सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

तू ही तो मेरा हॉर्न है!

दोस्तों, शौक ही नहीं इंसान जिज्ञासा भी कैपेसिटी के हिसाब से पालता है। आप उतने ही जिज्ञासु हो सकते हैं, जितना आपकी बुद्धि अफोर्ड करती है। यही जिज्ञासा आपको हर वक़्त बेचैन करती है। आप शोध-खोज में लग जाते हैं। मसलन, हॉकिंग्स लम्बे समय तक बेचैन रहे कि सृष्टि का निर्माण ईश्वर ने किया या भौतिकी ने। न्यूटन सेब को पेड़ से गिरता देख उसकी वजह जानने में लग गए। वैज्ञानिकों की पूरी टोली आज तक ये जानने में लगी है कि ब्लैक हॉल का निर्माण किन हालात में हुआ। मगर ये सब बड़े लोगों की जिज्ञासाएं हैं। 'मुफ्त धनिए’ के लिए बनिए से झगड़ने में ज़िंदगी गुज़ारने वाला आम आदमी ऐसी चुनौतियां मोल नहीं लेता।

उसकी ज़िंदगी और जिज्ञासाएं अलग होती हैं। अपनी ही बात करूं तो सालों से दिल्ली के ट्रैफिक में हिंदी और अंग्रेज़ी के सफर के बावजूद मैं नहीं जान पाया कि लोग हॉर्न क्यों बजाते हैं? वो कौनसे भूगर्भीय, समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक कारण हैं, जो आदमी को हॉर्न बजाने पर मजबूर करते हैं। इन्हीं बातों से परेशान हो मैंने हॉर्नवादकों पर शोध करने का फैसला किया। यहां-वहां भटकने के बजाय मैंने मशहूर हॉर्नवादक दिल्ली के दल्लूपुरा निवासी आहत लाल से मिलना बेहतर समझा। इससे पहले कि आहत से हुई बातचीत का ब्यौरा पेश करूं....बता दूं कि छात्र जीवन से ही आहत को हॉर्न बजाने का खूब शौक था। शुरू में ये सिर्फ शौकिया तौर पर हॉर्न बजाते थे मगर कालांतर में मिली अटेंशन के चलते इन्होंने इस शौक को गंभीरता से लिया। लोकप्रियता का आलम ये है कि आज आसपास के सैंकड़ों गांवों से इन्हें शादियों में हॉर्न बजाने के लिए बुलाया जाता है। पिछले तीन सालों में देश-विदेश में हॉर्नवादन के चार हज़ार से ज्यादा कार्यक्रम दे चुके हैं। उभरते नौजवानों के लिए हॉर्न वादन की वर्कशॉप चलाते हैं। इनसे सीखे छात्र दल्लूपुरा घराने के हॉर्नवादक कहलाते हैं। इन्होंने तो सरकार से मांग तक की थी कि वूवूज़ेला की तर्ज़ पर कॉमनवेल्थ खेलों में ट्रैक्टर-ट्राली के किसी हॉर्न को पारंपरिक वाद्य यंत्र के रूप में शामिल किया जाए।


बहरहाल, बिना वक़्त गंवाए मैं बातचीत पेश करता हूं। आहत बताइए, आपकी नज़र में हॉ़र्न बजाने का सबसे बड़ा फायदा क्या है। देखिए, आज देश में जैसे हालात हैं उसमें आम आदमी के हाथ में अगर कुछ है, तो सिर्फ हॉर्न। नौजवान पचास जगह अप्लाई करते हैं, उन्हें नौकरी नहीं मिलती, दस लड़कियों को प्रपोज़ करते हैं मगर कोई हां नहीं कहती। ऐसे में यही नौजवान जब सड़क पर निकलता है तो हॉर्न बजा अपनी फ्रस्ट्रेशन निकालता है। किसी भी लंबी काली गाड़ी को देख यही सोचता है कि जिन कम्पनियों में उसे नौकरी नहीं मिली, हो न हो उन्हीं में से किसी एक का सीईओ इसमें होगा। बाइक के पीछे बैठी लड़की देख उसे चिढ़ होती है कि तमाम टेढ़े-बांके लौंडे लड़कियां घुमा रहे हैं और एक वही अकेला घूम रहा है। इसी सब खुंदक में वो और हॉर्न बजाता है। उसका मन हल्का होता है। आप ही बताइए अब ये हॉर्न न हो तो वो बेचारा नौकरी और छोकरी की फ्रस्ट्रेशन में सुसाइड नहीं कर लेगा?

हां, ये बात तो ठीक है मगर आजकल मोटरसाइकिल में जो ट्रक वाला हॉर्न लगावने लगे हैं, उसके पीछे क्या दर्शन है? देखिए, जो जितना कुंठित होगा, उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही कर्कश होगी। इसके अलावा ध्यानाकर्षण की इच्छा भी एक वजह हो सकती है। हो सकता है उस बेचारे की बचपन से ख़्वाहिश रही हो कि जहां कहीं से गुजरूं, लोग पलट-पलट कर देखें। मगर उसे इसका कोई जायज़ तरीका न मिल पा रहा हो। अब हर कोई तो सिंगिंग या डांसिंग रिएल्टी शो में जा नहीं सकता। ऐसे में सिर्फ गंदा हॉर्न बजाने भर से किसी को अटेंशन मिल रहा है, तो क्या प्रॉब्लम है। जिस दौर में लोग पब्लिसिटी के लिए अपनी शादी तक का तमाशा बना देते हैं, वहां हॉर्न बजाना कौनसा अपराध है!

मैंने कहा-ये तो बड़ी वजहें हो गईं... इसके अलावा...आहत लाल-इसके अलावा छोटे-मोटे तात्कालिक कारण तो हमेशा बने रहते हैं। घर में बीवी से झगड़ा हो गया तो हॉर्न को बीवी की गर्दन समझ ऑफिस तक दबाते जाइए, ऑफिस पहुंचते-पहुंचते सारा गुस्सा छू हो जाएगा। ये समझना होगा कि ज़िंदगी के जिस-जिस मोड़ पर आप मजबूर हैं, वहां-वहां हॉर्न आपके साथ है। ऑफिस में रुके इनक्रीमेंट से लेकर कई दिनों से घर में रुकी सास तक का गुस्सा हॉर्न के ज़रिए निकाल सकते हैं। ज़माने भर का दबाया आदमी भी, हॉर्न दबा अपनी भड़ास निकाल सकता है और ये चूं भी नहीं करता, बावजूद इसके कि ये हॉर्न है! कहने वाले कहते होंगे कि किताबें इंसान की सबसे अच्छी दोस्त हैं मगर इंसान तो यही कहता है...तू ही तो मेरा हॉर्न है!

(नवभारत टाइम्स 18,अक्टूबर, 2010)

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

सुरेश कलमाडी को मेरी श्रद्धांजलि (भाग-2)

कलमाडी जैसे ही बापू की मूर्ति पर फूल चढ़ाने झुके...लाठी से धकेलते हुए आवाज़ आई...दूर हटो बेटा...वरना अहिंसा की कस्म टूट जाएगी!!!

बुरा न बोलने की सीख देने वाला गांधी जी का बंदर भी कलमाडी के किस्से सुनकर पेशंस खोने लगा है!!!!!

कलमाडी के करनामों से प्रभावित हो भारतीय डाक विभाग जल्द ही उन पर एक 'डाकू टिकट' जारी करने जा रहा है!

भारतीय शूटर निशाना लगा रहा था...तमाम भारतीय दर्शक सांसे थामें थे...दिल में बेचैनी..हथेलियों में पसीना...सभी के मन में एक ही दुआ...कुछ भी हो, जैसे भी हो, जो भी हो...बस...शूटर निशाना चूक जाए...वजह-निशाना उस सेब पर लगाना था, जो कलमाडी के सिर पर रखा गया था!!!!!

मुसीबत की घड़ी में सब कलमाडी का साथ छोड़ते जा रहे हैं...और क्या ये इत्तेफाक हैं कि खेल गांव में एक के बाद एक सांप निकल कर बाहर आ रहे हैं!!!

कलमाडी की इस पेशकश के बाद कि मुझे राम के चरणों में दो गज भी ज़मीन मिल जाए तो मैं खुद को वहां दफन कर लूं...सुना है तीनों पक्षों ने अपनी पूरी ज़मीन छोड़ने का ऐलान कर दिया है!!!

ए. सी. नीलसन के ताज़ा सर्वे के मुताबिक चुटकुला बनने में कलमाडी ने संता को पीछे छोड़ दिया है...हद ये है कि लोग अब संता को भी कलमाडी के जोक्स SMS करने लगे हैं!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

वन्य जीव संरक्षण कानून की धारा तीन 'बी' का हवाला देते हुए बीजेपी की वरिष्ठ नेता और गांधी परिवार की दूसरी बहु मेनका गांधी ने धमकी दी है कि कलमाडी को अब किसी ने कुछ कहा तो उसकी खैर नहीं!!!!

पत्रकार-सर, अयोध्या पर आए फैसले से जुड़ी आपको सबसे अच्छी बात क्या लगी????कलमाडी-इसका छह दशक बाद आना...मुझे लगता है कि इतना वक़्त तो किसी भी फैसले में लगना ही चाहिए!!!

ख़बर-कलमाडी देख रहे हैं ओलंपिक करवाने का सपना...प्रतिक्रिया-वैसे तो सपना देखने का हक़, हर इंसान को है मगर दिक्कत ये है कि ये हक़ इंसान को है!!!!!!!!!!!!!!!!!!

तमाम गवाहों और सबूतों के देखने के बाद अदालत इस नतीजे पर पहुंची है कि सुरेश कलमाडी को फांसी पर लटका दिया जाए और साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए विवादित ज़मीन पर उनका मकबरा बने!!!!!

किसी ने कलमाडी से पूछा....सर, कौन बनेगा करोड़पति...कलमाडी-मेरी बुआ का लड़का, खेलगांव की कैंटीन का ठेका उसी के पास है!!!

जल्द आ रहा फर्जीवाडे पर हिंदुस्तान का पहला REALITY SHOW...कलमाडी होंगे होस्ट...नाम है...क्यों बने रहें करोड़पति!!!!!!!!!!!!!!!!!

BREAKING NEWS...KALMADI'S POPULARITY HAS REACHED SUCH 'HEIGHTS' THAT EVEN ALIENS ARE NO LONGER ALIEN TO HIM!!!!.

फिरौती के मकसद से डाकुओं के कलमाडी को अगवा कर लिया...तीन दिन काल कोठरी में रखा...चौथे दिन कलमाडी ने बाहर आकर पूछा-क्या हुआ अब तक पैसे नहीं मिले क्या????डाकू-पैसे दो डबल मिले हैं...मगर तुम्हें छोड़ने के नहीं...न छोड़ने के!!!!

JAI HO के बाद इंग्लिश डिक्शनरी में शामिल किया जाने वाला अगला शब्द है... SURESH KALMADI और वो भी ADJECTIVE के तौर पर...घटिया के पर्यायवाची के रूप में!!!!

शिवराज पाटिल, मधु कोडा, राजा चौधरी, ललित मोदी, शिबु सोरेन, राहुल महाजन, संभावना सेठ, राखी सावंत और रामगोपाल वर्मा कल शाम छह बजे इंडिया गेट पर कलमाडी के समर्थन में कैंडिल मार्च निकालेंगे!!!

कलमाडी-तुम जो मेरे पीछे हाथ धो कर पड़े हो...ये तुम्हें बहुत महंगा पड़ेगा...कलमाडी भक्त-सर, मैंने कौनसे आपके टॉयलेट सोप से हाथ धोए हैं...जो महंगा पड़ेगा!!!

सर, लोगों ने आप पर इतने जोक मारे, आप भी उन पर कुछ जोक बनाइये...कलमाडी-बनाऊंगा, मगर थोड़ा रूककर...इतनी जल्दी मैं कुछ भी नहीं बनाता!!!!

अमिताभ के बाद कलमाडी के साथ डिनर के लिए भी छह लाख की बोली लगी है...फर्क इतना है कि अमिताभ के साथ डिनर के लिए आपको छह लाख देने पड़ेंगे जबकि कलमाडी के साथ डिनर के लिए आपको छह लाख दिए जाएंगे!!!
खेल 'गांव' पर सैंकडों करोड़ फूंक, हमने उन देशों को मुंहतोड़ जवाब दिया है जो कहते थे कि भारत अपने 'गांवों' की तरफ ध्यान नहीं देता!

एक अच्छी खबर है और एक बुरी...अच्छी ख़बर ये है कि कलमाडी को भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया है...और बुरी ख़बर ये है कि उनकी जगह अब ललित मोदी लेंगे!!!!

BEST ONE LINER ON KALMADI HAS BEEN TOLD BY KALMADI HIMSELF...N THAT IS...."I AM
INNOCENT"!!!

पत्रकार-सुना है सर आपकी महेनत की वजह से ही जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम इतना खूबसूरत बन पाया....कलमाडी-कहा न...तमाम आरोपों का जवाब मैं 14 अक्टूबर के बाद दूंगा!!!!दोस्तों, बिना सवाल सुनें आजकल कलमाड़ी ऐसे ही जवाब देने के आदी हो गए हैं!!!!

मेरी आंखों को क्या हो गया है....KALINDI KUNJ भी पढ़ता हूं तो KALMADI KUNJ दिखाई देता है!
लोगों ने भी हद कर दी है...कलमाडी सुबह पार्क में RUNNING कर रहे थे...पीछे से किसी ने आवाज दी...कब तक भागोगे!!!

जिस देश में सड़क बनाने के लिए गेम्स होने का इंतज़ार किया जाता है ....विदेशी पूछ सकते हैं....क्या वहां नहाने के लिए भी अपनी शादी का इंतज़ार किया जाता है????

खाप 'पंचायत' का कहना है कि मामला चूंकि खेल 'गांव' से जुड़ी गड़बड़ियों का है इसलिए सज़ा भी OWNER KILLING होनी चाहिए!!!!!

कलमाडी ने सुसाइड की छह कोशिशे की..सातवीं से पहले आकाशवाणी हुई...तुम्हें ऊपर बुला कर हमने माहौल नहीं ख़राब करना...एनर्जी वेस्ट मत करो!!!

हूपर का कहना है कि उन्हें भारत की इज्ज़त से कोई मतलब नहीं है...ये इकलौता ऐसा मामला है जिस पर हूपर और कलमाडी की सोच मिलती है!!!!

KALMADI'S BLOOD GROUP....I AM NEGATIVE!!!!

कॉमनवेल्थ आयोजकों ने उन भारतीय खिलाड़ियों से माफी मांगी है जिन्हें विदेशी खिलाड़ियों के चलते साफ जगह पर रहना पड़ रहा है!!!

कॉमनवेल्थ खेलों से जुड़े तमाम विवादों के बीच कलमाडी इकलौते आदमी है जिन पर कोई विवाद नहीं है, उनकी बेइज्ज़ती होनी चाहिए...इस पर सब सहमत हैं!!!

LOCATION जानने के लिए कलमाडी ने मोबाइल का GPRS सिस्टम चैक किया...उसमें लिखा था...YOU ARE AT RECEIVING END!!!!

Writer-Director Aatish Kapadia ने साफ किया है कि उनकी आने वाली फिल्म 'खिचड़ी' का कॉमनवेल्थ खेलों की अव्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं है!!!!

साल 20010...दो लड़के पार्क में बैठे बात कर रहे हैं...पहला- तुम रोज़ी-रोटी के लिए क्या करते हो...दूसरा-सुबह अख़बार बांटता हूं, फिर दस घंटे नौकरी करता हूं, शाम में ट्यूशन पढ़ाता हूं, रात में चौकीदारी करता हूं...मेरी छोड़ों, तुम अपनी बताओ, तुम्हें मैंने कभी कुछ करते देखा नहीं...पहला-यार, क्या बताऊं, आज से दो सौ पीढ़ी पहले... हमारे यहां एक 'सज्जन' हुए थे...वो इतना कमा गए कि हमें कुछ काम करने की ज़रूरत नहीं!!!

BREAKING NEWS...कलमाडी को ऐसे बैंक में खाता खुलवाना है, जिसकी नर्क में भी BRANCH हो!!!!!

कलमाडी के इस प्रस्ताव के बाद कि आप चाहें तो लंदन ओलंपिक में मेरे अनुभव का फायदा उठा सकते हैं, इंग्लैंड के राजकुमार ने सीधा प्रधानमंत्री को फोन लगाया और कहा...इसे समझा लो...वरना मेरा हाथ उठ जाएगा!!!!!

कलमाडी का कहना है कि मैं चोदह तारीख के बाद जवाब दूंगा....कोई उन्हें समझाए... ये मौका जवाब देने का नहीं....जान देने का है!!!

किसी ने कलमाडी से पूछा...सुना है सर आप खेलों के बाद ईमानदारी का जीवन बिताएंगे....कलमाडी भन्नाते हुए...पता नहीं स्साला...कौन मेरे बारे में उल्टी-सीधी अफवाहें फैला रहा है!!!!!!!!!!

खंडहर हो चुकी इमारत की तरफ इशारा करते हुए एक विदेशी टूरिस्ट ने पूछा ये MONUMENT किसने बनवाया...गाइड-सर, ये MONUMENT नहीं कॉमनवेल्थ खेलों से जुड़ी इकलौती इमारत है, जो वक़्त पर पूरी हो गयी थी!!!!

BIRTHDAY PARTIES में जिस तरह बच्चे फंक्शन के बाद गुब्बारा घर ले जाने की ज़िद्द करते हैं उसी तरह कलमाडी की ज़िद्द है कि खेल ख़त्म होने के बाद 40 करोड़ का गुब्बारा उन्हें घर ले जाने दिया जाए!!!

कलमाडी का कहना है कि सरकारी गोदामों में रखे गेंहूं की तरह अगर सरकारी खज़ाने में रखे पैसे को वो वक़्त पर न खाते तो वो भी सड़ने लगता!!!!!!!!

पर्यटक रूठे, पुल टूटे, उम्मीदें मरी, मगर मच्छरों के अलावा एक चीज़ जो आख़िर तक ज़िंदा रही ....वो है DEADLINE!!!!!!!

आय से अधिक सम्पत्ति...ज़रूरत से कम शर्म....यही है कलमाडी का मर्म!!!!

(nirajbadhwar@gmail.com)

शनिवार, 25 सितंबर 2010

सुरेश कलमाडी को मेरी श्रद्धांजलि!!!

दोस्तों, कलमाडी ने भले ही फजीहत की ज़िम्मेदारी कल ली हो मगर इस देश ने उनकी फजीहत का ठेका बहुत पहले ही ले लिया था...हालांकि ये बात जब मैंने कलमाडी को बताई तो उनका कहना था कि किसने दिया तुम्हें ये ठेका...सारे ठेके तो मैंने खुद अपने रिश्तेदारों को दिए हैं!!!बहरहाल पिछले दिनों FACEBOOK पर कलमाडी पर कुछ ONE LINER और JOKE लिखे हैं...आप भी मुलाहिज़ा फरमाएं...

पेट ख़राब होने की शिकायत ले कलमाडी डॉक्टर के पास पहुंचे...डॉक्टर-क्या आजकल बाहर से ज़्यादा खाना हो रहा है...कुछ देर सोचने के बाद कलमाडी....हां सर, घर से बाहर निकलते ही मुझे गालियां खानी पड़ती हैं!!!.................डॉक्टर...ओफ्फ फो....ये तो ऐसी प्रॉब्लम है...जिस पर मैं चाहकर भी आपको 'परहेज़' नहीं बता सकता!!!!!!!

कलमाडी ने साधा इंग्लैंड पर निशाना....कहा अंग्रेज़ों ने अगर हमें वक़्त पर आज़ाद कर दिया होता तो आज इतने काम अधूरे नहीं पड़े होते!!!

कलमाडी 'साहब' घर पहुंचे तो काफी भीग चुके थे...बीवी ने चौंक कर पूछा...इतना भीगकर कहां से आ रहे हैं...क्या बाहर बारिश हो रही है...कलमाड़ी-नहीं....तो फिर...कलमाड़ी-क्या बताऊं...जहां से भी गुज़र रहा हूं...लोग थू-थू कर रहेहैं!!!!!

कलमाडी साहब ने अपना मेल बॉक्स चैक किया...जो मैसेज उसमें थे उसकी डिटेल नीचे दे रहा हूं
1.ASIF ALI ZARDARI & OSAMA BIN LADEN WANT TO BE YOUR FRIEND ON FACEBOOK 2.RAKHI SAWANT,RAHUL MAHAJAN & RAJA CHAUDHARY ARE NOW FOLLOWING YOU ON TWITTER 3 LATE HARSHAD MEHTA &VEERAPAN WANT TO BE YOUR PAL FROM HELL & LAST BUT NOT THE LEA...ST...PAKISTAN CRICKET TEAM INVITES YOU TO BE THEIR BETTING COACH!!!

