गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

खेल है झेल!

कहा जा रहा है कि फिरोजशाह कोटला मैदान में जो कुछ हुआ उसे भारत कलंकित हुआ है। जिस पिच पर ये मैच खेला गया, वो डीडीए की घटिया राजनीति से भी ज़्यादा बुरी थी। उस विकेट पर अगर कुछ देर और मैच होता, तो भारत-श्रीलंका के आपसी सम्बन्ध खतरे में पड़ सकते थे। 23 ओवर की बल्लेबाज़ी में श्रीलंकाई बल्लेबाज़ों ने इतने ज़ख्म खाए, जितने उन्होंने लाहौर आतंकी हमले भी नहीं खाए होंगे। अब सवाल उठाए जा रहे हैं कि इस सबके लिए ज़िम्मेदार कौन हैं? लोग तंज कर रहे हैं कि अगर ढंग की पिच नहीं बना सकते तो बेहतर होगा कि स्टेडियम को बैंकवेट हॉल में तब्दील कर दो। उसे नगर निगम के अधीन कर, शादियों के लिए किराए पर चढ़ा दो।

मगर समस्या की गहराई में उतरने पर मुझे लगता है कि हमें हर खेल शौकिया ही खेलना चाहिए, पेशेवर या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने का विचार छोड़ देना चाहिए। फुटबॉल खेलें, तो मोहन बगान को मोहम्डन स्पोर्टिंग से खेलना चाहिए। हॉकी खेलें, तो इंडियन ऑयल को रेलवे से खेलना चाहिए और क्रिकेट खेलें तो मुम्बई और दिल्ली ही आपस में खेलें, तो बेहतर होगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने पर एक तो परफोर्म करना पड़ता है और दूसरा उसका आयोजन करना होता है। हमें कोई ज़रूरत नहीं है कि हॉकी में हॉलेंड से छह-एक से हार अपनी भद्द पिटवाएं। आठ लोगों की फर्राटा दौड़ में नंवे स्थान पर आएं। कॉमनवेल्थ खेलों के रूप में उड़ता तीर ले हर दिन अपनी बेइज्ज़ती करवाएं। हॉकी विश्व कप का आयोजन का ज़िम्मा लें हर महीने अंतराष्ट्रीय हॉकी फेडरेशन से डांट खाएं।

हम जैसे हैं, वैसे ही बेहतर हैं। अराजकता हमारी कार्य संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। अब सिर्फ इसलिए हम अपने संस्कार नहीं त्याग सकते क्योंकि फलां आयोजन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है। किसी भी कीमत पर चलताऊ रवैये के प्रति हमें अपनी प्रतिबद्धता कम नहीं करनी है। लेकिन ये सब तभी हो सकेगा जब हम सिर्फ घर पर ही अपने भाई-बहनों के साथ खेलें। उसमें भी आइस-पाइस, कैरम, लूडो हमारी प्राथमिकता हो। क्रिकेट खेलें भी तो दोस्तों के साथ घर की बॉलकनी में या फिर गली में। किसी भी स्तर पर खेल अपना स्तर सुधारने की हमें सोचनी भी नहीं चाहिए। वरना होगा ये कि कोई भी माइकल फेनेल हमें कभी भी झाड़ लगा देगा। वेटलिफ्टिंग फेडरेशन डोप टेस्ट में फेल होने पर हम पर दो साल का बैन लगा देगी। हमें तो राष्ट्रीय स्तर के ऐसे ही आयोजन चाहिए जहां न कोई डोप टेस्ट हो न कोई अंतरराष्ट्रीय मापदंड हो, तभी कोटला जैसे कलंकों से बचा जा सकेगा! और अपनी वाली करते हुए हम अपने तरीके से खेल पाएंगें!

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

चरित्रहीनता का जश्न!

टाइगर वुड्स मामले पर पूरे अमेरिका में हंगामा मचा हुआ है। हर कोई उनकी प्रेमिकाएं और तलाक के बाद उनकी बीवी को मिलने वाला पैसा गिनने में लगा है। बताया जा रहा है कि कैसे योजनाबद्ध तरीके से वुड्स ने इतने सालों तक पत्नी और परिवार को धोखा दिया। मगर ये पूरा हंगामा मेरी समझ से परे है। भारत जैसे देश में ऐसी हाय-तौबा मचती तो समझा जा सकता था, मगर अमेरिका, जो सालों से ‘अवैध सम्बन्धों की अंतरराष्ट्रीय राजधानी’ रहा है, वहां ऐसी चीख-पुकार समझ से परे है। ऐसा मुल्क जहां फोटो एल्बम दिखाते समय मांए बच्चों को बताती हैं कि बेटा वो पीले रंग की शर्ट में जो मेरा साथ खड़ा है, वो तुम्हारा पहला डैडी है और उनके साथ जो शख्स हरे रंग की शर्ट में बैठा है, वो तुम्हारे पहले डैडी का दूसरा डैडी है, उनके साथ जो लेडी बैठी हैं वो उनकी तीसरी वाइफ हैं और उसके गोद में जो बच्चा है, वो तुम्हारे पहले डैडी का दूसरा भाई है। समझे!

अब ऐसे मुल्क मे टाइगर वुड्स को यूं देखा जा रहा है जैसे चिड़ियाघर में बच्चे असली टाइगर देखते हैं। अपनी ये दुविधा जब मैंने स्थानीय स्तर के कलंक कथाओं के जानकार को बताईं तो उन्होंने इस हौ-हल्ले के पीछे की वजह समझाई। उनका कहना था कि दरअसल किसी भी समाज में सफल आदमी का चरित्रहीन होना लोगों को हज़म नहीं होता। आम मान्यता है कि चरित्र बचा कर ही सफल हुआ जा सकता है। ‘नेक चरित्र’ वो कीमत है जो हर सफल इंसान को चुकानी पड़ती है। इसलिए आम आदमी ये सोच कर ही तसल्ली कर लेता है कि चलो सफल नहीं हुए तो क्या...चरित्रहीन तो हो ही सकते हैं। मगर सेलिब्रिटी को ये छूट नहीं रहती। वो मिसाल बन चुका होता है। उसे आम समाज की चारित्रिक महत्वकांक्षाओं का बीड़ा उठाना होता है। समाज भी उस पर बराबर नज़र रखता है कि कहीं वो बिगड़ने न पाए। ऐसे में जब-कभी टाइगर वुड्स जैसा कोई नौनिहाल सामने आता है तो लोग बौखला जाते हैं। ऐसे में कुछ को अपना आदर्श टूटने की तकलीफ होती है, तो कुछ को इस बात की तसल्ली कि देखो, ये भी हमारी तरफ गिरा हुआ है।

यही वजह है कि आज समूचा अमेरिका टाइगर वुड्स के चारित्रिक पतन का जश्न मना रहा है। अख़बारों में उनकी प्रेमिकाओं की सूची यूं छापी जा रही हैं जैसे वो देश के लिए कुर्बान हुईं वीरांगनाएं हो और ये सब देख लोग फूले नहीं समा रहे कि जो शख्स उनसे जिस अनुपात में सफल था, वो उसी अनुपात में चरित्रहीन भी निकला। अट्ठारह प्रेमिकाएं!

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

लेखक और बीवी!

कोई भी लेखक दस-बीस फीसदी प्रतिभा और सत्तर-अस्सी फीसदी गलतफहमी के दम पर ही लेखक बनता है। ये अहसास और जबरन खुद पर थोपी गई ये ज़िम्मेदारी कि मेरा जन्म कुछ महान करने के लिए हुआ है, लेखक को हमेशा रोज़मर्रा के छोटे-मोटे काम करने से रोकता है। वो मानता है कि बडे़ लोग हमेशा अपने काम की वजह से जाने जाते हैं न कि इसलिए नहाने के बाद तौलिया रस्सी पर डालते हैं या नहीं, या फिर बचपन में मौहल्ले की दुकान से कभी किराना लाए या नहीं।

यहां तक तो सब ठीक है। मगर दिक्कत वहां आती है जब यही लेखक शादी कर बैठता है। वो कचंनबाला जो इसी लेखक की क्रिएटिविटी के गुण गाते नहीं थकती थी, उसे क्या पता कि रचनात्मकता हमेशा पैकेज डील में आती है। जो शख्स उसे दुनिया का सबसे होनहार और अक्लमंद इंसान लगता था, शादी के महज़ तीन महीने में ही वो उसे एलियन लगने लगता है। हर पल वो यही सोचती है कि कोई इंसान इतना गंदा कैसे रह सकता है! इतने चलताऊ रवैये के साथ कैसे जी सकता है! और यहीं से...जी हां दोस्तों, ठीक यहीं से वो प्रक्रिया शुरू होती है जो सालों से रास्ता भटकी लेखक की अक्ल को ठिकाने लाने का काम करती है।

आप अगले लेख के लिए विषय तलाश रहे हैं और बीवी रसोई से आवाज़ लगाती है...ज़रा इधर आना... लाइटर नहीं मिल रहा। आप लेखन से क्रांति की अलख जगाना चाहते हैं, वो लाइटर से चूल्हा जलाना चाहती है। आप सोच रहे हैं कि समाज में अपराध के मामले बढ़ते जा रहे हैं...वो बताती है कि पेस्ट कंट्रोल करवा लेते हैं…अलमारियों में कीड़े-मकौड़े बढ़ते जा रहे हैं। आप दिल का छू ले, ऐसा भाव तलाश रहे हैं...वो फिक्रमंद है कि सब्जी के भाव फिर बढ़ गए हैं!

आप दस दिन तक बीवी की डांट खाने के बाद पिछले कमरे का पंखा ठीक करवाते हैं...पता चला कि अगले दिन उसी कमरे की ट्यूब खराब हो गई। ट्यूब ठीक भी नहीं हुई थी कि दो दिन बाद बाथरूम में सीलन आ जाती है। बिग बाज़ार चलो...महीने का राशन लाना है। इस संडे को मुझे चांदनी चौक वाली बुआ से मिलवा लाओ। अगली छुट्टी पर मौसी के बेटे सोनू को घर बुला लेते हैं। एक ही शहर में रहता है...आज तक कभी बुलाया नहीं...

इस सब के बावजदू समीक्षक ताना कसते हैं...लेखक अपना बेहतरीन शुरू के सालों में ही देता है...बाद में तो सब खुद को ही रिपीट करते हैं। बनियान का विज्ञापन ठीक कहता है...लाइफ में हो आराम तो आइडियाज़ आते हैं। आराम हो तब न...

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

द ग्रेट इंडियन वेडिंग तमाशा!

ये मेरे मित्र की मति का शहादत दिवस है। आज वो शादी कर रहा है। मैं तय समय से एक घंटे बाद सीधे विवाह स्थल पहुंचता हूं, मगर लोग बताते हैं कि बारात आने में अभी आधा घंटा बाकी है। मैं समझ गया हूं कि शादी पूरी भारतीय परम्परा के मुताबिक हो रही है। तभी मेरी नज़र कन्या पक्ष की सुंदर और आंशिक सुंदर लड़कियों पर पड़ती है। सभी मेकअप और गलतफहमी के बोझ से लदी पड़ी हैं। इस इंतज़ार में कि कब बारात आए और वर पक्ष का एक-एक लड़का खाने से पहले, उन्हें देख गश खाकर बेहोश हो जाए।

इस बीच ध्वनि प्रदूषण के तमाम नियमों की धज्जियां उड़ाती हुई बारात पैलेस के मुख्य द्वार तक पहुंचती है। ये देख कि उनके स्वागत में दस-बारह लड़कियां मुख्य द्वार पर खड़ी हैं, नाच-नाच कर लगभग बेहोश हो चुके दोस्त, फिर उसी उत्साह से नाचने लगते हैं। किराए की शेरवानी में घोड़ी पर बैठा मित्र पुराने ज़माने का दरबारी कवि लग रहा है। उम्र को झुठलाती कुछ आंटियां सजावट में घोडी को सीधी टक्कर दे रही हैं। और लगभग टुन्न हो चुके कुछ अंकल, जो पैरों पर चलने की स्थिति में नहीं हैं, धीरे-धीरे हवा के वेग से मैरिज हॉल में प्रवेश करते हैं।


अंदर आते ही बारात का एक बड़ा हिस्सा फूड स्टॉल्स पर धावा बोल देता है। मुख्य खाने से पहले ज़्यादातर लोग स्नैक्स की स्टॉल का रुख करते हैं। मगर पता चलता है कि वो तो बारात आने से पहले ही लड़की वालों ने निपटा दीं। ये सुन कुछ रिश्तेदारों को आनन्द आ जाता है। इतना मज़ा शायद उन्हें गोभी मंचूरियन खाने में नहीं आता, जितना ये सुन कर आया। बाकी लोग खाने की स्टॉलस की तरफ लपकते हैं। एक प्लेट में सब्ज़ियां, एक में रोटी। फिर भी चेहरे पर अफसोस है कि ये प्लेट इतनी छोटी क्यों है? कुछ का बस चलता तो घर से परात ले आते। कुछ पेंट की जेब में डाल लेते।

खाते-खाते कुछ लोग बच्चों को लेकर परेशान हो रहे हैं। भीड़ की आक्रामकता देख उन्हें लगता है कि पंद्रह मिनट बाद यहां कुछ नहीं बचेगा। बच्चा कहीं दिखाई नहीं दे रहा। मगर उसे ढूंढने जाएं भी तो कैसे...कुर्सी छोड़ी तो कोई ले जाएगा। या तो बच्चा ढूंढ लें या कुर्सी बचा लें। इसी कशमकश में उन्हें डर लगने लगा है कि कहीं वो सगन के पैसे पूरे कर भी पाएंगे या नहीं। उनका नियम है हर बारात में सौ का सगन डाल कर दो सौ का खाते हैं। मगर लगता है कि आज ये कसम टूट जाएगी।

वहीं कोने में दो आंटियां हाथ में अमरस का गिलास थामे निंदा रस का आनन्द ले रही हैं। वो चुन-चुन कर व्यवस्था में से कीड़े निकाल रही हैं। एक को मैरिज हॉल पसंद नहीं आया तो दूसरी को खाना। वो भारी गुस्से में हैं। उनका बस चले तो अभी लड़की वालों को खा जाएं। मगर मैं देख पा रहा हूं कि इस बुराई में वो एक सुकून भी महसूस कर पा रही हैं। जिस अव्यवस्था से उन्हें तकलीफ हुई है...लगता है वो उस तकलीफ के लिए अरसे से तरस रही थीं।

तभी अचानक कुछ लोग गेट की तरफ भागते हैं। पता चलता है कि लड़के के फूफा किसी बात पर नाराज़ हो गए हैं। दरअसल, उन्होंने वेटर को पानी लाने के लिए कहा था, मगर जब दस मिनट तक पानी नहीं आया तो वो बौखला गए। दोस्त के पापा, चाचा और बाकी रिश्तेदार फूफा के पीछे पानी ले कर गए हैं। इधर मैं देखता हूं कि लड़की के परिवारवाले बिना किसी कसूर के ही शर्म से पानी-पानी हो रहे हैं।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

जूत्यार्पण नहीं, माल्यार्पण के हैं हक़दार!

