सोमवार, 30 जून 2008

लफ़्ज़-ए-मोहब्बत

मुस्कुराहट

अदाएं
मुस्कुराहटें
तो वो हर्फ़ हैं
जिनके सिलसिले
मोहब्बत लफ़्ज़
लिखते हैं

तुम बताओ
अदाओं
मुस्कुराहटों के
इस सिलसिले में
बातों
मुलाकातों
के हर्फ़
कब जुड़ेंगे

कब हम
इश्क की इबारत लिखेंगे
प्यार के झूठे-सच्चे वादे करेंगे
छिपते-छिपाएंगे
आंसू बहाएंगे

बताओ अजनबी
कब तक सिर्फ़
मुस्कुराओगी!


दिलचस्पियां

मेरी दिलचस्पियों को समझाओ
वो नाउम्मीद हो जाएं
क्यों कर वो सोचें
बात का
मुलाकात का
इक लम्स (स्पर्श) के एहसास का!


शुक्रिया

न जाने किसे ढूंढती वो चांदनी
तुम्हारी आखों में आई
और ठहर गई,

किस शबनम को तलाश्ता गुलाब
इन होठों से छूआ
और कुर्बान हुआ,


किस फिज़ा ने क़ाइनात
की कूची से रंग चुराये
और इन अदाओं
में घोल डाले,


अहसान फ़रामोश तुम सही,
मगर मैं तो नहीं,

तलाशता हूं
उस चांदनी
उस गुलाब और
उस फिज़ा को
शुक्रिया कहने!

हिंदी लेखकों से सबक लें! (हास्य-व्यंग्य)

मौसमी बीमारियों की तरह इस देश में बहुत से मौसमी रोने भी हैं। मसलन, हर साल आने वाली बाढ़ के बाद डिज़ास्टर मैनेजमेंट की बात की जाये, हर आतंकी हमले के बाद सुरक्षा एजेंसियों पर जानकारी न होने का इल्ज़ाम लगे, हर विदेशी दौरे में हार के बाद देश में तेज़ पिचें बनाने की ज़रूरत महसूस की जाये और हर रेल हादसे के बाद रेलों की जर्जर व्यवस्था के आधुनिकीकरण की मांग उठे।


मतलब जब कुछ किया जाना चाहिये तब सोए रहें और हादसा हो जाने पर छाती पीटें कि हाय! हमने ये कर लिया होता तो कितना अच्छा होता।

अब सवाल ये है कि किसी भी मसले को लेकर हम प्रो-एक्टिव क्यों नहीं रहते ? आखिर लकीर पिटने को हमने अपना राष्ट्रीय चरित्र क्यों बना लिया है ?

दोस्तों, मुझे लगता है इस मामले में हमें हिंदी लेखकों और उनमें भी व्यंग्यकारों से सबक लेना चाहिये। इस देश का हिंदी व्यंग्यकार जितना प्रो-एक्टिव है उतना अगर सरकार और बाकी संस्थाएं भी हो जाएं तो सारी समस्या हल हो जाये। मैं ऐसे-ऐसे लेखकों को जानता हूं जो मॉनसून आते ही डेंगू पर व्यंग्य लिख लेते हैं और कुछ अतिउत्साहित तो भेज भी देते हैं और फिर फोन कर संपादक को समझाते फिरते हैं कि किस तरह आप इसका इस्तेमाल सितम्बर महीने के तीसरे हफ्ते में कर सकते हैं। क्या हुआ जो अभी जुलाई ही शुरु हुआ है।

अभी कल एक सम्पादक ऐसे एक इक्तीस मार खां लेखक के बारे में बता रहे थे जिसने परमाणु डील पर लेफ्ट के समर्थन को लेकर उन्हें दो लेख भेज दिए और अलग से लिख भी दिया कि अगर लेफ्ट समर्थन वापिस ले और सरकार गिर जाए तो ये वाला लेख छाप सकते हैं और अगर समाजवादी पार्टी के समर्थन से बच जाए तो ये वाला । मैंने पूछा लेकिन इसमें क्या दिक्कत है। संपादक बोले दिक्कत......दिक्कत ये है कि लेख भले ही कितना घटिया हो, लेखक तो मानकर चलता है कि दोनो ही छपने लायक हैं!

ये तो हुई बात सम्पादक की। फिर मैं एक ऐसे ही एक इक्तीस मार खॉ प्रो-एक्टिव लेखक से मिला। मैंने उनके इस नज़रिये की वजह पूछी तो बोले डियर, आज के दौर में सब कुछ इंस्टेंट कॉफी की तरह है। अब सरकार इंस्टेंट कार्रवाई करे न करे, एक लेखक के लिए ज़रूरी है कि वो इंस्टेंट रिएक्शन के लिए तैयार रहे। आपको हमेशा एंटीसिपेट करते रहना पड़ता है कि क्या हो सकता है ? लेखक की इस सोच से मैं काफी प्रभावित हुआ। मैंने कहा अच्छा सर, अब जाने से पहले ये भी बता दीजिये हाल- फिलहाल आपने क्या लिखा है? हाल-फिलहाल तो मैंने एशिया कप के फाइनल में भारतीय टीम की हार पर लिखा है.....फिर थोड़ा रूककर बोले हैरान मत हो....जीत पर भी लिखा है।