वैधानिक चेतावनी:-गर्भवती महिलाएं और कमज़ोर दिल के लोग इसे न पढें....पीपली लाइव को ऑस्कर में भेजे जाने के बाद कलमाडी ने मांग की है कि कॉमनवेल्थ थीम सांग को भी ऑस्कर के लिए भेजा जाए...उसमें क्या बुराई है!!!!
रहमान का कहना है कि उन्होंने पांच करोड़ थीम सॉंग कम्पोज़ करने के नहीं, खेलों से जुड़ अपनी छवि ख़राब करवाने के लिए है...गाना तो कलमाडी के ड्राईवर ने बनाया है!!!

BREAKING NEWS...कलमाडी को 'लोकप्रियता' का अंदाज़ा मोबाइल कम्पनियों को भी हो गया है...उनका फोन BUSY जाने पर अब आवाज़ आती है...जिस ज़लील आदमी से आप बात करना चाह रहे हैं वो अभी व्यस्त है...पता नहीं स्साला क्या कर रहा है!!

ये तय हुआ कि कलमाडी को सज़ा-ए-मौत दी जाए...मगर दिक्कत ये है कि उन्हें फांसी पर लटकाने के लिए जल्लाद कहां से लाया जाए...दुनिया के सबसे बड़े जल्लाद तो वो खुद हैं...सरकार खुद कसाब को फांसी पर लटकाने के लिए कलमाडी की मदद लेने वाली थी... रही बात ज़हर का इंजेक्शन देने की...अब बाहर से उन्हें ज़हर देकर मारने की बात तो बहुत बचकानी है!!! कलमाडी ने तो खुद एक्सिडेंट में घायल दो नेवलों को ज़हर की दो बोतल देकर उनकी जान बचाई है...आख़िर भाई ही भाई के काम आता है!!

कलमाडी अपने नाम में मौजूद'कल' की वजह से भी सारे काम 'कल' पर टालते रहे हैं...उनका नाम या तो आजमाडी या फिर अभीमाडी होना चाहिए था!!! मैं जानता हूं कि ये घटिया पैरेडी है मगर जिस आदमी पर की जा रही है...उसे भी तो देखो!

कलमाडी की 'IMAGE' इस हद तक ख़राब हो चुकी है कि किसी EDITING SOFTWARE में भी IMPROVE नहीं हो सकती!!!

बेइज्ज़ती की इंतहा...कलमाडी के कुत्ते ने उन्हें देख पूंछ हिलाना बंद कर दिया है!

दोस्तों, रात को जूतों की एक माला कलमाडी के पोस्टर पर डाली थी...सुबह उठ कर देखा रहा हूं तो उसमें से दो जूते गायब हैं!
पेंटर-WHITEWASH करवाएंगे...कलमाडी-नहीं, अभी पिछले महीने ही घर में करवाया है...पेंटर-सर मैं घर की नहीं आपके मुंह की बात कर रहा हूं!!!

BREAKING NEWS...कलमाडी की बढ़ती 'बदनामी' से प्रभावित हो कांग्रेस ने तय किया है कि नए-पुराने सभी पाप उन्हीं के सिर डाले जाएं...इसी कड़ी में पहला शिगुफा..........अर्जुन सिंह या राजीव गांधी नहीं...एंडरसन को भगाने के पीछे सुरेश कलमाडी का हाथ था!!!

अधूरी तैयारियों से परेशान कलमाडी ने अपना सिर पीटा...कहा स्साला कोई भी अपना वादा नहीं निभाता...आतंकी कह गए थे...खेल नहीं होने देंगे...पता नहीं कहां रह गए???

BREAKING NEWS...ख़बर है कि पिछले तीन दिनों में एक लाख लोगों ने नाम परिवर्तन की सूचना अखबारों में दी है....और क्या ये महज़ इत्तेफाक है कि इन सभी के नाम सुरेश हैं!!!

BREAKING NEWS...साइक्लिंग इवेंट से इतने खिलाड़ियों ने नाम वापिस ले लिए हैं कि अब इस स्पर्धा में कांस्य पदक नहीं दिया जा सकता...वजह...सिर्फ दो खिलाडी़ ही भाग ले रहे हैं!!!

BREAKING NEWS...इंग्लैंड ने कहा है कि जब तक खेल गांव की हालत नहीं सुधरती वे होटल में ही ठहरेंगे...ये सुन कलमाडी ने कल से ही इंग्लैंड के फ्लैट किराए पर चढ़ा दिए हैं!
बाहरी लोगों के दिल्ली आने से परेशान शीला दीक्षित के लिए इससे बड़ी खुशख़बरी और क्या हो सकती है कि एक-के-बाद-एक विदेशी खिलाड़ी दिल्ली आने से मना कर रहे हैं!!!

SWISS GOVERNMENT को शक़ है कि SWISS BANK ने कलमाडी के पास SAVING ACCOUNT खुलवा रखा है!

BREAKING NEWS....कलमाडी को काटने के लिए मच्छरों का कल एक एवेंट होना था...मगर...आख़िरी वक़्त पर ज्यादातर मच्छरों ने अपना नाम वापिस ले लिया है!

कुकर्मों के लिए माफी मांगते हुए सुरेश कलमाडी भगवान की मूर्ति के सामने दंडवत हो गए...मन में माफी मांगी...आंख खोली तो देखा...भगवान खुद कलमाडी के सामने दंडवत थे...बोला...बच्चा...रहम करो...जाओ यहां से...
किसी ने GOOGLE में 'SURESH KALMADI' टाइप किया...सामने से जवाब आया...बच्चा... दुनिया ने इस पर 'रिसर्च' कर ली और तुम अब तक इसे 'सर्च' करने में लगे हो!!

BREAKING NEWS...कलमाडी का कहना है कि उनके साथ धोखा हुआ है...पहले उन्हें बताया गया था कि खेल दो हज़ार दस में नहीं दस हज़ार दो में होने हैं!

BREAKING NEWS...भारत में हो रही कलमाडी की ज़लालत को देखते हुए एंजलिना जोली ने उन्हें ADOPT करने का फैसला किया है!!!

कलमाडी ने हाथ दे कर रिक्शे वाले को रोका और पूछा...बस स्टैंड चलना है...कितने पैसे दोगे???

पाकिस्तान ने प्रस्ताव दिया है कि अगर विदेशी खिलाड़ी भारत आने में सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे तो COMMONWEALTH GAMES पाकिस्तान में करवा खेल गांव की गंदगी देखकर इंग्लैंड के कुछ अधिकारियों ने सवाल पूछा कि क्या स्लमडॉग मिलिनेयर की शूटिंग यहीं हुई थी???

आदत से मजबूर अधिकारियों ने अधूरे कामों को पूरा करने के लिए नई DEADLINE 31 अक्टूबर तय कर दी थी!!!
NCERT ने कक्षा छह की किताब से 'चालाक लोमड़ी' का चैप्टर निकाल उसकी जगह 'चालाक कलमाडी' का नया चैप्टर जोड दिया है मगर....कुछ लोगों का सोचना है कि इतने छोटे बच्चों को ये सब पढ़ाना क्या ठीक रहेगा?

BREAKING NEWS...कलमाडी को भारत रत्न दिए जाने की मांग के बीच पाक सरकार ने कलमाडी को निशान-ए-पाकिस्तान सम्मान से नवज़ाने का फैसला किया है...उसका मानना है कि भारत की जितनी बदनामी वो पिछले साठ सालों में नहीं कर पाए उससे ज्यादा इस शख्स ने पिछले छह दिनों में करवा दी है!

इतने प्रस्तावों के बीच अयोध्या विवाद पर एक और प्रस्ताव...न मंदिर...न मस्जिद...कलमाडी का कहना है कि विवादित ज़मीन पर नया खेल गांव बनाया जाए!

आज़ादी की लड़ाई के सबसे बड़े सिपाही महात्मा गांधी के जन्मदिन के अगले दिन... गुलामी के सबसे बड़े प्रतीक कॉमनवेल्थ खेलों का जश्न शुरू हो रहा है...क्या इससे बड़ी शर्मिंदगी कुछ और हो सकती है!

HEART BREAKING NEWS.. अफ्रीकी देश TOKELAU ने भी कॉमनवेल्थ खेलों में न आने की धमकी दी है...अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता...जा रहा हूं...क्वींस बैटन से आत्मदाह करने...
टूटती छतें, ढहते पुल, ऊफनती यमुना...BREAKING NEWS...विदेशी खिलाड़ियों के बाद विदेशी आतंकियों ने भी सुरक्षा कारणों से दिल्ली आने से मना कर दिया है!!!

कॉमनवेल्थ से जुड़ी तमाम बुरी ख़बरें देखकर दिल्ली शहर डूब मरना चाहता है और क्या ये महज़ इत्तेफाक है कि यमुना में कभी भी बाढ़ आ सकती है!

दिल्ली की सुरक्षा ख़ामी का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि सुरेश कलमाडी अब तक ज़िंदा घूम रहा है!
सोमालियाई लूटेरों ने कलमाडी को CHIEF CONSULTANT नियुक्त किया!

नाम पर सहमति न बन पाने के कारण कलमाडी साहब के हाथ से एक कुकरी शो का ऑफर निकल गया...चैनल शो का नाम 'खाना-खजाना' रखना चाहता था और कलमाडी इस ज़िद्द पर अड़े थे कि उसका नाम 'खाना खा जाना' रखा जाए!
वेटर-साहब, क्या खाएंगे?

कलमाडी-स्साला, अब भी तुम्हें ये बताना पड़ेगा कि हम क्या खाएंगे।

दिल्ली की रिकॉर्डतोड़ बारिश से प्रभावित हो, प्रधानमंत्री ने मणिशंकर अय्यर को बद्दुआ मामलों का प्रभारी बना दिया है!

कुकरी शो का ऑफर भले ही हाथ से निकल गया हो मगर कलमाडी साहब को FAIR & LOVELY का विज्ञापन मिल गया है...पंचलाइन है...धूप ही नहीं, कर्मों से काले हुए मुंह भी करे साफ!

कॉमनवेल्थ खेलों को भारत की शान बताने वाले अफसरों की ख्वाहिश है कि उनको मुखाग्नि भी क्वींस बेटन से दी जाए!

कलमाडी साहब दिल के बड़े नेक हैं...मैंने उनसे कहा सर, माफ कर दो... मैंने आप पर इतने जोक बनाए...वो बोले बेटा, मैंने कुछ 'नहीं बनाने' पर भी माफी नहीं मांगी और तुम 'बनाने' पर मांग रहे हो!!!

"सुरेश कलमाडी एक ईमानदार, कुशल, मेहनती और देशभक्त आदमी है। उस जैसा सच्चा आदमी आज तक इस देश ने नहीं देखा...पूरे देश को उस पर नाज़ है" ....ऐसी ही फनी और मज़ेदार चुटकुलों के लिए SMS करें...5467 पर!

AND LAST BUT NOT THE LEAST…..कलमाडी की 'लोकप्रियता' का आलम ये है कि लोग दिल्ली के बाद मुन्नी की बदनामी के लिए भी उन्हें ही कसूरवार ठहरा रहे हैं!!!

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

भरोसेमंद सुरक्षा!

खेलों से पहले दिल्ली में सुरक्षा कड़ी कर दी गई है। किसी भी संभावित रासायनिक और आणविक हमले से बचाने के शहर के चप्पे-चप्पे पर पुलिसवाले ‘लाठियां’ लिए मौजूद हैं। सिर्फ लाठी के सहारे दुश्मन को ख़ाक कर देने के ख़ाकी वर्दी के कांफिडेंस पर मैंने एक पुलिसवाले से बात की। श्रीमान, रामलीला की तरह खेलों से पहले भी आप सिर्फ लाठी के सहारे हालात पर नज़र रखे हुए हैं...क्या वजह है? देखिए, मुझे नहीं लगता कि हमें इसके अलावा किसी और चीज़ के ज़रूरत है। जहां तक रिक्शे से हवा निकालने की बात है तो उसके लिए किसी एके-47 की ज़रूरत नहीं पड़ती, उसके लिए हमारे हाथ ही काफी है। रही बात ठेले वालों की... उन स्सालों ने अगर कोई बदमाशी की तो उनके लिए हमारे पास ये लठ है...तो आपको लगता है कि सुरक्षा के लिहाज़ से सबसे बड़ी चुनौती रिक्शे और ठेले वाले हैं। जी हां, बिल्कुल।

और जितने बड़े बदमाश हैं, उनसे कैसे निपटेंगे? जनाब हम पुलिसवाले हैं...बदमाशों को हम आपसे ज़्यादा बेहतर समझते हैं। गुंडे-बदमाश तभी आक्रामक होते हैं, जब उन्हें जायज़ हक़ नहीं मिलता, मुख्यधारा में उनके लिए कोई जगह नहीं होती। मगर प्रभु कृपा से हमारी व्यवस्था में ऐसी कोई असुरक्षा नहीं है। माल में हिस्सेदारी ले, हम उन्हें चोरियां करने देते हैं। अपराध के मुताबिक पैसा खा, मामला दबा दिया जाता है। सबूत इक्ट्ठा न कर, उन्हें ज़मानत दिलवा दी जाती है। अब जब इतनी फैसिलिटीज़ उन्हें दी जा रही हैं, तो क्या उनकी बुद्धि भ्रष्ट हुई है, जो वो हमारे लिए कोई सिर दर्द पैदा करेंगे। लेकिन सर, आपको क्या लगता है...अगर आतंकी आए... तो वो क्या लाठियां ला, आपके साथ डांडिया खेलने आएंगे...उनका क्या करेंगे आप। पुलिसवाला-ऐसा कुछ नहीं होगा..हमें पूरा भरोसा। मगर किस पर...उसी पर... जिसके भरोसे ये देश चल रहा है...कौन...भगवान!

शनिवार, 11 सितंबर 2010

भावनाओं को समझो!

स्पॉट फिक्सिंग कांड के बाद पूरी दुनिया में पाक खिलाड़ियों पर थू-थू हो रही है। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि पाकिस्तान के बाद इंग्लैंड में भी बाढ़ की नौबत आ गई है! खुद पाकिस्तान में जो इलाके बाढ़ से बच गए थे वो अब इस मामले की शर्मिंदगी से डूब गए हैं। तरह-तरह की बातें की जा रही हैं। कुछ का कहना है कि बीसीसीआई ने 2015 तक का भारतीय टीम का कैलेंडर जारी कर रखा है तो वहीं पीसीबी ने 2015 तक के पाक टीम के नतीजे। और भी न जाने क्या कुछ....हर कोई नो बॉल के बदले नोट लेने की आलोचना कर रहा है।

मगर मैं पूछता हूं कि इसमें ग़लत क्या है? दुनिया भर के गेंदबाज़ों को नो बॉल के बदले फ्री हिट देनी पड़ती है, अब इसी काम के लिए कोई उन्हें पैसा दे रहा है, तो क्या प्रॉब्लम है। आख़िर आदमी सब करता तो पेट की ख़ातिर ही है। वैसे भी पाकिस्तानी खिलाड़ियों को जब से आईपीएल में भी नहीं चुना गया, उनमें एक तिलमिलाहट थी...जैसे-तैसे खुद को बेच कर दिखाना था। सो वो बिक गए। मगर अफसोस दुनिया तो दूर, खुद पाकिस्तानी सरकार उनकी इस भावना को समझ नहीं रही। समझती तो फिक्सिंग कांड को भारत को ‘मुहंतोड़ जवाब’ के रूप में देखती।

दूसरा ये कि अगर वो पैसे लेकर मैच हारे भी तो इसमें बुराई क्या है। ये समझना होगा कि किसी भी देश की कला-संस्कृति और खेल वगैरह को वहां की राजनीति का आईना होना चाहिए। ख़ासतौर पर किसी भी अराजक देश में तो हुक्मरानों को ख़ासतौर पर नज़र रखनी चाहिए कि कुछ भी अच्छा न होने पाए। फिल्में बनें तो दूसरे देश की नक़ल कर बनें। खिलाड़ी खेलें तो पैसा लेकर हारें। परमाणु वैज्ञानिक एक ठंडी बीयर के बदलें परमाणु तकनीक बेच दें। इससे होगा ये कि जब हर जगह गुड़-गोबर होगा तो लोग नेताओं पर अलग से गुस्सा नहीं होंगे। ये नहीं सोचेंगे कि हमारे यहां हर जगह काबिल लोग भरे हुए हैं, बस नेता ही भ्रष्ट है। उन्हें बैनिफिट ऑफ डाउट मिल जाएगा। उसी तरह जैसे शकूर राणा के वक़्त पाक बल्लेबाज़ों को अक्सर मिल जाया करता था!

(दैनिक हिंदुस्तान 11, सितम्बर, 2010)

और अंत में...

कलमाडी 'साहब' घर पहुंचे तो काफी भीग चुके थे...बीवी ने चौंक कर पूछा...इतना भीग कर कहां से आ रहे हैं...क्या बाहर बारिश हो रही है...कलमाड़ी-नहीं....तो फिर...कलमाड़ी-क्या बताऊं...जहां से भी गुज़र रहा हूं...लोग थू-थू कर रहे हैं!!!!!

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

एंटरटेनमेंट के लिए कुछ भी चाहेगा!

यह रविवार की एक औसत सुबह है। रिमोट को सारथी बना मैं टीवी पर कुछ सार्थक ढूंढ़ रहा हूं। पर ज़्यादातर टीवी कार्यक्रम मेरी सुबह से भी ज़्यादा औसत हैं। धार्मिक चैनलों पर बाबा महिलाओं को शांति और संयम का पाठ पढ़ा रहे हैं। न्यूज़ चैनल बता रहे हैं कि कैसे एक बाबा ने संयम का पाठ पढ़ने आई शिष्या को एक्सट्रा क्लास देने की कोशिश की। वहीं मनोरंजन चैनल्स पर सास-बहुएं एक-दूसरे को नीचा दिखाने के ऊंचे काम में लगी हैं, दूसरों का खून पी अपना हीमोग्लोबीन बढ़ा रही हैं। कल्पना के कैनवस पर हर क्षण षड्यंत्रों के दृश्य उकेर रही हैं। कभी-कभी हैरानी होती है कि धारावाहिकों में जिन परिवारों की कहानी देख हम अपना मनोरंजन करते हैं, खुद उन परिवारों में कितना तनाव है! आखिर क्या वजह है कि दूसरे का तनाव हमें आनन्द देता है। किसी का झगड़ा देख हम एंटरटेन होते हैं। क्या हम इतना गिर गए हैं...हमारे पास कुछ और काम नहीं बचा...इससे पहले कि मैं किसी महान् नतीजे पर पहुंचता, मुझे बाहर से झगड़ने की आवाज़ सुनाई देती है।

टीवी बंद कर मैं बालकनी में आता हूं। सोसायटी के दूसरे छोर पर एक महिला ज़ोर-ज़ोर से चीख रही है। उसके सास-ससुर बालकनी में चिल्ला रहे हैं तो वो अपार्टमेंट के नीचे। झगड़े के सुर के साथ-साथ दर्शकों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। शादी के निमंत्रण पत्र की तर्ज पर लोग ‘सपरिवार’ बालकनी में आ गए हैं। बीवी भी गैस बंद कर बाहर आ गई है। मैं कॉन्‍संट्रेट करता हूं मगर कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। जो शब्द कान में पड़ रहे हैं, उनसे मेरी पहचान नहीं है। बीवी कहती है...साउथ इंडियन हैं... तमिल या तेलुगू में झगड़ रहे हैं। मुझे खीझ चढ़ती है। अपनी बेबसी पर रोना आता है। ऐसा लगता है कि बिना सबटाइटल के रजनीकांत की कोई एक्शन फिल्म देख रहा हूं। मैं आपा खोने लगता हूं। सोचता हूं कि नीचे जाकर उनसे इसी बात पर झगड़ूं। कहूं कि इतने लोग बीवी-बच्चों समेत तुम्हारा झगड़ा देख रहे हैं। खुद मेरी बीवी ने दो बार अपनी मां तक का फोन नहीं उठाया। बच्चा आधे घंटे से नाश्ते के लिए रो रहा है। हम लोग क्या पागल हैं जो तुम्हारे चक्कर में अपना संडे ख़राब कर रहे हैं। झगड़ना है तो हिंदी में झगड़ो। वरना अंदर जाकर लड़ो-मरो।

मगर इससे पहले कि मैं नीचे जाने के लिए चप्पल खोजता, महिला गाड़ी स्टार्ट कर वहां से चली गई। ये देख पूरी सोसायटी में निराशा छा गई। मैं भी भारी अवसाद में था। अंदर आया। टीवी चलाया। वही सास-बहू के सीरियल वाले झगड़े। फिर वही ख़्याल...यार, ये लोग हमेशा झगड़ते क्यों रहते हैं...लोगों को इनका झगड़ा देखने में मज़ा भी क्या आता है मगर मन में यही बात फिर दोहराई तो शर्म आने लगी।

यह सच है कि सीरियल के न सही, पर असल झगड़े देखने में मुझे भी खूब आनन्द आता है। मगर गुस्सा तब आता है, जब ये झगड़े अंजाम तक नहीं पहुंचते। दिल्ली में ब्लू लाइन के सफर के दौरान मैंने सैंकड़ों झगड़े देखे। कंडक्टर ‘सवारी’ से टिकट लेने के लिए कहता। वो बाद में लेने की ज़िद्द करती। फिर लम्बी बहस होती। सामर्थ्य के मुताबिक सुर ऊंचा किया जाता। संस्कारों और सामान्य ज्ञान के आधार पर बेहिसाब गालियां दी जाती। ये देख रूटीन लाइफ से बोर हो चुकी ‘सवारियों’ की आंखों में चमक दौड़ जाती। सब को लगता कि अब झगड़ा होगा। कुछ एक्साइटिंग देखने को मिलेगा। दोस्त-यारों को सुनाने के लिए एक किस्सा मिलेगा। मगर अफसोस...तभी नई सवारियां चढ़ने के साथ बात आई-गई हो जाती। इन सालों में न जाने ऐसी कितनी ही बहसें, जिनमें झगड़ा बनने की पूरी संभावना थी, मेरी आंखों के सामने आई-गई हुई हैं। मगर मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी है। यह स्वीकारने में मुझे कोई शर्मिंदगी भी नहीं है। आख़िर इंसान मूलतः है तो जानवर ही जो सभ्य बनने की कोशिश कर रहा है। अब इस कोशिश से बोर हो, वो और उसके भीतर का जानवर कभी-कभार झगड़ा देख, मनोरंजन करना चाहें, तो क्या बुराई है! एंटरटेनमेंट के लिए जब कुछ भी करने में हर्ज नहीं, तो चाहने में क्या प्रॉब्लम है!