सड़क किनारे जिस रेहड़ी वाले से मैं सब्ज़ी खरीद रहा हूं, वहीं अचानक एक पुलिसवाला आकर रुकता है। वो इशारे से सब्ज़ीवाले को साइड में बुलाता है। वापिस आने पर जब मैं सब्जीवाले से बुलाने की वजह पूछता हूं, तो वो पहले कुछ हिचकिचाता है। फिर कहता है कि यहां खड़े होने के ये (पुलिसवाला) रोज़ तीस रूपये लेता है। करूं भी क्या मेरे पास और कोई चारा भी नहीं है। दुकान यहां किराए पर ले नहीं सकता और रेहड़ी लगानी हैं, तो इन्हें पैसे तो देने ही होंगे।


घर आते समय जब मैं पूरे वाकये को याद कर रहा था तो मन पुलिसवाले के लिए श्रद्धा से भर गया। यही लगा कि आज तक किसी ने पुलिसवालों को ठीक से समझा ही नहीं। हो सकता है कि ऊपर से देखने पर लगे कि पुलिस वाले भ्रष्ट हैं, गरीब रेहड़ी वालों से पैसे ऐंठते हैं, मगर ये कोई नहीं सोचता कि अगर वो वाकई ईमानदारी की कसम खा लें तो इन गुमटी-ठेलेवालों का होगा क्या? पुलिस का ये ‘मिनी भ्रष्टाचार’ तो लाखों लोगों के लिए रोज़गार की वैकल्पिक व्यवस्था है। जो सरकार इतने सालों में इन लोगों के लिए काम-धंधे का बंदोबस्त नहीं कर पाई उनसे दस-बीस रूपये लेकर यही पुलिसवाले ही तो इन्हें संभाल रहे हैं। इतना ही नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में पुलिसवाले अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं, मगर हममें से किसी ने आज तक उन्हें सराहा ही नहीं।

मसलन, पुलिसवालों पर अक्सर इल्ज़ाम लगता है कि वो अपराधियों को पकड़ते नहीं है। मगर ऐसा कहने वाले सोचते नहीं कि जितने अपराधी पकड़े जाएंगे उतनों के खिलाफ मामले दर्ज करने होंगे। जितने मामले दर्ज होंगे उतना ज़्यादा अदालतों पर काम का बोझ बढ़ेगा। जबकि हमारी अदालतें तो पहले ही काम के बोझ तले दबी पड़ी है। ऐसे में पुलिसवाले क्या मूर्ख हैं जो और ज़्यादा से ज़्यादा अपराधियों को पकड़ अदालतों का बोझ बढ़ाएं। लिहाजा़, पुलिसवाले या तो अपराधियों को पकड़ते ही नहीं और पकड़ भी लें तो अदालत के बाहर ही मामला ‘सैटल’ कर उन्हें छोड़ दिया जाता है।

अक्सर कहा जाता है कि अपराध से घृणा करो अपराधी से नहीं। हमारे पुलिसवाले भी ऐसा सोचते हैं। यही वजह है कि अपनी ज़ुबान और आचरण से वो हमेशा कोशिश करते हैं कि पुलिस और अपराधी में भेद ही ख़त्म कर दें। इस हद तक कि सुनसान रास्ते पर खूंखार बदमाश और पुलिसवाले को एक साथ देख लेने पर कोई भी लड़की बदमाश से ये गुहार लगाए कि प्लीज़, मुझे बचा लो मेरी इज्ज़त को ख़तरा है। यही वजह है कि पुलिसवाले अपने शब्दकोष में ऐसे शब्दों का ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं जो किसी शब्दकोष में नहीं मिलते। सिर्फ इसलिए कि पुलिसवाले से पाला पड़ने के बाद अगर किसी का गुंडे-मवाली से सम्पर्क हो तो उसकी भाषायी संस्कारों को लेकर किसी को कोई शिकायत न हो। उल्टे लोग उसकी बात सुनकर यही पूछें कि क्या आप पुलिस में है।

दोस्तों, हम सभी जानते हैं कि निर्भरता आदमी को कमज़ोर बनाती है। ये बात पुलिसवाले भी अच्छे से समझते हैं। यही वजह है कि वो चाहते हैं कि देश का हर आदमी सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर बने। तभी तो सूचना मिलने के बावजूद हादसे की जगह न पहुंच, रात के समय पेट्रोलिंग न कर, बहुत से इलाकों में खुद गुंडों को शह दे वो यही संदेश देना चाहते हैं कि सवारी अपनी जान की खुद ज़िम्मेदार हैं। सालों की मेहनत के बाद आज पुलिस महकमे ने अगर अपनी गैरज़िम्मेदार छवि बनाई है तो सिर्फ इसलिए कि देश की जनता सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर हो पाए। हम भले ही ये मानते हों कि कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है मगर पुलिस के मुताबिक वो हमारा निजी विषय है।


अब आप ही बताइये दोस्तों ऐसी पुलिस जो गरीब तबके को रोज़गार मुहैया कराए, अदालतों का बोझ कम करे, सुरक्षा के मामले में जनता को आत्मनिर्भर होने की प्रेरणा दे और अपराधियों के प्रति सामाजिक घृणा कम करने के लिए खुद अपराधियों-सा सलूक करे, क्यों…आख़िर क्यों ऐसी पुलिस को हम वो सम्मान नहीं देते जिसकी की वो सालों से हक़दार है।

सोमवार, 23 नवंबर 2009

लौह राष्ट्र!

ऑफिस के रास्ते की मुख्य सड़क पर कुछ दिन पहले नाइट-आई लगाई गईं। ये देख तसल्ली हुई कि रात के समय सुविधा होगी। मगर क्या देखता हूं कि कुछ ही दिनों में एक-एक कर सभी नाइट-आई गायब हो गईं। सोचा तो यही लगा कि लोहे के खांचे में फिक्स होने के कारण उठाईगिरे उस पर हाथ साफ कर गए। खैर, नाइट-आई कवर तो अपनी जगह है यहां तो लोग बिजली के तार तक नहीं छोड़ते और तो और गटर पर रखे लोहे के ढक्कन तक उठा ले जाते हैं।

अपने एरिया के जिस पार्क में मैं जाता हूं वहां रखे सभी बेंच यहां-वहां से टूटे-फूटे हैं। माली से पूछा तो उसने बताया कि भाईसाहब लोहे के ठीक-ठाक पैसे मिल जाते हैं इसलिए रात को जो नशेड़ी यहां आते हैं वो मौका मिलने पर बेंच तोड़ उसका लोहा कबाड़ी को बेच देते हैं।

ये सुन गर्दन घुटने तक शर्म से झुक गई। सोचने लगा कि इतना पैसा, जुनून और सुविधाएं होने के बावजूद भले ही हम क्रिकेट में ऑस्ट्रेलिया से आज तक लोहा न ले पाए हों, हमारी फिल्में तकनीक और रचनात्मकता में हॉलीवुड फिल्मों के आगे कहीं न टिकती हों, देसी कम्पनियां अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में विदेशी कम्पनियों से मुंह की खाती हों और भले ही हमें ये एहसास है कि युद्ध होने पर हम चीन से लोहा नहीं ले पाएंगे, मगर इसके उल्ट अपने देश में हम हर जगह लोहा ले रहे हैं। कैसी विडम्बना है कि जो दुनिया हमें किसी भी क्षेत्र में लोहा न ले पाने के लिए कोसती है, उसे ज़रा भी इल्म नहीं कि हम तो सिर्फ लोहा ही लेते हैं।

सड़क के बीच डिवाइडर का लोहा हम नहीं छोड़ते। यहां-वहां खराब पड़े लैम्प पोस्टों का लोहा हम बाप का माल समझ बेच डालते हैं। यहां तक कि सरकारी इमारतों का बांउड्री ग्रिल भी हम उखाड़ लेते हैं और कोई हमारा कुछ नहीं उखाड़ पाता। इस पर भी मुझे ज़्यादा शिकायत नहीं है। मेरी आपत्ति ये है कि इतना लोहा खाने के बाद भी ये देश एक भी गैर विवादित लौह पुरूष नहीं पैदा कर पाया। जो पहले हुए उनकी उपलब्धियों पर हाल-फिलहाल लोग पानी फेरने में लगे हैं और जो स्वयंभू लौह-पुरूष हैं वो देश तो दूर पार्टी तक में अपना लोहा नहीं मनवा पाए। इतनी चुनावी जंग हारे कि वो लौह पुरूष से ज़ंग पुरूष हो गए। लौह पुरूष न मिलने का ग़म भी बर्दाश्त है मगर मेरी असल तकलीफ ये है कि इतना लोहा खाने के बाद भी जब आम हिंदुस्तानी डॉक्टर के पास जाता है तो वो आंख में झांक कर यही कहता है ओफ्फ फो...आपमें तो आयरन की कमी है!

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

कॉमनवेल्थ खेलों पर दिल्ली की छाप

दो हज़ार दस कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारी में सरकार जी-जान से जुटी है। इन खेलों के बहाने हमें दुनिया को अपनी ताकत दिखानी है। यही वजह है कि इस आयोजन पर अब तक करोड़ों रूपया लग चुका है और करोड़ों लगाया जाना है। सरकार अपनी तरफ से कोई कमी नहीं रखना चाहती, यहां तक कि उसने दिल्लीवासियों को अगले एक साल में पिछले साठ सालों की गंदी आदतें सुधारने की हिदायत भी दे दी है। ये सब ठीक हैं, मगर मेरा मानना है कि अगर वाकई भारत इन खेलों के ज़रिए अलग छाप छोड़ना चाहता है तो उसे कुछ ऐसा करना चाहिए जिसमें पूरी तरह भारतीयता झलके। मतलब ऐसे खेल करवाए जाएं जो पूरी दुनिया में कहीं और नहीं हो सकते, जिनमें पूरी तरह दिल्ली का फ्लेवर हो। पेश है ऐसे ही कुछ खेलों के सुझाव-

1.जैसा की ख़बर है, साइकलिंग ट्रेक अभी तैयार नहीं हुआ है। मेरा मानना है कि उसे तैयार करवाने की ज़रूरत भी नहीं है। कॉमनवेल्थ खेलों में ये इवेंट दिल्ली की सड़कों पर करवाया जाए। बिल्कुल असल माहौल में। बिना सड़कें खाली करवाए। इधर, बीस-पचास साइकिल सवार एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में हैं। पीछे से ब्लू लाइन बस पीं-पीं कर रही है। सामने सरिए लहराता हुआ ट्रक जा रहा है। साथ में दो किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से गाय चल रही है। वहीं सड़क किनारे कुछ नटखट कुत्ते भौं-भौं कर रहे हैं। इन सबके बीच बिना गिरे, बिना डरे और सबसे महत्वपूर्ण बिना मरे जो फिनिशिंग लाइन तक पहुंचेगा, वही विजेता होगा।

2.दोस्तों, मेरा मानना है कि असली खिलाड़ी वो नहीं है जो पोल वॉल्ट में सात मीटर की छलांग लगा ले या फिर सौ मीटर की फर्राटा दौड़ नौ सैकेंड में पूरी कर दे, असल खिलाड़ी वो है जो पीक आवर में ब्लूलाइन की बस में सीट ढूंढ लें। इसलिए एक इवेंट इससे जुड़ा भी होना चाहिए। आठ-दस खिलाड़ियों को सुबह के वक़्त किसी बस स्टॉप पर खड़ा किया जाए और उन्हें पीछे से आती किसी भीड़ भरी बस में घुस कर सीट ढूंढनी पड़े। जो जिस क्रम में सीट ढूंढेगा उसी क्रम में वो स्वर्ण,रजत और कांस्य का हक़दार होगा।


3.एथलेटिक स्पर्धाओं में एक इवेंट पैदल दौड़ का भी होता है। पैदल दौड़ के लिए यूं तो दिल्ली में कई जगहें उपयुक्त हैं मगर सदर बाज़ार इलाके का कोई सानी नहीं है। इसमें प्रतिस्पर्धी की चुनौती ये है कि उसे पैदल दौड़ना तो है, मगर दौड़ते वक़्त किसी से टकराना नहीं है और अगर टकरा भी गया तो गाली नहीं खानी है। अब टकराना या न टकराना आपकी काबिलियत पर निर्भर करता है जबकि गाली खाना आपकी किस्मत पर। इस तरह ये दौड़ हुनर और किस्मत का मेल होगी। वैसे भी इन दोनों के मेल के बिना इस शहर में कौन सरवाइव कर सकता है। खैर, आख़िर में जो भी प्रतिस्पर्धी सबसे कम धक्के और गालियां खा दौड़ ख़त्म करेगा वही विजेता होगा।


4.दिल्लीवासी होने के नाते मेरी ये हमेशा शिकायत रही है कि जब गंगा नदी में इतने सारे एडवेंचर स्पोर्ट्स होते हैं तो यमुना में क्यों नहीं। लिहाज़ा मैं आयोजन समिति से मांग करूंगा कि वॉटर स्पोर्ट्स से जुड़ी सभी स्पर्धाएं यमुना में करवाई जाएं। जिसमें पचास मीटर फ्री स्टाइल स्विमिंग से लेकर बैक स्ट्रोक,बटरफ्लाई और चार गुना सौ मीटर रिले सब शामिल हों।

यमुना की हालत देख अगर कोई इसे नदी मानने के लिए तैयार न हो तो उसे इतिहास की किताबें दिखाई जाएं, उसका पौराणिक महत्व बताया जाए। इसके बावजूद कोई गंदगी की बात करे तो उसे पिछले सालों में इसकी सफाई पर खर्च पैसे का ब्यौरा दिया जाए। उससे पूछा जाए कि आप ही बताएं, करोड़ों रूपये खर्च करने के बाद भी ये गंदी कैसे हो सकती है।

दोस्तों, इस तरह खेल करवाने का सबसे बड़ा फायदा ये होगा कि ज्यादातर खेलों में सबसे ज़्यादा स्वर्ण पदक भारत ही जीतेगा। ऐसे में उन लोगों के मुंह भी बंद हो जाएंगे जो ये कहते हैं कि खेल आयोजन करवाने से खेलों का स्तर नहीं सुधरता, उसके लिए खिलाड़ियों को परफॉर्म करना पड़ता है। अब आप ही बताएं, दिल्ली की भीड़ भरी सड़कों पर दौड़ने, घटिया ट्रांसपोर्ट में सफर करने और सांस रोक यमुना में तैरने में, हमसे बढ़िया भला पूरी दुनिया में कौन परफॉर्म कर सकता है!