गुरुवार, 26 जून 2008

ठाकरे ले लो, सरबजीत दे दो! (हास्य-व्यंग्य)

तमाम कोशिशों के बावजूद सरबजीत की रिहाई होते न देख भारत ने मुशर्रफ को दिल्ली आने का न्यौता दिया। भारतीय अधिकारी-मुशर्रफ साहब रिहाई को लेकर हम पर लगातार दबाव बढ़ता जा रहा है, अब तो कोई रास्ता निकालना ही होगा। मुशर्रफ-देखिए, दबाव तो मुझ पर भी कम नहीं है। वैसे भी आगरा वार्ता के बाद खाली हाथ लौट, एक बार मैं अपनी फजीहत करवा चुका हूं। भा.अधि-मतलब? मुशर्रफ-मतलब साफ है। सरबजीत के बदले आप अपना सबसे काबिल, चर्चित और होशियार आदमी हमें दे दें। भा.अधि-तो आप सौदेबाज़ी करना चाहते हैं......... ठीक है अगर ऐसी ज़िद्द है तो आप सरबजीत हमें सौंप दें और उसके बदले.......मुशर्रफ-उसके बदले क्या? भा.अधि-उसके बदले राज ठाकरे ले जाइये। मुशर्रफ चिल्लाते हुए खड़े हो जाते हैं-लाहौल विलाकुव्वत, इस वाहियात बात के लिए आपने हमें दिल्ली बुलाया है, अब हम यहां एक पल भी नहीं रूक सकते, टेम्पो बुलाओ।
भारतीय अधिकारी-आप बैठिये तो सही। अगर राज मंजूर नहीं तो हम और ऑप्शन दे सकते हैं। हमारे यहां 'नगीनों' की कमी नहीं है। ऐसा करें आप सरबजीत दे दें, और राखी सावंत ले लें।

मुशर्रफ-देखिए, मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आप समझौता करना चाह रहे हैं या ज़्यादती? राज ठाकरे या राखी सावंत लेने से अच्छा है आप हमें शक्ति कपूर दे दें। भारतीय अधिकारी-सीरियसली! मुशर्रफ-आप मज़ाक भी नहीं समझते। आपकी तरह हमारे यहां भी सर्कस का धंधा चौपट हो चुका है, चिड़ियाघरों पर ताले लगे हैं, ऐसे में आप ही बताएं, भला क्या करेंगे हम शक्ति कपूर का?
मुशर्रफ(थोड़ा रुककर)- देखिए, इंडियन म्यूज़िक की पाकिस्तान में बड़ी धूम है, उसकी कोई हस्ती हमें ऑफर करें, लता मंगेशकर या सोनू निगम..... उनके बारे में सोचिए। भा.अ.-देखिए, उन्हें तो हम आपके बदले भी नहीं देंगे। आपको अच्छी आवाज़ से मतलब है न, ऐसा करें आप हिमेश रेशमिया ले लें। मुशर्रफ-देखिए, हमें नगमे सुनने हैं, मस्जिदों से कौए नहीं उड़वाने। चलिए, आप हमें अमिताभ बच्चन दे दीजिए। भा.अ-मुशर्रफ साहब, अमिताभ को दे भी दिया तो आप लेंगे नहीं। मुशर्रफ-वो क्यों?

भा.अ- वो इसलिए क्योंकि उनके साथ अमरसिंह फ्री है। मुशर्रफ-तौबा, तौबा, तौबा....खैर छोड़ें....ये बताएं हिंदुस्तानी क्रिकेट टीम आजकल काफी अच्छा खेल रही है, ..सचिन, सौरव या द्रविड़ में से कोई मिल जाए तो...भा.अ-जिन खिलाड़ियों के आप नाम ले रहे हैं ये सब तो एक-आध साल में रिटायर हो जाएंगे, मेरी मानें आप आशीष नेहरा ले लें, उसके साथ कॉम्बो ऑफर में मुनाफ पटेल भी ले सकते हैं....आप भी क्या याद रखेंगे चलिए बालाजी भी दिया।
मुशर्रफः(जो अब तक आपा खो चुके थे) मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आप खिलाड़ियों के नाम गिना रहे हैं या मरीज़ों के। इन खिलाड़ियों के साथ तो आपको एक डॉक्टर भी देना पड़ेगा। भा.अ.-हां दे देंगे न, आप भारत के सबसे मशहूर डॉक्टर को ले लीजिए। मुशर्रफ-कौन, डॉक्टर त्रेहन? भारतीय अधिकारी-नहीं, डॉक्टर तलवार!

मंगलवार, 24 जून 2008

सड़क पर लोकतंत्र! (व्यंग्य)

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में आम शिकायत है कि कहीं भी लोकतंत्र नहीं है। हर जगह ताकतवर और भ्रष्ट लोग भरे हैं। बात ठीक है। मगर मेरा मानना है कि इस देश में एक जगह ऐसी है जहां पूरी तरह लोकतंत्र है और वो है सड़क!

