मंगलवार, 25 अगस्त 2009

स्वाइन फ्लू का विदेशी मूल!

पिछले कुछ सालों में अनजान कारणों से इस देश ने नकल को प्रतिभा प्रदर्शन का सबसे कारगर औज़ार मान लिया। विदेशी भाषा, रहन-सहन, खान-पान, सिनेमा हर मामले में यूरोप-अमेरिका की बखूबी नकल की। मगर क्या देख रहा हूं कि तमाम विदेशी मुद्राओं को जीवन के पर्दे पर हूबहू उतारने वाला देश अचानक एक विदेशी बीमारी के आगे नतमस्तक हो गया है। उससे तालमेल नहीं बिठा पा रहा। समझ नहीं पा रहा कि उससे कैसे निपटा जाए।

अख़बार में इस बीमारी से बचने से जुडा़ एक विज्ञापन पढ़ा तो समझ में आया कि आख़िर हम इससे क्यों नहीं निपट पा रहे। बीमारी से बचने के लिए जो उपाय बताए गए हैं वो हो सकता है कि विश्व के बाकी हिस्सों में लोगों के लिए मानना आसान हो, मगर हमारे लिए नहीं है। मतलब, इस बीमारी का जो विदेशी मूल है, वही असली समस्या है। ऐसे कुछ उपाय जो मुझे समझ में आए वो इस तरह हैं-

1.विज्ञापन कहता है कि खांसने या छींकने से पहले मुंह के आगे हाथ या रुमाल रख लें। अब आप ही बताएं ये कहां कि औपचारिकता है। हम हिंदुस्तानी तो बरसों से छींक को रोमांच और उत्तेजना का विषय मानते रहे हैं। हम चाहते हैं कि जब छीकें तो आसपास खड़े पंद्रह-बीस लोगों को आवाज़ और बौछारों से इसका पता लग जाए। हमारे यहां तो लोग छींकने के लिए तरह-तरह के पदार्थ का इस्तेमाल करते रहे हैं। हमें कभी ये सिखाया ही नहीं गया कि एक अबोध, मासूम छींक को यो मुंह के आगे हाथ रख रोका जाए। रही बात रुमाल रखने की तो नाक के आगे रूमाल तो तब रखें जब वो जेब में हो। रुमाल रखने की तो हमें आदत ही नहीं। खाना खाने के बाद हम हाथ तो पेंट की जेब में डाल पोंछ लेते हैं और मुंह शर्ट के बाजू से। रुमाल की जरूरत ही कहां है।

2.विज्ञापन कहता है कि कोई भी बीमारी होने पर डॉक्टर के परामर्श पर दवाएं लें। अब भला ये कैसे सम्भव है। अगर हम बीमार पड़ने पर सीधे डॉक्टर के पास चले जाएं तो हमारी खुद की डॉक्टरी का क्या होगा। हर बीमारी पर हमें अपनी भी तो छांटनी होती है। दूसरा, हमारे यहां आम मान्यता है कि डॉक्टर लूटते हैं। इसलिए जो काम एक रूपये की पैरासीटामोल से हो सकता है उसके लिए डॉक्टर को डेढ़ सौ रूपये फीस क्यों दें। हमारी तो जब तक जान पर न बन आए, मामूली ज़ुकाम निमोनिया न हो जाए, हल्की खांसी टीबी न बन जाए तब तक हम डॉक्टर के पास नहीं जाते। इसलिए ये उपाय भी बेकार है।

3.विज्ञापन हिदायत देता है कि सड़क पर न थूकें। जानते भी हो, क्या कह रहे हो? इस देश में आज़ादी का मतलब क्या है? अभिव्यक्ति की आज़ादी, धर्म की आज़ादी या कहीं भी आने-जाने की आज़ादी? नहीं, आज़ादी मतलब, यहां-वहां थूकने की आज़ादी है। दरअसल, सिस्टम का शिकार आम आदमी जब परेशान हो जाता है तो वो सड़क को सिस्टम का मुंह समझ उस पर थूकता है। और तुम हो कि कहते हो कि सड़क पर मत थूको। ठीक है, नहीं थूकेंगे...पर जाओ पहले जा कर पूरा सिस्टम सुधार दो। सिस्टम सुधारना बड़ा काम है और सड़क पर थूकना मामूली अपराध। तुम बड़ा काम नहीं कर सकते तो कम से कम हमें मामूली अपराध तो करने दो।