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

सनसनी का बेंचमार्क!

ये बहस तो अवहेलना से आहत हो कब की आत्महत्या कर चुकी है कि न्यूज़ चैनलों को सनसनी परोसनी चाहिए या नहीं। अब तो सवाल ये है कि सनसनी का स्तर कैसे बनाकर रखा जाए। मतलब, आज से छह महीने पहले लोग जिस खबर पर हैरान होते थे, आज उसने उत्तेजित करना बंद कर दिया है। जिस ‘कूड़े’ को तैयार करने में पहले एक-आध चैनल को महारत हासिल थी, उसकी रेसिपी आज सब ने जान ली है। इस सबके चलते हुआ ये है कि सनसनी का ‘बार’ रेज़ हो गया है। जो चैनल कल तक ‘साल की सबसे बड़ी’ ख़बर या घटना बता धमकाते थे वो अब सदी से नीचे बात ही नहीं करते।

नक्सली बंगाल में गाड़ी रोकते हैं-चैनल बताता है-भारत का सबसे बड़ा अपहरण। जयपुर के तेल डिपो में आग लगती है-वो लिखता है-भारत का सबसे बड़ा अग्निकांड। मंझोले या छुटके के लिए यहां कोई जगह नहीं है, क्योंकि उसका मानना है कि बड़ा है तो बेहतर है। आतंकियों ने मुम्बई पर हमला किया था तब भी उसने बताया था-सबसे बड़ा आतंकी हमला। इंचटेप ले त्रासदी का साइज नापा जा रहा है। अगर कोई बताए कि मेरे पिताजी तो इस-इस तरह से सड़क हादसे में मारे गए और हादसे का विवरण सुन सामने वाला कहे, अरे! ये तो सदी का सबसे बड़ा सड़क हादसा था! तो क्या पीड़ित शख्स ‘दुख की बढ़िया हैडलाइन’ सुन खुश हो जाएगा।

खैर, पीड़ित शख्स कुछ भी सोचे, यहां तो हर किसी की कोशिश है कि उसका बड़ा, सामने वाले के बड़े से किसी कीमत पर छोटा नहीं पड़ना चाहिए। इसलिए ‘सदी’ प्राइम टाइम का नया बेंचमार्क हो गई है और अगर कोई अतिउत्साही ‘दशक की सबसे बड़ी ख़बर’ ले प्रोड्यूसर के पास जाए तो उसे पूरे न्यूज़रूम के सामने पीटा जाता है। सबको बताया जाता है कि शाम छह बजे के बाद सदी से नीचे की कोई खबर नहीं चलनी चाहिए। सुबह ‘दशक की’ और रात बारह बजे बाद ‘साल की’। ‘आज की सबसे बड़ी ख़बर’ कहने का रिवाज़ तो अक्लमंदी की तरह न जाने कब का गायब हो चुका है। प्राइम टाइम और नॉन प्राइम टाइम कहे जाने वाले एंकर भी अब ‘सदी टाइम’ और ‘नॉन सदी टाइम’ कहलाने लगे हैं। ऐसे लोग जो चैनलों में साल की सबसे बड़ी ख़बर वाले बुलेटिन बनाते हैं, उन्हें नीची निगाहों से देखा जाता है। लोग बॉयोडेटा में लिखते हैं कि फलां चैनल में पिछले तीन सालों से सदी के सबसे बड़े बुलेटिन का ज़िम्मा निभा रहा हूं। और जैसा मुकाबला आज चैनल्स के बीच है उसे देख लगता नहीं कि सदी का ये चलन इस सदी के आख़िर तक भी जाएगा।

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

सदाबहार कसूरवार!

कभी-कभी मुझे लगता है कि भारत का होना जितना भारतीयों के लिए ज़रूरी है, उससे कहीं ज़्यादा पाकिस्तान सरकार के लिए। अगर भारत नहीं होता तो पाकिस्तान की सरकारें करतीं क्या? वहां के हुक्मरान और सेना के रिटायर्ड अफसर तो कुछ गैर-रचनात्मक न पा सुसाइड कर लेते। बिना पासपोर्ट भारत में घुसने को बेचैन सैंकड़ों-हज़ारों फिदायीन बेरोज़गारी का दंश झेलते।

भारत है तो पाकिस्तान के पास भी साज़िश रचने के लिए एक देश है, अपनी नाकामियों का ठीकरा फोड़ने के लिए एक सिर है। तभी तो रहमान मलिक साहब कहते हैं कि भारत सरकार पाकिस्तान में तबाही के लिए तालिबान की मदद कर रही है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि ये इल्ज़ाम है या एसएमएस जोक। मैं गुज़ारिश करूंगा स्टार वन वालों से कि लॉफ्टर चैलेंज के सीज़न फाइव के लिए वो इस बार रहमान मलिक को स्टैंड अप कॉमेडियन के तौर पर पाकिस्तान से बुलाए।

मलिक साहब ने ये बात भले ही अपनी आवाम की आंखों में धूल झोंकने के लिए कही हो, मगर ऐसा कह उन्होंने भारत सरकार का कद यहां की जनता की नज़र में काफी ऊंचा कर दिया है। हम लोग तो अरसे से तरस रहे थे कि कभी हमारे बच्चे की भी कोई शिकायत लेकर आए। हमारी हालत तो उन बेबस मां-बाप की तरह थी जिनका बच्चा हर दिन यहां-वहां से मार खा कर आता और शिकायत करता। कभी ये कहना कि चीनी सैनिकों ने आज लद्दाख में घुसपैठ कर ली, पाकिस्तान ने वाघा बॉर्डर पर रॉकेट लांचर दाग दिया, कश्मीर में घुसपैठ करवा दी। अरे...वो कर रहा है तो तुम भी तो कुछ करो....तुमने क्या हाथों में करवा चौथ की मेहंदी लगवा रखी है। हम तो कब से यही चाहते थे हमारा रोंदलूं बच्चा भी किसी को एक-आध लगा कर आए। और आज जब मलिक साहब ये इल्ज़ाम लगा रहे हैं तो मैं बता नहीं सकता कि एक भारतवासी होने के नाते मुझे कितनी खुशी हो रही है।


मगर बावजूद इसके पाकिस्तान को भारत से शिकायत रहती है। आपकी नाकामियों का ‘सदाबहार कसूरवार’ बनने के अलावा हम आपको और क्या दे सकते हैं? यहां तक कि चैम्पियंस ट्रॉफी में आपकी टीम हारी तब भी किसी मंत्री ने कहा था कि इसके पीछे भारत के रसूखदार क्रिकेट बोर्ड का हाथ है! बिना ये सोचे कि उसी रसूखदार बोर्ड की टीम तो टूर्नामेंट के सेमीफाइनल तक भी नहीं पहुंच पाई थी...कहते हैं न अच्छा पड़ौसी वही है जो मुसीबत के वक़्त काम आए...आपकी वजह से हमारे यहां मुसीबत आती है और आपकी मुसीबत के वक़्त हम कसूरवार के रूप में आपके काम आते हैं। और क्या चाहिए आपको? तो रिश्ता पक्का समझें...दोस्ती का!

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

झूठ-फरेब के रास्ते, छुट्टी के वास्ते!

हाल ही में एक सर्वे में ये बात सामने आई कि बत्तीस फीसदी लोग ऑफिस से छुट्टी लेने के लिए झूठ बोलते हैं। इन आंकडों पर मुझे हैरानी हुई। मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि अड़सठ फीसदी लोग छुट्टी के लिए सच बोलते होंगे!

वजह बेहद साफ है। ऑफिस से छुट्टी के पीछे सबसे बड़ी वजह है नीयत। अक्सर हमारा ऑफिस जाने का दिल ही नहीं करता। अगर किसी सुबह आप फोन कर बॉस से ये कहें कि सर, मैं आज ऑफिस नहीं आ सकता क्योंकि मेरा दिल नहीं कर रहा तो क्या लगता है...बॉस क्या कहेगा...ऐसा वाहियात काम कर कोई भी बोर हो सकता है...चलो, तुम छुट्टी ले लो...नहीं...बॉस ऐसा हरगिज़ नहीं कहेगा। वो यही पूछेगा कि इस्तीफा तुम ऑफिस आ कर दोगे या घर से ही फैक्स करोगे। यही वजह है कि ज़्यादातर लोगों को छुट्टी के लिए झूठ बोलना पड़ता है।

यूं तो झूठ किसी भी विषय पर बोला जा सकता है मगर ये ज़रूरी है कि बॉस के पास उसकी कोई काट न हो। ऐसे में सबसे लोकप्रिय बहाना है, बीमारी। एक सर्वे में ये बात भी सामने आई कि भारत में अब तक स्वाइन फ्लू से भले ही कुछ-एक हज़ार लोग संक्रमित हुए हों, लेकिन देश भर के दफ्तरों में लाखों कर्मचारी स्वाइन फ्लू की आशंका दिखा छुट्टी ले चुके हैं। नाम न छापने की शर्त पर इस ख़ाकसार को कुछ लोगों ने बताया कि दस साल की नौकरी में पहली बार उन्हें महज़ एक छींक पर खुद बॉस ने आगे बढ़कर कहा कि तबीयत ठीक नहीं है तो छुट्टी ले लो। छुट्टी के आग्रह के साथ ऐसे-ऐसे लोग मेरे हिस्से का काम करने आगे आए, जो खुद अपने हिस्से का काम कभी वक़्त पर नहीं करते।

झूठी बीमारी के अलावा, फर्ज़ी एग्ज़ाम के नाम पर भी मैंने लोगों को साल में तीन-तीन बार छुट्टियां लेते देखा है। मैं कभी नहीं समझ पाया कि आख़िर ये कौन सी यूनिवर्सिटी है जो साल में तीन-तीन बार परीक्षा लेती है। जो भी हो, एग्ज़ाम के नाम पर छुट्टियां मिलने का सफलता प्रतिशत काफी अच्छा है। इस अपराधबोध के साथ कोई भी मालिक नहीं जी सकता कि मेरी वजह से इसका वर्तमान तो ख़राब हो ही रहा है, कहीं इसका भविष्य भी ख़राब न हो जाए!


लेकिन, बहाने बनाते समय कुछ सावधानियां बरतनी बेहद ज़रूरी हैं। मसलन, बरसों पहले गुज़र चुके दादा-नाना का छुट्टी के लिए ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल करने से बचें। मेरे एक परिचित को तो उसके बॉस ने एक बार कह भी दिया था कि मुझे समझ नहीं आता कि हर बार दीपावली के आसपास ही तुम्हारे नानाजी की डैथ क्यों होती है। बहानों में अति भावुकता से भी बचें। जैसे, छुट्टी के लिए नज़दीकी रिश्तेदार की शादी या दोस्त की ख़राब तबीयत की आड़ न लें। एक बात समझ लें कि जिस शख़्स को आप इमोशनल कर छुट्टी लेने की सोच रहे हैं, वो सारे इमोशन्स का गला घोंट कर ही इस पद तक पहुंचा है। ऐसे बहानों पर अक्सर आपको सुनने को मिल सकता है कि या तो रिश्तेदारियां निभा लो या नौकरी कर लो।

दोस्तों, छुट्टियों की ये कशमकश नौकरी का स्थायी भाव है। भले ही भारत में साल में डेढ़ सौ छुट्टियां होती हों, मगर हमारी लड़ाई तो बाकी बचे दो सौ दिनों से है। जब तक दिलो में कामचोरी का जज़्बा है, रगों में मक्कारी का लहू है और बहाने बनाने के लिए कल्पनाशक्ति का चकला मौजूद है, हमें झूठ बोल कर छुट्टियां लेते रहना है। हमारा मक़सद दो वीकली ऑफ नहीं, दो वर्किंग डे है... हमें तो पांच वीकली ऑफ चाहिए।

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

प्लास्टिक बधाइयां!

दीपावली से पहले पुलिस ने इतनी जगह छापेमारी कर नकली मावा, नकली घी और नकली पनीर भारी मात्रा में पकड़ा। मगर, वो संगठित अपराधियों की ऐसी जमात नहीं पकड़ पाई, जो हर दीपावली लाखों-करोड़ों लोगों का जीना हराम करती है। ये कौम है-मोबाइल मैसेज माफिया की। हर त्योहार से पहले ये लोग हिंदी-अंग्रेजी के सैंकड़ों मैसेज फॉरवर्ड कर समाज में हाहाकार मचा देते हैं। घड़ी की सुई के बारह पर पहुंचते ही परिचितों के इनबॉक्सों पर हमला कर देते हैं। जिन लोगों को अंग्रेज़ी में ‘हाय’ लिखना नहीं आता, वो तीन-तीन पंक्तियों में शेक्सपियराना अंदाज़ में बधाई संदेश लिखते हैं। ऐसे संदेश मिलते ही मेरे तन-बदन में आग लग जाती है। दिल करता है कि उसी वक़्त स्कूटर पकड़ उस आदमी के घर जाऊं और उसे चप्पलों से पीटना शुरू कर दूं। कॉलर पकड़ उसे धमकाऊं कि आइंदा तुमने ऐसा कोई बनावटी बधाई संदेश फॉरवर्ड किया तो असली बम फेंक तुम्हारी जान ले लूंगा।

मैसेज फॉरवर्ड करने के पीछे भेजने वाले के छिपे प्यार और मानसिकता को मैं कभी नहीं समझ पाया। दोस्त-रिश्तेदारों को ऐसे निराले संदेश भेज हमें ये थोड़ा ही न बताना है कि अगला ‘निराला’ मैं ही हूं। वैसे भी जिसे संदेश भेजा जा रहा है, वो आपका दोस्त या रिश्तेदार ही है न कि कोई बड़ा प्रकाशक, जिसे आप अपनी काव्य-प्रतिभा से चमत्कृत कर किताब छपवाने की भूमिका बांध रहे हैं। ऐसा ही एक संदेश कहता है-आपकी उम्मीदों का प्रकाश, सफलता का आकाश और लक्ष्मी का वास...जीवन में हो सबसे ख़ास-शुभ दीपावली। मेरा मानना है कि इसके पीछे भावना भले ही नेक है मगर ऐसी तुकबंदी करने वाले को फौरन बंदी बना लेना चाहिए। ऐसे आकाश, प्रकाश और वास वाले मैसेज मुझे कभी नहीं आते रास। किसी और के भेजे बनावटी संदेश को फॉरवर्ड कर, बिना सामने वाले को सम्बोधित किए, भावनाएं कैसे सम्प्रेषित हो सकती हैं, मेरी समझ से परे हैं।

रैंप पर चलते हुए एक मॉडल अपना पूरा कॉरियर एक अदद प्लास्टिक मुस्कान के सहारे निकाल देती है। हिंदी फिल्मों के कितने ही जम्पिंग जैक कुछ-एक प्लास्टिक एक्सप्रेशन्स के ज़रिए तीन सौ से ऊपर फिल्में कर गए। असली जैसे दिखने वाले सैंकड़ों-हज़ारों की तादाद में प्लास्टिक फूल हर दिन सड़कों पर बेचे जाते हैं। मगर जहां तक भावनाओं के इज़हार की बात है, वहां तो हमें इन प्लास्टिक शुभकामनाओं से बचना चाहिए। किसी आयुर्वेदिक या होम्योपैथिक डॉक्टर ने ऐसी हिदायत नहीं दी और न ही कोई वास्तुविद् ऐसा करने के लिए कहता है, शास्त्रों में भी इसका कोई ज़िक्र नहीं, फिर भी, ऐसी प्लास्टिक बधाइयों का कारोबार ज़ोरो पर है। ज़रूरत है कि पॉलीथिन की तरह इन प्लास्टिक बधाइयों पर भी बैन लगा देना चाहिए।

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

दुर्घटना से देर भली!