सड़क में जिस जगह मैं रूका हूं वहां मर्सिडीज़ के बगल में एक मोटरसाइकिल वाला, उसके बगल में साइकिल सवार, बीच में एक बैलगाड़ी, कुछ हाथ रिक्शा और आगे नगर निगम का कचरा ढोने वाला एक ऐसा ट्रक खड़ा है, जिसे देख लगता है कि उसका इस्तेमाल द्वितिय विश्व युद्ध के वक़्त से किया जा रहा है! बहरहाल, आसपास खड़े हम तमाम लोगों के लिए ये कुछ मीटर का दायरा इस मुल्क में इकलौता मंच है जिसे हम एक साथ शेयर कर पा रहे हैं!

ये मंच एक मायने में लोकतंत्र ही नहीं, खुला लोकतंत्र है, क्योंकि ये किसी भी तरह के लेन के बंधन से मुक्त है। आप जहां चाहे गाड़ी चला सकते हैं, जहां चाहे गाड़ी घुसा सकते हैं, और जहां चाहे गाड़ी चढ़ा भी सकते हैं! इसके अलावा जितनी फ्रस्टेशन हो, वो आप सड़क पर निकाल लें। मसलन, आप मोटरसाइकिल पर हैं और सोच रहे हैं कि स्साला, इतनी जगह अप्लाई कर दिया आज तक कहीं से कोई कॉल नहीं आया, ये कम्पनी वाले पता नहीं खुद को क्या सोचते हैं ? तभी आप देखते हैं सामने एक लम्बी काली गाड़ी चल रही है, अब सोचिये हो न हो उन्हीं कम्पनियों में से किसी एक का सीईओ इस गाड़ी में सवार है। अब उस गाड़ी के आगे से एक गंदा कट मारिये, फिर उस कार के आगे आ जाइये और उसे काफी देर तक साइड मत दीजिये। वो भले ही कितने हॉर्न दे, मगर नीचा दिखाने के इस मिशन से आपको पीछे नहीं हटना है। हो सकता है इस दौरान ये सोच शर्म भी आये कि ये सब करने के लिए तो भगवान ने मुझे धरती पर नहीं भेजा, मगर शर्मिंदा न हों। साहित्य की ज़बान में इसे भावानात्मक विस्फोट कहते हैं, और ऐसा कर आप कविता रच रहे हैं। लिहाज़ा, छंद पर यानि हैंडल पर ध्यान दें!

इसके अलावा आपको ये शिकायत भी रही है कि भ्रष्टाचार को लेकर हमारा लोकतंत्र समान अवसर नहीं देता। मगर, सड़क का लोकतंत्र ये शिकायत भी दूर करता है। सामने रेड लाइट है। चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस वाला भी नहीं। आप बिना सोचे समझे रेड लाइट तोड़ दें। अवसर के मामले में रेड लाइट तोड़ने के भ्रष्टाचार पर जितना हक़ एक कार वाले का है, उतना ही आपका भी।

कुल मिलाकर सड़क लोकतंत्र की इस हद तक सच्ची नुमाइंदगी करती है कि लोकतंत्र को चलाने वाले नेताओं ने आम आदमी को सड़क पर ला दिया है, और वो भी सिर्फ इसलिए ताकि वो उस लोकतंत्र का सही मज़ा ले पाए।

सोमवार, 23 जून 2008

न मिले सुर मेरा तुम्हारा ! (हास्य-व्यंग्य)

संगीत प्रतिभाओं के अलावा इन दिनों इन कार्यक्रमों के जजों की भी काफी धूम है। जिस तरह ये लोग चिल्लाते पाए जाते हैं, हो सकता है एक पल के लिए आप ठिठक जायें....सोचने लगें...अरे! ऐसी आवाज़ मैंने कहां सुनी है और फिर याद आये बस अड्डे पर! अक्सर कन्डक्टर इसी अंदाज़ में चिल्ला-चिल्ला कर सवारियों को आवाज़ लगाते हैं। खैर, इस समानता का एक फायदा ये है कि कल को अगर इनके पास काम न भी रहे तो करियर के रूप में एक विकल्प और है।

बहरहाल, भला इंसान जो आंख बंद कर सुर साध रहा था गाना ख़त्म कर जैसे ही आंख खोलता है, जज चिल्लाता है, तुम्हारी हिम्मत कैसे पड़ी ये गाना गाना की ? ये कुछ ऐसे ही साउंड करता है जैसे होटल मालिक बैरे को डांट रहा हो कि तुम्हारी हिम्मत कैसे पड़ी ये खाना खाने की। लो नोट्स पर तुमने क्या गाया, कुछ साफ नहीं था और हाई नोट्स तो तुमने लगाये ही नहीं। गायक परेशान है। हे ईश्वर! ये नोट्स कब मेरा पीछा छोड़ेंगे। स्कूल में कभी नोट्स बनाए नहीं, कॉलेज में पढ़े नहीं, इन सबसे भाग कर गायक बनने चला तो ये महोदय बता रहे हैं कि तुम नोट्स का सत्यानाश कर रहे हो।

