शनिवार, 25 अक्तूबर 2008

ऊपर उठने की मुसीबत

पिछले दिनों साम्प्रदायिक मसले पर छपी एक पुस्तक की समीक्षा पढ़ी। समीक्षक का कहना था कि किताब में कुछ ऐसी कहानियां हैं जो आपको झकझोर देंगी। कहानियां पूरी समस्या पर एक नई दृष्टि डालती हैं। किताब को लेकर कुछ और अच्छी बातें भी लिखी गईं। और अंत में कहा गया, लेकिन इस संकलन में शामिल अधिकतर कहानियां उनके पिछले संकलन में भी थी, और ऐसा लगता है कि 'नई किताब छपवाने की हड़बड़ी' में लेखक नें ऐसा किया! साम्प्रदायिक समस्या पर गम्भीर चिंतन से लिखी कहानियां और किताब छपवाने की हड़बड़ी! वाकई दिलचस्प है।

ऊपर उठने की अजीब मुसीबत है। कट्टरपंथी ऊपर उठने की कोशिश करता है तो उसका दम घुटता है। कट्टरता का मोह वो छोड़ नहीं पाता। कट्टरपंथ को लेकर उसके अपने तर्क (या कुतर्क) हैं। वही उसका जीवन है। उदारवादी लेखक इसे सख़्त नापसंद करता हैं वो उसकी बखियां उधेड़ता है। अपने लेखों, कहानियों के ज़रिये दुनिया को बताता है कि ये कैसे वहशी दरिंदे हैं। लोग उसकी सराहना करते हैं। फिर वो किताब छपवाता हैं। दुनिया कहती है क्या खूब लिखा। उदारवादी लेखक खुश होता है। उसे लैंडिंग स्पेस मिल गया है। वो अब और नहीं उड़ेगा। मान्यता के द्वीप में उसका मन अटक गया है, वो और नहीं उठेगा।

सवाल यही है कि आख़िर हम उपर क्यों नहीं उठते। क्या सालों की गरीबी और गुलामी ने हमें इतना कमज़ोर कर दिया है। भूखे हैं.. तो रोटी चाहिये, बेरोज़गार हैं.. तो नौकरी चाहिये, जानकार हैं.. तो मान्यता चाहिये। सिटी बस में घुसते ही सवारी कंडेक्टर को कहती है, बस.. अगले स्टॉप पर उतार देना मुझे। हम भी ज़िदंगी से यही गुज़ारिश करते हैं, बस.. अगले स्तर तक ले जाओ मुझे !

हर परिवार में रूढ़ियों की रिले दौड़ जारी है। बाप, बेटे को बैटन थमाता है। और वो अपना लैप ख़त्म होने पर अपने बेटे को थमा देगा। ढ़ोना संस्कार बन गया है। पड़ताल गैरज़रूरी है।

वहीं आम आदमी से इधर प्रतिभा या किस्मत के भरोसे कुछ लोग अगर ख़ास हो जायें तो स्टेट्स और दूसरी चोचलेबाज़ियों में फंस जाते हैं। जो पैसे के धनी है, वो 'स्टेटस' की मानसिकता से उपर नहीं उठते, और जिन पर सरस्वती मेहरबान है वो 'मैं' की ज़हनियत से।

चाय की चुस्कियों और सिगरेट के धुंए के बीच जो अधिकतर विमर्श होते हैं उसके पीछे नीयत क्या है। क्या हम ये जानना चाहते हैं कि वाकई समाज की परेशानी क्या है। या फिर उस परेशानी के बहाने ये बताना चाहते हैं कि मेरी समझ का दायरा क्या है। बहस करो...नहीं करोगे तो मैं कहां जा कर ज्ञान की उल्टी करुंगा। किस बहाने ये बता पाऊंगा कि मैंनें 'उन सबको' पढ़ा है जिनके नाम तक तुमने नहीं सुने।