कुछ लोगों का कहना है कि कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारियां देखकर लगता है कि ये खेल दो हज़ार दस में न होकर, मानो दस हज़ार दो में होने हों। ऐसा कहने वालों के संस्कृति-बोध पर मुझे तरस आता है। ये लोग शायद भारत की कार्य-संस्कृति से वाक़िफ नहीं हैं। मेरा मानना है कि इस कार्य-संस्कृति के पीछे हो न हो, अस्सी-नब्बे के दशक की हिंदी फिल्मों का गहरा असर है। उसमें भी ख़ासतौर पर उनके क्लाइमेक्स का।


हीरो-हीरोइन का ‘किसी ग़लतफहमी’ की वजह से ब्रेकअप हो चुका है। अमीर बाप की बेटी इससे काफी दुखी है। बाप सलाह देता है कि कुछ महीने लंदन बिता आओ, मूड़ ठीक हो जाएगा। हीरोइन देश छोड़ने के लिए एअरपोर्ट पहुंचती है। तभी हीरो को ‘हक़ीकत’ का पता चलता है। वो जैसे-तैसे ऑटो पकड़ एअरपोर्ट पहुंचता है और फिल्म ख़त्म होने से एक या दो मिनट पहले दोनों का मिलन हो जाता है। ये सब देख भारतीय दर्शक काफी रोमांचित होता है। उसे ‘शानदार क्लाइमेक्स’ की परिभाषा समझ आती है।


यही वजह है कि निजी ज़िदंगी में वो छोटे-बड़े जितने भी काम करता है, चाहता है कि उसका क्लाइमेक्स भी उतना ही रोचक हो। आख़िरी तारीख़ के आख़िरी घंटों में बिल जमा करवा, ट्रेन छूटने से एक मिनट पहले स्टेशन पहुंच, नम्बरिंग स्टार्ट होने के बाद सिनेमा हॉल में घुस, वो अक्सर अपने लिए उत्तेजना जुटाता रहता है। फिर बड़ी शान से लोगों को बताता है कि कैसे मैं स्टेशन पहुंचा या फिर कैसे मैंने आख़िरी वक़्त पर फिल्म की टिकट जुटाई।


अब हमारे नेता या सरकार कोई बृहस्पति या मंगल ग्रह से तो आए नहीं, लिहाज़ा उनके शौक या आदतें भी वही होंगे, जो जनता के हैं। ऐसे समय जब पूरी दुनिया उम्मीद छोड़ चुकी होगी, मीडिया कोस-कोस कर थक चुका होगा, देश बिना नाक के अपनी कल्पना से कांप चुका होगा, सरकार कहेगी, ये देखो हमने सारा काम कर दिया। दर्शक अपनी सीटों से खड़े हो ताली बजाएंगे, कुछ मासूम रो पड़ेंगे और सरकार एक ऐसे काम के लिए हीरो या विजेता बन उभरेगी, जो असल में उसे एक साल पहले ही कर देना चाहिए था!

क्लाइमेक्स का ये फंडा कब का बॉलीवुड फिल्मों से निकल देश की कार्य-संस्कृति का हिस्सा बन चुका है। लोगों को तो शुक्र मनाना चाहिए कि सारे स्टेडियम वक़्त पर बन नहीं गए....वरना तो कॉमनवेल्थ खेलों से पहले ही हम उनकी बैंड बजा देते। हड़बड़ी के साथ गड़बड़ी भी तो जु़ड़ी रहती है। बावजूद इसके लोग शिकायत करते हैं। वे नहीं जानते कि ज़रा-सी लेटलतीफी से सरकार तारीफ भी बटोरेगी और स्टेडियम भी बचा जाएगी। दुर्घटना से देर भली!

बुधवार, 23 सितंबर 2009

अपने-अपने गौरव द्वीप!

बुक स्टॉल पर किताबें पलटते हुए अचानक मेरी नज़र एक मैगज़ीन पर पड़ती है। ऊपर लिखा है, ‘गीत-ग़ज़लों की सर्वश्रेष्ठ त्रैमासिक पत्रिका’। ‘सर्वश्रेष्ठ त्रैमासिक पत्रिका’, ये बात मेरा ध्यान खींचती हैं। स्वमाल्यार्पण का ये अंदाज़ मुझे पसंद आता है। मैं सोचने लगता हूं कि पहले तो बाज़ार में गीत-ग़ज़लों की पत्रिकाएं हैं ही कितनी? उनमें भी कितनी त्रैमासिक हैं? बावजूद इसके, प्रकाशक ने घोषणा कर दी कि उसकी पत्रिका ‘सर्वश्रेष्ठ’ है। अपने मां-बाप की इकलौती औलाद होने पर आप ये दावा तो कर ही सकते हैं कि आप उनकी सबसे प्रिय संतान हैं! जीने के लिए अगर वाकई किसी सहारे की ज़रूरत है तो कौन कहता है कि ग़लतफ़हमी सहारा नहीं बन सकती। गौरवपूर्ण जीवन ही अगर सफल जीवन है, तो उस गौरव की तलाश भी तो व्यक्ति या संस्था को खुद ही करनी होती है।

दैनिक अख़बारों में तो ये स्थिति और भी ज़्यादा रोचक है। एक लिखता है, भारत का सबसे बड़ा समाचार-पत्र समूह। दूसरा कहता है, भारत का सबसे तेज़ी से बढ़ता अख़बार। तीसरा कहता है, सबसे अधिक संस्करणों वाला अख़बार। और जो अख़बार आकार, तेज़ी और संस्करण की ये लड़ाई नहीं लड़ पाते वो इलाकाई धौंस पर उतर आते हैं। ‘हरियाणा का नम्बर वन अख़बार’ या ‘पंजाब का नम्बर दो अख़बार’। एक ने तो हद कर दी। उस पर लिखा आता है-फलां-फलां राज्य का ‘सबसे विश्वसनीय अख़बार’। अब आप नाप लीजिए विश्वसनीयता, जैसे भी नाप सकते हैं। कई बार तो स्थिति और ज़्यादा मज़ेदार हो जाती है जब एक ही इलाके के दो अख़बार खुद को नम्बर एक लिखते हैं। मैं सोचता हूं अगर वाकई दोनों नम्बर एक हैं तो उन्हें लिखना चाहिए ‘संयुक्त रूप से नम्बर एक अख़बार’!

खैर, ये तो बात हुई पढ़ाने वालों की। पढ़ने वालों के भी अपने गौरव हैं। मेरे एक परिचित हैं, उन्हें इस बात का बहुत ग़ुमान हैं कि उनके यहां पांच अख़बार आते हैं। वो इस बात पर ही इतराते रहते हैं कि उन्होने फलां-फलां को पढ़ रखा है। प्रेमचन्द को पूरा पढ़ लेने पर इतने गौरवान्वित हैं जितना शायद खुद प्रेमचन्द वो सब लिखकर नहीं हुए होंगे। अक्सर वो जनाब कोफ्त पैदा करते हैं मगर कभी-कभी लगता है कि इनसे कितना कुछ सीखा जा सकता है। बड़े-बड़े रचनाकार बरसों की साधना के बाद भी बेचैन रहते हैं कि कुछ कालजयी नहीं लिख पाए। घंटों पढ़ने पर भी कहते हैं कि उनका अध्ययन कमज़ोर हैं। और ये जनाब घर पर पांच अख़बार आने से ही गौरवान्वित हैं! साढ़े चार सौ रूपये में इन्होंने जीवन की सार्थकता ढूंढ ली।

पढ़ना या लिखना तो फिर भी कुछ हद तक निजी उपलब्धि हो सकता है, पर मैंने तो ऐसे भी लोग देखे हैं जो जीवन भर दूसरों की महिमा ढोते हैं। एक श्रीमान अक्सर ये कहते पाए जाते हैं कि मेरे जीजाजी तो एसपी हैं। मैं सोचता हूं...परीक्षा जीजा ने पास की। पढ़ाया उनके मां-बाप ने। रिश्ता बिचौलिए ने करवाया। शादी बहन की हुई और इन्हें ये सोच रात भर नींद नहीं आती कि मेरे जीजाजी तो एसपी हैं। हर जानने वाले पर ये अपने जीजा के एसपी होने की धौंस मारते हैं। परिचितों का बस चले तो आज ही इनके जीजाजी का निलंबन करवा दें! उन्हें देखकर मुझे अक्सर लगता है कि पढ़-लिख कर कुछ बन जाने से इंसान अपने मां-बाप का ही नहीं, अपने साले का भी गौरव बन सकता है! सच...सफलता के कई बाप ही नहीं, कई साले भी होते हैं।

पद के अलावा पोस्टल एड्रेस में भी मैंने बहुतों को आत्मगौरव ढूंढते पाया है। सहारनपुर में रहने वाला शख़्स दोस्तों के बीच शान से बताता है कि उसके मामाजी दिल्ली रहते हैं। दिल्ली में रहना वाला व्यक्ति सीना ठोक के कहता है कि उसके दूर के चाचा का ग्रेटर कैलाश में बंगला है। उसके वही चाचा अपनी सोसायटी में इस बात पर इतराते हैं कि उनकी बहन का बेटा यूएस में सैटल्ड है। कभी-कभी सोचता हूं तो लगता है कि जब आत्मविश्लेषण में ईमानदारी की जगह नहीं रहती तब ‘जगह’ भी आत्गौरव बन जाती है। फिर वो भले ही दिल्ली में रहने वाले दूर के चाचा की हो, या फिर यूएस में सैटल्ड बहन के बेटे की!

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

री-लॉन्चिंग की आउटसोर्सिंग!

वैसे तो यह ट्रेंड गाड़ियों में ज़्यादा देखने को मिलता है। किसी कम्पनी ने कोई मॉडल लॉन्च किया। उसकी खूबियों को लेकर बड़े-बड़े दावे किए, मगर जब गाड़ी बाज़ार में उतरी तो उसे वैसा रिस्पॉन्स नहीं मिला। जानकारों ने ख़ामियां बताईं और वो मॉडल वैसा परफॉर्म नहीं कर पाया जैसी उम्मीद थी। लिहाज़ा, कम्पनी तय करती है कि गाड़ी को री-लॉन्च किया जाए। कुछ नए फीचर्स के साथ। पुरानी ख़ामियों को दूर करते हुए।
ठीक इसी तर्ज़ पर अब वक़्त आ गया है कि हम भारत को भी री लॉन्च करें। भारत का नया इम्प्रूव्ड वर्ज़न लाएं, जिसमें पुरानी कमियां न हो, ताकि भारत नामक 'महान् विचार' में लोगों की आस्था फिर से लौटाई जा सके।
जब मैंने अपना ये विचार एक मित्र को बताया तो उनका कहना था कि इसमें कई तकनीकी ख़ामियां हैं। पहली तो ये कि भारत को लेकर दुनिया को जो-जो समस्याएं हैं जैसे, इसका माइलेज, इंजन, सीट-कवर, हैडलाइट, पिकअप अगर सभी सुधार दी गईं तो इस नए मॉडल में ढूंढने पर भी भारत नहीं मिलेगा। तब दुनिया को पता कैसे चलेगा कि ये भारत का ही नया वर्ज़न है या फिर किसी देश ने हाल ही में स्वायत्तता हासिल की है। दूसरा, जब कोई ब्रांड एक बार बदनाम हो जाता है तो उसे फिर से उसी नाम से लॉन्च करने में दिक़्कत आती है। इसके अलावा इन ख़ामियों को दूर करेगा कौन? हम जब इतने सालों में इस देश को नहीं सुधार पाए तो री-लॉन्चिंग के बाद क्या उखाड़ लेंगे।
मैंने कहा, वो कोई इश्यू नहीं है। हम री-लॉन्चिंग का काम आउटसोर्स कर सकते हैं। हम जिस क्षेत्र में जिस भी देश पर निर्भर हैं, उसमें सुधार का काम पूरी तरह से उसी देश को सौंप सकते हैं। भारतीयों को नौकरी कैसे मिले, ये काम हम अमेरिका और ब्रिटेन को आउटसोर्स कर सकते हैं। सुरक्षा को लेकर हमें चीन से सबसे ज़्यादा ख़तरा है लिहाज़ा सुरक्षा का ठेका हम चीन को दे सकते हैं। शिक्षा और खेलों की दशा-दिशा सुधारने के लिए ऑस्ट्रेलिया से कॉन्ट्रेक्ट कर सकते हैं। मनोरंजन उद्योग के लिए अमेरिका में हॉलीवुड से संधि की जा सकती है। कुछ मामलों में अलग-अलग देशों के लोग मिलकर कमेटी भी बना सकते हैं।
तभी मित्र बोला, मगर तुम भूल रहे हो भारत एक लोकतांत्रिक देश है...ऐसे में सरकार का क्या होगा? मैंने कहा...अगर हमें वाकई सुधरना है तो हमें अपना लोकतंत्र भी आउटसोर्स कर देना चाहिए। वैसे भी हर ओर किफायत की बात हो रही है। विदेशी हमें उतने महंगे तो नहीं पड़ेंगे जितने ये देसी पड़ रहे हैं!