खैर, जैसे-तैसे लड़का खुद को सम्भालता है, शब्दों को तलाशता है और माफी मांगने ही लगता है कि दूसरा जज बीच में कूद पड़ता है, ‘नो स्माइल खबरदार जी, आप कैसे कह सकते हैं कि कानफाड़ू राम ने हाई नोट्स नहीं लगाये। अरे! मैं दावा करता हूं जितना अच्छा इसने गाया है उतना तो इस गाने के मूल गायक नगर निगम ने भी नहीं गाया।‘ नो स्माइल के अहम को ठेस लगती है। वो चिल्लाता है- हिमेश सुख-चैनलिया जी, तो आप कहना क्या चाहते हैं, मुझे गायकी की समझ नहीं? हिमेश सुख-चैनलिया चूंकि आदतन मुंहफट है, कह देता है, नो स्माइल' जी, अगर आपको कानफाड़ू राम का ये गाना समझ नहीं आया तो मुझे ये कहने में कोई हर्ज़ नहीं कि आपको गायकी की समझ नहीं है। नो स्माइल' का चेहरा जूम इन-जूम आउट, बीस सैकिंड तक नाटकीय संगीत।

नो स्माइल' आपा खोता है 'अबे' तू समझता क्या है अपने आप को ? सुभानल्लाह! इस 'अबे' के साथ ही बातचीत हाईवे से निकल कर पुरानी दिल्ली के गली में घुस गई है। माहौल काफी हद तक ढाबेनुमा हो गया है। जनरल डिब्बे में सफर करने वाला घर बैठा दर्शक ये सब देख रोमांचित है। उसे छह महीने पहले गोमती एक्सप्रेस में हुए एक झगड़े की याद आती है। बुल फाइट के अंदाज़ में लड़ने के लिए तैयार इन धुरंधरों के प्रति उसके मन में आस्था और गहराती है। वो रियलाइज़ करता है उसके जितने बदतमीज़ होने पर जब ये लोग इतने बड़े संगीतकार बन सकते हैं तो वो क्यों नहीं ? चैनल की प्रोजेक्टेडे लड़ाई में दर्शक को सार्थकता मिल जाती है।

शुक्रवार, 20 जून 2008

मुहावरों में पिलती बेचारी सब्ज़ियां (हास्य-व्यंग्य)

बीवी ने अगर सब्ज़ी अच्छी नहीं बनाई तो आप किस पर गुस्सा निकालेंगे? बीवी पर या सब्ज़ी पर। निश्चित तौर पर बीवी पर। लेकिन, इस देश में मर्द चूंकि सदियों से बीवी से डरता रहा है, इसीलिए उसने चुन-चुन कर सब्ज़ियों पर गुस्सा निकाला दिया। यही वजह है कि ज़्यादातर मुहावरों में सब्ज़ियों का इस्तेमाल 'नकारात्मकता' बयान करने में ही किया गया है। मुलाहिज़ा फरमायें।


तू किस खेत की मूली है: एक सर्वे के मुताबिक औकात बताने के लिए इस मुहावरे का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है और अगर आपका खून पानी नहीं हुआ तो ये सुनते ही वो खौल उठेगा और आप झगड़ बैठेंगे। मगर क्या किसी ने सोचा है इससे 'मूली के कॉन्फीडेंस' पर कितना बुरा असर पड़ता होगा ? कितना नुक़सान होता है उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा का?

क्या मानव जाति भूल गई बरसों से मक्खन लगा कर वो इसी मूली के पराठें खाती रही है ? नमक लगी, नीम्बू छिड़की कितनी ही मूलियां रेहड़ियों पर उसके हाथों शहीद हुई हैं। प्याज महंगे होने पर यही मूली सलाद की प्लेंटे भरती आई है। मगर ये एहसान फरामोश इंसान, इसने तो बड़ो-बड़ो को कुछ नहीं समझा, तो ये मूली आखिर किस खेत की मूली है!

थोथा चना बाजे घना- मूली के बाद जिस सब्ज़ी का मुहावरों में सबसे नाजायज़ इस्तेमाल किया गया है, वो चना है। उस पर भी चने का इतने मुहावरों में इस्तेमाल हो चुका है कि अलग से एक पॉकेट बुक निकाली जा सकती है। थोथा चना बाजे घना, अकेला चना भाड़ नहीं भोड़ सकता, लोहे के चने चबाना, चने के झाड़ पर चढ़ाना। ऐसा देश जहां प्रति सैकिंड एक भावना आहत होती है। चने की भावना का क्या ? यक़ीन मानिये अगर सब्ज़ियों की तरफ से मानहानि के मुक़दमें दायर हो सकते, तो हर बंदा चने के खिलाफ एक-आध केस लड़ रहा होता!

एक अनार सौ बीमार:-चरित्र हनन नाम की अगर वाकई कोई चीज़ है, तो अनार से ज़्यादा बदनामी किसी की नहीं हुई। जिंदगी भर आम आदमी अनार का जितना जूस नहीं पीता, उससे कहीं ज़्यादा ये कहावत बोल-बोल कर निकाल देता है। टारगेट कोई, मरा कोई जा रहा और घसीटा जाता है बेचारे अनार को। सोचता हूं अनार को कितनी शर्मिंदगी झेलनी पड़ती होगी, जब उसके बच्चे पूछते होंगे मम्मी लोग आपके बारे में ऐसा क्यों कहते हैं ?