(नवभारत टाइम्स 10,सितम्बर,2010)

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

मच्छर को बनाएं राष्ट्रीय कीट!

भारत में हम जिस भी चीज को राष्ट्रीय महत्व से जोड़ते है, कुछ समय बाद उसका अपने आप बेड़ा गर्क हो जाता है। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है लेकिन देश में कुछ लोग सिर्फ इसलिए कत्ल किए जा रहे हैं कि वे हिंदी भाषी हैं। मोर हमारा राष्ट्रीय पक्षी है मगर आज हालत यह है कि सम्पूर्ण मोर बिरादरी जेड श्रेणी की सुरक्षा मांग रही है। हॉकी के एनकाउंटर के लिए हम भले ही के पी एस गिल को क्रेडिट दें या फिर हॉकी से जुड़ी तमाम संस्थाएं इसका श्रेय लें, मगर हॉकी की शहादत के पीछे असल वजह उसका राष्ट्रीय खेल होना ही है। वहीं खुद को राष्ट्रपिता का वारिस बताने वालों ने साठ साल से ' गांधी ' को तो पकड़ रखा है, लेकिन ' महात्मा ' को भूल बैठे हैं।


मतलब पहले किसी भी चीज को सिर-आंखों पर बैठाओ, फिर सिगरेट के ठूंठ की तरह पैरों तले मसल दो। मेरा मानना है कि जब यह सिद्धांत इतना सीधा है तो क्यों न हम तमाम बड़ी समस्याओं को राष्ट्रीय महत्व से जोड़ दें, वे खुद-ब-खुद खत्म हो जाएंगी। जैसे हाल-फिलहाल मच्छरों का भयंकर आतंक है। दिल्ली सरकार समझ नहीं पा रही कि कॉमनवेल्थ खेलों से पहले इनसे कैसे निपटा जाए। मेरा मानना है कि अगर हमें मच्छरों का हमेशा के लिए नामोनिशान मिटाना है तो उसे राष्ट्रीय कीट घोषित कर देना चाहिए।

सरकार घोषणा करे कि राष्ट्रीय कीट होने के नाते मच्छरों का संरक्षण किया जाए। उसे
'गंदगी बढ़ाओ, मच्छर बचाओ ' टाइप कैम्पेन चलाने चाहिए। निगम कर्मचारियों को आदेश दिए जाएं कि वे अपनी अकर्मण्यता में सुधार लाएं। जिस गली में पहले हफ्ते में दो बार झाडू लगती थी, वहां महीने में एक बार से ज्यादा झाडू न लगे। गंदगी बढ़ाने के लिए पॉलिथीन के इस्तेमाल को प्रोत्साहन दिया जाए ताकि अधूरी चौपट सीवर व्यवस्था पूरी तरह चौपट हो पाए। गटर-नालियां जितने उफान पर होंगी, उतनी तेजी से मच्छर बिरादरी फल-फूल पाएगी। मच्छर को चीतल के समान दर्जा दिया जाए और प्रावधान किया जाए कि एक मच्छर मारने पर पांच साल का सश्रम कारावास और दो लाख का आर्थिक दण्ड दिया जाएगा। कानून का आम आदमी में खौफ पैदा करने के लिए ' एक मच्छर आदमी को जेल भिजवा सकता है ' टाइप थ्रेट कैम्पेन भी चलाए जाएं। इसके लिए किसी बड़े स्टार की सहायता ली जा सकती है।
किसी सिलेब्रिटी को मच्छर अम्बेसडर घोषित किया जा सकता है। आप इसे कोरी बकवास न समझें। आपको जानकर हैरानी होगी कि जब इस योजना को मैंने सरकार के सामने रखा तो उसने फौरन देश के 156 जिलों में प्रायोगिक तौर पर इसे लागू भी कर दिया और जो नतीजे आए वे बेहद चौंकाने वाले थे।
निगम कर्मचारियों तक जैसे ही सरकार का फरमान पहुंचा उनका खून खौल उठा। उन्होंने तय किया कि अब वे कभी अपनी झाडू पर धूल नहीं चढ़ने देंगे। जो कर्मचारी पहले सड़क पर झाडू नहीं लगाते थे, वो खुंदक में अपने घर पर भी सुबह-शाम झाडू लगाने लगे। वहीं पॉलिथीन का ज्यादा इस्तेमाल करने के सरकारी आदेश के बाद महिलाएं पति की पुरानी पैंट का थैला बनाकर बाजार से सामान लाने लगीं। शाही घरानों के़ लड़कों ने, जो पहले जंगल में शेर का शिकार करने जाते थे, अब जीपों का मुंह शहर के गटरों की तरफ कर दिया। अब वह बंदूक के बजाय शिकार पर बीवी की चप्पलें ले जाने लगे और उनसे चुन-चुनकर मच्छर मारने लगे। इस सबके बीच उन लोगों की मौज हो गई जो एक वक्त कमजोर डील-डौल के चलते मच्छर कहलाते थे, अब वो इसे कॉम्प्लीमेंट की तरह लेने लगे।
खैर, नतीजा यह हुआ कि लागू करने के महज तीन महीने के भीतर ही योजना बुरी तरह फ्लॉप हो गई और सभी 156 जिले पूरी तरह मच्छरों से मुक्त करवा लिए गए। योजना की असफलता से उत्साहित कुछ लोगों ने प्रस्ताव रखा है कि इसी तर्ज पर भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय आचरण और दलबदल को राष्ट्रीय खेल घोषित किया जाए। इसी तरह 'अतिथि देवो भव' का स्लोगन बदलकर 'अतिथि छेड़ो भव' किया जाए। ऐसा करने पर ही इन समस्याओं से मुक्ति मिल पाएगी।

सोमवार, 30 अगस्त 2010

हिंदी-चीनी, भाई-भाई!

इसे इत्तेफाक कहूं या फिर देश के सभी दुकानदारों की साज़िश...मेरी बतायी रेंज़ पर सब यही कहते हैं कि ‘इतने में तो फिर लोकल आएगी’। दुकानदार को तीन सौ तक की रेंज बता मैं बढ़िया बैड शीट दिखाने के लिए कह रहा हूं और वो कहता है कि ‘इतने में तो फिर लोकल आएगी’। उसका कहना है कि अच्छी, सस्ती और टिकाऊ की मेरी विचित्र डिमांड एक साथ पूरी कर पाना बेहद मुश्किल है। जो अच्छी होगी वो सस्ती नहीं होगी और जो टिकाऊ होगी, वो थोड़ी महंगी होगी। मैं ज़िद्द नहीं छोड़ रहा और वो इतने में तो फिर लोकल…का राग! मैं पूछता हूं कि वो इंडिया सैटल कब हुआ और वो कहता है कि वो तो शुरू से इंडिया में ही रह रहा है। मैं हैरानी जताता हूं...अच्छा तो तुम लोकल हो!

दोस्तों, ऐसा नहीं है कि एक रोज़ आसामान से ये मुहावरा टपका और पूरे देश ने उसे लपक लिया। ये हमारी सालों की आत्महीनता और ग्राहक को चूना लगाने की महान परम्परा ही है, जो आज हम लोकल को घटिया का पर्याय साबित कर चुके हैं। इसी लोकल से देश भर में लोगों की औकात मापी जा रही है। बताया जा रहा है कि जो चीज़ अच्छी है वो तुम्हारी औकात में नहीं है और जो तुम्हारी औकात में है वो लोकल है, उसी तरह जैसे तुम हो। मगर इधर मैं देख रहा हूं कि जो छवि भारतीय कम्पनियों ने इतने सालों में बनाई, वही रूतबा चीनी कम्पनियों ने कम समय में हासिल कर लिया है। जो दुकानदार कल तक सस्ता खरीदने की बात पर लोकल की सलाह दे ज़लील किया करते थे आज वही चाइनीज़ का विकल्प सुझा शर्मिंदा करने लगे हैं। इस हिदायत के साथ... मगर चाइनीज़ की कोई गारंटी नहीं है। कैसी त्रासदी है…जिन देशों को दुनिया आर्थिक महाशक्ति कहते नहीं थकती, उन्हीं शक्तियों की ताकत हिंदुस्तान के हर गली-ठेले-नुक्कड़ पर ‘लोकल’ और ‘चाइनीज़’ कह कर निचोड़ी जा रही है!

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

संदेसे आते हैं, हमें फुसलाते हैं!

एक ज़माने में ईश्वर से जो चीज़ें मांगा करता था, आज वो सब मेरी चौखट पर लाइन लगाए खड़ी हैं। कभी मेल तो कभी एसएमएस से दिन में ऐसे सैंकड़ों सुहावने प्रस्ताव मिलते हैं। लगता है कि ईश्वर ने मेरा केस मोबाइल और इंटरनेट कम्पनियों को हैंडओवर कर दिया है। पैन कार्ड बनवाने से लेकर, मुफ्त पैन पिज़्ज़ा खाने तक के न जाने कितने ही ऑफर हर पल मेरे मोबाइल पर दस्तक देते हैं! इन कम्पनियों को दिन-रात बस यही चिंता खाए जाती है कि कैसे ‘नीरज बधवार’ का भला किया जाए?

कुछ समय पहले ही किन्हीं पीटर फूलन ने मेल से सूचित किया कि मेरा ईमेल आईडी दो लाख डॉलर के इनाम के लिए चुना गया है। हफ्ते भर में पैसा अकाउंट में ट्रांसफर कर दिया जाएगा। ‘सिर्फ’ दो हज़ार डॉलर की मामूली प्रोसेसिंग फीस जमा करवा मैं ये रक़म पा सकता हूं। ये जान मैं बेहद उत्साहित हो गया। कई दिनों से न नहाने के चलते बंद हो चुका मेरा रोम-रोम, इस मेल से खिल उठा। इलाके की सभी कोयलें कोरस में खुशी के गीत गाने लगीं, मोर बैले डांस करने लगे। मैं समझ गया कि मेरी हालत देख माता रानी ने स्टिमुलस पैकेज जारी किया है।


पहली फुरसत में मैंने ये बात बीवी को बताई। मगर खुश होने के बजाए वो सिर पकड़कर बैठ गई। फिर बोली...मैं न कहती थी आपसे कि अब भी वक़्त है... संभल जाओ....मगर आप नहीं माने...अब तो आपकी मूर्खता को भुनाने की अंतर्राष्ट्रीय कोशिशें भी शुरू हो गई हैं। मैंने वजह पूछी तो वो और भी नाराज़ हो गईं। कहने लगी कि आज के ज़माने में दुकानदार तक तो बिना मांगे आटे की थैली के साथ मिलने वाली मुफ्त साबुनदानी नहीं देता और आप कहते हैं कि किसी ने आपका ई-मेल आईडी सलेक्ट कर आपकी दो लाख डॉलर की लॉटरी निकाली है! हाय रे मेरा अंदाज़ा...आपकी जिस मासूमियत पर फिदा हो मैंने आपसे शादी की थी, मुझे क्या पता था कि वो नेकदिली से न उपज, आपकी मूर्खता से उपजी है!


दोस्तों, एक तरफ बीवी शादी करने का अफसोस जताती है तो दूसरी तरफ हर छठे सैकिंड मोबाइल पर शादी करने के प्रस्ताव आते हैं। बताया जाता है कि मेरे लिए सुंदर ब्राह्मण, कायस्थ, खत्री जैसी चाहिए, वैसी लड़की ढूंढ ली गई है। बंदी अच्छी दिखती है और उससे भी अच्छा कमाती है। सेल के आख़िरी दिनों की तरह चेताया जाता है कि देर न करूं। मगर मैं बिना देर किए मैसेज डिलीट कर देता हूं। ये सोच कर ही सहम जाता हूं कि बिना ये देखे कि मैसेज कहां से आया है, अगर बीवी ने उसे पढ़ लिया तो क्या होगा?

और जैसे ये संदेश अपनेआप में तलाक के लिए काफी न हों, अब तो सुंदर और सैक्सी लड़कियों के नाम और नम्बर सहित मैसेज भी आने लगे हैं। कहा जा रहा है कि मैं जिससे,जितनी और जैसी चाहूं, बात कर सकता हूं। बिना ये समझाए कि सुंदर और सैक्सी लड़की के लालच का भला फोन पर बात करने से क्या ताल्लुक है। साथ ही मुझे बिकनी मॉडल्स के वॉलपेपर मुफ्त में डाउनलोड करने का अभूतपूर्व मौका भी दिया जाता है। मानो, इस ब्रह्माण्ड में जितने और जैसे ज़रूरी काम बचे थे, वो सब मैंने कर लिए हैं, बस यही एक बाकी रह गया है!

दोस्तों, ऐसा नहीं है कि ये लोग मेरा घर उजाड़ना चाहते हैं। इन बेचारों को तो मेरे घर बनाने की भी बहुत फिक्र है। नोएडा से लेकर गाज़ियाबाद और गुडगांव से लेकर मानेसर तक का हर बिल्डर मैसेज कर निवेदन कर कर रहा है कि सिर्फ मेरे लिए आख़िर कुछ फ्लैट बाकी हैं। ये सोच कभी-कभी खुशी होती है कि इतने बड़े शहर में आज इतनी इज्ज़त कमा ली है कि बड़े-बड़े बिल्डर पिछले एक साल से सिर्फ मेरे लिए आख़िर के कुछ फ्लैट खाली रखे हुए हैं। पिछली दिवाली पर शुरू किए ‘सीमित अवधि’ के डिस्काउंट को सिर्फ मेरे लिए खींचतान कर वो इस दिवाली तक ले आए हैं। उनके इस प्यार और आग्रह पर कभी-कभी आंखें भर आती हैं। मगर मकान भरी आंखों से नहीं, भरी जेब से खरीदा जाता है। मैं खाली जेब के हाथों मजबूर हूं और वो मेरा भला चाहने की अपनी आदत के हाथों। वो संदेश भेज रहे हैं और मैं अफसोस कर रहा हूं। मकान से लेकर ‘जैसी टीवी पर देखी, वैसी सोना बेल्ट’ खरीदने के एक-से-एक धमाकेदार ऑफर हर पल मिल रहे हैं। कभी-कभी सोचता हूं कि सतयुग में अच्छा संदेश सुन राजा अशर्फियां लुटाया करते थे, ख़ुदा न ख़ास्ता अगर उस ज़माने में वो मोबाइल यूज़ करते, तो उनका क्या हश्र होता!

शनिवार, 21 अगस्त 2010

इज्ज़त बचाने का एक्शन प्लान!

राष्ट्रमंडल खेलों से ठीक पहले अधूरे और घटिया निर्माण की शिकायतों, बेहिसाब फर्जीवाड़ों और आरोप-प्रत्यारोप के अंतहीन मैच के बीच आम आदमी ये सोच परेशान है कि कहीं ये खेल देश की बेइज्ज़ती का सबब न बन जाएं। जिन खेलों को हम अपनी ताकत दिखाने के लिए आयोजित कर रहे हैं, वो हमारी मक्कारी और नक्कारेपन को ज़ाहिर न कर दें। आम आदमी के नाते मैं भी इन सब बातों से बेहद परेशान हूं। मेरा मानना है कि आपस में तो हम कभी भी लड़-मर सकते हैं मगर अभी वक़्त ये सोचने का है कि काफी हद तक लुट चुकने के बावजूद, बची-खुची इज्ज़त को कैसे बचाया जाए। लिहाज़ा, आयोजन समिति और सरकार को मैं कुछ सुझाव देना चाहूंगा। उम्मीद है कि वो इन पर अमल करेंगे।

1.सबसे पहला काम तो सरकार ये करे कि भ्रष्टाचार से जुड़ी तमाम शिकायतों को दबा दे। आयोजकों के खिलाफ की जा रही किसी भी जांच को फौरन से पेशतर रोक दिया जाए। जैसे-तैसे ये साबित किया जाए कि आयोजकों ने कहीं कोई पैसा नहीं खाया। जिस तरह एक कुशल गृहिणी दो सौ की चीज़ के लिए पति से तीन सौ रूपये लेती हैं और सौ रूपये मुसीबत के लिए बचाकर रखती है, कुछ ऐसा ही खेल आयोजकों ने भी किया है। दरअसल ये जानते थे कि राष्ट्रमंडल खेलों के सफल आयोजन के बाद हम ओलंपिक भी आयोजित करेंगे। इसी को देखते हुए इन्होंने कॉमनवेल्थ की खरीदारी में ही इतना पैसा बचा लिया है कि वो उसी से ओलंपिक का खर्च भी निकाल सकते हैं। नाम न बताने की शर्त पर एक अधिकारी ने बताया कि हम लोगों ने इतना-इतना पैसा बचा लिया है कि हर वरिष्ठ अधिकारी एक निजी कॉमनवेल्थ खेल आयोजित कर सकता है।

लिहाज़ा, इन्हें भ्रष्ट साबित करने के बजाए इनकी मैनेजमेंट स्किल को दुनिया के सामने लाना चाहिए।

2. कुछ लोगों का कहना है कि खेलों के दौरान खिलाड़ियों को साफ पानी पिलाने के लिए भले ही हमने अलग से वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट लगा दिया हो, दूसरे राज्यों से अतिरिक्त बिजली खरीद ली हो, सुंदर लो-फ्लोर बसें सड़कों पर उतार दी हों मगर तब क्या होगा जब यही खिलाड़ी खेलों के दौरान अख़बारों में दूषित पानी से बच्चों के बीमार पड़ने की ख़बर पढेंगे। तब इन्हें कैसा लगेगा जब बिजली कटौती से नाराज़ लोगों को सड़कों पर तोड़फोड़ करते देखेंगे, और तमाम बेहतरीन लो-फ्लोर बसों के बावजूद, पब्लिक ट्रांसपोर्ट को लेकर वो क्या छवि बनाएंगे, जब वो पढ़ेंगे कि बस की छत पर सफर कर रहे यात्री हाई वोल्टेज तार की चपेट में आ गए! अगर सरकार चाहती है कि खुद को विकसित और सभ्य दिखाने की उसकी कोशिशों पर पानी न फिरें और बच्चों के दूषित पानी से बीमार पड़ने की बात इन लोगों तक न पहुंचे तो उसे खेलों के दौरान ऐसी किसी भी नकारात्मक ख़बर के प्रकाशन-प्रसारण पर रोक लगा देनी चाहिए। तभी वो पानी-पानी होने से बच पाएगी।

3.हाल-फिलहाल ये देखा गया है कि ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड जैसी क्रिकेट टीमें जब भी भारत से कोई सीरीज़ हार कर जाती हैं तो व्यवस्था में खामिया निकालने लगती हैं। मसलन गर्मी बहुत थी, खाना अच्छा नहीं था, विकेट घटिया थे आदि-आदि। इसे देखते सरकार को तमाम खिलाड़ियों को हिदायत देनी चाहिए कि वो किसी भी इवेंट में अच्छा प्रदर्शन करने की हिमाकत न करें। सभ्य मेज़बान का ये फर्ज़ है कि वो कुछ भी ऐसा न करें जिससे मेहमान नाराज़ हो जाएं। होगा ये कि हार का गुस्सा विदेशी खिलाड़ी यहां की व्यवस्था पर निकालने लगेंगे। अपने खिलाड़ियों का घटिया प्रदर्शन तो हम फिर भी बर्दाश्त कर लेंगे, और करते भी आएं हैं, मगर कोई हमारे इंतज़ाम को बुरा कहे, ये हमें बर्दाश्त नहीं। वैसे भी हमारे लिए स्पोर्ट्स सुपरपॉवर बनने का मतलब बड़ी प्रतियोगिताओं का आयोजन करवाना है, न कि खिलाड़ियों का परफॉर्मेंस सुधारना!