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

स्वाइन फ्लू का विदेशी मूल!

पिछले कुछ सालों में अनजान कारणों से इस देश ने नकल को प्रतिभा प्रदर्शन का सबसे कारगर औज़ार मान लिया। विदेशी भाषा, रहन-सहन, खान-पान, सिनेमा हर मामले में यूरोप-अमेरिका की बखूबी नकल की। मगर क्या देख रहा हूं कि तमाम विदेशी मुद्राओं को जीवन के पर्दे पर हूबहू उतारने वाला देश अचानक एक विदेशी बीमारी के आगे नतमस्तक हो गया है। उससे तालमेल नहीं बिठा पा रहा। समझ नहीं पा रहा कि उससे कैसे निपटा जाए।

अख़बार में इस बीमारी से बचने से जुडा़ एक विज्ञापन पढ़ा तो समझ में आया कि आख़िर हम इससे क्यों नहीं निपट पा रहे। बीमारी से बचने के लिए जो उपाय बताए गए हैं वो हो सकता है कि विश्व के बाकी हिस्सों में लोगों के लिए मानना आसान हो, मगर हमारे लिए नहीं है। मतलब, इस बीमारी का जो विदेशी मूल है, वही असली समस्या है। ऐसे कुछ उपाय जो मुझे समझ में आए वो इस तरह हैं-

1.विज्ञापन कहता है कि खांसने या छींकने से पहले मुंह के आगे हाथ या रुमाल रख लें। अब आप ही बताएं ये कहां कि औपचारिकता है। हम हिंदुस्तानी तो बरसों से छींक को रोमांच और उत्तेजना का विषय मानते रहे हैं। हम चाहते हैं कि जब छीकें तो आसपास खड़े पंद्रह-बीस लोगों को आवाज़ और बौछारों से इसका पता लग जाए। हमारे यहां तो लोग छींकने के लिए तरह-तरह के पदार्थ का इस्तेमाल करते रहे हैं। हमें कभी ये सिखाया ही नहीं गया कि एक अबोध, मासूम छींक को यो मुंह के आगे हाथ रख रोका जाए। रही बात रुमाल रखने की तो नाक के आगे रूमाल तो तब रखें जब वो जेब में हो। रुमाल रखने की तो हमें आदत ही नहीं। खाना खाने के बाद हम हाथ तो पेंट की जेब में डाल पोंछ लेते हैं और मुंह शर्ट के बाजू से। रुमाल की जरूरत ही कहां है।

2.विज्ञापन कहता है कि कोई भी बीमारी होने पर डॉक्टर के परामर्श पर दवाएं लें। अब भला ये कैसे सम्भव है। अगर हम बीमार पड़ने पर सीधे डॉक्टर के पास चले जाएं तो हमारी खुद की डॉक्टरी का क्या होगा। हर बीमारी पर हमें अपनी भी तो छांटनी होती है। दूसरा, हमारे यहां आम मान्यता है कि डॉक्टर लूटते हैं। इसलिए जो काम एक रूपये की पैरासीटामोल से हो सकता है उसके लिए डॉक्टर को डेढ़ सौ रूपये फीस क्यों दें। हमारी तो जब तक जान पर न बन आए, मामूली ज़ुकाम निमोनिया न हो जाए, हल्की खांसी टीबी न बन जाए तब तक हम डॉक्टर के पास नहीं जाते। इसलिए ये उपाय भी बेकार है।

3.विज्ञापन हिदायत देता है कि सड़क पर न थूकें। जानते भी हो, क्या कह रहे हो? इस देश में आज़ादी का मतलब क्या है? अभिव्यक्ति की आज़ादी, धर्म की आज़ादी या कहीं भी आने-जाने की आज़ादी? नहीं, आज़ादी मतलब, यहां-वहां थूकने की आज़ादी है। दरअसल, सिस्टम का शिकार आम आदमी जब परेशान हो जाता है तो वो सड़क को सिस्टम का मुंह समझ उस पर थूकता है। और तुम हो कि कहते हो कि सड़क पर मत थूको। ठीक है, नहीं थूकेंगे...पर जाओ पहले जा कर पूरा सिस्टम सुधार दो। सिस्टम सुधारना बड़ा काम है और सड़क पर थूकना मामूली अपराध। तुम बड़ा काम नहीं कर सकते तो कम से कम हमें मामूली अपराध तो करने दो।

4. और आख़िर में विज्ञापन में कहा गया है कि किसी भी इंसान से हाथ मिलाने और गले मिलने से परहेज़ करें। अब इस बात से साफ साबित होता है कि ये वाकई एक विदेशी बीमारी है। अब अमेरिकी या यूरोपीय समाज में हो सकता है कि इंसान खुद के लिए ही खुद ही पर्याप्त हो मगर हमें तो भाई, दूसरों का ही सहारा है। उनसे स्नेह है। तुम कैसे कह सकते हो हम उनसे हाथ न मिलाएं, गले न मिलें। प्यार के अलावा हमारे पास लेने-देने को है ही क्या? हमारी इसी भावुकता को देखते हुए शायर ने हमें सतर्क भी किया है...कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से....ये नए मिजाज़ का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो। यकीन मानो, शायर को उस वक़्त स्वाइन फ्लू का ज़रा-भी इल्म नहीं था।

बुधवार, 19 अगस्त 2009

असहनीय सम्मान!

अगर आप सम्मान के लायक हैं और सम्मान पाते रहते हैं तो कुछ वक़्त बाद इसकी लत पड़ जाती है। पैर, हर वक़्त छूए जाने के लिए फड़फड़ाते रहते हैं। हाथ, आशीर्वाद देने के लिए मचलते हैं। कान के पर्दे, तारीफ के बूटों से सजने के लिए बेकरार होते हैं। शहर से बाहर जाते समय ऐसे लोग तारीफ के ऑडियो कैसेट साथ ले जाते हैं। तारीफ न होने पर इनके मुंह से झाग आने लगता है। तारीफ के नशेड़ियों को हर घंटे उसकी निश्चित डोज़ चाहिए ही होती है।

मगर वहीं समाज में एक तबका मुझ जैसों का भी है जिनका कभी इज्ज़त से वास्ता नहीं पड़ता। इज्ज़तविहीन जीवन जीनें की जिन्हें आदत सी पड़ जाती है। मगर पिछले दिनों कुछ ऐसा हुआ की इज्ज़त न होने के बावजूद मैंने खुद को बेइज्ज़त महसूस किया। हुआ ये कि मुझे एक पोस्टकार्ड मिला। जिसका मजमून था, महोदय, आपकी साहित्यकला सेवा पर आपको हिंदी भाषा आचार्य की वृहद् मानद उपाधि देने हेतु विषय-विचाराधीन है। आपका परिचय, 2 चित्र रंगीन पासपोर्ट साइज, 2 रचना तथा ‘500 रूपये सहयोग शुल्क’ एमओ द्वारा भेजें। भवदीय...फलाना ढिमकाना।

पहली बात जो पोस्टकार्ड पढ़ मेरे ज़हन में आई वो ये कि ‘हिंदी भाषा आचार्य’ पुरस्कार की बात अगर मेरी दसवीं की हिंदी टीचर को पता लग जाए तो वो संस्था पर राष्ट्रभाषा के अपमान का केस कर दे। मेरी हिंदी का स्थिति तो ऐसी है कि शुरूआती रचनाएं इस खेद के साथ वापिस लौटा दी गई कि हम केवल हिंदी में रचनाएं छापते हैं!

दूसरा जो संस्था मेरी साहित्यकला सेवा (ऐसा गुनाह जो मैंने किया नहीं) के लिए मुझे सम्मानित करना चाहती है उसे मेरी दो रचनाएं क्यों चाहिए! क्या हिंदी भाषा आचार्य की यही पात्रता है कि जिस किसी ने भी हिंदी में दो रचनाएं लिखी हैं, वो इसका हक़दार है। इसके अलावा जो संस्था मुझे सम्मानित करने का दुस्साहस कर रही है आख़िर वो पांच सौ रूपये का सहयोग क्यों मांग रही है? किसी को व्हील चेयर का वादा कर आप उससे बैसाखियों के लिए उधार क्यों मांग रहे? मैं जानना चाहता हूं कि ‘तुम मुझे सहयोग(राशि) दो, मैं तुम्हें सम्मान दूंगा’ ये नारा आख़िर किस क्रांति के लिए दिया जा रहा है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि जो कुछ और जैसा कुछ मैंने आज तक लिखा है उससे उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला कि इतना घटिया लिखने वाला आदमी ही सम्मान के झांसे में पांच सौ रूपये दे सकता है! सोचता हूं कि मेरे लिखे से जिन्होंने मेरे चरित्र का अंदाज़ा लगाया अगर वो आर्थिक स्थिति का भी लगा पाते तो कम से कम उनके पोस्टकार्ड के पैसे तो बचते।

सोमवार, 17 अगस्त 2009

मशीनों की इंसानियत!

एक ज़माना था जब लोग मुझे पलट-पलट कर देखते थे और अब हालत ये है कि मैं खुद को अलट-पलट कर देखता हूं। गाल इतने फूल गए हैं कि आइने में सामने देखने पर कान नहीं दिखते और तोंद इतनी बढ़ गई है कि सीधे खड़े हो कर नीचे देखने पर पैर नज़र नहीं आते। डबल चिन कब की ट्रिपल चिन हो चुकी है। शरीर की ज्यामिति छिन्न-भिन्न हो चुकी है। सम्पूर्ण काया चिल्ला-चिल्लाकर खुद के कायाकल्प की मांग कर रही है। हुलिया न बदलने पर बीवी, पति बदलने की धमकी दे रही है। आख़िरकार काया की मांग और बीवी की धमकी से घबरा मैं जिम पहुंचता हूं।

जिम में जिस मशीन पर मैं दौड़ रहा हूं, उसके परिजनों ने उसका नाम ट्रेड मिल रखा है। इस पर दौड़ते आज मेरा छठा दिन है। पहले पांच दिन इस पर मैं पंद्रह से बीस मिनट दौड़ चुका हूं। हर बार दौड़ ख़त्म करने पर इसकी स्क्रीन पर लिखा आता है-कूल। मशीन के इस शिष्टाचार पर मुझे खुशी होती है। वह दौड़ने वाले को अपनी तरफ से कॉम्पलीमेंट देती है। उसका हौसला बढ़ाती है। मगर आज मैं दो-चार मिनट में ही रुक जाता हूं। डर है कि आज वो लानत देगी। पर आश्चर्य...दो मिनट दौड़ने के बावजूद सामने लिखा आता है-कूल। मुझे हैरानी है कि उसने बैड या पुअर जैसा कुछ नहीं कहा। बुरी परफॉरमेंस के बावजूद मेरा हौसला बढ़ाया। कोई फिटनेस ट्रेनर होता तो झाड़ लगाता। मगर मशीन ने ऐसा नहीं किया। मशीन ने क्या... उसे बनाने वालों ने उसे ऐसा करने की इजाज़त नहीं दी। उसकी प्रोग्रामिंग के समय इंसानी भावनाओं का ख़्याल रखा गया। हैरानी इस बात की है कि ऐसे समय जब हम इंसान के लगातार संवेदनाशून्य होने की बात कर रहे हैं, मशीनें बनाते समय ये ख़्याल रखा जाता है कि वो सभ्य बर्ताव करें। दो मिनट दौड़ने वाले शख़्स का भी ‘कूल’ कहकर हौसला बढ़ाएं।


ट्रेड मिल ही नहीं संस्कारों की ऐसी ही नुमाइश रेलवे स्टेशनों पर खड़ी वज़न तोलने वाली मशीनें भी करती हैं। वज़न के बारे में सच बोलना उनकी मजबूरी है। मगर आपके चरित्र-चित्रण से पहले वो ऐसी किसी मजबूरी को नहीं मानतीं। मेरा मानना है कि ऐसे लोग जिनके कान अपनी तारीफ सुनने को शताब्दियों से तरस रहे हैं वे शताब्दी एक्सप्रेस पकड़ने से पहले रेलवे स्टेशन पर वज़न कर लें। निजी जीवन में आप कितने भी घटिया, मक्कार और लीचड़ क्यों न हो, मगर वज़न का टिकट बताएगा कि आप एक नेकदिल,खुशदिल और अक्लमंद इंसान हैं। एक रूपये के एवज़ में ऐसी चापलूसी आपको पूरी दुनिया में कहीं सुनने को नहीं मिलेगी। आपके बारे में ऐसे विशेषणों का इस्तेमाल किया जाएगा जिनके इस्तेमाल की आपके दोस्तों ने कभी ज़रूरत महसूस नहीं की। एक पल के लिए आप भी इन विशेषणों को सच मान बैठते हैं। महाआलासी खुद की तारीफ में अनुशासित पढ़ बौरा जाता है। उसे लगता है कि मशीन के अलावा उसे आज तक किसी ने पहचाना ही नहीं।

यकीन मानिए दोस्तों, इसी तारीफ के लालच में गाडी का इंतज़ार करते हुए बचपन में मैंने एक साथ दस-दस बार अपना वजन किया। वज़न तो हर बार एक निकला मगर तारीफ अलग-अलग थी। कुछ बड़ा हुआ तो अक्ल आई कि मशीन ट्रेड मिल की हो या वज़न की, हौसला-अफज़ाई इसके संस्कारों का स्थायी हिस्सा है। भूलकर भी ये नहीं कह सकती कि तुम्हारे जैसा वाहियात आदमी मैंने आज तक नहीं देखा।

ऐसा ही कुछ हाल एटीएम मशीनों का भी है। इंसानों से पैसे लेते समय आप दसियों बार गिनने के बाद भी आश्वस्त नहीं हो सकते, मगर एटीएम मशीनें ऐसी गड़बडी नहीं करतीं। कम से कम मेरे साथ तो ऐसा आज तक नहीं हुआ। ईमानदारी इनके चरित्र की मुख्य विशेषता है। हो सकता है दस बार कहने पर बीवी आपको सुबह उठाना भूल जाए मगर अलार्म क्लॉक ऐसा आलस नहीं करती। मैट्रो में लगा ऑटोमैटिक सिस्टम कभी याद दिलाना नहीं भूलता कि अगला स्टेशन तीस हज़ारी है...दरवाज़े बाईं ओर खुलेंगे। सच...ये मशीनें संवेदनशीलता, ईमानदारी और अनुशासन का पर्याय बन गई हैं। लोग शिकायत करते हैं कि इंसान मशीनी हो गया है...पर मैं इंतज़ार कर रहा हूं कि इंसान ऐसा मशीनी कब होगा?