4. और आख़िर में विज्ञापन में कहा गया है कि किसी भी इंसान से हाथ मिलाने और गले मिलने से परहेज़ करें। अब इस बात से साफ साबित होता है कि ये वाकई एक विदेशी बीमारी है। अब अमेरिकी या यूरोपीय समाज में हो सकता है कि इंसान खुद के लिए ही खुद ही पर्याप्त हो मगर हमें तो भाई, दूसरों का ही सहारा है। उनसे स्नेह है। तुम कैसे कह सकते हो हम उनसे हाथ न मिलाएं, गले न मिलें। प्यार के अलावा हमारे पास लेने-देने को है ही क्या? हमारी इसी भावुकता को देखते हुए शायर ने हमें सतर्क भी किया है...कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से....ये नए मिजाज़ का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो। यकीन मानो, शायर को उस वक़्त स्वाइन फ्लू का ज़रा-भी इल्म नहीं था।

बुधवार, 19 अगस्त 2009

असहनीय सम्मान!

अगर आप सम्मान के लायक हैं और सम्मान पाते रहते हैं तो कुछ वक़्त बाद इसकी लत पड़ जाती है। पैर, हर वक़्त छूए जाने के लिए फड़फड़ाते रहते हैं। हाथ, आशीर्वाद देने के लिए मचलते हैं। कान के पर्दे, तारीफ के बूटों से सजने के लिए बेकरार होते हैं। शहर से बाहर जाते समय ऐसे लोग तारीफ के ऑडियो कैसेट साथ ले जाते हैं। तारीफ न होने पर इनके मुंह से झाग आने लगता है। तारीफ के नशेड़ियों को हर घंटे उसकी निश्चित डोज़ चाहिए ही होती है।

मगर वहीं समाज में एक तबका मुझ जैसों का भी है जिनका कभी इज्ज़त से वास्ता नहीं पड़ता। इज्ज़तविहीन जीवन जीनें की जिन्हें आदत सी पड़ जाती है। मगर पिछले दिनों कुछ ऐसा हुआ की इज्ज़त न होने के बावजूद मैंने खुद को बेइज्ज़त महसूस किया। हुआ ये कि मुझे एक पोस्टकार्ड मिला। जिसका मजमून था, महोदय, आपकी साहित्यकला सेवा पर आपको हिंदी भाषा आचार्य की वृहद् मानद उपाधि देने हेतु विषय-विचाराधीन है। आपका परिचय, 2 चित्र रंगीन पासपोर्ट साइज, 2 रचना तथा ‘500 रूपये सहयोग शुल्क’ एमओ द्वारा भेजें। भवदीय...फलाना ढिमकाना।

पहली बात जो पोस्टकार्ड पढ़ मेरे ज़हन में आई वो ये कि ‘हिंदी भाषा आचार्य’ पुरस्कार की बात अगर मेरी दसवीं की हिंदी टीचर को पता लग जाए तो वो संस्था पर राष्ट्रभाषा के अपमान का केस कर दे। मेरी हिंदी का स्थिति तो ऐसी है कि शुरूआती रचनाएं इस खेद के साथ वापिस लौटा दी गई कि हम केवल हिंदी में रचनाएं छापते हैं!

दूसरा जो संस्था मेरी साहित्यकला सेवा (ऐसा गुनाह जो मैंने किया नहीं) के लिए मुझे सम्मानित करना चाहती है उसे मेरी दो रचनाएं क्यों चाहिए! क्या हिंदी भाषा आचार्य की यही पात्रता है कि जिस किसी ने भी हिंदी में दो रचनाएं लिखी हैं, वो इसका हक़दार है। इसके अलावा जो संस्था मुझे सम्मानित करने का दुस्साहस कर रही है आख़िर वो पांच सौ रूपये का सहयोग क्यों मांग रही है? किसी को व्हील चेयर का वादा कर आप उससे बैसाखियों के लिए उधार क्यों मांग रहे? मैं जानना चाहता हूं कि ‘तुम मुझे सहयोग(राशि) दो, मैं तुम्हें सम्मान दूंगा’ ये नारा आख़िर किस क्रांति के लिए दिया जा रहा है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि जो कुछ और जैसा कुछ मैंने आज तक लिखा है उससे उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला कि इतना घटिया लिखने वाला आदमी ही सम्मान के झांसे में पांच सौ रूपये दे सकता है! सोचता हूं कि मेरे लिखे से जिन्होंने मेरे चरित्र का अंदाज़ा लगाया अगर वो आर्थिक स्थिति का भी लगा पाते तो कम से कम उनके पोस्टकार्ड के पैसे तो बचते।

सोमवार, 17 अगस्त 2009

मशीनों की इंसानियत!