एतराज़ विमर्श पर नहीं है। एतराज़ नीयत पर है। अगर आप युवा पीढ़ी को इस बात पर कोसते हैं कि वो पॉप कॉन और मोबाइल से ऊपर नहीं उठती, इस सबमें उसे न जाने क्या रस आता है। तो आपने अपने विमर्श को किस तरह नैतिकता का जामा पहना दिया। मॉल और पब अगर उनके मनोरंजन मैदान हैं, तो 'गंभीर चिंतन' भी आपकी ज़हनी अय्याशी से ज़्यादा क्या है।
लोकसभा में सांसदों का भिड़ना अगर शर्म है, तो अख़बारों और पत्रिकाओं में बुद्धिजीवियों का वैचारिक द्वंद को क्या कहें....चौथे खम्भे में मौजूद खुले लोकतंत्र का बेहतरीन नमुना! जनप्रतिनिधि अगर स्वार्थों से मजबूर हैं, तो क्या बुद्धिजीवी अपने अहं के हाथों मजबूर नहीं है।

मजबूरियों के मारे एक मजबूर मुल्क बन कर रह गये हैं हम। और इतने बरसों में इस सबका असर ये हुआ कि हमने दोषारोपण की अच्छी परम्परा विकसित कर ली। नेता भ्रष्ट हैं, पुलिस तंग करती है, बाबू नकारा है, बाबा पाखंडी हैं, औलाद निकम्मी है (जैसे ये सभी मंगल ग्रह से आये हों)। सारी माफ़ियां मेरी, सारी ख़ामियां तुम्हारी, सारे दुख मेरे, सारे विलास तुम्हारे। ऊपर उठना भी अजीब मुसीबत है। सच, सिर्फ चिंतन से अगर देश का भला होता तो आज हम अमेरिका से बड़ी महाशक्ति होते!

(कहीं-कहीं लाउड हो जाने के लिए माफी चाहूंगा। )

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

भारत तोड़ो आंदोलन

भारत एक स्वादिष्ट चीज़ है। पूरा देश एक बड़ी सी मैस है। देश टेबल पर पड़ा है। खाने वालों की लम्बी कतार है। सब देश खाना चाहते हैं। जीभें लपलपा रही है। देश मुर्गे की तरह फड़फड़ा रहा है। खाने वाले ज्यादा है, देश छोटा। हर किसी को उसका हिस्सा चाहिए। समस्या संगीन है। मगर लोग होशियार। उच्च दर्ज़े के न्यायाधीश। वो किसी को भूखा मरने नहीं देंगे। जानते हैं सब एक साथ देश पर टूट पड़े तो अराजकता फैलेगी।
तय हुआ है कि देश के टुकड़े कर लो और कोई चारा नहीं। सभी की भूख शांत करनी है। हर किसी का टेस्ट अलग है। सब ने अपने-अपने हिस्से की पहचान कर ली है। किसी की नज़र कश्मीर पर है तो किसी की असम पर। कोई उड़ीसा चाहता है तो कोई महाराष्ट्र।
कुछ हिस्से ऐसे हैं जिन पर एक से ज़्यादा की नज़र है। मांग की जा रही है इनके अलग से टुकड़े हों। आंध्र को तोड़ कर तेलंगाना बना दो। असम से बोडोलैंड अलग हो। बंगाल से गोरखालैंड निकाला जाए। यूपी से हरित प्रदेश। लोग बेचैन हो रहे हैं। भूख बढ़ रही है। आवाज़े आ रही हैं जल्दी करो। देश को काटने की तैयारी हो रही है। कुछ कह रहे हैं कि इसे काटो मत, ये ठोस है कटेगा नहीं इसे तोड़ दो। देश को तोड़ा जा रहा है वो नहीं टूट रहा। फिर किसी ने बताया कि देश तो लोगों से बना है। इसे तोड़ा नहीं जा सकता। लोगों को अलग कर दो ये अपने आप बिखर जाएगा। जिन्हें तोड़ना है उनकी पहचान हो गई है।
भाषा, जाति, धर्म, संस्कृति जो देश की सबसे बड़ी विशेषता थी उसे ही इसे तोड़ने का हथियार बना लिया गया है। देश तोड़ने की पूरी तैयारी हो चुकी है। बिना किसी निविदा के समाजसेवियों ने रुचि के मुताबिक ठेके ले लिए हैं। महाराष्ट्र में भाषा के नाम पर देश तोड़ने का काम राजठाकरे ने लिया है तो असम में उल्फा ने। जाति के आधार फूट डालने के क्षेत्र में कर्नल बैंसला ने उल्लेखनीय काम किया है। वहीं धर्म के आधार पर फूट डालने में मारा-मारी मची है। मोदी, लालू, अमर सिंह पासवान जैसे कितने ही आईएसआई मार्का देश तोड़ू काम में जुटे हैं। कई फ्रेंचाइज़ी खुली है। राज्य प्रयोगशाला बन गए हैं,कार्यकर्ता शोधार्थी। देश लैब में पड़ा है महाप्रयोग जारी है। उम्मीद करते हैं जैसे 'भारत छोड़ो आंदोलन' के ज़रिए हमने अंग्रेज़ों को भारत से बाहर भेजा था वैसे ही इस 'भारत तोड़ों आंदोलन' के ज़रिए भारत को भी भारत से बाहर निकाल देंगे।

बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

पुरस्कार का एंटी क्लाइमैक्स

पुरस्कार समिति से जुड़े शख़्स का कहना था लोग ख़्वामखाह चिंता करते हैं कि फलां लेखक उम्रदराज़ हो रहा है, डिज़र्व भी करता है, लेकिन अकादमी ध्यान नहीं दे रही। लेखक को वक़्त पर पुरस्कार न मिलना, और मरने से पहले मिल जाना महज़ इतेफ़ाक नहीं है। बहुत कम लोग जानते हैं इस मामले में हमारी तैयारी कॉरपोरेट कम्पनियों से भी अच्छी होती है।
हमने बाकायदा मेडिकल जासूसों की एक टीम तैयार कर रखी है। हर जासूस 70 की उम्र पार कर चुके तीन ब़ड़े लेखकों पर निगरानी रखता है। ये जासूस अलग-अलग तरीकों से हमें रिपोर्ट देते हैं कि फलां लेखक का स्वास्थ्य कैसा चल रहा है। इन तरीकों में लेखक के फैमिली डॉक्टर को खरीद लेना, उससे वक़्त-वक़्त पर लेखक की डॉयबिटिक रिपोर्ट लेना, ब्लड प्रेशर की स्थिति जानना, पता लगाना कि लेखक को कोई बड़ी तक़लीफ तो नहीं है? है तो वो कितनी गंभीर है?
अब इसी रिपोर्ट के आधार पर अकादमी तय करती है कि लेखक को अभी कितना और लटकाया जा सकता है?
मैंने कहा, श्रीमान लेकिन यही तो सवाल है कि आख़िर आप लटकाते क्यों हैं? सारी जवानी लेखक दो पैंटों में निकाल देता है, सौ-सौ रुपये के लिए संपादकों से उलझता रहता है। कुल्फी वाले की घंटी को, ग़फ़लत में डाकिये की घंटी समझ कर दरवाज़ा खोलता है। तब तो उसकी सुध लेते नहीं, फिर अस्सी की उम्र में उसकी उस रचना को सम्मान दे देते हैं जो उसने चालीस में लिखी थी।
बात काटते हुए समिति सदस्य बोले, इसके पीछे भी हमारा अपना दर्शन है। दरअसल समिति मानती है कि 'व्यवस्था से नाराज़गी' ही लेखक की सबसे बड़ी ताकत होती है। अब लेखक की नाराज़गी कोई आशिक की नाराज़गी नहीं कि वो गुस्से में शराब पीने लगे या फांसी पर लटक जाए। इसी नाराज़गी से रचनात्मक ऊर्जा मिलती है। वो उम्दा रचनाएं लिखता है।
हमें लगता है वक़्त पर अगर लेखक को सम्मान और पैसा दोनों मिल जाएगा तो वो 'जीवन के द्वंद्व' को कैसे समझेगा?
मैंने कहा, श्रीमान वो तो ठीक है, लेकिन उस पर भी लेखक की सर्वश्रेष्ठ रचना को पुरस्कार न दिया जाना भी क्या इतेफ़ाक है? उपन्यासकार की कहानी को पुरस्कार दे दिए जाते हैं, और कहानीकार के उपन्यास को, और वो भी ऐसी रचना पर जो खुद लेखक की नज़र में सर्वश्रेष्ठ नहीं होती।
देखिये... चौधराहट का उसूल है कि आप ऐसा कुछ करते रहें जो लोगों की समझ से परे हो। अगर हमें भी उसी पर मुहर लगानी है, जिसकी दुनिया तारीफ कर रही है तो हमारी क्या रह जाएगी? आख़िर हमें भी तो 'अपनी वाली' दिखानी होती है।
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शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