शनिवार, 8 अगस्त 2009

नैतिकता का इस्तीफा!

बूटा सिंह कह रहे हैं कि उन पर इस्तीफे का दबाव डाला गया तो वे जान दे देंगे। वैसे ही, जैसे लड़की के घरवालों से परेशान लड़का धमकी देता है कि अगर किसी ने उन्हें अलग करने की कोशिश की तो वो अपनी जान दे देगा। प्रेमी की जान लड़की में बसती है। बूटा सिंह की जान कुर्सी में। उनका कहना है कि वे ऐसे नैतिकतावादी नहीं हैं कि इस्तीफा दे दें। पर, यही तो आपत्ति है। आख़िर वो ऐसे नैतिकतावादी क्यों नहीं हैं? और अगर वो ऐसे या वैसे, कैसे भी नैतिकतावादी नहीं हैं तो क्यों न बेटा और बूटा पर लगे आरोप सच माने जाएं! लोग तो कहने भी लगे हैं, बेटा-बेटा, बूटा-बूटा हम हाल तुम्हारा जाने हैं, माने न माने तुम ही न माने, संसार तो सारा माने हैं।

अपने बचाव में उनका कहना है कि उनके ख़िलाफ राजनीतिक साज़िश की जा रही है। ये बात भी अपने आप में शोध का विषय है। शोध इस पर नहीं होना चाहिए कि साज़िश किसने की, बल्कि इस पर होना चाहिए ‘मेरे खिलाफ साज़िश का बयान’ भारतीय राजनीति में आज तक कितनी बार दिया गया है। इस वाक्य के विन्यास और अर्थ में आख़िर कौनसी मिश्र धातु लगी है जो इसे हर नेता की पसंदीदा ढाल बनाता है। उस घटना का भी पता लगाना चाहिए जिसके बाद नेताओं की अदृश्य शक्तियों के खिलाफ खानदानी दुश्मनी शुरू हुई। तभी तो हर बार पकड़े जाने पर अदृश्य शक्तियों की चुगली की जाती है। मामला ठेकेदार का था। निपटाना बूटा ने था। दलाली बेटे ने की। गिरफ्तारी सीबीआई ने और इल्ज़ाम लगा अदृश्य शक्तियों पर। सुभानअल्लाह!

अभी लोग इन अदृश्य शक्तियों को ढूंढ ही रहे थे कि वीर भद्र सिंह की वीरता सामने आ गई। वीर भद्र ने भी भद्रता दिखाते हुए अपने कांडों का श्रेय राजनीतिक साजिश को दे दिया। उनके मुताबिक हिमाचल के मुख्यमंत्री धूमल उनकी छवि धूमिल करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि वे महज़ आरोपों के आधार पर इस्तीफा नहीं देंगे। ये सुन मुझे बड़ी तसल्ली हुई।

दरअसल संक्रमण काल से गुज़रने का एहसास सबसे बुरा होता है। इस दौरान बड़ी माथा-पच्ची करनी पड़ती है। हर घटना के पीछे के कारण को समझना होता है। बदलाव की दिशा जाननी होती है। इसलिए जब श्रीधरन और उमर अब्दुल्ला ने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दिया तो भम्र हुआ कि शायद हम संक्रमण काल से गुज़र रहे हैं। ईमानदारी के नए दौर में प्रवेश कर रहे हैं। मगर नहीं...बूटा और वीर भद्र ने इस आशंका को नकार दिया। इस्तीफे से इंकार किया। हमें संक्रमण काल में जाने से बचा लिया। आइए, इसके लिए दोनों का शुक्रिया अदा करें!

गुरुवार, 30 जुलाई 2009

दर्शन दो घनश्याम!

तस्वीरें, अंग्रेज़ी अख़बार का वो महत्वपूर्ण ‘कंटेंट’ हैं, जिनसे गुज़रते हुए हिंदीभाषी पाठक उसके पन्ने पलटता है। मैं भी यही कर रहा हूं। तस्वीरें देख रहा हूं और साढ़े तीन रूपए की बर्बादी की आत्मग्लानि के भंवर में फंसने से खुद को बचा रहा हूं। बहुत-सी सुंदर बालाएं इस रेस्क्यू ऑपरेशन में मेरी मदद कर रही हैं। एक जगह पैंतीस हज़ार की ‘सस्ती ईएमआई’ पर मर्सीडिज खरीदने का ऑफर है। ऑफर ठुकरा मैं आगे बढ़ता हूं। जिस पन्ने पर अब मेरी निगाह पड़ी है, वो मेरे घर बैठने के सख़्त खिलाफ है। जगह-जगह घूमने-फिरने के दसियों ऑफर हैं। कोई बीस हज़ार में तीन दिन मनाली घूमा रहा है, तो कोई नब्बे हज़ार में ऑस्ट्रेलिया ले जा रहा है। किसी की दिली ख़्वाहिश है कि बस एक बार उसके कहने पर मैं डेढ़ लाख का मामूली भुगतान कर यूरोप हो आऊं।

पढ़ते-पढ़ते अचानक मुझे घनश्याम की याद आ गई, जो कल ही मेरठ जाने के लिए मुझसे डेढ़ सौ रूपये ले गया है। इस वादे के साथ कि तीन दिन में वापिस आ जाएगा, क्योंकि इन्हीं पैसों से आगे मुझे भी घर जाना है। एक बार फिर अख़बार पर नज़र पड़ती है। विज्ञापन कहता है कि दो साल के लिए आठ हज़ार की ईएमआई पर मैं अमेरिका भी घूम सकता हूं। विज्ञापन मुझे जल्दी करने के लिए कह रहा है। तभी मोबाइल की घंटी बजती है। दूसरी तरफ घनश्याम है। वो बता रहा है कि उसे पीलिया हो गया है। आने में देरी हो जाएगी। इससे पहले कि मैं कुछ और पूछता वो ये कह फोन काट देता है कि ‘रोमिंग लग रही है’। सामने रोम घुमाने का भी प्रस्ताव है। वेनिस ले जाने की व्यवस्था है। तीन दिन और चार रातों के एवज़ में पचास हज़ार की मांग है।

दो महीने पहले एक एलआईसी एजेंट मिला। जिस तरह महिलाएं डेढ़ सौ की रेंज बता दुकानदार को ‘बढ़िया सूट’ दिखाने को कहती हैं, उसी तरह मैंने भी हज़ार-बारह सौ के सालाना प्रीमियम पर उसे ‘बढ़िया स्कीम’ बताने के लिए कहा। उसने विस्तार से योजना समझाई, जिसका हासिल ये था कि अगर मैं सभी किस्तें देता रहूं तो बारह साल बाद मुझे बीस हज़ार की ‘रक़म’ मिलेगी। ( बीस हज़ार के साथ ‘रक़म’ का इस्तेमाल उसने मेरा मन खुश करने के लिए किया था।) मैं सोचने लगा कि अगर बारह साल तक दिन-रात मेहनत कर रूपया जोड़ूं तो भी सिंगापुर में तीन दिन और चार रातें नहीं गुज़ार सकता। मुझे घबराहट होती है। सोचता हूं कि आख़िर मेरी ज़िंदगी की किताब में अख़बार का ये पन्ना कब जुड़ेगा।


मुझे आज भी याद है, हमारे गांव में जब कोई बाहर से आता तो दो-चार दिन बाद बेचैन हो उठता। बावजूद ये जानते हुए कि आठवीं तक एक राजकीय स्कूल के अलावा पूरे गांव में कोई पक्की इमारत नहीं है, वो घुमाने की डिमांड करता। मजबूरी में उसे साइकिल पर बिठा गांव से दो किलोमीटर दूर पानी की टंकी दिखाने ले जाते। टंकी से रिसाव के चलते उसके आस-पास उग आई घास दिखाते। ऊंचाई और हरियाली एक साथ देख वो बेचारा निहाल हो जाता। उस गरीब को मज़ा आ जाता। दुनिया लाखों खर्च कर आइफिल टावर देखने जाती है मगर सरकार की मां बदौलत इस देश में आज भी इतना पिछड़ापन है कि लोग पानी की टंकी में भी आश्चर्य और उत्तेजना ढूंढ लेते हैं।

कल ही दो दिन की बारिश के बाद पड़ौ़स में रहने वाले सज्जन कह रहे थे कि मज़ा आ गया। बिल्कुल शिमला जैसा मौसम हो गया। मैं जानता हूं कि वो कभी शिमला नहीं गए। फिर भी हर बारिश पर हल्ला कर घोषणा कर देते हैं कि मौसम शिमला जैसा हो गया। पिता की इस घोषणा के बाद बच्चे शिमला जाने की मांग नहीं करते। पकौड़े खाते समय बीवी भी यही सोचती है कि वो शिमला में बैठी है।

मैं सोचता हूं.....एक ही बारिश में दिल्ली को शिमला बना भगवान इंद्र ने ट्रेवल एजेंसियों की रोज़ी पर लात मार दी। हे प्रभु! मुझ पर भी कृपा करो। जानता हूं तुम बीमारी के नहीं, बारिश के देवता हो...फिर भी घनश्याम को जल्दी ठीक कर दो। मुझे भी घर जाना है।

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

मुसीबतों का इंद्रधनुष!

बारिश के बाद अगली सुबह है। मैं ऑफिस के लिए घर से निकला हूं। कुछ दूरी पर ही बर्बादी का ट्रेलर दिखने लगा है। नालियां ख़तरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। गटरों में हाई टाइड है। ये देख लोगों की हवा टाइट है। सड़क की हालत पर गश खा कुछ पेड़ सड़क पर ही गिरे पड़े हैं। यहां-वहां लटकते लैम्प पोस्ट मानो उनके दुख में शरीक हो रहे हैं। वहीं गंदे पानी पर तैरते रंग-बिरंगे पॉलिथीन सड़क को इंद्रधनुषी लुक दे रहे हैं।

दोनों ओर से लबलबाती नालियों ने सड़क को पूरी तरह आगोश में ले लिया है। ये बताना मुश्किल है कि सड़क कहां है और सड़क के पासपोर्ट में पहचान चिह्न के रूप में दर्ज, स्थायी गड्ढ़े कहां! ऐसे ही एक छुपे रूस्तम गड्ढे से अनजान शख़्स बाइक सहित उसमें धंस जाता है। तभी सड़क क्रॉस करने की कोशिश में एक कैब उसके आगे आ जाती है। उधर, कैब के सामने ब्लूलाइन बस आ जाती है। स्थिति का फायदा उठा लोहे के एंगल हवा में लहराता एक हाथ रिक्शा वहां से निकलता है। एंगल की दहशत से लोग गाड़ियां पीछे करते हैं और पीछे खड़ी गाड़ी से टकरा जाते हैं। अगले दस मिनट तक वो एक-दूसरे के परिजनों को याद कर गुस्से का इज़हार करते हैं।

देखते ही देखते वहां मिनी गृहयुद्ध के हालात बनने लगते हैं। लोगों की ज़बान से भी लम्बा ट्रैफिक जाम लग जाता है। सामने वाले की गर्दन समझ गाड़ियों के हॉर्न ज़ोर-जोर से दबाए जाने लगते हैं। हवा में गूंजते बीसियों बेसुरे हॉर्न और लहराती गालियां कोरस में मानो यमराज को न्यौता देती हैं। आप समझ जाते हैं कि आपका वक्त आ गया। तभी आपके हाथ से गाड़ी का हैंडल फिसलता है, जूते में गंदा पानी घुसता है। हॉर्न की आवाज़ पर भी यमराज नहीं आ रहे और आप सोचते हैं कि क्यों न इसी जूते के पानी में डूब कर अपनी जान दे दूं या फिर जूता उतार वहां खड़े लोगों को दे मारूं। वैसे भी उसे भिगोने की ज़रूरत नहीं है।

जो बारिश दिल के तार छेड़ती है, वही नकारा निगम की बदौलत व्यवस्था को तार-तार कर रही है। बिना डूब मरे ही नर्क का अहसास करवा रही है। अच्छा होता कि मैं मोटरसाइकिल की जगह मोटरबोट फाइनेंस करवा लेता। बारिश के लिए लाख तड़पता पर उसकी दुआ न मांगता। एक हाथ से बाइक संभाल और दूसरे को आसमान की तरफ उठा मजबूर इंसान यही दुआ मांगता है कि हे प्रभु! बारिश के साथ मुसीबतों का भार भी देना है तो बेहतर होगा कि नगर निगम का प्रभार भी तुम ही संभाल लो।

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

लिखना चिट्ठी इंद्र को और आना जवाब वहां से!

बारिश का इंतज़ार बीजेपी के झगड़ों की तरह लगातार बढ़ रहा था। मौसम विभाग की उल्टी-सीधी भविष्यवाणियां सुन, कान टपकने की हद तक पक चुके थे। बादल, मुंह दिखाई की रस्म निभा विदा ले रहे थे और सब्र का बांध, बजट पूर्व की उम्मीदों की तरह टूटने के कगार पर था। तभी मैंने तय किया कि क्यों न सीधे भगवान इंद्र से शिकायत करूं। इसी बाबत मैंने उन्हें ईमेल किया। गौर फरमाएं-

प्रभुवर,
सादर प्रणाम!
तय नहीं कर पा रहा हूं, गुस्सा करूं या गुज़ारिश। आधा जुलाई बीत चुका है मगर नेताओं के ज़मीर की तरह बारिश का अब भी कोई पता नहीं। हफ्ता पहले सुना था, मॉनसून आने को है। चार दिन पहले सुना, ‘बस! आ गया’ और दो रोज़ पहले कहा गया कि ‘बस! आ ही गया’। बताओ प्रभु, उसे रोडवेज़ की किस बस में बिठा आए हो जो वो अब तक नहीं पहुंचा।

बादल न जाने हमसे किस जन्म का बदला ले रहे हैं? क्यों हमें मुंह चिढ़ा रहे हैं? होता ये है कि अक्सर घने बादल गरज़ने लगते हैं। एक-आध बूंद टपक भी जाती है। बाहर सूखते कपड़े अंदर कुर्सियों पर डाल दिए जाते हैं। बीवी पकौड़ों की तैयारी में तेल गर्म करने लगती है। बेसन लाने का आदेश पा पति किराना दुकानों का रुख करते हैं। ‘आलू या प्याज के’ पकौड़ों के लिए बच्चे टॉस करते हैं और ऐसे समय जब कायनात का पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा बारिश के लिए तैयार होता है, इलाके के सारे मोर बारिश से पहले की फाइनल डांस रिहर्सल को भी अंजाम दे चुके होते हैं, बादलों की झीनी चादर फाड़ सूरज सबसे सामने नुमाया हो जाता है। बेसन लेने गए पति का घर पहुंचते-पहुंचते तेल निकल जाता है। कड़ाही में खौलता तेल धरा का धरा रह जाता है। बारिश में नहाने की उम्मीद बांधा आदमी, पसीने से नहा घर लौटता है।
बताओ प्रभु, ये कहां का न्याय है? या तो बारिश दो या फिर मेरे ख़त का जवाब।

वर्षाभिलाषी...