थाली का बैगन- बैगन अपने रंग रुप के चलते बिरादरी में तो राजा है लेकिन कहावतों में उसकी औकात संतरी से ज़्यादा नहीं! किसी को भी रीढ़विहीन, दलबदलू कहना हो तो थाली का बैगन कह दो। इतिहास गवाह है कि किसी भी युग में जनता द्वारा राजा की इतनी भद्द नहीं पिटी गई। गाजर मूली तक ठीक है। मगर बैगन के स्टेट्स का तो ख़्याल रखो। जब से धनिये ने ये कहावत सुनी है वो बैगन को आंख दिखाने लगा है। चल बे! काहे का बैगन राजा। सब पता है तेरी औकात का।

दाल में कुछ काला है- भ्रष्टाचार के नए आयाम स्थापित करते-करते एक रोज़ भारतीय समाज ऐसी जगह पहुंचा जहां सब्ज़ियां कम पड़ गई, लिहाज़ा दालों को निंदा कांड में घसीटना पड़ा। भ्रष्टाचारी घपले करने लगे। शरीफों ने सीधे न बोल कह दिया दाल में कुछ काला है। जांच हुई तो पता चला पूरी दाल ही काली है। फिर दावा किया गया अरे ये तो काली दाल है। इस तरह दाल को गड़बड़ी का प्रतीक बना उसकी मार्केट ख़राब कर दी गई।

लड़के से लड़की नहीं पटी और दोस्तो ने छेड़ दिया क्यों दाल नहीं गली क्या? नाकामी को दाल न गलने से जो़ड़ दिया। हक़ीकत तो ये है कि सभी दालें दो सीटियों में गल जाती है। मुझे नहीं याद आता कि आज तक किसी दाल ने न गलने की ज़िद्द की हो।

इसके अलावा गाजर-मूली की तरह काटना,खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है, करेला नीम चढ़ा सरीखी कुछ ऐसी कहावतें हैं जो बताती हैं कि सब्ज़ियों की ऐसी-तैसी करने में हम कितने लोकतांत्रिक रहे हैं!

बुधवार, 18 जून 2008

प्यार के साइड इफेक्ट्स! (हास्य-व्यंग्य)

कॉलेज चुनने को लेकर लड़कों के सामने एक सवाल यह भी होता है कि गर्लफ्रेंड किस कॉलेज में जा रही है। वो कौन-सा सब्जेक्ट ले रही है। अच्छे-भले पढ़ाकू भी प्यार में बेकाबू हो जाते हैं। बनना तो कलेक्टर चाहते थे, मगर दाखिला होम साइंस मे ले लिया। इस पर भी मज़ा ये कि जिस रुपमती के लिए करियर दांव पर लगा दिया, उसे कानों-कान इसकी ख़बर नहीं।


चार साल स्कूल में साथ गुज़ारे। कॉपियों के पीछे तीर वाला दिल बना उसका नाम लिखा। दोस्तों में उसे ‘तुम्हारी भाभी’ कहा। स्कूल में ही पढ़ने वाले ‘उसकी सहेली के भाई’ से दोस्ती की। उसी मास्टर से ट्यूशन पढ़ी जहां वो जाती थी। इस हसरत में कि घंटा और पास रहेंगे, बावजूद इसके बात करने की हिम्मत नहीं।

फिर एक रोज़ ‘प्रेम पत्रों के प्रेमचंद’ टाइप एक लड़के से लैटर लिखवाया। सोचा, आज दूं, कल दूं, स्कूल में दूं या बाहर दूं। डायरेक्ट दूं या सहेली के भाई से कूरियर करवाऊं जिससे इसी दिन के लिए दोस्ती गांठी थी। मगर किया कुछ नहीं। बटुए में पड़े-पड़े ख़त की स्याही फैल गई। पता जानने के बावजूद उसकी डिलीवरी नहीं हो पाई। वो पर्स में ही पड़ा रहा। और ये बेचारा बिना महबूब का नाम पुकारे हाथ फैलाए खड़ा रहा।


मगर अब कॉलेज में पहुंचे गए हैं। दोस्तों ने कहा रणनीति में बदलाव लाओ। रिश्ते की हालत सुधारना चाहते हो तो पहले अपना हुलिया सुधारो। दर्जी से पैंटें सिलवाना बंद करो, रेडीमेड लाओ। अपनी औकात भूल आप उनकी बात मानते हैं। बरबादी के जिस सफर पर आप निकले हैं उस राह में हाइवे आ चुका है। आप गाड़ी को चौथे गीयर में डालते हैं।

और इसी क्रम में आप गाड़ी के लिए बाप से झगड़ा करते हैं। वो कहते हैं कि बाइक की क्या ज़रुरत है? 623 कॉलेज के आगे उतारती है। इस ख़्याल से ही आप भन्ना जाते हैं। अगर उसने बस से उतरते देख लिया तब वो मेरे वर्तमान से अपने भविष्य का क्या अंदाज़ा लगाएगी। आप ज़िद्द करते हैं। मगर वो नहीं मानते। आप इस महान नतीजे पर पहुंचते हैं कि सैटिंग न होने की असली वजह मेरा बाप है। और ऐसा कर वो खुद को बाप साबित भी कर रहा है। इधर जिस लड़की के लिए आप बाप को पाप मान बैठे हैं उसे इस दीवाने की अब भी कोई ख़बर नहीं।


हो सकता है फिर एक रोज़ आपको लड़की के हाथ में अंगूठी दिखे और आप सोचें कि करियर की बेहतरी के लिए उसने पुखराज पहना है। पर सवाल ये है कि पुखराज ही पहना है तो सहेलियां उसे बधाई क्यों दे रही हैं!

