ही डिवेलप हुआ है। ‘मतलब, मामला स्वाद से ज्यादा संस्कारों का है।‘ वहमपंथी-जी, बिल्कुल।

‘आप बंगाली हैं, फुटबॉल में तो आपकी दिलचस्पी होगी, यूरो देखा?’ देखिए, पश्चिम की तरफ ताकने की आदत हमारी नहीं है। वो तो बीजेपी और कांग्रेस का चरित्र है। ‘फिर भी किसी खेल में तो दिलचस्पी होगी।‘ वहमपंथी- हां, एक इवेंट का मुझे बेसब्री से इंतज़ार है। ‘वो कौन-सा?’ बीजिंग ओलम्पिक!

‘और एक आख़िरी सवाल, घूमने-फिरने का शौक तो होगा, कोई फेवरेट टूरिस्ट प्लेस।‘ वहमपंथी-ऐसी तो एक ही जगह है। ‘वो कौनसी।‘ वहमपंथी- द ग्रेट वॉल ऑफ चाइना। ‘मतलब चीन की महान दीवार।‘ दरअसल वहीं से हमें प्रेरणा मिलती है कि जहां कहीं से चीन को ख़तरा हो वहां दीवार खड़ी कर दो।