सोने दो, सोना मत दो!

गहरी नींद में था कि अचानक कुछ बजने की आवाज़ आई। ये मोबाइल की आवाज़ थी। कम्बल हटाया, तकिये के नीचे देखा, बेड के साइड्स में भी चैक कर लिया,आवाज़ आ रही है, मगर मोबाइल का पता नहीं.. भयंकर नींद में हूं... दिल कर रहा है सो जाऊं, मगर....कोई ज़रूरी कॉल हुआ तो....
एक पल के लिए सोचता हूं। सोने से पहले कहां रखा था। तभी.....याद आता है रात को देर से घर आना हुआ, और मोबाइल पैंट में रह गया!
पैंट की तरफ लपकता हूं। वो उसी में था। ये नोएडा का नम्बर था। एक पल में हज़ार ख़्याल। नोएडा की कुछ कम्पनियों में मैंने अप्लाई किया था, वहीं से तो नहीं... दिल धड़कता है..माता रानी भला करना... फोन उठाता हूं और आवाज आती है ......झाबुआ के छेदीलाल ने जीता है एक किलो सोना....आप भी चाहें तो जीत सकते हैं एक किलो सोना...सोना ही सोना....इसके लिए आपको करना सिर्फ ये है......सिर दीवार में दे मारे। उसने तो नहीं कहा... लेकिन, दिल यही किया कि सिर दीवार में दे मारूं। इन कम्पनियों को मुझे सोना जीताने की तो फिक्र है, मेरे सोने की नहीं।
पहले इस तरह के सिर्फ अंट-शंट मैसिज आया करते थे। लोगो ने पढ़ने बंद कर दिये। अब ये कम्पनियां साधारण दिखने वालों नम्बरों से कॉल करती है। आप फ़ोन काटने का रिस्क नहीं ले सकते।
दोस्त बता रहा था कि उसका बॉस बड़ा खुंदकी है। तीन रिंग से ज़्यादा चली जाए तो उसे लगता है मैं चिढ़ाने के लिए फोन नहीं उठा रहा। इसी दहशत में लू में भी मुझे मोबाइल साथ ले जाना पड़ता है। कल ही मैं लू में था...अचानक मोबाइल बजा....समझ नहीं आया नम्बर कहां का है.... फोन उठाया तो दूसरी तरफ मोहतरमा बताने लगी...आप चाहे 'कहीं' भी हों....अब सुन सकते हैं लेटस्ट पंजाबी और हिंदी गाने....इसके लिए आप अपने......
हे ईश्वर! ......कहीं मतलब क्या ....बोलने से पहले कंफर्म तो कर लो.. सुनने वाला असल मे है कहां!