गुरुवार, 12 जून 2008

अधूरी समझदारी!

सिलेंडर पचास रुपये महंगा हुआ और पेट्रोल पांच रुपये। सफाई में प्रधानमंत्री ने कहा कि बड़ी मजबूरी में ये 'मामूली' वृद्धि करनी पड़ी। मतलब, मजबूरी तो बड़ी थी फिर भी वो ज़्यादा मजबूर नहीं हुए। सोचिए, अगर मजबूरी के हिसाब से वो मजबूर हो जाते तो सिलेंडर दो हजार का भी हो सकता था और पेट्रोल पांच सौ का भी। मगर, मजबूरी के अनुपात में मजबूर न होने के श्री सिंह के अदम्य साहस के कारण ऐसा नहीं हुआ।

इस पर भी तारीफ करने के बजाए हम उन्हें कोस रहे हैं। मैं पूछता हूं रसोई गैस महंगी हो भी गई तो क्या? गैस की ज़रुरत तो तब पड़ेगी न जब कुछ पकाओगे और पकाओगे तब जब कुछ खरीद पाओगे।

इस स्तर पर भी सरकार की संवेदनशीलता को समझिए। रसोई गैस महंगी करने से पहले उसने सब्जियां महंगी कर दी। मतलब भूकंप से बचने का कोई रास्ता न दिखे तो मकान तोड़ बेफिक्र हो जाओ। भूकंप आ भी गया तो क्या? गैस महंगी कर सरकार जो भूकंप लाई है उसका क्या अफसोस? महंगाई बढ़ा..उसने चूल्हा तो पहले ही फोड़ दिया था। ताज़ा 'वार' तो मलबा हटाने की कार्रवाई भर है!

और चिल्लाने वाले लोग हैं कौन? देश के अस्सी करोड़ लोग तो दिन के बीस रुपये भी नहीं कमाते। ये लोग तो रसोई गैस यूज़ कर नहीं सकते। पेट्रोल क़ीमतों से इनका क्या सरोकार? इन्हें कौन-सा लॉंग ड्राइव पर जाना है। रही बात आत्महत्या करने की तो गांव-देहातों में पेड़ से लटक मरने का फैशन है, पेट्रोल छिड़क कर आग लगाना तो निहायत ही सामंती और शहरी तरीका है।

बाकी लोगों की तरह मेरी सरकार से कोई शिकायत नहीं है। मै बस यही चाहता हूं कि नासमझ जनता को समझाने के लिए वो कुछ लोकप्रिय कदम उठाए।

मसलन, सबसे पहले सर्वशिक्षा अभियान का ढकोसला ख़त्म हो। लोगों को समझाया जाए भाई लोगों, विकास का जो मॉडल हम अपना रहे हैं उसमें सरकारी स्कूल वालों के लिए कोई जगह नहीं है। पढ़-लिख कर ख़्वामखाह कुंठा पालोगे। खुद को बेरोज़गार मानोगे।

जो दिहाड़ी मज़दूरी तुम्हें अठाराह की उम्र में करनी है वो बारह में करो। हम बाल मज़दूरी से भी रोक हटा देंगे। दुकानों-ढाबों में काम करो। व्यवसायियों की सस्ती लेबर बनो। इससे उत्पाद लागत कम होगी। जनता को फायदा होगा। तुम्हारे मां-बाप को अर्निंग हैंड मिलेगा जिससे इस मंहगाई में उनकी भी कुछ मदद होगी। इस पर भी तसल्ली नहीं हुई तो चलो हम इच्छा मृत्यु की इजाज़त दे देते हैं। अब खुश!

शुक्रवार, 6 जून 2008

लैट्स प्ले निंदा-निंदा

भारत जैसे देश में आम आदमी के लिए निंदा से सस्ता मनोरंजन कोई नहीं है। निंदा एक ऐसा खेल है जो हमेशा 'डबल्स' में खेला जाता है। इसलिए ज़रुरी है कि पहले अच्छा पार्टनर ढूंढ लें। ऐसा शख्स.. जिसके मन में उतना ही ज़हर हो जितना आपके मन में है। इससे 'मोमन्टम' बनता है। निंदा वैसे तो कई विषयों पर की जा सकती है लेकिन इंसानी निंदा सबसे रसीली होती है।

एक अच्छे निन्दक के लिए ज़रुरी है कि वो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से दोस्ती करे। जितना बड़ा दायरा होगा, उतने ही ज़्यादा आप्शंस पास रहेंगे। अक्सर देखने में आता है कि दो-चार लोगों की बुराई करते करते बोरियत होने लगती है। इसलिये ज़रुरी है कि दस-पंद्रह लोगों से नज़दीकी बढ़ायी जाये। पार्टनर के साथ निंदा करने से पहले एक लिस्ट बना लें। जिसकी निंदा होती जाये उसके नाम के आगे टिक लगा ले। ऐसा करने से रेपिटिशन से बचेंगें।