4. आख़िर में एक सलाह इमेरजंसी के लिए। आख़िरी दिनो में अगर हमें लगे कि स्टेडियम और बाकी निर्माण कार्य अब भी पूरे नहीं हुए हैं तो उस स्थिति में खेल नहीं हो पाएंगे, हुए भी तो भद्द पिटेगी... ऐसे में हमें खुद किसी खाली स्टेडियम में दो-चार सूतली बम फोड़ देने चाहिए। इसके बाद दुनिया भर में हल्ला होगा। तमाम जगह से खिलाड़ियों के नाम वापिस लेने की ख़बरें आने लगेंगी। कॉमनवेल्थ समिति सुरक्षा कारणों से भारत से मेज़बानी छीन लेगी। भारत की बजाए किसी और देश में खेल करवाए जाएंगे। वैसे भी सुरक्षा इतंज़ामों के चलते आयोजन न कर पाने की बदनामी, घटिया आयोजन कर भद्द पिटवाने से कहीं छोटी है!

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

छिछोरेपन की मुश्किलें!

जो ये कहते हैं, वो झूठ कहते हैं कि ज़िंदगी दूसरा मौका नहीं देती। मेरी तरह जवानी में लड़कियां छेड़ने की अगर आपकी भी हसरत अधूरी रह गई तो आप चाहें तो आगे चलकर लड़कियों की किसी टीम के कोच बन सकते हैं। आपके कोच बनने पर देश सोचेगा कि अब आप उसका गौरव बढ़ाएगा और आप सोचेंगे कि बरसों से जो न बन सकी, अब हम वो बात बनाएंगे। आप लड़कियों को कहना कि मुझसे घबराओ मत...मैं तुम्हारे बाप समान हूं और फिर उन्हें छेड़कर बताना कि ‘आपके यहां’ बाप कैसे होते हैं। आप बाप बन पाप करते जाना और टीम हारती जाएगी। देश सोचेगा कि आप सालों से खेल का शोषण कर रहे हैं और फिर एक रोज़ पता चलेगा कि आप खेल ही नहीं खिलाड़ियों का भी शोषण कर रहे थे। जिस कोच से ये उम्मीद की जाती थी कि विपक्षी खिलाड़ियों के खिलाफ रणनीति बनाएगा वो बाकायदा एक रणनीति के तहत अपनी ही खिलाड़ियों को पटाने में लगा था।

जो लोग छिछोरागिरी में स्पोर्टिंग करियर बनाने की सोच रहे हैं वो कुछ बातें अच्छे से समझ लें। अगर ब्लूलाइन बसों में सालों से लड़कियों को छेड़ ‘आनन्द’ लेने और कभी-कभार डांट खाने के आदी हैं, तो एक बात है मगर यही ‘करतब’ आप किसी बड़े मंच पर दिखाएंगे तो उसमें भारी रिस्क है। हो सकता है कि जवानी में लड़कियों की साइकिलों का पीछा करते-करते बड़े हो कर आप किसी महिला साइकिल टीम के कोच बन जाएं मगर आप उन लड़कियों को आगे निकलना भला कैसे सीखाएंगे जबकि आप खुद हमेशा से साइकिलों का पीछा करने के आदी रहे हैं। उसी तरह जिस शख्स के मन में महिलाओं को लेकर कुंठाएं भरी हैं वो महिला भारतोलन टीम को वज़न उठाना सीखाएगा या अपनी कुंठाओं का वज़न कम करेगा ये बताना भी मुश्किल नहीं है। यही त्रासदी है। तभी तो ‘ड्रैग फ्लिक सीखाने’ वाले लोग अपने सम्बन्ध ‘क्लिक’ करवाने में लग जाते हैं। खिलाने की बजाए उनसे खेलने लग जाते हैं।

सोमवार, 19 जुलाई 2010

भारत का विदेशी मूल!

कम्पनियों के नतीजे भी अच्छे आ रहे हैं, नौकरियां भी बढ़ी हैं, औद्योगिक विकास दर में भी इज़ाफा हो रहा है, मानसून भी ठीक रहने की उम्मीद है और बाकी तमाम चीज़ें जिन्हें ‘स्थानीय कारण’ माना जाता है, ठीक हैं, बावजूद इसके शेयर बाज़ार ऊपर नहीं जा रहा। जानकार बताते हैं कि जब तक यूरोप में हालात नहीं सुधरते तब तक हमारे यहां भी स्थिति डांवाडोल रहेगी। ग्रीस की अर्थव्यवस्था को जब तक आर्थिक मदद की थोड़ी और ग्रीस नहीं लगाई जाती, भारत में भी हालात सुधरने वाले नहीं है।

ये सब देख-सुन मैं सदमे में चला जाता हूं। देश की इस बेचारगी पर मुझे तरस आता है। हमारे किसी भी अच्छे या बुरे के पीछे कारण के रूप में हम ही पर्याप्त क्यों नहीं है? हर क्षेत्र में एक विदेशी हाथ या वजह का होना क्या ज़रूरी है। कहने को सरकार में एक विदेश मंत्रालय है और एक विदेश मंत्री भी। मगर विदेश नीति क्या होगी ये अमेरिका तय करेगा। साल में कितनी अच्छी फिल्में बनेंगी, ये इस बात पर निर्भर करता है कि नकल किए जा सकने लायक हॉलीवुड में कितनी नई फिल्में बनती हैं। हर खेल में सुधार का एक मात्र मूलमंत्र है-विदेशी कोच की तैनाती।


फैशन से भाषा तक हर शह विदेशी हो गई है। दारू के अलावा इस देश में देसी के नाम पर कुछ नहीं बचा है। देसी कट्टों से लेकर देसी बम तक सब आउटडेटिड हो गए हैं। टोंड दूध के ज़माने में आम आदमी को तो देसी घी तक मयस्सर नहीं है। देश को लूटने वाले नेता भी अपना पैसा विदेशी बैंकों में जमा करवाते हैं। अतीत के अलावा भारत पास कुछ भी भारतीय नहीं बचा है। कुछ लोगों को जैसे ये नहीं समझ आता कि ज़िंदगी का क्या किया जाए, भारत शायद दुनिया का इकलौता देश है जो साठ साल में ये नहीं जान पाया कि आज़ादी का क्या किया जाए!

रविवार, 4 जुलाई 2010

मानसून का भ्रष्टाचार!

व्यवस्था का अगर इंसान पर असर पड़ता है तो चीज़ों पर भी पड़ता होगा। ये देखा गया है कि जिन दफ्तरों में लोग काम नहीं करते वहां कम्प्यूटर भी धीमे चलते हैं। जीमेल तक खुलने में इतना वक़्त लेता है कि आप चाहें तो जिसे मेल करना है, उसके घर जाकर चिट्ठी दे आएं। ठीक इसी तरह ये समझने की ज़रूरत है कि मानसून भी इस देश के सिस्टम में ढल गया है। उसे कोसने से पहले ये ध्यान रखना चाहिए कि जिस मुल्क में स्टेशन पर गाडी, बुज़ुर्ग को पेंशन, पत्ते पर चिट्ठी, बुकिंग के बाद गैस और नौजवान को अक्ल... कभी वक़्त पर नहीं आती, वहां मानसून वक़्त पर आ जाए, ये उम्मीद करना, उम्मीद और मानसून दोनों के साथ ज़्यादती है।

कृषि प्रधान देश में मानसून की ख़ासी अहमियत है। अपनी अहमियत जान जब सरकारी चपरासी तक भ्रष्ट हो सकता है तो मानसून क्यों नहीं। हो सकता है वो वक्त से ही निकलता हो मगर रास्ते में एसी या कूलर बनाने वाली कम्पनियां उसे रिश्वत देकर रोक लेती हों। उसे कहती हो कि तुम वक़्त पर चले गए तो हमारा धंधा चौपट हो जाएगा। ऐसा करो दो-चार करोड़ लेकर यहीं हमारे रेस्ट हाउस में रूक जाओ। दूसरी तरफ मौसम विभाग अपना सिर धुनता है कि मानसून तो फलां तारीख तक फलां जगह पहुंच जाना चाहिए मगर वो पहुंचा क्यों नहीं। तो एक संभावना ये है कि वो भ्रष्ट हो गया हो।

दूसरी संभावना ये कि जिस दौर में बाबाओं से लेकर नेताओं तक सभी चरित्रहीन हो रहे हैं, चरित्रहीनता राष्ट्रीय चरित्र बन गई है तो क्या पता मॉनसून का भी कोई एक्सट्रा मैरिटल अफेयर चल रहा हो। दिल्लगी के चक्कर में वो दिल्ली टाइम पर नहीं आ रहा।
या फिर देरी से आकर मानसून ये बताना चाहता हो कि जिस तरह इंसान अपनी मर्ज़ी का मालिक हो कर नेचर का कबाड़ा कर सकता है। सोचों ज़रा! अगर नेचर भी मर्ज़ी की मालिक हो जाए तो क्या होगा!

शनिवार, 26 जून 2010

धूल चाटने की हसरत!

भारत उन चंद गौरवशाली देशों में शामिल है जो फुटबॉल विश्व कप में आज तक एक भी मैच नहीं हारा! ये बात अलग है कि ये गौरव उसने विश्व कप में एक मैच भी न खेल कर हासिल किया है! मगर सवाल यही है कि कब तक हम भारतीय रात दो-दो बजे तक जागकर मुशायरे में सिर्फ तालियां ही पीटते रहेंगे, ये सोच कर खुश होते रहेंगे कि टूर्नामेंट के फलां गाने में भारतीय ने संगीत दिया या उदघाटन समारोह में फलां सेबीब्रिटी ने भारतीय डिज़ाइनर की ड्रेस पहनी। लानत है ऐसी संतुष्टि पर। खेल फुटबॉल का है और हम दर्जियों के हुनर पर गौरवान्वित हो रहे हैं। ड्रेस की जगह फुटबॉल भी सिली होती तो बात और होती।


दोस्तों, न तो हमें हार से परहेज़ है और न ही धूल से एलर्जी तो फिर कब तक हम क्रिकेट टीमों के हाथों क्रिकेट मैदानों की ही धूल चाटते रहेंगे। वो दिन कब आएगा जब हम भी ब्राज़ील के हाथों धूल चाटेंगे, अर्जेंटीना हमारी बख्खियां उधेड़ेगा और जर्मनी हमें रौंद डालेगा। कब तक हम सैफ खेलों में भूटान और मालदीव से हारते रहेंगे। कब तक नेपाल को हरा और बर्मा से हार हम खुश और दुखी होते रहेंगे। जितनी आबादी रोज़ाना डीटीसी की बसों में ‘खड़ी होकर’ सफर करती है; उससे भी कम आबादी वाले देश विश्व कप खेल रहे हैं और डीटीसी के डिपो जितने देश विश्व कप में धूम मचाए हुए हैं। और एक हम हैं कि विश्व कप के दौरान बिके रंगीन टीवी और खाली हुई बियर की बोतलें गिन कर ही खुश हो रहे हैं। टीम के कोच बॉब हॉटन दावा करते हैं कि हम भी 2018 के विश्व कप में क्वॉलिफाई कर जाएंगे मगर जैसे हालत अभी दिखते हैं, उसे देख लगता नहीं कि हम अठारह हज़ार दो तक भी क्वॉलिफाई कर पाएंगे।

शुक्रवार, 18 जून 2010

हारा हुआ चिंतन! (व्यंग्य)

औसत भारतीय ज़िंदगी में किस्मत, वक़्त और ईश्वर को कभी नहीं भूलता। किस्मत में हो तो अच्छी नौकरी मिल जाती है, वक़्त आने पर लड़की के लिए अच्छा रिश्ता मिल जाता है और ईश्वर चाहे तो इंसान का ‘नाम’ भी हो जाता है। अब ऐसे समाज में जब लोग इंसाफ की, कानून की बात करते हैं तो लगता है कि संस्कारों से बगावत हो रही है। मेरा मानना है कि दर्शन जब ज़िंदगी के हर पड़ाव पर सहारा बनता है तो फिर न्याय में भी बनता होगा। लिहाज़ा, जब लोग बात करते हैं कि हज़ारों लोगों की मौत के ज़िम्मेदार एंडरसन को भगा कर, उनके साथ अन्याय किया गया तो मुझे कोफ्त होती है। जब संसार में एक पत्ता भी ईश्वर की मर्ज़ी के बिना नहीं खड़कता तो ऐसे में एक शख्स की लापरवाही से हज़ारों लोगों की जान कैसे जा सकती है! लोग मरे... क्योंकि यही ईश्वर की मर्ज़ी थी और एंडरसन फरार हुआ क्योंकि उसमें ईश्वर की सहमति थी। अब ये कहना कि इसके लिए अर्जुन सिंह या राजीव गांधी दोषी हैं, सरासर ग़लत है।

दोषियों का क्या होगा...क्या नहीं होगा...इसकी चिंता हमें छोड़ देनी चाहिए। जब इंसान को उसके कर्मों का फल मिलना तय है और वो फल ईश्वर ने ही देना है और अर्जुन सिंह एंड कंपनी ने जो किया वो ईश्वर की मर्जी़ से ही किया तो फिर क्यों उन्हें बद्दुआएं दे हम अपना वक़्त बरबाद करें? ये लोग तो ईश्वरीय मर्ज़ी की पूर्ति के लिए माध्यम भर थे! जिसने जीवन दिया अगर उसी ने वापिस ले भी लिया तो क्या हर्ज़ है। क्या तुम्हारा था जो छिन गया।

उम्मीद को मरने वाली मैं दुनिया की आख़िरी चीज़ मान भी लूं तो भी इस बात की गुंजाइश बेहद कम है कि भगवान भी आत्मचिंतन करता होगा। ग़लती का एहसास होने पर वो भी प्रायश्चित करता होगा...और अगर आत्मचिंतन ईश्वर के भी संस्कार का हिस्सा है तो यकीन मानिए वॉरन एंडरसन अगले जन्म में एक गरीब के रूप में भारत में ही जन्म लेगा! उसके लिए सज़ा की इससे बड़ी बद्दुआ और क्या हो सकती है!

गुरुवार, 10 जून 2010

पेशा बदलने का वक़्त! (हास्य-व्यंग्य)

इस देश में कुछ हस्तियों को देखकर एहसास होता है कि उनका अपने काम में मन नहीं लग रहा। वक़्त आ गया है कि वो पेश बदल लें। इस सूची में पहला नाम है युवराज सिंह का। कहा जाता है कि बचपन में क्रिकेट उनका पहला प्यार नहीं था। पिता के दबाव में वो क्रिकेट खेलने लगें। हाल-फिलहाल उनका खेल देख यही लग रहा है कि पिता के दबाव का असर उन पर से जाने लगा है। जिस शिद्दत से वो हर उपलब्ध मौके पर नाचते हैं...उसे देखते हुए यही सलाह है कि उन्हें क्रिकेट छोड़, कोई ऑर्केस्ट्रा ग्रुप ज्वॉइन कर लेना चाहिए। और चाहें तो अपने नचनिया मित्र श्रीसंत को भी साथ ले लें।

इसी तरह फिल्मी दुनिया में राम गोपाल वर्मा की हर फिल्म देख यही लगता है कि वो प्रतिभा से नहीं, अपनी ज़िद्द से फिल्म निर्देशक रह गए हैं। एक बाल हठ है...कि मैं फिल्में बनाऊंगा। फिल्म में कहानी और थिएटर में दर्शकों का होना तो कोई शर्त है ही नहीं। उदय चोपड़ा को देख भी यही लगता है कि किसी भावुक क्षण में पिता से किए वादे को निभाने के चक्कर में आज भी एक्टिंग कर रहे हैं। वरना तो सम्पूर्ण राष्ट्र की यही मांग है...हमारे अभिनेता कैसा हो...जैसा भी हो..उदय चोपड़ा जैसा न हो।

वहीं शरद पवार साहब...आईसीसी के चीफ भी बनने वाले हैं। आईपीएल में टीम खरीदने के अरमान भी रखते हैं मगर एक जगह, जहां उनका दिल नहीं लगता, वो है कृषि मंत्रालय। उनका मानना है कि जिस देश में साठ फीसदी लोग कृषि पर निर्भर हैं, उस मंत्रालय को आज भी पॉर्ट टाइम जॉब की तरह लिया जा सकता है। ममता बैनर्जी भी उस कर्मचारी की तरह बेमन से काम कर रही हैं, जिसकी नयी नौकरी लगने वाली है और पुरानी में उसका दिल नहीं लग रहा। और मालिक भी जानता है कि वो नोटिस पीरियड पर है!

मंगलवार, 8 जून 2010

लेखक का ख़त!

सम्पादक महोदय,
नमस्कार!

लेखक भले ही समाज में फैले भ्रष्टाचार, गिरते सामाजिक मूल्यों, स्वार्थपूर्ण राजनीति पर कितना ही क्यों न लिखे लेकिन उसकी असल चिंता यही होती है कि उसका भेजा लेख टाइम से छप जाए। मानवीय मूल्यों की गिरावट पर उसे दुख तो होता है लेकिन साथ ही इस बात की खुशी भी होती है, इस गिरावट पर जैसा वो लिख पाया वैसा किसी और ने नहीं लिखा। ये सही है कि ऐसा सोचना भी अपने आप में गिरावट है, मगर ये अलग बहस का विषय है।

ठीक इसी तरह पिछले कुछ लेखों में मैंने भले ही नेताओं से लेकर, मीडिया और खेल पर जो लिखा हो मगर इस दौरान मेरी असली चिंता यही रही कि आपने व्यंग्य कॉलम काफी छोटा कर दिया है। माना कि बड़ा कॉलम होने पर लेखक विषय से भटक जाते हैं मगर आपने ये कैसे मान लिया कि कॉलम छोटा होने पर लेखक भटकना बदं कर देंगें। मुझ जैसे को तो आप चुटकुला छाप कर भी भटकने से नहीं रोक सकते। कविता, कहानी, उपन्यास से भटकते हुए तो हम व्यंग्यकार बने हैं, अब व्यंग्य में भी नहीं भटकेंगें तो कहां जाएंगें, आप ही बताईये!

पहले आप इस कॉलम को पेज के बीचों-बीच छापते थे, फिर इसे नीचे ले गए और अब साहित्य में व्यंग्यकार की तरह, आपने इसे पूरी तरह हाशिये पर डाल दिया है। उस पर शब्द सीमा भी घटा दी है। जितने शब्द पहले मैं विषय पर आने में लेता था उतने में तो लेख ही ख़त्म हो जाता है। इससे बड़ी तो आप पाठकों की चिट्ठियां छापते हैं। सोच रहा हूं... लेख छोड़ चिट्ठियां लिखनी शुरू कर दूं। मेरा अनुरोध है कि या तो कॉलम फिर से बड़ा कर दें या फिर रचना मेल के बजाए एसएमएस से लेना शुरू कर दें!

छपने की आशा में...

शिकायती लेखक!