इस सबको लेकर एक आदमी कुछ ज़्यादा ही गुस्से में था। बता रहा था इन्ही फोन कॉल्स के चलते उसका तलाक होते-होते बचा है। मैंने पूछा- क्या हुआ? होना क्या है-कल घर पहुंचा, तो बीवी पूछने लगी आप 'साढ़े आठ मिनट' देर से आये हो, जान सकती हूं कहां थे 'इतनी देर'।
मैं समझाने लगा.. रेड लाइट में फंस गया। उसके बाद गाड़ी रिज़र्व में आ गयी, तो पैट्रोल भरवाने रूक गया। बीवी कंविंस नहीं हुई। मैं उसे बात समझा ही रहा था.....कि मोबाइल बज उठा। इससे पहले की मैं चेक करता, उसने मोबाइल छीन लिया, स्पीकर फोन ओन किया, मेरी तरफ घूरते हुए फोन पिक किया........दूसरी तरफ से आवाज़ आई.......क्या बात है दोस्त, रेखा और हेमा तुम्हारी बड़ी तारीफ कर रही थी......सुना है तुम उन्हें अच्छे-अच्छे शेर सुना कर इम्प्रैस कर रहे हो......बीवी ने यहीं फोन काट दिया और मित्र, इसके बाद जो हुआ वो रहस्य ही रहे तो बेहतर होगा!

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

पिक्चर अभी बाकी है...(व्यंग्य)

मेरा मानना है कि हर समझौते में बराबर न्याय होना चाहिए। मतलब किसी सांसद को ख़रीदते वक़्त अगर कहा गया कि तुम हमें वोट दो, हम तुम्हें नोट देंगे, नोट नहीं तो पद देंगे। तो उसे टाइमली पेमेंट होनी चाहिए। इएमआई का कोई टंटा नहीं, एक मुश्त, लम-सम जितना बने, दे के नक्की करो। वैसे भी ऐसा सांसद जो किसी लालच में पार्टी से विश्वासघात कर आया हो, पैसे न मिलने पर किसी और पर विश्वासघात का इल्ज़ाम नहीं लगा सकता। जैसे झारखंड के राजनीतिक विवाद में भी मेरी पूरी हमदर्दी आदरनीय सोरेन के साथ थी। मैं बराबर तिलमिलाता रहा कि भाई उन्हें मुख्यमंत्री बना क्यों नहीं रहे। उन्होंने 'देश हित' को देखते हुए सरकार के पक्ष में वोट दिया और मधु कोड़ा थे कि 'देश हित' सधने नहीं दे रहे। आख़िर में देशभक्त सोरने की जीत हुई और वो मुख्यमंत्री बने।

मगर ये कहानी एक हिस्सा था। जिनको पद, पैसा मिलना था मिला। पर सवाल ये था कि जिस महान उद्देश्य के लिए ये सब किया जा रहा था उसकी प्राप्ति तो बाकी थी। मेरी हमदर्दी अब कांग्रेस के साथ हुई। बेचारी ने क्या नहीं किया। कितने ईमान खरीदे, कितने घर उजाड़े, कितना निवेश किया, कितने सपने तोड़े(पीएम बनने के), कितनों से धमकी देने का सुख छीना, कितनी लानतें झेलीं सिर्फ इसलिए कि परमाणु डील कर देश तरक्की कर पाए।

ये सोच कर ही मैं कांप जाता था कि इस सबके बावजूद अगर डील नहीं हुई तो कांग्रेस कैसे अपना मुंह, जो पहले ही दिखाने लायक नहीं बचा था, किसी को दिखाएगी। शिबू सोरेने का देश हित तो सध चुका अब किस मुंह से उन्हें उनके पद से हटाते। न ही सांसदों से अपील की जा सकती थी कि चूंकि डील नहीं हुई इसलिए 50 परसेंट पैसे वापिस दो। ये वाकई उसके लिए कष्टदायक होता। लेकिन जैसा कि सब जानते हैं ऊपर वाला किसी के साथ अन्याय नहीं करता। अगर कांग्रेस ने अपने सारे वादे पूरे किए तो उसको भी मनचाहा नतीजा मिला। वैसे भी कहानी फिल्मी हो या असली हम भारतीय विपरित अंत नहीं चाहते। एंटी-क्लाइमेक्स से हमें सख़्त नफरत है। हम सुखांत के आदी हैं। और हमें एनएसजी के देशों, अमेरिकी कांग्रेंस और अमेरिकी दबदबे का शुक्रिया अदा करना चाहिए जिन्होंने ये सुखांत दिखाया। और रही बात सबक की। तो तब तक ख़ैर मनाए जब तक कोई अमेरिकी राष्ट्रपति ये न कह दे..... पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त....