निंदा के दौरान जिसे भी आप निपटा रहे हैं, उसका असली नाम कभी न लें। क्रिएटिविटी और गालियों के जैसे संस्कार आप में है, उसके हिसाब से एक 'उपनाम' दें। ऐसा करने से निंदा का मज़ा दोगुना हो जाता है और ज़रुरी पंच भी मिल जाता है।

सिर्फ बुरे आदमी की निंदा न करें। ऐसा कर आप 'सेफ' खेलेंगें। जिसकी सारी दुनिया बुराई कर रही है, उसकी बुराई कर 'निंदा साहित्य' में आप अमर योगदान नहीं दे पायेंगें। ऐसे लोगों की बुराई करें जो 'भले आदमी' के तौर पर बदनाम हैं। ऐसा करना चैलेंजिंग है।

मसलन...कोई आदमी काम करने में अच्छा है, लेकिन कम बोलता है। तो आप कहिये साला अकडू है... पता नहीं खुद को क्या समझता है। कोई आदमी बहुत लम्बा है, और आपको उसकी हाइट से जैलिसि है, तो कहिये साला ऊंट, कोई आदमी वैल मैनर्ड है और आप शर्मिंदा होते हैं कि मैं इतना तमीज़दार नहीं....तो कहिये साला काइयां हैं। ऐसा कर आप एक भले आदमी की इमेज तो स्पॉइल करेंगे ही, अपनी हीनता पर भी विजय पा लेंगें।

नैतिकता के मुद्दे पर कभी किसी की निंदा न करें। ऐसे वक़्त आप प्रगतिशील बन जायें। कोई आदमी शादी के बाद किसी से सम्बन्ध रखता है तो फौरन कहिये...यार ये उसकी मर्जी है....हमें 'इन्डिविजुअल फ्रीडम' की रेस्पेक्ट करनी चाहिये। उस आदमी की जगह खुद को रखिये, खुद-ब-खुद उसके बचाव में दलीलें मिलती जायेंगी!

एक अच्छे निन्दक की ख़ासियत ये है कि उसे खुद नहीं पता होना चाहिये कि वो किस विचारधारा का हिमायती है। ध्यान रखिये आपका काम निन्दा करना है। बखिया उधेड़ना है। सही-गलत के चक्कर में पड़ेंगे तो इस खेल का पूरा मज़ा नहीं ले पायेंगे। निन्दा करने का जोश कभी ढीला न पड़े.....इसलिये ज़रुरी है कि हमेशा खुद को समझाते रहें कि जो आप डिज़र्व करते हैं, वो आपको मिला नहीं।

और अंत में निन्दक ध्यान रखें... आलोचना और निंदा में फर्क होता है। आलोचना में तर्क होता है, सामने वाले की बेहतरी की इच्छा होती है। लेकिन निंदा में ऐसा कुछ नहीं। निंदा का मतलब है सामने वाले को सिरे से खारिज़ करना। मतलब....स्साला घटिया आदमी है।

बुधवार, 4 जून 2008

महंगाई पीड़ित लेखक का ख़त (हास्य-व्यंग्य)

सम्पादक महोदय,

पिछले दिनों महंगाई पर आपके यहां काफी कुछ पढ़ा। कितने ही सम्पादकीयों में आपने इसका ज़िक्र किया। लोगों को बताया कि किस तरह सरिया, सब्ज़ी, सरसों का तेल सब महंगे हुए हैं और इस महंगाई से आम आदमी कितना परेशान है। ये सब छाप कर आपने जो हिम्मत दिखाई है उसके लिए साधुवाद। हिम्मत इसलिए कि ये सब कह आपने अनजाने में ही सही अपने स्तम्भकारों के सामने ये कबूल तो किया कि महंगाई बढ़ी है।दो हज़ार पांच में महंगाई दर दो फीसदी थी, तब आप मुझे एक लेख के चार सौ रुपये दिया करते थे, यही दर अब सात फीसदी हो गई है लेकिन अब भी मैं चार सौ पर अटका हूं।आप ये तो मानते हैं कि भारत में महंगाई बढ़ी है, मगर ये क्यों नहीं मानते कि मैं भारत में ही रहता हूं? आपको क्या लगता है कि मैं थिम्पू में रहता हूं और वहीं से रचनाएं फैक्स करता हूं? बौद्ध भिक्षुओं के साथ सुबह-शाम योग करता हूं? फल खाता हूं, पहाड़ों का पानी पीता हूं और रात को 'अनजाने में हुई भूल' के लिए ईश्वर से माफी मांग कर सो जाता हूं! या फिर आपकी जानकारी में मैं हवा-पानी का ब्रेंड एम्बेसडर हूं। जो यहां-वहां घूम कर लोगों को बताता है कि मेरी तरह आप भी सिर्फ हवा खाकर और पानी पीकर ज़िंदा रह सकते हैं।महोदय, यकीन मानिये मैंने आध्यात्म के ‘एके 47’ से वक़्त-बेवक़्त उठने वाली तमाम इच्छाओं को चुन-चुन कर भून डाला है। फिर भी भूख लगने की जैविक प्रक्रिया और कपड़े पहनने की दकियानूसी सामाजिक परम्परा के हाथों मजबूर हूं। ये सुनकर सिर शर्म से झुक जाता है कि आलू जैसों के दाम चार रुपये से बढ़कर, बारह रुपये किलो हो गए, मगर मैं वहीं का वहीं हूं। सोचता हूं क्या मैं आलू से भी गया-गुज़रा हूं। आप कब तक मुझे सब्ज़ी के साथ मिलने वाला 'मुफ़्त धनिया' मानते रहेंगे। अब तो धनिया भी सब्ज़ी के साथ मुफ्त मिलना बंद हो गया है।नमस्कार।
इसके बाद लेखक ने ख़त सम्पादक को भेज दिया। बड़ी उम्मीद में दो दिन बाद उनकी राय जानने के लिए फोन किया। 'श्रीमान, आपको मेरी चिट्ठी मिली।' 'हां मिली।' 'अच्छा तो क्या राय है आपकी।' 'हूं.....बाकी सब तो ठीक है, मगर 'प्रूफ की ग़लतियां’ बहुत है, कम से कम भेजने से पहले एक बार पढ़ तो लिया करो!