एक ज़माना था जब लोग मुझे पलट-पलट कर देखते थे और अब हालत ये है कि मैं खुद को अलट-पलट कर देखता हूं। गाल इतने फूल गए हैं कि आइने में सामने देखने पर कान नहीं दिखते और तोंद इतनी बढ़ गई है कि सीधे खड़े हो कर नीचे देखने पर पैर नज़र नहीं आते। डबल चिन कब की ट्रिपल चिन हो चुकी है। शरीर की ज्यामिति छिन्न-भिन्न हो चुकी है। सम्पूर्ण काया चिल्ला-चिल्लाकर खुद के कायाकल्प की मांग कर रही है। हुलिया न बदलने पर बीवी, पति बदलने की धमकी दे रही है। आख़िरकार काया की मांग और बीवी की धमकी से घबरा मैं जिम पहुंचता हूं।

जिम में जिस मशीन पर मैं दौड़ रहा हूं, उसके परिजनों ने उसका नाम ट्रेड मिल रखा है। इस पर दौड़ते आज मेरा छठा दिन है। पहले पांच दिन इस पर मैं पंद्रह से बीस मिनट दौड़ चुका हूं। हर बार दौड़ ख़त्म करने पर इसकी स्क्रीन पर लिखा आता है-कूल। मशीन के इस शिष्टाचार पर मुझे खुशी होती है। वह दौड़ने वाले को अपनी तरफ से कॉम्पलीमेंट देती है। उसका हौसला बढ़ाती है। मगर आज मैं दो-चार मिनट में ही रुक जाता हूं। डर है कि आज वो लानत देगी। पर आश्चर्य...दो मिनट दौड़ने के बावजूद सामने लिखा आता है-कूल। मुझे हैरानी है कि उसने बैड या पुअर जैसा कुछ नहीं कहा। बुरी परफॉरमेंस के बावजूद मेरा हौसला बढ़ाया। कोई फिटनेस ट्रेनर होता तो झाड़ लगाता। मगर मशीन ने ऐसा नहीं किया। मशीन ने क्या... उसे बनाने वालों ने उसे ऐसा करने की इजाज़त नहीं दी। उसकी प्रोग्रामिंग के समय इंसानी भावनाओं का ख़्याल रखा गया। हैरानी इस बात की है कि ऐसे समय जब हम इंसान के लगातार संवेदनाशून्य होने की बात कर रहे हैं, मशीनें बनाते समय ये ख़्याल रखा जाता है कि वो सभ्य बर्ताव करें। दो मिनट दौड़ने वाले शख़्स का भी ‘कूल’ कहकर हौसला बढ़ाएं।


ट्रेड मिल ही नहीं संस्कारों की ऐसी ही नुमाइश रेलवे स्टेशनों पर खड़ी वज़न तोलने वाली मशीनें भी करती हैं। वज़न के बारे में सच बोलना उनकी मजबूरी है। मगर आपके चरित्र-चित्रण से पहले वो ऐसी किसी मजबूरी को नहीं मानतीं। मेरा मानना है कि ऐसे लोग जिनके कान अपनी तारीफ सुनने को शताब्दियों से तरस रहे हैं वे शताब्दी एक्सप्रेस पकड़ने से पहले रेलवे स्टेशन पर वज़न कर लें। निजी जीवन में आप कितने भी घटिया, मक्कार और लीचड़ क्यों न हो, मगर वज़न का टिकट बताएगा कि आप एक नेकदिल,खुशदिल और अक्लमंद इंसान हैं। एक रूपये के एवज़ में ऐसी चापलूसी आपको पूरी दुनिया में कहीं सुनने को नहीं मिलेगी। आपके बारे में ऐसे विशेषणों का इस्तेमाल किया जाएगा जिनके इस्तेमाल की आपके दोस्तों ने कभी ज़रूरत महसूस नहीं की। एक पल के लिए आप भी इन विशेषणों को सच मान बैठते हैं। महाआलासी खुद की तारीफ में अनुशासित पढ़ बौरा जाता है। उसे लगता है कि मशीन के अलावा उसे आज तक किसी ने पहचाना ही नहीं।

यकीन मानिए दोस्तों, इसी तारीफ के लालच में गाडी का इंतज़ार करते हुए बचपन में मैंने एक साथ दस-दस बार अपना वजन किया। वज़न तो हर बार एक निकला मगर तारीफ अलग-अलग थी। कुछ बड़ा हुआ तो अक्ल आई कि मशीन ट्रेड मिल की हो या वज़न की, हौसला-अफज़ाई इसके संस्कारों का स्थायी हिस्सा है। भूलकर भी ये नहीं कह सकती कि तुम्हारे जैसा वाहियात आदमी मैंने आज तक नहीं देखा।