सोमवार, 31 मई 2010

सारी शामें उनमें डूबीं, सारी रातें उनमें खोयीं! (हास्य-व्यंग्य)

कॉलेज का नया सत्र शुरू होने वाला है। आए दिन अख़बार-टीवी में फैशनेबल लड़कियों की तस्वीरें आती हैं, जिनमें अक्सर दिखाया जाता है कि एक बला की खूबसूरत लड़की अपनी सहेली से बात कर रही है और पीछे कोने में खड़े दो लड़के किसी ओर दिशा में मुंडी घुमाए हैं। मैं कभी नहीं समझ पाया कि ये बाप के बेटे, लड़कियां न देख दूसरी दिशा में आख़िर क्या देखते हैं। ऐसी कौन-सी अनहोनी है जो इनकी गर्दन को लड़कियां देखने के बजाए पैंतालीस डिग्री घूमने पर मजबूर करती है। सच...आधी बुद्धि इन लड़कियों को देख भ्रष्ट हो जाती है, और बाकी इन गधे लड़कों को देख।

दोस्तों, ये ऐसा दर्द है जिसे वही समझ सकता है जो कभी को-एड में न पढ़ा हो। जिसके सम्पर्क क्षेत्र में दो ही महिलाएं रही हों, एक उसकी मां और दूसरी बहन। जो गर्ल्स कॉलेज के चौकीदार को भी जलन भरी निगाहों से देखता हो। जो बंद पड़े गर्ल्स कॉलेज की चारदीवारी में भी लड़की होने की उम्मीद में झांकता हो। जो साइकिल स्टैंड पर खड़ी लेडीज़ साइकिलों को भी हसरत भरी निगाहों से देखता हो। जिसके जीवन का एकमात्र मकसद ऐसी लड़कियों की तलाश हो जिनकी साइकिल की चैन उतर चुकी है। ऐसी चैनें चढ़ा कर ही इसे चैन मिलता है। किसी और को चैन चढ़ाता देख ये बेचैन हो जाता है, और तब तक चैन से नहीं बैठता जब तक दो-चार साइकिलों की चैन न चढ़ा ले। मित्रों, हिंदुस्तान की कस्बाई ज़िंदगी में थोक के भाव पाए जाने वाले ये वो बांकुरें हैं जो ज़्यादातर जीवन शहर के आउटस्कर्ट्स में गुज़ारते हैं और शहर आने पर कभी स्कर्ट्स के साथ एडजस्ट नहीं कर पाते!

दुनिया भर के वैज्ञानिक मंगल पर पानी की खोज में है तो ये सम्पूर्ण धरती पर लड़कियों की खोज में। बस में चढ़ते ही सैकिंड के सौवें हिस्से में पता लगा लेते हैं कि लड़की कहां बैठी है। फिर यथासम्भव कोण बना उसे एकटक ताड़ते हैं। सवारियां बस के बाहर के सौंदर्य का आनन्द उठाती हैं और ये बस के भीतर का। इनके लिए उस एक पल पूरी दुनिया डायनामाइट लगा उड़ा दी गई है। अगर कोई शह उस क्षण ज़िंदा है और देखने लायक तो वो लड़की जिसे वो पिछले सैंतीस मिनट से बिना सांस लिए, बिना पलक झपकाए, आंखें गढ़ाए देख रहे हैं। इन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं कि लड़की इनके बारे में क्या सोचेगी। इनकी नज़र में पूरी समस्या मात्र ‘शाब्दिक मतभेद’ है। लड़कियां जहां इस एकटक ताड़ने को ‘बेशर्मी’ मानती हैं तो ये ‘आंख सेंकना’।

यहां प्यार में विचारों का मिलना नहीं, मौके का मिलना ज़रूरी होता है। अक्सर जिस लड़की से प्यार करते हैं उसे कानों-कान इसकी ख़बर नहीं लगती। दोस्तों में उसे ‘तुम्हारी भाभी’ कहते हैं। मगर उनकी भाभी को कभी नहीं बता पाते कि ये उसका पति बनना चाहते हैं। फिर एक रोज़ इसके दोस्त ही इसे खुशखबरी देते हैं कि-‘हमारी भाभी’ अब तुम्हारी भी भाभी बनने वाली है। उसके घर वालों ने उसका रिश्ता तय कर दिया है। ये सुन इस मासूम का दिल टूट जाता है। बिना कभी लड़की को प्रपोज़ किए, बिना अपने दिल का हाल बताए ये इस महान नतीजे पर पहुंचता है कि इसके साथ ‘धोखा’ हुआ है! ये जीवन भर ऐसे ही धोखे खाता है और इन्हीं मुगालतों में जीवन बनाने के मौके खोता है। आशिक के ऐसे ही हालात पर सरदार अली जाफरी ने कहा है... सारी शामें उनमें डूबीं, सारी रातें उनमें खोयीं, सारे सागर उनमें टूटे, सारी मय गर्क उन आंखों में है, देखती हैं वो मुझे लेकिन बहुत बेगानावार (जैसे जानती ही न हों)।

रविवार, 30 मई 2010

अपनी-अपनी पहचान! (व्यंग्य)

दुनिया को एक बड़ा-सा क्लास रूम माना जाए और अलग-अलग देशों को स्टूडेन्ट्स तो बड़ी रोचक तस्वीर उभरती है। कक्षा में जहां जापान जैसे कुछ मेहनती बच्चे हैं, जिन्होंने सिर्फ पढ़ाई-लिखाई के दम पर पहचान बनाई है जो सिर्फ अपने काम से काम रखते हैं तो वहीं अमेरिका जैसी अमीर बाप की औलादें भी हैं, जिनका ध्यान पढ़ाई में कम और नेतागिरी में ज़्यादा है। जो ‘पैसा फेंक और पर्चा खरीद’ में माहिर हैं। एक इंग्लैंड है, जिसका ज़्यादातर वक़्त अमीर दोस्त अमेरिका की चमचागिरी में बीतता है तो वहीं यूरोपीय देशों के छात्रों का एक गुट भी है जो अमेरिकी दादागिरी से बचने के लिए साथ खाता-पढ़ता है।

ये सब बच्चे पहली दुनिया के देश कहलाते हैं जो या तो अपनी मेहनत के दम पर टिके हैं, पैसे के दम पर या फिर एक दूसरे के दम पर। वहीं इस क्लास में कुछ ऐसे बच्चे भी हैं, जो स्कूल क्यों जा रहे हैं, वो खुद नहीं जानते। उन्हें पता है कि दसवीं के बाद उन्हें गल्ले पर बैठ पिताजी की दुकान संभालनी है। मगर ये सब भी कुछ न कुछ करने में लगे हुए हैं। कक्षा में अगर किसी बच्चे के इम्पोर्टेंट नोट्स चोरी हो गए हैं और इसके एवज़ में कोई छात्र पैसे मांग रहा है तो मान लें कि ये सोमालिया होगा। क्लास में अगर चोरी छिपे जर्दे-तम्बाकू के पाउच आ गए हैं तो ये नाइजीरियाई छात्र की करतूत होगी। वहीं बड़े डौलों की धौंस दिखा, ड्रैगन छपी टी-शर्ट पहन, हर दूसरे छात्र को डराने वाला निश्चित तौर पर चीन ही होगा। अमेरिकी और यूरोपीय छात्रों को पीटने की अगर कहीं प्लानिंग चल रही है तो उसके पीछे पाकिस्तानी होगा और वहीं पूरी कक्षा में जिसका कोई दोस्त नहीं, जिसे सब से शिकायत है, साथी बैंच वालों से भी जिसका झगड़ा है, जिसकी हर कोई बेइज़्ज़ती कर जाता है, जो औसत होने के बावजूद दंभी है... जी हां, वो मेरा भारत महान है।

मंगलवार, 25 मई 2010

एक आध्यात्मिक घटना! (हास्य-व्यंग्य)

आजकल परीक्षा परिणामों का सीज़न चल रहा है। रोज़ अख़बार में हवा में उछलती लड़कियों की तस्वीरें छपती हैं। नतीजों के ब्यौरे होते हैं, टॉपर्स के इंटरव्यू। तमाम तरह के सवाल पूछे जाते हैं। सफलता कैसे मिली, आगे की तैयारी क्या है और इस मौके पर आप राष्ट्र के नाम क्या संदेश देना चाहेंगे आदि-आदि। ये सब देख अक्सर मैं फ्लैशबैक में चला जाता हूं। याद आता है जब मेरा दसवीं का रिज़ल्ट आना था। अनिष्ट की आशंका में एक दिन पहले ही नाई से बदन की मालिश करवा ली थी। कान, शब्दकोश में न मिलने वाले शब्दों के प्रति खुद को तैयार कर चुके थे। तैंतीस फीसदी अंकों की मांग के साथ तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को सवा रूपये की घूस दी जा चुकी थी और पड़ौसी, मेरे सार्वजिनक जुलूस की मंगल बेला का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे।

वहीं फेल होने का डर बुरी तरह से तन-मन में समा चुका था और उससे भी ज़्यादा साथियों के पास होने का। मैं नहीं चाहता था कि ये ज़िल्लत मुझे अकेले झेलनी पड़े। उनका साथ मैं किसी कीमत पर नहीं खोना चाहता था। उनके पास होने की कीमत पर तो कतई नहीं। दोस्तों से अलग होने का डर तो था ही मगर उससे कहीं ज़्यादा उन लड़कियों से बिछड़ जाने का था जिन्हें इम्प्रैस करने में मैंने सैंकड़ों पढ़ाई घंटों का निवेश किया था। असंख्य पैंतरों और सैंकड़ों फिल्मी तरकीबें आज़माने के बाद ‘कुछ एक’ संकेत भी देने लगी थीं कि वो पट सकती हैं। ये सोच कर ही मेरी रूह कांप जाती थी कि फेल हो गया तो क्या होगा! मेरे भविष्य का नहीं, मेरे प्रेम का! या यूं कहें कि मेरे प्रेम के भविष्य का!

कुल मिलाकर पिताजी के हाथों मेरी हड्डियां और प्रेमिका के हाथों दिल टूटने से बचाने की सारी ज़िम्मेदारी अब माध्यमिक शिक्षा बोर्ड पर आ गयी थी। इस बीच नतीजे आए। पिताजी ने तंज किया कि फोर्थ डिविज़न से ढूंढना शुरू करो! गुस्सा पी मैंने थर्ड डिविज़न से शुरूआत की। रोल नम्बर नहीं मिला तो तय हो गया कि कोई अनहोनी नहीं होगी! (फर्स्ट या सैकिंड डिविज़न की तो उम्मीद ही नहीं थी) पिताजी ने पूछा कि यहीं पिटोगे या गली में.....इससे पहले की मैं ‘पसंद’ बताता...फोन की घंटी बजी...दूसरी तरफ मित्र ने बताया कि मैं पास हो गया...मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था....पिताजी भी खुश थे...आगे चलकर मेरा पास होना हमारे इलाके में बड़ी 'आध्यात्मिक घटना' माना गया....जो लोग ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे, वो करने लगे और जो करते थे, मेरे पास होने के बाद उनका ईश्वर से विश्वास उठ गया!

शुक्रवार, 21 मई 2010

लोकतंत्र की ख़ातिर!

देश में अगर बहुत-सी बुरी चीज़ें हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि हम कुछ अच्छी चीज़ें न होने दें और अगर कुछ अच्छी चीज़ें हो रही हैं तो ये भी ज़रूरी नहीं कि बुरा होना रूक जाए। अच्छाई-बुराई के इस सह-अस्तित्व को भारत से अच्छा और किसी ने नहीं समझा। दिल्ली में वर्ल्ड क्लास मैट्रो है ये अच्छी बात है, हम चाहते हैं कि हमारे यहां बुलेट ट्रेन चले, ये भी अच्छा है। मगर देश की राजधानी में गाडी पकड़ने में मची भगदड़ में अगर दो-चार लोग मारें जाएं तो इसमें भी कोई बुराई नहीं है। इंडिया होने के चक्कर में भारत अपनी पहचान नहीं गंवा सकता है।

भले ही आज तक हम ड्रेनेज लाइन और पीने के पानी की पाइप लाइन को मैनेज न कर पाएं हो, मगर हिंदुस्तान से ईरान के बीच गैस पाइप लाइन बिछाने की तो सोच ही सकते हैं। हमारे खिलाड़ी भले ही राष्ट्रीय कैंपों में अपने बर्तन तक खुद धोएं मगर राष्ट्रमंडल खेलों के खिलाड़ियों को विश्वस्तरीय सुविधाएं देने के प्रति तो हम वचनबद्ध हैं हीं। तो क्या हुआ जो हमने आज तक पब्लिक टॉयलेट्स को साफ रखना नहीं सीखा, मगर कार्बन उत्सर्जन में कटौती का वादा कर हमने ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी तो निभा ही दी है। हमारा पब्लिक ट्रांसपोर्ट भले ही कितना घटिया हो मगर ताज़ा ऑटो सेल नतीजे बताते हैं कि गाड़ियों की बिक्री में हमने सबको पीछे छोड़ दिया है। गरीब बढ़े हैं तो क्या फोर्ब्स की सूची में भारतीय अरबपति भी तो बढ़े हैं। और ये विरोधाभास यूं ही नहीं है। खाते-कमाते लोग तो वोट देते नहीं। रही बात साफ पानी और बढ़िया पब्लिक ट्रांसपोर्ट की तो जो स्टेशनों में मची भगदड़ में मारे जाते हैं उन्हीं से साफ पानी और पब्लिक ट्रांसपोर्ट के नाम पर वोट मांगा जा सकता है। लोकतंत्र बचा रहे उसके लिए ज़रूरी है कि थोड़ी बहुत अव्यवस्था भी बची रहे।

शुक्रवार, 14 मई 2010

नग और नगीने!

वक़्त आ गया है कि क्रिकेट की हार को हम क्रिकेटीय कारणों से आगे बढ़ कर देखें। बहुत हो चुका ये कहते-कहते कि हमारे गेंदबाज़ों की गति कुछ ब्लैक एंड व्हाइट हिंदी फिल्मों से भी धीमी है, फील्डिंग देश की कानून-व्यवस्था से भी लचर है और शॉर्ट पिच गेंदें देख बल्लेबाज़ों की तकनीक में शॉर्ट सर्किट हो जाता है। वक़्त आ गया है कि शोध करें कि कहीं इसके पीछे ज्योतिषय, खगोलिय या वास्तुशास्त्रीय कारण तो ज़िम्मेदार तो नहीं। जिन बल्लेबाज़ों को हम तेज़ गेंदबाज़ी न खेल पाने के लिए अरसे से कोस रहे हैं, ऐसा तो नहीं कि उनका शनि ठीक न चल रहा हो। पैदल गेंदबाज़ किसी ग्रह की वक्रीय चाल से बेहाल हों या फिर कैच छोड़ने वाला खिलाड़ी खुद किसी ग्रह की गिरफ्त में हो।

वक़्त आ गया है कि बीसीसीआइ सभी क्रिकेट खिलाड़ियों की कुंडलिया मंगवाए। पैसे को व्यर्थ बताने वाले कुछ बडे़ पंडितों को अनाप-शनाप पैसा दे हायर किया जाए। वो देखें कि गड़बड़ी कहां है। वास्तुशास्त्रियों से खिलाड़ियों के घर का मुआयना करवाया जाए। ये देखा जाए कि जो गेंदबाज़ फील्ड प्लेसमेंट के हिसाब से गेंद नहीं करता उसके घर में किन-किन सामानों की प्लेसमेंट ग़लत है। अंगदनुमा फुटवर्क के चलते पगबाधा होने वाले बल्लेबाज़ के रास्ते में, कही ग़लत जगह रखा उसका डब्ल बैड तो बाधा नहीं।


साथ ही बीसीसीआइ ये भी सुनिश्चित करे कि समस्याओं का जल्द निपटारा हो। खिलाड़ियों को झाड़ा लगवाने से लेकर उनके लिए बाज़ार में अच्छे नग तलाशने का काम वो खुद करे। खिलाड़ियों को ईस्ट फेसिंग मकान दिलवाएं। सत्यनारायण की कथा करवाए। कालसर्प योग कराए। जो कुछ हो सकता है वो करे। मुझे पक्का यकीन है कि ठीक नग पहन कर हमारे नगीने ठीक से खेलने लगेंगे। और आख़िर में विपक्षी खिलाड़ी बुरा खेलें इसके लिए किसी तांत्रिक की सेवाएं भी ली जा सकती है।

शुक्रवार, 7 मई 2010

नैतिकता के टावरों से बंजी जम्पिंग!

गजब मंजर है। चारों ओर लोग नैतिकता के टावरों से बंजी जम्पिंग कर रहे हैं। प्रतिस्पर्धा है तेज़ी से नीचे गिरने की। कर्तव्य की ज़मीन से भाग स्वार्थ के पैराशूट खोलने की। सालों से लोग सेफ लैंडिंग भी कर रहे हैं। और कभी-कभार जब रस्सी नहीं खुलती तो पता चलता है कि कोई माधुरी गुप्ता, जिसका काम तो भारत के लिए पाकिस्तान की जासूसी करना था मगर वो लगी पाकिस्तान के लिए भारत की जासूसी करने। रस्सी न खुलने पर रस्सा कस गया। अजब त्रासदी है। फॉरवर्ड टीम को बढ़त दिलवाने में लगे हैं और गोलची सेल्फ गोल कर रहा है!

अप्रेल के शुरू में दंतेवाड़ा में नक्सलियों से लड़ते हुए सीआरपीएफ के चौहत्तर जवान शहीद हुए थे और महीने के आख़िर में पता चला कि सीआरपीएफ के जवान ही अरसे से नक्सलियों को हथियार सप्लाई कर रहे थे। मैं सोचता हूं कि जिस दौर में भ्रष्टाचार ही राष्ट्रीय आचरण बन गया हो, वहां शहीदों को इससे बेहतर ‘विभागीय श्रद्धांजलि’ और भला क्या दी सकती थी!

संसद में इस मामले पर बहस होती रही कि सरकार खुफिया एजेंसियों के माध्यम से नेताओं के फोन टैप करवा रही है। फिर ख़बर आई कि अमेरिकी और ब्रिटिश एजेंसियों ने आगाह किया है कि दिल्ली के बाज़ारों में धमाके हो सकते हैं। कैसी विडम्बना है कि हमें अपने नेताओं पर भरोसा नहीं है और उन्हें हमारे बाज़ारों की फिक्र है। एसीएसयू प्रमुख पॉल कोन्डन ने दो हज़ार आठ में आईसीसी को चेताया था कि आईपीएल में बड़े पैमाने पर मैच फिक्सिंग हो सकती है और कैसा हसीन इत्तेफाक है कि आज मैच फिक्सिंग में हम खुद आइपीएल कमीश्नर के शामिल होने की बात कर रहे हैं!!! जिस-जिस स्तर पर और जितना गिरा जा सकता था, वहां-वहां हमने बोरवैल खोद लिए हैं। कुछ बचा नहीं है। गुनुदगी में जीने वाले देश को कुछ और नाचा-गाना सुनाओ। शुक्र है! इंडियन आइडल फाइव शुरू हो गया है।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

नेताओं का उंगली क्रिकेट!

बीस-बीस के खेल में सामने आई चार सौ बीसी मेरे लिए उतनी उत्सुकता का विषय नहीं है, जितना इस चार सौ बीसी पर नेताओं की चिंता। लालू, मुलायम जैसे नेता क्रिकेट की बर्बादी पर जब संसद में आंसू बहाते हैं तो इसे देख मगरमच्छ तक असली आंसू बहाने पर मजबूर होता है। चिंता को वाजिब पाकर नहीं, अभिनय में इनके हाथों मात खाकर।
मैं सोचता हूं कि कैसे ये लोग, जिनके खाते में अपने-अपने राज्यों की बीस-बीस साल की बर्बादी है, आज महज बीस-बीस ओवर के एक खेल की बर्बादी पर इतने दुखी हैं। ढाई सौ किलो वजनी शख्स स्वस्थ रहें, मस्त रहें विषय पर जोरदार भाषण दे रहा है।
मैं सोचता हूं कि ये नेता आइपीएल में हुए फर्जीवाड़े को लेकर इतना दुखी क्यों है? क्या उन्हें इस बात का दुख है कि ये फर्जीवाड़ा उनके हाथों नहीं हुआ। क्या उन्हें इस बात की तकलीफ है कि जब धंधेबाजों को ही खेल चलाना है तो हम क्यों नहीं चला सकते? जब हम देश बेच सकते हैं, तो खेल क्यों नही। या फिर उन्हें इस बात का गुस्सा है कि ऐसे खेल का क्या फायदा जिसमें यादव के लड़के को दूसरे के लिए तौलिया ले कर भागना पड़े।

मैं सुप्रीम कोर्ट से गुजारिश करूंगा कि नेताओं को ऐसी किसी भी सभा में घुसने या ऐसे किसी भी मंच पर चढ़ने से रोका जाए जहां नैतिकता, सदाचार या राष्ट्र निर्माण जैसे विषय पर कोई चर्चा हो रही हो। हिंदुस्तान एक लोकतांत्रिक देश है। यहां हर किसी को हर क्षेत्र में यथासम्भव क्षमता और यथासम्भव योग्यता के हिसाब से फर्जीवाड़े का हक है। भगवान के लिए आप उंगली क्रिकेट मत खेलें। उंगली उठाने और करने का काम किसी और पर छोड़ दें।

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

थरूर को बख़्श दो!