इसके बाद कुछ दिन और बीते। बारिश तो नहीं आई, भगवान इंद्र का जवाब ज़रूर आया। आप भी पढ़िए।

वत्स,

तुम्हारा मेल मिला। तुमने बताया कि किस तरह बारिश न होने से बुरा हाल है। चारों तरफ हाहाकार मचा है। जन-जन बारिश के लिए तरस रहा है। मगर तुम ही बताओ, मैं क्या करूं? जिन इलाकों में बारिश की है, वहां के हालात देख सहमा गया हूं। कहीं दस मिनट बारिश हुई और दस घंटे के लिए बिजली चली गई। सड़क पर मौजूद मामूली खड्डे, चार बाई छह के गड्ढों में तब्दील हो गए। खुले गटर राहगीरों के लिए जल समाधि बन गए। चार मिलिमीटर की बारिश में दस-दस किलोमीटर के ट्रैफिक जाम लग गए।

न जाने कितनी निचली बस्तियों में पानी भर गया। कितने ही लोग तेज़ धाराओं में बह गए। ऊपर से न तो तुम्हारी सरकार के पास जल नीति है और न ही डिज़ास्टर मैनेजमेंट। उसे सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट की तो चिंता है मगर बारिश में डूबते शख्स की सुरक्षा की कोई चिंता नहीं। तुम्हारे कृषि मंत्री कहते हैं कि देश में अनाज रखने की जगह नहीं है। सोचो, ऐसे में मेघ बरस गए तो क्या होगा? गरीबों की हालत मेघनाद की ताकत से घायल लक्ष्मण सरीखी हो जाएगी और आज की सरकारों में तो ऐसा कोई हनुमान भी नहीं जो उनके लिए संजीवनी ला सके।

यही सब सोच और देख मैं सिहर गया हूं। तय नहीं कर पा रहा क्या करूं...तुम्हें मौसमी बारिश दूं या बारिश न दे मुसीबतों की बारिश से बचाऊं!

इति अलम्!
तुम्हारा इंद्र

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

राजनीति का मुआवज़ा!

‘संयम’ की आंखें नम हैं। वो दसियों सालों से विस्थापन की मार झेल रहा है। राजनीति की ज़रूरत बता एक बार किसी नेता ने उससे जगह खाली करवाई थी, मगर तब से उसे न मुआवज़ा मिला, न मकान। वो न जाने कब से राजनीति की चौखट पर ‘अंदर आ जाओ’ सुनने की उम्मीद में बैठा है। इस बीच बहुतों ने समझाया कि व्यर्थ का आशावाद मत पालो। तुम ‘आउट ऑफ फैशन’ हो गए हो। मगर वो नहीं मानता। उसे लगता है कि वो तो संस्कारों का हिस्सा है और संस्कार कभी आउट ऑफ फैशन नहीं होते।

‘संयम’ का विश्वास अपनी जगह है मगर मुझे भी लगने लगा है कि संस्कार कहीं ‘आउट ऑफ फैशन’ ही तो नहीं हो गए। ‘संयम’ और ‘शुचिता’ कहीं सत्तर के दशक की बैल बॉटम तो नहीं हो गई जिसका ट्रेंड अब नहीं रहा। फिर सोचता हूं कि शायद ये अलग-अलग सभ्यताओं की एक पैमाने पर तुलना जैसा है। मसलन, निर्वस्त्र रहना सभ्य समाज में बुरा माना जा सकता है मगर कई आदिवासी समाजों में नहीं। और जिस तरह ‘पहनावा’ सभ्यता से जुड़ा है उसी तरह ‘भाषायी संस्कार’ भी। गाली देना सभ्य समाज में बुरा हो सकता है मगर राजनीतिक समाज में नहीं। मतलब तो भावनाओं के इज़हार से है। किसी विद्वान ने कहा भी है कि ‘अभिव्यक्ति’ आपके एहसास की सर्वोत्तम वेशभूषा है। अब ये हमारा दोष है अगर हमें उस वेशभूषा में फटा नज़र आता है, उस पर गंदगी दिखती है। यहां एक का वजूद, दूसरे के विनाश पर टिका है इसलिए भाषा के मर्तबन में मिठास कैसे हो सकती है?

अब कोई इज़राइली आप से शिकायत करे कि आप हिंदी में क्यों बात करते हैं, हिब्रू में क्यों नहीं, तो आप क्या कहेंगे? यही ना कि भाई, हिब्रू तुम्हें आती होगी, हमें नहीं, हम तो हिंदी जानते हैं, उसी में बात करेंगे। इसलिए जब कोई रीता बहुगुणा जोशी किसी मायावती से और कोई मायवती किसी मुलायम सिंह से बात करे तो आप बुरा न मानें कि वो हिब्रू में बात क्यों कर रहे हैं। अरे भाई, राजनीतिक प्रदेश की यही भाषा है।

रही बात इस भाषा के अभद्र होने की तो इस पर मेरी अलग सोच है। विज्ञान कहता है कि आदमी मूलत: जानवर है, मगर वो इंसान होने की कोशिश करता है। ऐसे में अगर आपको नेताओं की हरक़ते और बातें ग़ैर इंसानी लगती हैं तो उसका यही अर्थ है कि इन लोगों ने अपने मूल के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया है। पर अफसोस...यही लोग राजनीति के प्रतिनिधि भी हैं, और गुनाहगार भी...आख़िर राजनीति मुआवज़ा मांगे भी तो किससे? उसके लिए तो एक करोड़ भी कम हैं!

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

इक तेरी इनायत और इक मेरी आफत!

बेशर्मी ने अपना दायरा बढ़ाया है। इंसानों से होते हुए वो सब्जियों तक जा पहुंची है। मैं आलू को समझाने की कोशिश कर रहा हूं, मगर वो नहीं समझ रहा। लाखों करोड़ की सब्सिडी का हवाला देता हूं, फ्रिंज बेनिफिट टैक्स के खात्मे की याद दिलाता हूं, नौ फीसदी विकास दर का भी ज़िक्र करता हूं, मगर सब नाकाम। औसत चाकू से कट जाने वाला आज किसी तर्क से नहीं कट रहा। एक सीटी में गल जाने वाला आज किसी दलील पर नहीं पिघल रहा। किसी क़ीमत पर अपनी क़ीमत कम करने को तैयार नहीं है।

निराश हो मैं शिमला मिर्च का रुख करता हूं। इस उम्मीद में कि शायद उसने बजट भाषण सुना हो, आर्थिक सर्वेक्षण पढ़ा हो और शायद वो मेरी अवस्था देख, मेरी ख़राब अर्थव्यवस्था का अंदाज़ लगा पाए, मगर सब व्यर्थ। मेरी बकवास से बचने के लिए शिमला मिर्च भी कान में हरी मिर्च डाले बैठी रही। दालों से भी फरियाद की मगर वहां भी दाल नहीं गली। हारकर प्याज के पास पहुंचा। उसे किसानों के ऋण पर घटे ब्याज के बारे में बताया, मगर प्याज भी ब्याज की बात से प्रभावित नहीं हुआ।

आंखों से आंसू छलक आए हैं, पर ये प्याज के नहीं, भूख के हैं। समझ नहीं पा रहा, क्या करूं? ब्रांडेड ज्वैलरी को फ्राई कर खाऊं या एलसीडी टीवी के टुकड़े कर उसे कुकर में सीटी लगवा लूं और ऊपर से बायोडीज़ल पी लूं? बर्दाश्त की सीमा ख़त्म हो रही है। तभी याद आता है कि जीवन रक्षक दवाओं पर सीमा शुल्क में कटौती हुई है। सोचता हूं...जान बचाने का एक ही तरीका है कि कुछ जीवन रक्षक दवाएं खा लूं। विचार आते ही सरकार की दूरदर्शिता को सलाम करने का दिल चाहता है। उसे आभास था कि उसके ‘जीवन भक्षक’ इंतज़ामों के बाद ये ‘जीवन रक्षक’ दवाएं ही लोगों के काम आएंगी। तभी इनकी क़ीमतें कम कर दीं।

फिर भी मैं इस कोशिश में हूं कि कहीं किसी कोने में दबी-छिपी खुशी अगर दबी-सहमी बैठी है तो उसे ढूंढ लाऊं। मेरी नज़र आयकर छूट की बढ़ी सीमा पर पड़ती है जो डेढ़ लाख से एक-साठ हो गई है। मतलब, सालाना एक हज़ार तैंतीस और मासिक पच्चासी रूपये की ‘भारी बचत’। आंखें खुशी से छलछला उठी हैं। तय नहीं कर पा रहा हूं कि बढ़े पैसों को कहां निवेश करूं? इन पैसों से तीन पाव दूध फालतू लगवाऊं, ढाई किलो देसी घी खरीदूं, दो अख़बार और लगवाऊं या सारा पैसा स्विस बैंक में जमा करवा दूं। भारी कन्फ्यूजन है। सोचता हूं ऑफिस से हफ्ता-दस दिन की छुट्टी ले, सीए से सलाह करूं। आख़िर मामला हज़ार रूपये के निवेश का है। जल्दबाज़ी में कहीं पैसा ‘फंसा’ न बैठूं।

मैं निवेश की समस्या से जूझ ही रहा था कि बेरोज़गार मित्र घर में प्रवेश करता है। उसके हाथ में हिंदी-अंग्रेज़ी के दसियों अख़बार थे और चेहरे पर चिंता की बीसियों लकीरें। पूछने लगा-कहां है? मैंने कहा-क्या? वो बोला-‘एक करोड़ बीस लाख नौकरियां। सभी अख़बार खंगाल मारे। मुझे तो एक भी नहीं मिली’। मैंने कहा-‘मित्र, अभी तो वित्त मंत्री ने घोषणा ही की है, इन्हें क्रिएट किया जाएगा। मैंने समझाया कि ‘राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन’ के तहत साठ करोड़ लोगों के लिए ‘बायोमैट्रिक कार्ड’ जारी किए जाएंगे। ‘यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया’ को भी पहचान पत्र बनाने हैं। दोनों जगह लोग रखे जाने हैं’। मित्र उतावला हो उठा। इससे पहले मैं कुछ और कहता, उसने पूछा- ‘मगर क्या ये सारी भर्तियां दस तारीख से पहले हो जाएगा?’ मैंने पूछा-वो क्यों? वो इसलिए क्यों कि मुझे हर हाल में दस तारीख से पहले किराया देना है...मैंने कहा-मित्र, उन्हें तुम्हारे भाड़े की नहीं, भाड़ की चिंता और तुम्हें वहां भेजने का उन्होंने पूरा बंदोबस्त कर लिया। अब तो दुआ करो कि अगले बजट में 'राष्ट्रीय ग्रामीण किराएदार मिशन' के नाम से कोई योजना आ जाए।

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

जो ज़्यादा आसान है!

उम्मीद, मेरा प्रिय कर्म है। जब चाहें, जहां चाहें, जितनी चाहें और जिससे चाहें आप मुझसे उम्मीद करवा सकते हैं। मैं वक़्त और सीज़न के हिसाब से लोग चुनता हूं। उनके लिए मापदंड तय करता हूं और बताता हूं कि वो मेरी उम्मीदों पर ख़रे उतरे या नहीं। अभी-अभी बजट का सीज़न ख़त्म हुआ है। ट्रेन बजट से पहले ममता बैनर्जी से उम्मीद थी और आम बजट से पहले प्रणव मुखर्जी से। न बैनर्जी मेरी उम्मीदों पर खरी उतरीं, न ही मुखर्जी। ममता जी से उम्मीद थी कि वो फर्स्ट क्लास में डबल बैड लगवाएंगी, सैकिंड क्लास में एसी और साधारण डिब्बे में कूलर। मुझे पक्का यकीन था कि वो पच्चीस रूपये के पास में पैलेस ऑन व्हील्स का सफर भी शामिल करेंगी। सामान्य किराए पर तत्काल का टिकट देंगी! हर यात्री को मुफ्त खाना देंगी और ऐसा खाना खा बीमार पड़ने वालों की दवा भी करवाएंगी, मगर नहीं हुआ। किया उन्होंने ये कि पत्रकारों को टिकट में पचास फीसदी की छूट दे दी। ऐसा कर उन्होंने पत्रकारों पर अहसान नहीं किया, बल्कि रेलवे का ही पचास फीसदी नुकसान कम किया है!

वहीं, प्रणव दा से उम्मीद थी कि वो कर मुक्त आय की सीमा बीस लाख कर देंगे। कर चोरी से सीमा हटा देंगे। मेरे प्रिय फ्रूट लीची पर सब्सिडी दिलवाएंगे। उसकी कीमत पांच रूपये किलो कर देंगे। होटलों में पनीर बटर मसाला की फुल थाली बीस रूपये करा देंगे। मल्टीप्लैक्स का टिकट दस का करवा देंगे और तीस रूपये के महंगे मिनरल वॉटर से बचाने के लिए पिक्चर हॉल में ही हैंडपंप लगवा देंगे, मगर ऐसा भी नहीं हुआ।

मुझे उम्मीद थी कि अंतरराष्ट्रीय दबाव के बाद उत्तर कोरिया परमाणु परीक्षण नहीं करेगा, शादी से पहले सानिया मिर्जा विम्बल्डन के सेमीफाइनल में पहुंचेंगी, प्रीतम अपनी फिल्मों में कुछ अपना भी संगीत देंगे। पडौ़सी मंगलू की नई जरसी गाय बीस लीटर दूध देगी, उसका बेटा आड़ूराम दसवीं में नब्बे फीसदी अंक लाएगा, उसकी बहन कचरा देवी अपने ससुराल से मेरे लिए नया स्वेटर लाएगी, मगर ये भी नहीं हुआ।

मन भारी हो गया है। गुस्से और अवसाद से घिर गया हूं। दिल कर रहा है मिट्टी का तेल डाल पूरी दुनिया को आग लगा दूं और सारे अग्निशमन यंत्र दरिया में फेंक दूं। क्यों...आख़िर क्यों...ये दुनिया मेरी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती। परेशान हूं। नहीं जानता क्या करूं। कभी-कभी सोचता हूं कि दुनिया को छोड़, खुद से कुछ उम्मीद कर लूं। फिर ख़्याल आता है कि नहीं, मैं आम आदमी हूं। मुझे सारी उम्मीदें दूसरों से ही करनी है। वैसे भी दुनिया को आग लगाना, आत्मदाह करने से कहीं ज़्यादा आसान है!