ऐसा ही कुछ हाल एटीएम मशीनों का भी है। इंसानों से पैसे लेते समय आप दसियों बार गिनने के बाद भी आश्वस्त नहीं हो सकते, मगर एटीएम मशीनें ऐसी गड़बडी नहीं करतीं। कम से कम मेरे साथ तो ऐसा आज तक नहीं हुआ। ईमानदारी इनके चरित्र की मुख्य विशेषता है। हो सकता है दस बार कहने पर बीवी आपको सुबह उठाना भूल जाए मगर अलार्म क्लॉक ऐसा आलस नहीं करती। मैट्रो में लगा ऑटोमैटिक सिस्टम कभी याद दिलाना नहीं भूलता कि अगला स्टेशन तीस हज़ारी है...दरवाज़े बाईं ओर खुलेंगे। सच...ये मशीनें संवेदनशीलता, ईमानदारी और अनुशासन का पर्याय बन गई हैं। लोग शिकायत करते हैं कि इंसान मशीनी हो गया है...पर मैं इंतज़ार कर रहा हूं कि इंसान ऐसा मशीनी कब होगा?

शनिवार, 8 अगस्त 2009

नैतिकता का इस्तीफा!

बूटा सिंह कह रहे हैं कि उन पर इस्तीफे का दबाव डाला गया तो वे जान दे देंगे। वैसे ही, जैसे लड़की के घरवालों से परेशान लड़का धमकी देता है कि अगर किसी ने उन्हें अलग करने की कोशिश की तो वो अपनी जान दे देगा। प्रेमी की जान लड़की में बसती है। बूटा सिंह की जान कुर्सी में। उनका कहना है कि वे ऐसे नैतिकतावादी नहीं हैं कि इस्तीफा दे दें। पर, यही तो आपत्ति है। आख़िर वो ऐसे नैतिकतावादी क्यों नहीं हैं? और अगर वो ऐसे या वैसे, कैसे भी नैतिकतावादी नहीं हैं तो क्यों न बेटा और बूटा पर लगे आरोप सच माने जाएं! लोग तो कहने भी लगे हैं, बेटा-बेटा, बूटा-बूटा हम हाल तुम्हारा जाने हैं, माने न माने तुम ही न माने, संसार तो सारा माने हैं।

अपने बचाव में उनका कहना है कि उनके ख़िलाफ राजनीतिक साज़िश की जा रही है। ये बात भी अपने आप में शोध का विषय है। शोध इस पर नहीं होना चाहिए कि साज़िश किसने की, बल्कि इस पर होना चाहिए ‘मेरे खिलाफ साज़िश का बयान’ भारतीय राजनीति में आज तक कितनी बार दिया गया है। इस वाक्य के विन्यास और अर्थ में आख़िर कौनसी मिश्र धातु लगी है जो इसे हर नेता की पसंदीदा ढाल बनाता है। उस घटना का भी पता लगाना चाहिए जिसके बाद नेताओं की अदृश्य शक्तियों के खिलाफ खानदानी दुश्मनी शुरू हुई। तभी तो हर बार पकड़े जाने पर अदृश्य शक्तियों की चुगली की जाती है। मामला ठेकेदार का था। निपटाना बूटा ने था। दलाली बेटे ने की। गिरफ्तारी सीबीआई ने और इल्ज़ाम लगा अदृश्य शक्तियों पर। सुभानअल्लाह!

अभी लोग इन अदृश्य शक्तियों को ढूंढ ही रहे थे कि वीर भद्र सिंह की वीरता सामने आ गई। वीर भद्र ने भी भद्रता दिखाते हुए अपने कांडों का श्रेय राजनीतिक साजिश को दे दिया। उनके मुताबिक हिमाचल के मुख्यमंत्री धूमल उनकी छवि धूमिल करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि वे महज़ आरोपों के आधार पर इस्तीफा नहीं देंगे। ये सुन मुझे बड़ी तसल्ली हुई।

दरअसल संक्रमण काल से गुज़रने का एहसास सबसे बुरा होता है। इस दौरान बड़ी माथा-पच्ची करनी पड़ती है। हर घटना के पीछे के कारण को समझना होता है। बदलाव की दिशा जाननी होती है। इसलिए जब श्रीधरन और उमर अब्दुल्ला ने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दिया तो भम्र हुआ कि शायद हम संक्रमण काल से गुज़र रहे हैं। ईमानदारी के नए दौर में प्रवेश कर रहे हैं। मगर नहीं...बूटा और वीर भद्र ने इस आशंका को नकार दिया। इस्तीफे से इंकार किया। हमें संक्रमण काल में जाने से बचा लिया। आइए, इसके लिए दोनों का शुक्रिया अदा करें!