मज़बूत मंत्री अगर सरकार की ज़रूरत होता है तो विवादित मंत्री विपक्ष की। ऐसे में जब बीजेपी बार-बार ये मांग करती है कि शशि थरूर इस्तीफा दें, तो मुझे तरस आता है। उसकी मांग सोचने पर मजबूर करती है कि क्या वो वाकई इस्तीफे को लेकर गंभीर है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अगर विपक्ष का यही काम है कि वो वक़्त-वक़्त पर सरकार को शर्मिंदा करे, नीतियों को लेकर उसे कटघरे में खड़ा करे तो ये फिर ये काम तो थरूर बीजेपी से कहीं बेहतर कर रहे हैं।

कुछ साल पहले एक अंतरराष्ट्रीय बल्लेबाज़ ने अनौपचारिक बातचीत में मुझे कहा था कि जैसे ही विपक्षी टीम किसी घटिया गेंदबाज़ को बॉलिंग पर लगाती थी तो मेरी कोशिश होती थी कि उसके ओवर में एक-दो से ज़्यादा चौके न मारे जाएं। उनका कहना था कि ऐसे गेंदबाज़ की एक बार में ज़्यादा पिटाई करने का नुकसान ये होता था कि कप्तान फिर उसे दोबारा गेंद ही नहीं देता था।

ठीक इसी तरह जब भी बीजेपी शशि थरूर मामले पर उनके इस्तीफे को लेकर दबाव बनाए तो उसे ये ध्यान रखना चाहिए कि उसे किस हद तक जाना है। अगर वाकई ज्यादा दबाव बना दिया तो हो सकता है मजबूर होकर सरकार उनसे इस्तीफा मांग ले।

ऐसे ही सबक की ज़रूरत मीडिया को भी है। क्या ज़रूरत है हर बार टीवी पर ये बताने की इनका तो विवादों से पुराना नाता रहा है। ये तो कुछ न कुछ बोलते ही रहते हैं। एक बेलगाम मंत्री अगर विपक्ष की ज़रूरत है तो क्या बड़बोला मंत्री मीडिया की ज़रूरत नहीं है। क्या चैनल महिला आरक्षण के पक्ष में दी गई अच्छी दलीलों से चलेंगे। जी नहीं। यहां ये समझने की ज़रूरत है कि जिस दौर में मनोरजंन ही ख़बर बन गया हो, वहां सबसे बड़ी ख़बर भी वही बन सकता है जिसका मनोरंजन सूचकांक ज्यादा है। और एक अच्छे विवाद से बड़ा मनोरंजन और भला क्या हो सकता है! क्या आइटम मंत्रियों की इस देश को कोई ज़रूरत नहीं है।

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

विरोधियों का डब्ल फॉल्ट!

जब से सानिया मिर्ज़ा ने शोएब मलिक से शादी का एलान किया है लोग तरह-तरह की बातें कर रहे हैं। कुछ का कहना है कि ज्ञात इतिहास में भारत को पहुंचाया गया ये इकलौता ऐसा नुकसान है जिसके बारे में हम दावे से कह सकते हैं कि इसके पीछे पाकिस्तान का हाथ है! वहीं पाकिस्तानी इस बात पर खुश हैं कि भले ही आइपीएल ने ग्यारह पाकिस्तानी खिलाड़ियों को नकारा हो, लेकिन सानिया ने तो एक अरब दस करोड़ भारतीय को नकार के एक पाकिस्तानी को चुना है। वहीं शोएब विरोधियों का कहना है कि सात साल के करियर में उन्होंने जितनी लड़कियों को उन्होंने छकाया है अगर गेंदबाज़ी से उतने बल्लेबाज़ों को छकाया होता तो कहीं के कहीं होते।

इसके अलावा न जाने कितनी बातें दोनों मुल्कों में इन दोनों को लेकर हो रही हैं। मगर सवाल ये है कि इस सबके बीच क्या किसी ने भी असली सानिया और असली टैनिस फैन का पक्ष जानने की कोशिश की।

सानिया का असली फैन किसी पाकिस्तानी या कजाकिस्तानी ही नहीं, वो तो उसकी शादी के ही खिलाफ हैं। जब से उसने ख़बर सुनी है उसे यही लग रहा है कि उसके साथ धोखा हुआ है! सिर्फ सानिया की ख़ातिर बरसों से टेनिस देखते आ रहे इस फैन ने अब टेनिस और सानिया दोनों को ही न देखने की क़सम खा ली है। टेनिस से तो उसका वही सम्बन्ध रहा है जो उदय चोपड़ा का एक्टिंग और राखी सावंत का सौम्यता से है। ऐसे में विरोध इस बात पर करना चाहिए कि भारत में टेनिस की लोकप्रियता के खा़तिर सानिया अभी शादी न करे या फिर कभी शादी न करे। हो सके तो पाकिस्तान सरकार को पेशकश की जाए कि चाहो तो कसाब ले लो, मगर हमारी लड़की हमें लौटा दो!

मगर अफसोस इस मोर्चे पर कोई विरोध दिखाई नहीं देता। उल्टे हम इस बात पर बहस कर रहे हैं कि सानिया को शादी के बाद भारत के लिए खेलना चाहिए या नहीं। दरअसल जो टेनिस के जानकार हैं वो तो मानते हैं कि जैसी टेनिस सानिया अभी खेल रही हैं हमें तो उल्टे ये ज़िद्द करनी चाहिए कि सानिया चाहे तो भी अब हम उसे अब भारत की ओर से नहीं खेलने देंगे। अब तो उसे पाकिस्तान से ही खेलना पड़ेगा! हम नहीं चाहते कि अंतरराष्ट्रीय स्तर वो भारत की और भद्द पिटवाए। खुदा के लिए ये काम हमारी हॉकी टीम के लिए छोड़ दो।....मगर अफसोस इस फ्रंट पर भी कोई विरोध नहीं उठाई जा रही है। आख़िर पेशेवर अंसतुष्ट कब ये बात समझेंगे कि किसी बात पर विरोध करना और किस पर नहीं!

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

महंगाई के रास्ते मोक्ष! (व्यंग्य)

सरकारों को लेकर हमारी नाराज़गी हमेशा बनी रहती है। महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार तक हर चीज़ के लिए हम उसे ज़िम्मेदार मानते हैं। हर पार्टी हमें अपनी दुश्मन लगती है। अपनी हर तकलीफ का श्रेय हम उसे देते हैं। मगर ये सब कहतें वक़्त हम शायद ये भूल जाते हैं कि सरकार जो कुछ करती है, हमारी बेहतरी के लिए करती हैं। हर संभव तरीके से हमारा जीना हराम कर दरअसल वो इस जीवन से ही हमारा मोहभंग करवाना चाहती है!

नाम न छापने की शर्त पर एक नेता ने कहा भी कि दरअसल हम चाहते हैं कि आम आदमी जीवन की व्यर्थता को समझे। इसलिए अपने स्तर पर हमसे जो बन पड़ता है, हम करते हैं। भले ही वो सब्ज़ियों से लेकर रसोई गैस के दाम बढ़ाने हों या फिर पानी-बिजली की कटौती हो। हमारी कोशिश रहती है कि आम आदमी का वो हाल करें कि उसे अपने पैदा होने पर अफसोस हो और जिस पल उसके अंदर ये भाव जागृत उसी क्षण उसे मोक्ष का ख्याल आएगा। जन्म-मरन के झंझट से मुक्ति का, मोक्ष ही उसका एक रास्ता दिखेगा। वो सद्कर्मों की तरफ मुड़ेगा, ईश्वर में उसकी आस्था गहरी होगी।

मैंने बीच में टोका, नेताजी आप कैसी बात करते हैं, समाजशास्त्र का नियम है कि समस्या बढेंगी तो समाज में अपराध भी बढ़ेगा। फिर आप कैसे कह सकते हैं कि भूखा और बेरोज़गार इंसान ईश्वर की तलाश में घर से निकलेगा। भूखे पेट तो आदमी शर्ट के बटन नहीं बंद कर सकता वो भला मोक्ष की क्या सोचेगा? नेताजी- तो तुम्हें क्या लगता है हम यहीं उसका जीवन स्वर्ग कर, उसे धर्म के रास्ते से हटा दें। मोक्ष की तलाश तो आम आदमी को करनी ही होगी...यही उसके लिए बेहतर है मगर इससे पहले उसे जीवन से मुक्ति कैसे मिले, उसका इंतज़ाम हम कर देंगे!

रविवार, 21 मार्च 2010

हम कमाते क्यों हैं?

मध्यवर्गीय नौकरीपेशा आदमी के नाते ये सवाल अक्सर मेरे ज़हन में आता है कि हम कमाते क्यों हैं? क्या हम इसलिए कमाते हैं कि अच्छा खा-पहन सकें, अच्छी जगह घूम सकें और भविष्य के लिए ढेर सारा पैसा बचा सकें। या हम इसलिए कमाते हैं कि एक तारीख को मकान मालिक को किराया दे सकें। पानी,बिजली, मोबाइल, इंटरनेट सहित आधा दर्जन बिल चुका पाएं। पांच तारीख को गाड़ी की ईएमआई दें और हर तीसरे दिन जेब खाली कर पैट्रोल टैंक फुल करवा सकें।


मुझे तो यहां तक लगता है कि मां-बाप बच्चों का स्कूल में एडमिशन ही इसलिए कराते हैं कि पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी और बड़ी तनख्वाह पा वो एक दिन मकान मालिक को दस-पंद्रह हज़ार किराया दे सके! इसीलिए वित्त मंत्री भी जब घोषणा करते हैं कि अगले एक साल में हम एक करोड़ नौकरियां पैदा करेंगे तो उसका मतलब है कि अगले एक साल में हम एक करोड़ किराएदार तैयार करेंगे। ऐसे में लगता है कि तनख्वाह आपकी-हमारी मेहनत का प्रतिफल नहीं बल्कि मकान मालिकों और कामवालियों की वो अमानत है जो मिलते ही हमें उन्हें लौटानी हैं।

और इन झटकों के बावजूद आपके सेविंग अकाउंट में अगर कुछ बच गया है तो मार्च आते-आते इसे भी तो टैक्स सेविंग की मजबूरी में उन म्यूचल फंडों में इनवेस्ट करना होगा, जो स्टार लगाकर ये हिदायत देते हैं कि इनवेस्टमेंट इन शेयरमार्किट इज़ सब्जिक्ट टू मार्केट रिस्क प्लीज़ रीड द् ऑफर डाक्यूमेंट क्लियरली बिफोर इनवेस्टिंग! ऐसे में या तो बंदा अपना सर पीट ले या फिर नौकरी छोड़ गांव में हल चलाकर समस्या का हल ढूंढें। आप भी सोचें कि इस सब पर हम अपना सर पीटें, या फिर लोन की गाड़ी, किराए के मकान और इनवेस्टमेंट पोर्टफोलियों में गर्व तलाशें और जो चल रहा है उसे चलने दें।

मंगलवार, 9 मार्च 2010

पपी और पापी!

जिस दुकान पर कल मैं सामान लेने गया, वहां एक जनाब अपने पपी के साथ कुछ खरीद रहे थे। वहां मौजूद एक लड़का जैसे ही पपी के पास से गुज़रा, तो वो जनाव बोल पड़े: देख के भइया, देख के... पैर मत रख देना इस पर…वरना खड़े-खड़े दस हज़ार का नुकसान हो जाएगा! हिंदी भाषा से अनजान पुअर पपी अब भी मालिक का जूता चाट रहा था, कायदे से जिस पर उसे अब तक सूसू कर देना चाहिए था!


मैं सोचने लगा कि इस शख़्स ने भी ‘थ्री इडियट्स’ देखी होगी। करीना के ‘प्राइज़ टैग’ मंगेतर पर ये भी हंसा होगा। इसने भी सोचा होगा कि कैसा घटिया आदमी है? बिना ये सोचे की जैसा ये घटिया है, वैसा ही मैं भी तो हूं, या फिर हॉल में ठहाके लगाते दो-तीन सौ लोगों पर इसे गुस्सा आया होगा? आख़िर आदमी अच्छा खाता-पहनता किसलिए है, इसीलिए न कि वक़्त आए (न भी आए) तो बता सके कि उसका दाम क्या है?

मैं सोचता हूं...पपी पर वयस्क आदमी पांव रख दे तो क्या होगा?....सुनने में भले ही लगे कि इस सवाल का ताल्लुक जीव विज्ञान से है, मगर इसका आर्थिक पक्ष भी है। और अगर कोई इन्हें कहे कि पपी कितना ‘क्यूट’ है तो ये उसे समझाएंगे कि इसका सम्बन्ध जीव विज्ञान से नहीं, अर्थशास्त्र से भी है। ‘क्यूट’ है तभी तो दस हज़ार का है! क्यूटनेस पपी से प्यार की नहीं, उसे घर लाने की भी नहीं, उस सवाल की वजह है जिसका जवाब है, 'ये दस हज़ार का है’! मैं सोचता हूं कि मानवीय या सामाजिक बुराईयों का ‘गवाह’ और ‘शिकार’ होना एक बात है और उसकी आलोचना कर या खिल्ली उड़ा खुद को ज़मानत देना दूसरी! सच...ऐसों का बीमार बाप भी मर जाए तो पहले मुंह से यही निकलेगा कि हाय! दो लाख का नुकसान हो गया....इतना पैसा लगा था दवाई पर!

सोमवार, 8 मार्च 2010

इंस्टैंट फल!

बाबा अपने शिष्यों को नैतिकता का पाठ पढ़ाते थे। संयम के मायने समझाते थे। उनका कहना था कि इस लोक में अगर सद्चरित्र रहे तो उस लोक में एक से बढ़कर एक सुख-सुविधाएं मिलेंगी। गुरू की इसी शिक्षा पर चलते हुए एक शिष्य ने कभी किसी को बुरी नज़र से नहीं देखा। हर किसी को बहन माना। हमेशा संयम रखा। यहां तक कि जीवनभर शादी भी नहीं की।

सारा जीवन वो इन्हीं आदर्शों पर चला और फिर एक दिन देह त्याग दी। कर्मों के आधार पर शिष्य को स्वर्ग में पार्क फेसिंग एमआइजी फ्लैट अलॉट हुआ, शॉफर ड्रिवन गाडी मिली। ये सब देख उसके मन में गुरू के प्रति आस्था और गहरी हो गई। उसी दिन शाम वो सैर पर निकला। दो कदम ही चला था कि क्या देखता है... जीवन भर चरित्र का उपदेश देने वाले उसके गुरू सोसायटी के ही पार्क में एक मशहूर अभिनेत्री के साथ रंगरलियां मना रहे हैं। ये देख शिष्य का खून खौल उठा। उसके पांव तले ज़मीन खिसक गई। वो चिल्लाया-ये क्या कर रहे हैं...शर्म नहीं आती आपको...जीवन भर मुझे नैतिकता का पाठ पढ़ाते रहे और यहां गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। इससे पहले की वो कुछ और कहता, गुरू ने टोका-शांत वत्स शांत...आख़िर क्यों इतना भड़क रहे हो...मैंने तो हमेशा तुम्हें चरित्रवान होने की शिक्षा दी, संत बनने को कहा और यही समझाया कि ऐसा करोगे तो स्वर्ग में एक से बढ़कर एक अप्सराएं मिलेंगी। अब तुम ही बताओ मुझसे बड़ा संत भला कौन है और इन सितारा देवी से बड़ी अप्सरा कौन हुई हैं!

दोस्तों, ठीक इसी तरह आसपास अगर किसी बाबा के रंगरलियां मनाने की ख़बर आप सुनें, तो बुरा न मानें। दरअसल, ‘सब कुछ इंस्टैंट’ के इस ज़माने में दुआएं भी इंस्टैंट कबूल होने लगी हैं...सुबह बाबा ने दुआ मांगी और रात को कबूल हो गई! वैसे भी स्वर्ग-नर्क सब यहीं है!

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

लिपस्टिक की लेडीफिंगर समझने की मुश्किल!

आम आदमी और आम बजट की शायद यही नियति है। हमेशा उम्मीद की जाती है कि शायद अब ये संघर्ष कर खुद को ख़ास बना लें, लेकिन नहीं। बजट और आदमी ने खुद के आम होने को स्वीकार कर लिया है। इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ है। इतनी बार छले जाने के बावजूद आम आदमी ने बजट से फिर उम्मीद लगा खुद को आम साबित किया, और बजट ने फिर से आम आदमी को कुछ न दे, खुद को ख़ास होने से बचा लिया। वहीं, आम आदमी के नाते बजट की इस बेरूखी पर मैं भारी गुस्से में हूं। समझ नहीं पा रहा हूं क्या करूं? फिर सोचा क्यों न सीधे वित्त मंत्री से मुलाकात कर उनसे अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करूं। लिहाज़ा वक्त लेकर मैं उनसे मिलने पहुंचा...उनसे जो बातचीत हुई उसका ब्यौरा नीचे दे रहा हूं। गौर फरमाएं-

मैं- सर,जो बजट आपने दिया है उससे आम आदमी की हालत पहले से कहीं ज्यादा ख़राब हो गई है...वो मरणासन्न हालत में पहुंच गया है। वित मंत्री-देखिए, मुझे पता था ऐसा होने वाला है तभी हमने दवाओं के दाम कम कर दिए हैं, चिकित्सा उपकरण सस्ते कर दिए हैं इसलिए आम आदमी बेफिक्र हो अपना इलाज करवाए और इलाज के बाद अगर उसे कमज़ोरी महसूस हो तो वो घर बैठे जितना चाहे उतना जूस पीए, हमने जूसर भी सस्ते कर दिए हैं।

मैं-वो क्या जूस पीएगा सर, जूस तो आपने उसका निकाल दिया है पैट्रोल महंगा कर के? वित्त मंत्री-देखिए, भारत की सत्तर फीसदी आबादी आज भी गांवों में रहती है और जहां तक मेरी जानकारी है खेत तक जाने के लिए किसान कार या मोटसाइकिल का इस्तेमाल तो करते नहीं, लान्ग ड्राइव पर जाने का उन्हें कोई शौक है नहीं, और रही बेकारी और भूखमरी से परेशान होकर आत्महत्या करने की बात, तो गांवों में आज भी पेड़ से लटक कर मरने का रिवाज़ है। पैट्रोल छिड़क कर प्राण देना तो निहायत ही सामंती और शहरी तरीका है!


मैं- और एक इल्ज़ाम आप पर ये भी है कि राहत देना तो दूर आपने आम आदमी से उसका फर्स्ट्रेशन निकालने का हक़ भी छीन लिया है। वित्त मंत्री-समझा नहीं। मैं- सर, आप शायद जानते नहीं इस देश में आम आदमी सालों से तम्बाकू, गुटखा खाकर अपनी कुंठा निकाल रहा है...नेताओं को ज़रदा समझ उन्हें दांतों तले कच्चा चबा रहा है और सिगरेट के धुंए में हर फिक्र धुंआ कर उसे उड़ाता आ रहा है, मगर आपने तो फिक्र को धुंए में उड़ाना तक महंगा कर दिया है! वित्त मत्री-ये इल्ज़ाम भी सरासर ग़लत है। मुझे नहीं लगता कि बातें करने से ज़्यादा किसी और तरीके से कुंठा निकली जा सकती है, इसीलिए हमने मोबाइल फोन सस्ते किए हैं। हर तरफ से थका-हारा इंसान दोस्तों से गपबाज़ी कर अपना मन हल्का कर सकता है, कॉ़ल रेट्स तो कम हैं ही, ऐसे में यारों के साथ पुराने दिन रीकॉल कर खुश हुआ जा सकता है!

मैं-मगर सर, ऊपर से इंसान खुश होने का कितना भी दिखावा क्यों न करे, मगर दिल का दर्द तो चेहरे पर आ ही जाता है। वित्त मंत्री-आपको क्या लगता है मुझे इन बातों का ख़्याल नहीं। क्या आपने मुझे इतना नौसीखिया समझ लिया है। आप फिर से सस्ती चीज़ों की लिस्ट देंखें, हमने कॉस्मेटिक का सामान भी सस्ता किया है। अंडरआई ब्लैक सर्किल्स को मेकअप से छिपाएं। पिचके गालों को पेनस्टिक से उभारिए। सडांध मारती ज़िंदगी पर डीओ छिड़किए। मैं-मगर सर, भूख का क्या करें, अब वो पाउडर को मिल्क पाउडर समझकर पी तो नहीं सकते! लिपस्टिक को लेडीफिंगर समझ भी लें, फिर भी उसकी सब्ज़ी तो नहीं बनेगी! सर, आदमी अगर कुछ खाएगा नहीं तो मर जाएगा न!

