शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

छिछोरेपन की मुश्किलें!

जो ये कहते हैं, वो झूठ कहते हैं कि ज़िंदगी दूसरा मौका नहीं देती। मेरी तरह जवानी में लड़कियां छेड़ने की अगर आपकी भी हसरत अधूरी रह गई तो आप चाहें तो आगे चलकर लड़कियों की किसी टीम के कोच बन सकते हैं। आपके कोच बनने पर देश सोचेगा कि अब आप उसका गौरव बढ़ाएगा और आप सोचेंगे कि बरसों से जो न बन सकी, अब हम वो बात बनाएंगे। आप लड़कियों को कहना कि मुझसे घबराओ मत...मैं तुम्हारे बाप समान हूं और फिर उन्हें छेड़कर बताना कि ‘आपके यहां’ बाप कैसे होते हैं। आप बाप बन पाप करते जाना और टीम हारती जाएगी। देश सोचेगा कि आप सालों से खेल का शोषण कर रहे हैं और फिर एक रोज़ पता चलेगा कि आप खेल ही नहीं खिलाड़ियों का भी शोषण कर रहे थे। जिस कोच से ये उम्मीद की जाती थी कि विपक्षी खिलाड़ियों के खिलाफ रणनीति बनाएगा वो बाकायदा एक रणनीति के तहत अपनी ही खिलाड़ियों को पटाने में लगा था।

जो लोग छिछोरागिरी में स्पोर्टिंग करियर बनाने की सोच रहे हैं वो कुछ बातें अच्छे से समझ लें। अगर ब्लूलाइन बसों में सालों से लड़कियों को छेड़ ‘आनन्द’ लेने और कभी-कभार डांट खाने के आदी हैं, तो एक बात है मगर यही ‘करतब’ आप किसी बड़े मंच पर दिखाएंगे तो उसमें भारी रिस्क है। हो सकता है कि जवानी में लड़कियों की साइकिलों का पीछा करते-करते बड़े हो कर आप किसी महिला साइकिल टीम के कोच बन जाएं मगर आप उन लड़कियों को आगे निकलना भला कैसे सीखाएंगे जबकि आप खुद हमेशा से साइकिलों का पीछा करने के आदी रहे हैं। उसी तरह जिस शख्स के मन में महिलाओं को लेकर कुंठाएं भरी हैं वो महिला भारतोलन टीम को वज़न उठाना सीखाएगा या अपनी कुंठाओं का वज़न कम करेगा ये बताना भी मुश्किल नहीं है। यही त्रासदी है। तभी तो ‘ड्रैग फ्लिक सीखाने’ वाले लोग अपने सम्बन्ध ‘क्लिक’ करवाने में लग जाते हैं। खिलाने की बजाए उनसे खेलने लग जाते हैं।

सोमवार, 19 जुलाई 2010

भारत का विदेशी मूल!

कम्पनियों के नतीजे भी अच्छे आ रहे हैं, नौकरियां भी बढ़ी हैं, औद्योगिक विकास दर में भी इज़ाफा हो रहा है, मानसून भी ठीक रहने की उम्मीद है और बाकी तमाम चीज़ें जिन्हें ‘स्थानीय कारण’ माना जाता है, ठीक हैं, बावजूद इसके शेयर बाज़ार ऊपर नहीं जा रहा। जानकार बताते हैं कि जब तक यूरोप में हालात नहीं सुधरते तब तक हमारे यहां भी स्थिति डांवाडोल रहेगी। ग्रीस की अर्थव्यवस्था को जब तक आर्थिक मदद की थोड़ी और ग्रीस नहीं लगाई जाती, भारत में भी हालात सुधरने वाले नहीं है।

