व्यवस्था का अगर इंसान पर असर पड़ता है तो चीज़ों पर भी पड़ता होगा। ये देखा गया है कि जिन दफ्तरों में लोग काम नहीं करते वहां कम्प्यूटर भी धीमे चलते हैं। जीमेल तक खुलने में इतना वक़्त लेता है कि आप चाहें तो जिसे मेल करना है, उसके घर जाकर चिट्ठी दे आएं। ठीक इसी तरह ये समझने की ज़रूरत है कि मानसून भी इस देश के सिस्टम में ढल गया है। उसे कोसने से पहले ये ध्यान रखना चाहिए कि जिस मुल्क में स्टेशन पर गाडी, बुज़ुर्ग को पेंशन, पत्ते पर चिट्ठी, बुकिंग के बाद गैस और नौजवान को अक्ल... कभी वक़्त पर नहीं आती, वहां मानसून वक़्त पर आ जाए, ये उम्मीद करना, उम्मीद और मानसून दोनों के साथ ज़्यादती है।
कृषि प्रधान देश में मानसून की ख़ासी अहमियत है। अपनी अहमियत जान जब सरकारी चपरासी तक भ्रष्ट हो सकता है तो मानसून क्यों नहीं। हो सकता है वो वक्त से ही निकलता हो मगर रास्ते में एसी या कूलर बनाने वाली कम्पनियां उसे रिश्वत देकर रोक लेती हों। उसे कहती हो कि तुम वक़्त पर चले गए तो हमारा धंधा चौपट हो जाएगा। ऐसा करो दो-चार करोड़ लेकर यहीं हमारे रेस्ट हाउस में रूक जाओ। दूसरी तरफ मौसम विभाग अपना सिर धुनता है कि मानसून तो फलां तारीख तक फलां जगह पहुंच जाना चाहिए मगर वो पहुंचा क्यों नहीं। तो एक संभावना ये है कि वो भ्रष्ट हो गया हो।
दूसरी संभावना ये कि जिस दौर में बाबाओं से लेकर नेताओं तक सभी चरित्रहीन हो रहे हैं, चरित्रहीनता राष्ट्रीय चरित्र बन गई है तो क्या पता मॉनसून का भी कोई एक्सट्रा मैरिटल अफेयर चल रहा हो। दिल्लगी के चक्कर में वो दिल्ली टाइम पर नहीं आ रहा।
या फिर देरी से आकर मानसून ये बताना चाहता हो कि जिस तरह इंसान अपनी मर्ज़ी का मालिक हो कर नेचर का कबाड़ा कर सकता है। सोचों ज़रा! अगर नेचर भी मर्ज़ी की मालिक हो जाए तो क्या होगा!
रविवार, 4 जुलाई 2010
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 टिप्पणियां:
यह भी तो हो सकता है की मानसून की लुका-छिपी उसकी अदाओं का ही जलवा हो...आदमी तो तडपाने के लिए ! मज़ेदार लेख।
jabrdast vyangy hai mansoon ji par . gmail wala concept padhkar maja aa gaya .
lihte raho neeraj ji !!!!!!!!!!!
एक टिप्पणी भेजें