वित्त मंत्री-उसकी फिक्र मत करें। हम आपको किसी क़ीमत मरने नहीं देंगे। देखिए, आप ही की रक्षा के लिए हमने रक्षा बजट भी बढ़ा दिया है। पहले यह एक लाख इक्तालीस हज़ार करोड़ था अब बढ़ाकर एक लाख सैंतालीस हज़ार करोड़ कर दिया गया है! पूरे आठ फीसदी की बढ़ोतरी की है!

सोमवार, 1 मार्च 2010

नाम में क्या नहीं रखा! (हास्य-व्यंग्य)

नाम में क्या नहीं रखा!

जैसे ही नर्स डिलिवरी रूम से निकल ये बताती है कि ठाकुर साहब लड़का हुआ है, ठीक उसी समय इस सवाल की भी डिलिवरी हो जाती है कि बच्चे का नाम क्या रखा जाए? मौजूदा समय में बच्चे का नाम रखना उसे पैदा करने से भी कहीं बड़ी चुनौती है। मां-बाप चाहते हैं कि नाम कुछ ऐसा हो जो ‘डिफरेंट’ साउंड करे। सब्स्टेंस हो न हो, लेकिन स्टाइल होनी चाहिए। अर्थ में मात खा जाए, मगर अदा में खरा उतरे। फिर भले ही बच्चे को जीवन भर स्पष्टीकरण लेकर जेब में घूमना पड़े कि उसके नाम का मतलब क्या है? जब भी कोई पूछे कि बेटा आपके नाम का मतलब क्या है तो बच्चा पूछने वाले को बुकलेट थमा दे, ये पढ़ लीजिए, इसमें शब्द की उत्पत्ति से मेरी उत्पत्ति तक सब समझाया गया है।

ऐसी ही मुसीबत में कुछ दिनों से मेरा एक मित्र भी फंसा हुआ है। धरती पर बच्चे का पदार्पण हुए दो महीने बीत चुके हैं, लेकिन बच्चा प्यारू, लड्डू, पुच्ची, गोलू, पपड़ू के बीच फंसा हुआ है। जिसकी ज़बान पर जो आता है वो पुकारता है। हर कोई उम्मीद करता है कि उसके पुकारे नाम पर बच्चा मुस्कुराए। उम्मीद करने वालों में भी ज़्यादातर वो हैं जो जीवन में दो मोबाइल नम्बर तक याद नहीं रख पाते और दो महीने के बच्चे से उम्मीद लगाए हैं कि वो पांच-पांच नाम याद रख ले!

इस सब पर ‘एक्सक्लूसिव’ नाम रखने की चाह ऐसी है कि जो नाम रखना है वो अपने रिश्तेदारों में तो दूर, पड़ौसियों तक के रिश्ते में किसी बच्चे का नहीं होना चाहिए। नेट से लेकर बच्चों के नाम सुझाने वाली कितनी ही किताबों की उन्होंने ख़ाक छानी, मगर नाम तय नहीं हुआ। एक-आध नाम जो उन्हें ठीक लगते वो बड़े-बुज़ुर्गों से पुकारे नहीं जाते और जो बड़े-बुज़ुर्ग सुझाते हैं वो पचास के दशक की ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के हीरो पहले ही रख चुके हैं।

फिर किसी ने सुझाव भी दिया कि अगर हिंदू धर्म या हिंदी भाषा इसमें मदद नहीं कर रही तो बच्चे का कोई चाइनीज़ नाम रख दो इससे वो डिफरेंट साउंड भी करेगा और बच्चा जीवन भर सिर्फ अपने नाम की वजह से चर्चा का विषय रहेगा। जैसे हू जिंताओ, ब्रूस ली, चूस ली टाइप कुछ। या फिर किसी विदेशी नाम के साथ भारतीय नाम मिक्स कर रखा जाए। जैसे-सर्गेई सुरेंद्र, निकोलस नरेन्द्र या मैथ्यू महेंद्र....मगर दोस्त इस पर भी सहमत नहीं हुआ।

फिर बात आई कि एक ट्रेंड ये भी रहा है कि बच्चे के पैदा होने के समय जो फिल्म या हीरो हिट रहा हो, उसके नाम पर बच्चे का नाम रख दिया जाए। इस तरह बच्चे का नाम ‘रैंचो’ रखना चाहिए जो ‘थ्री इडियट्स’ में आमिर का था। मगर रैंचो तो उसका कच्चा नाम था उसका असली नाम फुन्सुख वांगड़ु था! मगर किसी की हिम्मत नहीं हुई जो दोस्त से पूछे कि वो अपने बेटे का नाम फुन्सुख वांगड़ु रख दे। एक ने कहा भी अगर आप इस तरह का एक्सपेरीमेंट करने के लिए तैयार हैं तो बच्चे का नाम ‘इब्नेब्तूता’ रख दें... इससे पहले की वो और कुछ कहता दोस्त की नज़र उस जूते पर पड़ी जो बगल में ही पड़ा था। ब्तूता के चक्कर में उसका भुर्ता न बन जाए, ये सोच सुझाव देने वाला चुप हो गया। जब किसी नाम पर सहमति नहीं बनी तो मैंने सुझाव दिया कि अगर ये काम वाकई इतना मुश्किल है तो हाल-फिलहाल बच्चे का नाम ‘स्थगित’ रख दो, जब बड़ा होगा तब खुद-ब-खुद अपना नाम रख लेगा। कम-से-कम कुछ फैंसी नाम न रख पाने के लिए तुम्हें कोसेगा तो नहीं! मित्र ने इसे भी हंस कर टाल दिया।

खैर, एक सुबह मैं क्या देखता हूं कि उसी मित्र का मेरे पास एसएमएस आया है, “हमारे प्यारे बेटे जिसका जन्म फलां-फलां तारीख को हुआ था, उसका नाम रखने के लिए हम आपकी मदद चाहते हैं। नीचे कुछ ऑप्शन दिए हैं। आप अपनी पंसद का नाम बता हमारी मदद करें। पोल एक हफ्ते तक चलेगा। नतीजे फलां तारीख़ को घोषित किए जाएंगे!” मित्र को जवाब दे मैं सोचने लगा …शेक्सपियर अगर आज ज़िंदा होते तो ये मैसेज मैं उन्हें ज़रूर फॉरवर्ड करता!

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

भारतीय होने की सुविधा!

टाइगर वुड्स के माफ़ीनामे के बाद अमेरिका और पश्चिमी देशों में ‘सच के सामने घुटने टेकने’ की कमज़ोरी एक बार फिर उजागर हुई है। समाजशास्त्रियों को ज़रूर विचार करना चाहिए कि आखिर क्यों ये लोग वे सब बातें सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लेते हैं, जो हम बंद कमरे में खुद के सामने भी स्वीकार नहीं कर पाते। ऐशो-आराम और तमाम व्यसनों का आख़िर मतलब क्या है, जब उनके इस्तेमाल पर इतना हंगामा होना है? इतना नाम-दाम क्या आदमी इसलिए कमाता है कि सिर्फ वो काम करे, जिसके बूते उसे ये सब मिला है। कतई नहीं!

ये समझना बहुत ज़रूरी है कि किसी भी सफल पुरूष के लिए अपनी प्रतिभा के दम पर किया गया सबसे बड़ा हासिल ‘औरत’ है! भले ही उसे रिझाना हो या किसी भी तरह पाना हो। आपने जो किया उस पर दोस्तों ने तारीफ कर दी, पैसा भी मिल गया, सम्मान भी ले लिए...अब? और जैसा कि खुद वुड्स ने अपने माफीनामे में कहा कि उन्हें लगता था कि जो सब उन्होंने हासिल किया उसके लिए उन्होंने काफी मेहनत की है, इसलिए उन्हें पूरा हक़ है अपनी ‘टेम्पटेशन्स’ को पाने का! और यहीं अमेरिका का दोगलापन साफ हो जाता है। आप उन ‘टेम्पटेशन्स’ की सुविधा तो देते हैं, जैसा कि वुड्स को दी, मगर पकड़े जाने पर ज़लील भी करते हैं। यहीं भारत पूरे अमेरिकी और यूरोपीय समाज पर लीड करता है। बात चाहे मीडिया की हो या फिर उन लोगों की जो ऐसे मामलों में शामिल होते हैं, कभी सेलिब्रिटी को शर्मिंदा नहीं होने देते!

इक्के-दुक्के मामलों को छोड़कर कभी किसी ने नहीं कहा कि फलां से मेरे नाजायज़ सम्बन्ध हैं। ये जानते हुए की फलां शादीशुदा है, सम्बन्ध तो बनाए जा सकते हैं, मगर इतना नहीं गिरा जा सकता कि दुनिया को बता दें। ऐसा नहीं है कि इतना गिरने पर कोई सरकारी रोक है मगर चरित्रहीनता, दुस्साहस मांगती है और वो किसी भी समाज में आते-आते ही आता है। पर्दा हमारी संस्कृति का अहम हिस्सा है इसलिए तमाम कुकर्म भी भी यहां पर्दे के पीछे ही रह जाते हैं। लिहाज़ा, ऐसे मामलों से कभी घूंघट नहीं उठता!

रही बात मीडिया की, तो वो अपने व्यावसायिक हितों के चलते ऐसा कोई रिस्क नहीं लेता। कालांतर में ये साबित भी हो चुका है कि कैसी भी सनसनी की तलाश में रहने वाले चैनल, राजनीतिक दबाव के चलते हाथ में सीडी होने के बावजूद उसे नहीं चलाते। चैनल चालू रहे इसलिए कभी-कभी किसी के चालू होने को नज़रअंदाज़ भी किया जा सकता है!

वैसे भी आइकॉन्स को हमारे यहां ईश्वर का दर्जा हासिल है, इसलिए उनसे जुड़ी ऐसी कोई बात हम सार्वजिनक करने से परहेज़ करते हैं, जिससे ईश्वर को शर्मिंदा होना पड़े। लिहाज़ा, ऐसे माहौल में सेलिब्रिटी को कभी पकड़े जाने का डर नहीं रहता। और यही एक प्रतिभाशाली व्यक्ति के साथ सही सलूक भी है। ऐसी शोहरत का आख़िर फायदा ही क्या जो आदमी को इतना ‘स्पेस’ भी न दे! तभी तो चाहे शेन वॉर्न हों, बिल क्लिंटन हों या टाइगर वुड्स, सभी के लिए मुझे बहुत बुरा लगा। वक़्त आ गया है कि योग के बाद पश्चिम अब सेलिब्रिटी आरक्षित भारत के इस ‘भोग’ को भी समझे।

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

मेरी सम्पत्ति घोषणा! (हास्य-व्यंग्य)

हाल-फिलहाल वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों के यहां पड़े आयकर विभाग के छापों के बाद से मैं काफी सहम गया हूं। उससे पहले मधु कोड़ा के यहां हुई छापेमारी में भी मुझे काफी घबराहट हुई थी। रोज़-रोज़ के तनाव से तंग आकर मैंने तय किया है कि हाईकोर्ट के जजों की तर्ज पर मैं भी अपनी सम्पत्ति घोषित कर देता हूं। इससे पहले की मैं अपने ‘साजो-सामान’ के बारे में मैं कुछ बताऊं ये कहना चाहूंगा कि ईर्ष्या भले सहज़ मानवीय गुण/अवगुण हो, फिर भी इससे बचा जाए तो बेहतर है। दिल थाम लें।

सम्पत्ति के नाम पर मेरे पास 70 के दशक का एक लैमरेटा स्कूटर है, जिसे पिताजी ने सन् सत्तर में सैकिंड हैंड खरीदा था। मशीनों को अगर इच्छामृत्यु की इजाज़त होती तो आज मैं इसकी 15 वीं बरसी मना रहा होता। जैसे ही इसे ले घर से निकलता हूं, पास-पड़ौस की कई महिलाएं पतीले ले बालकॉनी में आ जाती हैं, इस भ्रम में कि दूध वाला आ गया। मेरे पास तो पैसे नहीं थे मगर इस दुविधा से निजात दिलाने के लिए दूधवाले ने अपनी मोटरसाइकिल में साइलेंसर लगवा लिया। एक-आध बार मैंने इसे बेचने की कोशिश भी की मगर बदले में दुआओं से ज़्यादा कोई कुछ देने के लिए तैयार नहीं हुआ।

इसके अलावा अस्सी के दशक का एक कलर टीवी है। उसके कलर होने का रहस्य मेरे और टीवी के अलावा किसी को नहीं पता। जब इसे लिया था तब ये इक्कीस इंच था मगर अब घिसकर उन्नीस-साढ़े उन्नीस रह गया है। बुढ़ापे में जिस तरह दांत झड़ने लगते हैं, उसी तरह इसके भी बटन टूटने लगे हैं। मुझे विश्वास है कि अख़बार में इसके साथ मेरी फोटू छपने पर कोई अमीर शख़्स मुझे गोद ले सकता है या फिर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष गरीबी उन्मूलन फंड से मुझे दो करोड़ डॉलर दे सकता है।

इसके अतिरिक्त घर में एक फ्रिज है। है तो वो घर में मगर उसकी असली जगह नेशनल म्यूज़ियम में है। बर्फ तो उसमें हीर-रांझा के दिनों से नहीं जमी। अब तो पानी भी ठंडा नहीं होता। ये फ्रिज का कम और अलमारी का रोल ज़्यादा निभा रहा है। वैजिटेबल कम्पार्टमेंट में मैं जुराबें रखता हूं और फ्रिजर में बीवी चूड़ियां। दिल करता है कि फ्रिज की इस नामर्दानगी पर उसे भी दो-चार चूड़ियां पहना दूं।

अन्य सम्पत्तियों में एक डबल बेड भी है जिसकी हालत काफी बैड है। मगर वफादर इतना है कि सोने के बाद भी रातभर चूं-चूं कर घर की रखवाली करता है। ठीक उसके ऊपर एक पंखा है जो चलने के साथ ही चीं-चीं करता है। डबल उर्फ ट्रबल बेड की चूं-चूं और सीलिंग फैन की चीं-चीं जुगलबंदी कर हमें रात भर लोरियां सुनाते हैं।

नकदी की बात करूं तो मेरे पास, सुबह सब्ज़ी लाने से पहले, तीन सौ सत्तावन रूपये थे। ये देखते हुए कि महीना ख़त्म होने में दस दिन बाकी है इतनी रक़म ‘जस्टिफाइड’ है। बैंक में एक हज़ार रूपये हैं (जो न्यूनतम बैलेंस मैनटेन करने के लिए रखे हैं)। इसके अलावा घर में लोहे की अलमारी के लॉकर के सिवा, मेरे पास किसी बैंक मे कोई लॉकर नही हैं। उसमें भी मेरी और बीवी की दसवीं, बारहवीं और ग्रेजुएशन की मार्कशीट्स रखी हैं। रही ज़ेवरात की बात तो जिस सोने की कीमत 17 हज़ार तौला हो गई है, उससे मेरा कोई वास्ता नही है जिस सोने से किसी का बाप मुझे नहीं रोक सकता वो मैं खूब सोता हूं, बिना इस डर के कि कहीं घर में छापा न पड़ जाए!

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

चरित्रहीन चप्पल!

हिंदुस्तान में रहते हुए अगर आप रचनात्मक हो गए हैं तो इसे आपका दुस्साहस ही माना जाएगा वरना तो नई सोच पर हमारे यहां इतने पहरे हैं कि लकीर के प्रति फकीरी छोड़ना बेहद मुश्किल है। यही वजह है कि घटिया चुटकुलों, वाहियात फिल्मों, बेहूदा विज्ञापनों का हमारे यहां असीम भंडार है। मगर खुशी इस बात कि है कि कुछ लोग स्तरहीनता के इस स्तर में गुणात्मक सुधार करने में बराबर लगे हुए हैं। कुछ साल पहले अगर अमिताभ की ‘झूम बराबर झूम’ आई तो उसके कुछ वक़्त बाद ही राम गोपाल वर्मा अपनी ‘आग’ ले आए। (जिसकी चपटे में आकर फिल्म के डिस्ट्रीब्यूटर्स ने आत्मदाह कर लिया था)

ऐसे माहौल में आपकी पाचनशक्ति को हर वक़्त नई चुनौतियों के लिए तैयार रहना पड़ता है। ऐसी ही एक चुनौती से मैं कुछ रोज़ पहले वाबस्ता हुआ। दिखने में तो ये एक चप्पल का घटिया किस्म का सामान्य-सा विज्ञापन था। मगर जैसे ही इसकी पंचलाइन आई धमाका हो गया। चप्पल की तारीफ में लिखा था-आपकी सोच से भी हल्की! अगर ये निजी कटाक्ष होता तो भी इसे मैं हंस के टाल देता, लेकिन ये मेरे मेल बॉक्स में आया मेल नहीं, टीवी पर आया विज्ञापन था इसलिए समझ सकता था कि इसके चपेट में समस्त भारत आ गया है! आपकी सोच से भी हल्की चप्पल! दूसरे शब्दों में गिरी हुई चप्पल! बेहया चप्पल! लूच्ची चप्पल! चरित्रहीन चप्पल!

हल्की सोच को हम छोटी सोच के संदर्भ में लें तो एक गुंजाइश ये भी हो सकती है कि चप्पल छोटे बच्चों के लिए हो, मगर ऐसा भी नहीं था। जिस लड़की के चक्कर में मैं ये विज्ञापन देख रहा था वो तो काफी बड़ी थी। सोचता हूं मुझे जीवन में वैसे भी किसी मक़सद की तलाश थी, बाकी बची ज़िंदगी इस विज्ञापन को समझने में लगा दूं!

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

महंगाई पीड़ित लेखक का ख़त!

सम्पादक महोदय,

पिछले दिनों महंगाई पर आपके यहां काफी कुछ पढ़ा। कितने ही सम्पादकीयों में आपने इसका ज़िक्र किया। लोगों को बताया कि किस तरह सरिया, सब्ज़ी, सरसों का तेल सब महंगे हुए हैं और इस महंगाई से आम आदमी कितना परेशान है। ये सब छाप कर आपने जो हिम्मत दिखाई है उसके लिए साधुवाद। हिम्मत इसलिए कि ये सब कह आपने अनजाने में ही सही अपने स्तम्भकारों के सामने ये कबूल तो किया कि महंगाई बढ़ी है।दो हज़ार पांच में महंगाई दर दो फीसदी थी, तब आप मुझे एक लेख के चार सौ रुपये दिया करते थे, यही दर अब सात फीसदी हो गई है लेकिन अब भी मैं चार सौ पर अटका हूं।आप ये तो मानते हैं कि भारत में महंगाई बढ़ी है, मगर ये क्यों नहीं मानते कि मैं भारत में ही रहता हूं? आपको क्या लगता है कि मैं थिम्पू में रहता हूं और वहीं से रचनाएं फैक्स करता हूं? बौद्ध भिक्षुओं के साथ सुबह-शाम योग करता हूं? फल खाता हूं, पहाड़ों का पानी पीता हूं और रात को 'अनजाने में हुई भूल' के लिए ईश्वर से माफी मांग कर सो जाता हूं! या फिर आपकी जानकारी में मैं हवा-पानी का ब्रेंड एम्बेसडर हूं। जो यहां-वहां घूम कर लोगों को बताता है कि मेरी तरह आप भी सिर्फ हवा खाकर और पानी पीकर ज़िंदा रह सकते हैं।महोदय, यकीन मानिये मैंने आध्यात्म के ‘एके 47’ से वक़्त-बेवक़्त उठने वाली तमाम इच्छाओं को चुन-चुन कर भून डाला है। फिर भी भूख लगने की जैविक प्रक्रिया और कपड़े पहनने की दकियानूसी सामाजिक परम्परा के हाथों मजबूर हूं। ये सुनकर सिर शर्म से झुक जाता है कि आलू जैसों के दाम चार रुपये से बढ़कर, बारह रुपये किलो हो गए, मगर मैं वहीं का वहीं हूं। सोचता हूं क्या मैं आलू से भी गया-गुज़रा हूं। आप कब तक मुझे सब्ज़ी के साथ मिलने वाला 'मुफ़्त धनिया' मानते रहेंगे। अब तो धनिया भी सब्ज़ी के साथ मुफ्त मिलना बंद हो गया है।नमस्कार।
इसके बाद लेखक ने ख़त सम्पादक को भेज दिया। बड़ी उम्मीद में दो दिन बाद उनकी राय जानने के लिए फोन किया। 'श्रीमान, आपको मेरी चिट्ठी मिली।' 'हां मिली।' 'अच्छा तो क्या राय है आपकी।' 'हूं.....बाकी सब तो ठीक है, मगर 'प्रूफ की ग़लतियां’ बहुत है, कम से कम भेजने से पहले एक बार पढ़ तो लिया करो!