मंगलवार, 3 जून 2008

जितनी तारीफ की जाये, ज़्यादा है!

जितनी तारीफ की जाये, ज़्यादा है!

तारीफ के मामले में हम हिंदुस्तानी इनकमिंग में यकीन करते हैं और आउटगोइंग से परहेज़। वजह, हम जानते हैं कि तारीफ कर देने का मतलब है सामने वाले को मान्यता देना और ऐसा हम कतई नहीं होने देंगे। हम चाहते हैं कि वो भी उतने ही संशय में जियें जितने में हम जी रहे हैं।

अगर किसी दिन हमारा कोई कलीग ब्रेंडेड शर्ट पहन कर आया है और वो उम्मीद कर रहा है कि हम शर्ट की तारीफ करें तो हमें नहीं करनी है। जैलिसी का पहला नियम ही ये है कि सामने वाला जो चाहता है, उसे मत दो! वो तारीफ सुनना चाहता है आप मत करो। अगर वो तंग आकर खुद ही बताने लगे कि मैंने कल शाम फलां शोरूम से अपने बुआ के लड़के के साथ जा ये शर्ट खरीदी थी तो भी हमें उसके झांसे में नहीं आना। इसके बाद भी वो अगर बेशर्म हो पूछ ही ले बताओ न कैसी लग रही है ? फिर भी आपके पास दो आप्शंस है।

पहला ये कि चेहरे पर काइयांपन ला मुस्कुरा दें, अब ये उसकी सिरदर्दी है इसका मतलब निकाले। दूसरा ये कि अगर आपकी अंतरआत्मा अब भी ज़िंदा है, और वो आपको धिक्कारने लगी है कि तारीफ कर, तारीफ कर..... तो 'ठीक है' कह कर छुटकारा पा लें। लेकिन ध्यान रहे... भूल कर भी आपके मुंह से 'बढ़िया', 'शानदार' या 'डैशिंग' जैसा कोई शब्द फूटने न पाये।

'दुनिया देख चुके' टाइप एक सीनियर ने मुझे बताया हमें तो अपनी प्रेमिकाओं तक की तारीफ नहीं करनी चाहिये। अगर वो ज़्यादा इनसिस्ट करें तो कह दो, डियर, तारीफ 'उस खुदा की' जिसने तुम्हें बनाया, या फिर तुम्हारी तारीफ के लिए 'मेरा पास शब्द नहीं है'। मतलब ये कि या तो आप ऊपर वाले को क्रेडिट दे दें, या फिर ‘सीमित शब्दावली' का बहाना बना अपनी जान छुड़ा लें, लेकिन तारीफ मत करें। वजह, एक बार अगर इमोशनल हो कर आपने प्रेमिका की तारीफ कर दीं, तो वो बीवी बनने के बाद भी उन बातों को 'सच मानकर' याद रखेगी। आप शादी के बाद झूठ बोलने का मोमेंटम बना कर नहीं रख पायेंगे। और फिर वो सारी उम्र आपको 'बदल' जाने के ताने देगी।

यहां तक तो ठीक है। मैंने सीनियर से पूछा मगर सर, हमारी भी तो इच्छा होती है कि कुछ अच्छा करें तो तारीफ हो। फिर? सीनियर तपाके से बोले, बाकी चीज़ों की तरह तारीफ के मामले में भी आत्मनिर्भर बनो! घटिया लेखक होने के बावजूद तुम्हें लगता है कि तुम्हारी किसी रचना की तारीफ होनी चाहिये और आसपास के लोगों में इतनी अक्ल नहीं है तो खुद ही उसकी तारीफ करो! वैसे भी हर रचना समाज के अनुभवों से निकलती है, उसमें समाज का उतना ही बड़ा योगदान होता है, जितना लेखक का। ऐसे में उस रचना की तारीफ कर तुम अपनी तारीफ नहीं कर रहे, बल्कि समाज का ही शुक्रिया अदा कर रहे हो!