ये सब देख-सुन मैं सदमे में चला जाता हूं। देश की इस बेचारगी पर मुझे तरस आता है। हमारे किसी भी अच्छे या बुरे के पीछे कारण के रूप में हम ही पर्याप्त क्यों नहीं है? हर क्षेत्र में एक विदेशी हाथ या वजह का होना क्या ज़रूरी है। कहने को सरकार में एक विदेश मंत्रालय है और एक विदेश मंत्री भी। मगर विदेश नीति क्या होगी ये अमेरिका तय करेगा। साल में कितनी अच्छी फिल्में बनेंगी, ये इस बात पर निर्भर करता है कि नकल किए जा सकने लायक हॉलीवुड में कितनी नई फिल्में बनती हैं। हर खेल में सुधार का एक मात्र मूलमंत्र है-विदेशी कोच की तैनाती।


फैशन से भाषा तक हर शह विदेशी हो गई है। दारू के अलावा इस देश में देसी के नाम पर कुछ नहीं बचा है। देसी कट्टों से लेकर देसी बम तक सब आउटडेटिड हो गए हैं। टोंड दूध के ज़माने में आम आदमी को तो देसी घी तक मयस्सर नहीं है। देश को लूटने वाले नेता भी अपना पैसा विदेशी बैंकों में जमा करवाते हैं। अतीत के अलावा भारत पास कुछ भी भारतीय नहीं बचा है। कुछ लोगों को जैसे ये नहीं समझ आता कि ज़िंदगी का क्या किया जाए, भारत शायद दुनिया का इकलौता देश है जो साठ साल में ये नहीं जान पाया कि आज़ादी का क्या किया जाए!

रविवार, 4 जुलाई 2010

मानसून का भ्रष्टाचार!

व्यवस्था का अगर इंसान पर असर पड़ता है तो चीज़ों पर भी पड़ता होगा। ये देखा गया है कि जिन दफ्तरों में लोग काम नहीं करते वहां कम्प्यूटर भी धीमे चलते हैं। जीमेल तक खुलने में इतना वक़्त लेता है कि आप चाहें तो जिसे मेल करना है, उसके घर जाकर चिट्ठी दे आएं। ठीक इसी तरह ये समझने की ज़रूरत है कि मानसून भी इस देश के सिस्टम में ढल गया है। उसे कोसने से पहले ये ध्यान रखना चाहिए कि जिस मुल्क में स्टेशन पर गाडी, बुज़ुर्ग को पेंशन, पत्ते पर चिट्ठी, बुकिंग के बाद गैस और नौजवान को अक्ल... कभी वक़्त पर नहीं आती, वहां मानसून वक़्त पर आ जाए, ये उम्मीद करना, उम्मीद और मानसून दोनों के साथ ज़्यादती है।

कृषि प्रधान देश में मानसून की ख़ासी अहमियत है। अपनी अहमियत जान जब सरकारी चपरासी तक भ्रष्ट हो सकता है तो मानसून क्यों नहीं। हो सकता है वो वक्त से ही निकलता हो मगर रास्ते में एसी या कूलर बनाने वाली कम्पनियां उसे रिश्वत देकर रोक लेती हों। उसे कहती हो कि तुम वक़्त पर चले गए तो हमारा धंधा चौपट हो जाएगा। ऐसा करो दो-चार करोड़ लेकर यहीं हमारे रेस्ट हाउस में रूक जाओ। दूसरी तरफ मौसम विभाग अपना सिर धुनता है कि मानसून तो फलां तारीख तक फलां जगह पहुंच जाना चाहिए मगर वो पहुंचा क्यों नहीं। तो एक संभावना ये है कि वो भ्रष्ट हो गया हो।

दूसरी संभावना ये कि जिस दौर में बाबाओं से लेकर नेताओं तक सभी चरित्रहीन हो रहे हैं, चरित्रहीनता राष्ट्रीय चरित्र बन गई है तो क्या पता मॉनसून का भी कोई एक्सट्रा मैरिटल अफेयर चल रहा हो। दिल्लगी के चक्कर में वो दिल्ली टाइम पर नहीं आ रहा।
या फिर देरी से आकर मानसून ये बताना चाहता हो कि जिस तरह इंसान अपनी मर्ज़ी का मालिक हो कर नेचर का कबाड़ा कर सकता है। सोचों ज़रा! अगर नेचर भी मर्ज़ी की मालिक हो जाए तो क्या होगा!