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

चंचल बाला ठाकरे!

बचपन में गली क्रिकेट खेलते हुए हममें से बहुतों ने खुद को स्टार माना है। हद दर्जे की बेसुरी आवाज़ के बावजूद सिर्फ ‘स्टेज पर गा लेने की हिम्मत’ के कारण हम कॉलेज के किशोर भी कहलाए। कॉलोनी में एक-आध को चपत लगा हम मोहल्ले के दादा भी हुए। मगर मान्यता का यही दायरा गली, कॉलेज और मोहल्ले से बाहर फैले इसके लिए ज़रूरी है कि हम बड़े मंच पर परफॉर्म करें। गली स्टार को राष्ट्रीय होरी बनने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलना पड़ता है और कॉलेज किशोर को ‘इंडियन ऑयडल’ टाइप कुछ जीतना पड़ता है। ठीक इसी तरह जब से अर्द्ध विक्षिप्तता हुनर मान ली गयी है तब से उसकी चुनौतिया भी बढ़ी हैं। दोस्तों या परिवार के बीच खुद को मूर्ख साबित करना कोई मुश्किल नहीं है। मगर असल चुनौती तब है जब आपका लक्ष्य एक राष्ट्र या उसके बढ़कर एक महाराष्ट्र हो!

जिस गुंडई और अंट-शंट बयानबाज़ी को चंचल बाला ठाकरे अपनी सबसे बड़ी ताकत समझते थे, उन्हीं के पुराने इंटर्न ने उसका बार रेज़ कर दिया है। और जैसा कि हर जीनियस से उम्मीद की जाती है कि वो हर बदलते समय में खुद को साबित करे। जैसे सचिन,अमिताभ और फेडरर कर रहे हैं। ठीक उसी तरह चंचल बाला ठाकरे भी कर रहे हैं। तभी तो विधानसभा चुनाव हारते ही पहले उन्होंने ईश्वर से विश्वास उठाया। महाराष्ट्र की जनता को कोसा। फिर मुकेश अंबानी को लताड़ा। सचिन तेंदुलकर को लपेटा। शाहरूख-आमिर को घसीटा। राहुल गांधी को धमकाया। और ये सब कर वो खाज ठाकरे जैसे छुटभैया बदतमीज़ों को बता रहे हैं कि बेलगाम बयानबाज़ी के असली बादशाह आज भी वहीं है।

सम्बोधित भले ही वो आमिर-शाहरूख-अंबानी को कर रहे हैं, मुखातिब तो वो खाज ठाकरे से ही हैं। आतंकवादियों के पास जैसे हिट लिस्ट रहती है, ठाकरे साहब के हाथ में सेलिब्रिटी लिस्ट है। सावधान!

सोमवार, 18 जनवरी 2010

जिसके आगे न, पीछे ना! (हास्य-व्यंग्य)

टीवी खोलते ही जिस चैनल पर मैं रूकता हूं वो हरिद्वार से सीधी तस्वीरें दिखा रहा है। हड्डियां कंपा देने वाली ठंड में लोग पवित्र स्नान कर रहे हैं। एंकर बताती है कि सुबह चार बजे से ही यहां स्नान करने वालों का तांता लगा है। देश भर से लाखों लोग पवित्र स्नान करने पहुंचे हैं। मैं सोचता हूं कि इस जानलेवा सर्दी में मेरी बिस्तर से निकल कर बाथरूम में जाने की हिम्मत नहीं और ये लोग नहाने के लिए हरिद्वार चले गए हैं! ये देख हरिद्वार से तीन सौ किलोमीटर दूर मुझे अपने घर में ठंड लगने लगी है। मैं मंकी कैप पहन लेता हूं। मुझे चैनल पर गुस्सा आता है। वो बिना किसी पूर्व चेतावनी के ये सब दिखा रहा है। न स्क्रीन पर लिखा आ रहा है और न एंकर आगाह कर रही है कि कृप्या कमज़ोर दिल वाले न देखें, तस्वीरें आपको विचलित कर सकती हैं। अक्षय कुमार के विज्ञापन की तरह कहीं लिखा भी नहीं आ रहा है कि यह स्टंट (नहाने का) पेशेवर लोगों की तरफ से किया गया है कृप्या, इसे घर में आज़माने की कोशिश न करें!

जिस तरह भूत-प्रेत से डरने वाले हॉरर फिल्म देखना तो दूर कोई भूतिया किस्सा भी सुनना नहीं चाहते, उसी तरह मुझ जैसों के लिए ये तस्वीरें हॉरर फिल्म की तरह है, जबकि मैं तो किसी के नहाने का कोई किस्सा तक सुनना नहीं चाहता। लोग मोक्ष की खातिर नहा रहे हैं, मुझे डर है कि कहीं उन्हें जीवन से ही मुक्ति न मिल जाए। इस बीच चैनल के टिकर पर लिखा आता है कि उत्तर भारत में ठंड से मरने वालों की तादाद चार सौ के पार पहुंची। मैं जानना चाहता हूं कि इनमें से कितनों की जान सर्दी में नहाने के दौरान गई है।

खैर, तभी टीवी पर पंडित जी प्रकट होते हैं। वो बताते हैं कि आज सूर्यग्रहण लग रहा है। ग्रहण की तीनों अवस्थाओं-स्पर्श काल, मध्य काल और मोक्ष काल के दौरान आप ज़रूर नहाएं। मतलब, तीन घंटे के ग्रहण के दौरान तीन बार नहाएं। मेरी याददाश्त पर अगर न नहाने के कारण धूल नहीं जमी तो मुझे नहीं लगता कि मैं कभी पूरी सर्दी में भी तीन बार नहाया हूं। मेरे लिए तो कुंभ और नहाने में एक ही समानता है। वो है दोनों का बारह वर्ष बाद आना। मगर पंडित चाहते हैं कि मैं तीन घंटे में ही छत्तीस साल का कोटा पूरा कर लूं। जिस शब्द के पहने ‘न’ है और बाद में ‘ना’, मैं नहीं जानता, उस पर ‘हां’ करवाने के लिए ये दुनिया क्यों तुली हुई है! नहाना!

रविवार, 17 जनवरी 2010

मुहावरों में पिलती बेचारी सब्ज़ियां (हास्य-व्यंग्य)

बीवी ने अगर सब्ज़ी अच्छी नहीं बनाई तो आप किस पर गुस्सा निकालेंगे? बीवी पर या सब्ज़ी पर। निश्चित तौर पर बीवी पर। लेकिन, इस देश में मर्द चूंकि सदियों से बीवी से डरता रहा है, इसीलिए उसने चुन-चुन कर सब्ज़ियों पर गुस्सा निकाला दिया। यही वजह है कि ज़्यादातर मुहावरों में सब्ज़ियों का इस्तेमाल 'नकारात्मकता' बयान करने में ही किया गया है। मुलाहिज़ा फरमायें।

तू किस खेत की मूली है: एक सर्वे के मुताबिक औकात बताने के लिए इस मुहावरे का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है और अगर आपका खून पानी नहीं हुआ तो ये सुनते ही वो खौल उठेगा और आप झगड़ बैठेंगे। मगर क्या किसी ने सोचा है इससे 'मूली के कॉन्फीडेंस' पर कितना बुरा असर पड़ता होगा ? कितना नुक़सान होता है उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा का?

क्या मानव जाति भूल गई बरसों से मक्खन लगा कर वो इसी मूली के पराठें खाती रही है ? नमक लगी, नीम्बू छिड़की कितनी ही मूलियां रेहड़ियों पर उसके हाथों शहीद हुई हैं। प्याज महंगे होने पर यही मूली सलाद की प्लेंटे भरती आई है। मगर ये एहसान फरामोश इंसान, इसने तो बड़ो-बड़ो को कुछ नहीं समझा, तो ये मूली आखिर किस खेत की मूली है!

थोथा चना बाजे घना- मूली के बाद जिस सब्ज़ी का मुहावरों में सबसे नाजायज़ इस्तेमाल किया गया है, वो चना है। उस पर भी चने का इतने मुहावरों में इस्तेमाल हो चुका है कि अलग से एक पॉकेट बुक निकाली जा सकती है। थोथा चना बाजे घना, अकेला चना भाड़ नहीं भोड़ सकता, लोहे के चने चबाना, चने के झाड़ पर चढ़ाना। ऐसा देश जहां प्रति सैकिंड एक भावना आहत होती है। चने की भावना का क्या ? यक़ीन मानिये अगर सब्ज़ियों की तरफ से मानहानि के मुक़दमें दायर हो सकते, तो हर बंदा चने के खिलाफ एक-आध केस लड़ रहा होता!

एक अनार सौ बीमार:-चरित्र हनन नाम की अगर वाकई कोई चीज़ है, तो अनार से ज़्यादा बदनामी किसी की नहीं हुई। जिंदगी भर आम आदमी अनार का जितना जूस नहीं पीता, उससे कहीं ज़्यादा ये कहावत बोल-बोल कर निकाल देता है। टारगेट कोई, मरा कोई जा रहा और घसीटा जाता है बेचारे अनार को। सोचता हूं अनार को कितनी शर्मिंदगी झेलनी पड़ती होगी, जब उसके बच्चे पूछते होंगे मम्मी लोग आपके बारे में ऐसा क्यों कहते हैं ?

थाली का बैगन- बैगन अपने रंग रुप के चलते बिरादरी में तो राजा है लेकिन कहावतों में उसकी औकात संतरी से ज़्यादा नहीं! किसी को भी रीढ़विहीन, दलबदलू कहना हो तो थाली का बैगन कह दो। इतिहास गवाह है कि किसी भी युग में जनता द्वारा राजा की इतनी भद्द नहीं पिटी गई। गाजर मूली तक ठीक है। मगर बैगन के स्टेट्स का तो ख़्याल रखो। जब से धनिये ने ये कहावत सुनी है वो बैगन को आंख दिखाने लगा है। चल बे! काहे का बैगन राजा। सब पता है तेरी औकात का।

दाल में कुछ काला है- भ्रष्टाचार के नए आयाम स्थापित करते-करते एक रोज़ भारतीय समाज ऐसी जगह पहुंचा जहां सब्ज़ियां कम पड़ गई, लिहाज़ा दालों को निंदा कांड में घसीटना पड़ा। भ्रष्टाचारी घपले करने लगे। शरीफों ने सीधे न बोल कह दिया दाल में कुछ काला है। जांच हुई तो पता चला पूरी दाल ही काली है। फिर दावा किया गया अरे ये तो काली दाल है। इस तरह दाल को गड़बड़ी का प्रतीक बना उसकी मार्केट ख़राब कर दी गई।

लड़के से लड़की नहीं पटी और दोस्तो ने छेड़ दिया क्यों दाल नहीं गली क्या? नाकामी को दाल न गलने से जो़ड़ दिया। हक़ीकत तो ये है कि सभी दालें दो सीटियों में गल जाती है। मुझे नहीं याद आता कि आज तक किसी दाल ने न गलने की ज़िद्द की हो।

इसके अलावा गाजर-मूली की तरह काटना,खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है, करेला नीम चढ़ा सरीखी कुछ ऐसी कहावतें हैं जो बताती हैं कि सब्ज़ियों की ऐसी-तैसी करने में हम कितने लोकतांत्रिक रहे हैं!

रविवार, 10 जनवरी 2010

समस्या भी तो एक संभावना है।(व्यंग्य)

रेड लाइट पर रुकते ही मेरी नज़र सड़क किनारे पानी की पाइप लाइन पर पड़ती है। आज फिर इसमें लीकेज हो रहा है। पिछले एक महीने में ये नज़ारा मैं तीसरी बार देख रहा हूं। बड़ी-सी जलधारा फूट रही है और आसपास लोगों का हुजूम उमड़ा हुआ है। एक भाई वहीं कपड़े धोने के साबुन से नहा रहा है, तो दूसरा अपनी लूंगी पर पानी डाल उसे उसके पैदाइशी रंग में लाने की कोशिश कर रहा है। वहीं खाली डिब्बों में पानी भरने के लिए औरतों में मारकाट मची है। साथ आए अधनंगे बच्चे पाइप लाइन से फूटता फव्वारा देख ताली बजा रहे हैं। एक बारगी लगता है कि पूरी कायनात ही मानो पाइप लीकेज का मंगलोत्सव मना रही है।

ग्रीन लाइट होने पर मैं गाड़ी आगे बढ़ाता हूं। ज़हन में पहला ख़्याल यही आता है कि ज़रूरी नहीं कि समस्या हर किसी के लिए समस्या ही हो। वो न जाने कितने ही लोगों के लिए सम्भावना (सेठ नहीं) भी हो सकती है। नगर निगम की काहिली की वजह से भले ही लोगों को पानी न मिले, मगर उसी की ऐसी लापरवाही के चलते लोगों को पानी मिल भी जाता है। कभी-कभार खुद समस्या ही समस्या के समाधान में पोइटिक जस्टिस करती है।


कुछ समय पहले टीवी पर ख़बर देखी कि किसी हाईवे पर सब्जियों से लदा एक ट्रक हादसे का शिकार हो गया। आदत के मुताबिक प्रशासन ने घंटों तक हादसे की सुध नहीं ली। ट्रक वहीं हाईवे पर पड़ा रहा। इलाके के लोगों को जैसे ही ट्रक पलटने का पता चला, वे वहां आने लगे... घायलों को अस्पताल ले जाने नहीं, सब्जियां बटोरने। देखते-ही-देखते लोग ट्रक से सारी सब्जियां उड़ा ले गए। प्रशासन ने भले ही शाम तक रास्ता साफ नहीं किया, लेकिन लोगों ने दोपहर तक सारा ट्रक साफ कर दिया। महंगाई के इस दौर में ऐसा मौका फिर कहां मिलना था… और मिलता भी तो पता नहीं वो जगह उनके गांव से कितनी दूर होती!

मगर ऐसा नहीं है कि हर दफा गरीब आदमी ही ऐसी सम्भावनाओं का फायदा उठाए। वैश्विक मंदी की आड़ में दुनियाभर में कम्पनियों ने जो चांदी काटी, वो किसी से छिपी नहीं है। एचआर डिपार्टमेंट के लिए तो वैश्विक मंदी स्वर्ण युग की तरह थी। दुनिया जानती है कि उस दौरान कैसे धर्मेंन्द्र स्टाइल में उन्होंने चुन-चुन कर लोगों को निपटाया। मंदी अमेरिका से चली भी नहीं थी कि अमरावती में लोगों से इस्तीफे दिलवा दिए गए। जो कम्पनियां प्रभावित नहीं हुईं उन्होंने भी मंदी की आड़ में तीस-तीस फीसदी तनख्वाह काट लीं। कई कम्पनियों ने तो मंदी न जाने के लिए बाकायदा हवन तक करवाए। उनकी यही रणनीति थी कि हर वक़्त मंदी का हौवा दिखाओ...नौकरी से निकाले जाने का माहौल बना कर रखो...भले ही मत निकालो...लेकिन इस डर में कोई ये तो नहीं पूछेगा कि सर, अगला इनक्रीमेंट कब होगा!

और आख़िर में मुझे ओबामा की पाकिस्तान को दी नसीहत याद आती है कि वो (पाकिस्तान) आंतकवाद को ब्लैकमेलिंग के औजार की तरह इस्तेमाल न करें। मेरा मानना है कि एक मुल्क के रूप में पाकिस्तान ऐसा अव्यवाहारिक नहीं कि ऐसी नसीहतों से शर्मिंदा हो जाए। होगा आतंकवाद दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा...कहते होंगे लोग इसे सभ्यताओं का संघर्ष...मगर उसके लिए तो वो उधार का अनंत आकाश है। कंगाली से निपटने का क्रेडिट कार्ड है। उसका तो यही मंत्र है...आतंकवाद की फसल उगाओ और बाद में उसे जलाने का पैसा मांगो। फिर भले ही आग खेत में लगे या पूरे घर में, उसके लिए तो आतंकियों का वजूद अपने वजूद को बचाए रखने का सिर्फ एक ज़रिया है।

बुधवार, 6 जनवरी 2010

स्नानवादियों के खिलाफ श्वेतपत्र

सर्दी बढ़ने के साथ ही स्नानवादियों का खौफ भी बढ़ता जा रहा है। हर ऑफिस में ऐसे स्नानवादी ज़बरदस्ती मानिटरिंग का ज़िम्मा उठा लेते हैं। जैसे ही सुबह कोई ऑफिस आया, ये उन्हें ध्यान से देखते हैं फिर ज़रा सा शक़ होने पर सरेआम चिल्लाते हैं... क्यों..... नहा कर नहीं आये क्या? सामने वाला भी सहम जाता है...अबे पकड़ा गया। वो बजाय ऐसे सवालों को इग्नोर करने के सफाई देने लगता हैं। नहीं-नहीं... नहा कर तो आया हूं...बिजली गई हुई थी.. आज तो बल्कि ठंडें पानी से नहाना पड़ा।


लानत है ऐसे डिफेंस पर और ऐसी 'गिल्ट' पर। सवाल उठता है कि न नहाने पर ऐसी शर्मिंदगी क्यों? जिस पानी से हाथ धोने की हिम्मत नहीं पड़ रही...क्या मजबूरी है कि उससे नहाया जाये। एक तरफ प्रकृतिवादी कहते हैं कि नेचर से छेड़छाड़ मत करो और दूसरी तरफ बर्फीले पानी को गर्म कर नहाने की गुज़ारिश करते हैं। आख़िर ऐसा सेल्फ टोरचर क्यों? क्यों हम ऊपर वाले की अक्ल को इतना अंडरएस्टिमेट करते हैं। उसने सर्दी बनायी ही इसलिए है कि उसकी 'प्रिय संतान' को नहाने से ब्रेक मिले। सर्दी में नहाना ज़रुरत नहीं, एडवेंचर है। अब इस कारनामे को वही अंजाम दें, जिन्हें एडवेंचर स्पोर्ट्स में इंर्टस्ट है।
मगर जनाब नहाने की महिमा बताने वाले बड़े ही ख़तरनाक लोग हैं। ये लोग अक्सर ग्रुप में काम करते हैं। जैसे ही इन्हें पता चला कि फलां आदमी नहा कर नहीं आया..लगे उसे मैन्टली टॉर्चर करते हैं। बात उनसे नहीं करेंगे, लेकिन मुखातिब उनसे ही होंगे।
मसलन....भले ही कितनी सर्दी हो हम एक भी दिन बिना नहाये नहीं रह सकते। दूसरा एक क़दम आगे निकलता है। तुम रोज़ नहाने की बात करते हो...हम तो रोज़ नहाते हैं और वो भी ठंडें पानी से। साला एक आधे-डब्बे में तो जान निकलती है, फिर कुछ पता नहीं चलता। सारा दिन बदन में चीते-सी फुर्ती रहती है। अब वो बेचारा जो नहाकर नहीं आया...उसे इनकी बातें सुनकर ही ठंड लगने लगती है। उसका दिल करता है फौरन बाहर जाकर धूप में खड़ा हो जाऊं।
एक ग़रीब मुल्क का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि उसके धरतीपुत्र अपनी अनमोल विल पॉवर, सर्दी में नहा कर वेस्ट करें। इसी विल पॉवर से कितने ही पुल बनाये जा सकते हैं, कितनी ही महान कृतियों की रचना की जा सकती थी। लेकिन नहीं...हम ऐसा कुछ नहीं करेंगें। हम तो चार डिब्बे ठंडें पानी के डालकर ही गौरवान्वित होंगे।
नहाने में आस्था न रखने वाले प्यारे दोस्तों वक़्त आ गया है कि तुम काउंटर अटैक करो। देश में पानी की कमी के लिए इन नहाने वालों को ज़िम्मेदार ठहराओ। किसी भी झूठ-मूठ की रिपोर्ट का हवाला देते हुए लोगों को बताओ कि सिर्फ सर्दी में न नहाने से देश की चालीस फीसदी जल समस्या दूर हो सकती है। अपनी बात को मज़बूती से रखने के लिए एक मंच बनाओ। वैसे भी मंच बनने के बाद इस देश में किसी भी मूर्खता को मान्यता मिल जाती है। प्रिय मित्रों, जल्दी ही कुछ करो...इससे पहले की एक और सर्दी, शर्मिंदगी में निकल जाये !