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

जितनी तारीफ की जाये, ज़्यादा है!

तारीफ के मामले में हम हिंदुस्तानी इनकमिंग में यकीन करते हैं और आउटगोइंग से परहेज़। वजह, हम जानते हैं कि तारीफ कर देने का मतलब है सामने वाले को मान्यता देना और ऐसा हम कतई नहीं होने देंगे। हम चाहते हैं कि वो भी उतने ही संशय में जियें जितने में हम जी रहे हैं।

अगर किसी दिन हमारा कोई कलीग ब्रेंडेड शर्ट पहन कर आया है और वो उम्मीद कर रहा है कि हम शर्ट की तारीफ करें तो हमें नहीं करनी है। जैलिसी का पहला नियम ही ये है कि सामने वाला जो चाहता है, उसे मत दो! वो तारीफ सुनना चाहता है आप मत करो। अगर वो तंग आकर खुद ही बताने लगे कि मैंने कल शाम फलां शोरूम से अपने बुआ के लड़के के साथ जा ये शर्ट खरीदी थी तो भी हमें उसके झांसे में नहीं आना। इसके बाद भी वो अगर बेशर्म हो पूछ ही ले बताओ न कैसी लग रही है ? फिर भी आपके पास दो आप्शंस है।

पहला ये कि चेहरे पर काइयांपन ला मुस्कुरा दें, अब ये उसकी सिरदर्दी है इसका मतलब निकाले। दूसरा ये कि अगर आपकी अंतरआत्मा अब भी ज़िंदा है, और वो आपको धिक्कारने लगी है कि तारीफ कर, तारीफ कर..... तो 'ठीक है' कह कर छुटकारा पा लें। लेकिन ध्यान रहे... भूल कर भी आपके मुंह से 'बढ़िया', 'शानदार' या 'डैशिंग' जैसा कोई शब्द फूटने न पाये।

'दुनिया देख चुके' टाइप एक सीनियर ने मुझे बताया हमें तो अपनी प्रेमिकाओं तक की तारीफ नहीं करनी चाहिये। अगर वो ज़्यादा इनसिस्ट करें तो कह दो, डियर, तारीफ 'उस खुदा की' जिसने तुम्हें बनाया, या फिर तुम्हारी तारीफ के लिए 'मेरा पास शब्द नहीं है'। मतलब ये कि या तो आप ऊपर वाले को क्रेडिट दे दें, या फिर ‘सीमित शब्दावली' का बहाना बना अपनी जान छुड़ा लें, लेकिन तारीफ मत करें। वजह, एक बार अगर इमोशनल हो कर आपने प्रेमिका की तारीफ कर दीं, तो वो बीवी बनने के बाद भी उन बातों को 'सच मानकर' याद रखेगी। आप शादी के बाद झूठ बोलने का मोमेंटम बना कर नहीं रख पायेंगे। और फिर वो सारी उम्र आपको 'बदल' जाने के ताने देगी।

यहां तक तो ठीक है। मैंने सीनियर से पूछा मगर सर, हमारी भी तो इच्छा होती है कि कुछ अच्छा करें तो तारीफ हो। फिर? सीनियर तपाके से बोले, बाकी चीज़ों की तरह तारीफ के मामले में भी आत्मनिर्भर बनो! घटिया लेखक होने के बावजूद तुम्हें लगता है कि तुम्हारी किसी रचना की तारीफ होनी चाहिये और आसपास के लोगों में इतनी अक्ल नहीं है तो खुद ही उसकी तारीफ करो! वैसे भी हर रचना समाज के अनुभवों से निकलती है, उसमें समाज का उतना ही बड़ा योगदान होता है, जितना लेखक का। ऐसे में उस रचना की तारीफ कर तुम अपनी तारीफ नहीं कर रहे, बल्कि समाज का ही शुक्रिया अदा कर रहे हो!

बुधवार, 1 जुलाई 2009

किंगस्टन में रथ यात्रा!

गेलचंद की गाड़ी कुछ दिनों से उसे काफी परेशान कर रही थी। चलते-चलते वो हर थोड़ी दूर पर रूक जाती। इससे परेशान हो उसने सीट कवर बदलवा लिए। वो आश्वस्त था कि अब गाड़ी ठीक चलेगी। गाड़ी चलायी तो फिर वही समस्या। इस बार उसने स्टीरियो चेंज करवाया। वो खुश था कि अब तो गाड़ी सरपट दौड़ेगी। गाड़ी, चूंकि उसके किसी ‘मूर्खतापूर्ण आत्मविश्वास’ की गुलाम नहीं थी इसलिए नहीं दौड़ी! इस बार उसने गाड़ी को पेंट करवाया। मगर नतीजा वही। एक-एक कर उसने परफ्यूम, फुट मैट, सब बदल डाले मगर वो नहीं सुधरी। गेलचंद अब बेहद तनाव में था। इसी तनाव में वो एक मित्र के पास पहुंचा। समस्या सुनते ही मित्र चिल्लाया, अरे मूर्ख! तूने इंजन चैक किया। वो हैरानी से बोला ओफ् फो! वो तो मैंन देखा ही नहीं।

मैं ये नहीं कहूंगा कि बीजेपी नेताओं की आई-क्यू गेलचंद से भी गई-गुज़री है। मगर हार पर जिस चिंतनीय किस्म का आत्मचिंतन उसने अब तक किया है, उससे पूरी पार्टी ही गेलचंद लग रही है। फर्क इतना है कि गेलचंद ने इंजन भी चैक नहीं किया और बीजेपी सब जांचने-परखने के बावजूद ख़राबी को खराबी मानने के लिए तैयार नहीं। वो अब भी इस मासूम आशावाद में जी रही है कि रथ यात्रा जैसे सीट कवर बदलू बंदोबस्त से गाडी सरपट दौड़ने लगेगी। ‘हिंदुत्व ही हमारी मूल विचारधारा है और हिंदुत्व के चलते हम नहीं हारे’, अगर यही उसकी डेढ़ हज़ार आत्मचिंतन बैठकों का हासिल है तो मित्रों मैं यही कहूंगा कि वो लानत की नहीं, आपकी दुआ कि हक़दार है।

बीजेपी नेताओं से मैं गुज़ारिश करता हूं कि वो इस विचारधारा और आत्मविश्वास को बनाए रखें। हो सकता है कि भारतीय जनता की अक्ल दाढ़ आना अभी बाकी हो, इसलिए ज़रूरी है कि तब तक इस महान विचार को भारत से बाहर आज़माएं। पार्टी, अगले चुनावों तक नेपाल, मॉरीशस, फिजी और कैरेबियाई देशों में चुनाव लड़े। यहां हिन्दू वोटरों की तादाद काफी है। कुछ-एक देशों में हिन्दू राष्ट्राध्यक्ष भी हैं। ज़मीन से जुड़े और पार्टी अध्यक्ष बनने के लिए ज़मीन-आसमां एक कर देने वाले दूसरी पंक्ति के नेताओं को अलग-अलग देशों की कमान सौंपी जाए। जो चुनाव जिता लाएं, उन्हें भारत में पार्टी अध्यक्ष बनाया जाएं और जो हरवा दें, उन्हें आगे की राजनीति उसी देश में करने की हिदायत दी जाए। आख़िर में आडवाणी साहब से पूछना चाहूगा कि मन के गहरे अंधेरे कोने में अगर अब भी पीएम बनने की ख्वाहिश कुलांचें मार रही है तो वो भी एक-आध देश में हाथ आज़मा सकते हैं। मगर शक़ ये है कि उन्हें जमैका या किंगस्टन में रथयात्रा की इजाज़त मिलेगी या नहीं!

मंगलवार, 30 जून 2009

होनी ने बनने नहीं दिया धोनी!

क्रिकेट में हर बड़ी हार के बाद औसत भारतीय नौजवान बिना किसी बाहरी दबाव के एक ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले लेता है। वो ये कि-इनसे कुछ नहीं होगा, अब मुझे ही कुछ करना पड़ेगा। भले ही गली की टीम में उसकी जगह पक्की न हो, मगर वो मानता है कि इस देश में अगर कोई ऐसा प्रतिभावान, ऊर्जावान, पहलवान माई का लाल है, तो वो मेरी ही माई का है।

इस लिहाज़ से टीम इंडिया की ट्वेंटी-ट्वेंटी विश्वकप में हुई हार का कुछ हद तक मैं भी ज़िम्मेदार हूं। मगर, यकीन मानिए दोस्तों, इसके लिए पूरी तरह मैं भी कसूरवार नहीं हूं। जोश मुझमें भी खूब था, बिना फोटोशॉप में गए टीम इंडिया की तस्वीर मैं भी बदलना चाहता था, मगर हालात कभी मेरे साथ नहीं रहे।

बचपन में जब ये बात संज्ञान में आई कि मैं एक ऐसे देश में पैदा हुआ हूं जहां नागरिकता का सबूत देने के लिए क्रिकेट खेलना ज़रूरी है, तो मैंने भी देशभक्ति दिखाई। शुरूआत लकड़ी के ऐसे टुकड़े से हुई, इत्तेफाक से जिससे घर में कपड़े भी धुलते थे। मां उससे कपड़े धोती और मैं गेंदबाज़। इलाके की दुकानों और मेरे शब्दकोष में उस समय तक क्रिकेट बैट का कोई वजूद नहीं था। शुरूआती क्रिकेट करियर उसी थापे के सहारे आगे बढ़ा। फिर कद बढ़ा तो बड़े बल्ले की ज़रूरत महसूस हुई। अपने-अपने मां-बाप से झगड़कर गली के दस-एक लड़कों ने मिलकर ‘एक बैट’ खरीदा।

खेलते समय हम आईसीसी के किसी नियम के दबाव में नहीं आते थे। खिलाड़ियों की संख्या इस बात पर निर्भर करती कि कितनों के बाप घर पर हैं और कितनों के काम पर। गली में दाएं-बाएं घर थे लिहाज़ा, कवर ड्राइव और ऑन ड्राइव की मनाही थी। हम सिर्फ मुंह और गेंद उठा सामने मार सकते थे। उसमें भी कुछ ऐसे घरों में गेंद जाने पर आउट रखा था, जहां गेंद के बदले गालियां मिलती थीं।

कोलतार की सड़क अब भी हमारे लिए अफवाह थी। कच्ची सड़क पर जगह-जगह गड्ढे रहते। उन्हीं गड्ढों में अपनी योग्यता के हिसाब से निशान साध हम लेग स्पिन और ऑफ स्पिन करते। गेंदबाज़ी एक्शन में अपने पसंदीदा गेंदबाज़ों की घटिया नकल करते। गली क्रिकेट के दौरान बरसों तक मैं खुद को महान स्पिनर मानता रहा। मगर इस बीच हमारे यहां पक्की सड़क का आगमन हुआ। सड़क से गड्ढे और गेंदों से स्पिन गायब हो गई। तब पहली बार मुझे एहसास हुआ कि इस देश का पूरे का पूरा सिस्टम उभरती प्रतिभाओं को दबाने में लगा है।

ऐसे किसी दबाव को नकार हम गली से कूच कर मैदान पहुंचे। किसी को इंसान कहने के लिए जिस तरह उसमें अक्ल अनिवार्य शर्त नहीं है, उसी तरह बिना घास, बिना पिच और स्टैंड्स के इसे भी क्रिकेट स्टेडियम कहा जाता था। शहर के सभी लड़के अपनी भड़ास यहीं निकालते। क्रिकेट की जिन बारीकियों पर जानकर घंटों बहस करते हैं जैसे-बल्लेबाज़ का फुटवर्क, गेंदबाज़ का सीधा कंधा, हमें ज़रा भी प्रभावित नहीं करतीं। नियम इंसान की सहज बुद्धि ख़त्म कर देता है, ये मान हम ‘अपने तरीके’ से खेलते। फिसड्डी बल्लेबाज़, पैदल गेंदबाज़ों की बैंड बजाते और खुद को ब्रैडमैन मानते। थके हुए गेंदबाज़ खुद से ज़्यादा थके हुओं की पिटाई कर मुगालतों में जीते।

इन्हीं मुगालतों को सीने से लगाए हम टीवी पर क्रिकेट मैच भी देखते। टीम की हर हार पर उसे चुन-चुन कर गालियां देते। यही सोचते कि जब मैं स्टेडियम में कोदूमल की गेंदों की धज्जियां उड़ा सकता हूं तो भारतीय बल्लेबाज़ एम्ब्रोज़ की रेल क्यों नहीं बना सकते। हमारी नज़र में नाई मौहल्ले के बिल्लू रंगीला और ऑस्ट्रेलिया के ब्रेट ली में कोई फर्क नहीं था। इस तरह अपने-अपने विश्वास से हम टीम इंडिया में चुने जाने की कगार पर थे। मगर तभी हमारे सारे सपने एक ही झटके में सूली पर चढ़ गए। कथित स्टेडियम में नई धान मंडी ट्रांसफर कर दी गई। विकेटों की जगह ट्रक और खिलाड़ियों की जगह आढ़तियों ने ले ली। जिस स्टेडियम से हम गेंदों को बाहर फेंकते थे, जल्द ही हमें उससे बाहर फेंक दिया गया। आज भी सोचता हूं तो लगता है कि शायद होनी को मेरा धोनी बनना मंज़ूर ही नहीं था।

सोमवार, 22 जून 2009

इस शहर में हम भी भेड़ें हैं!

ब्लूलाइन में घुसते ही मेरी नज़र जिस शख़्स पर पड़ी है, बस में उसका डेज़ीग्नेशन कन्डक्टर का है। पहली नज़र में जान गया हूं कि सफाई से इसका विद्रोह है और नहाने के सामन्ती विचार में इसकी कोई आस्था नहीं । सुर्ख होंठ उसके तम्बाकू प्रेम की गवाही दे रहे हैं और बढ़े हुए नाखून भ्रम पैदा करते हैं कि शायद इसे ‘नेलकटर’ के अविष्कार की जानकारी नहीं है।

इससे पहले कि मैं सीधा होऊं वो चिल्लाता है- टिकट। मुझे गुस्सा आता है। भइया, तमीज़ से तो बोलो। वो ऊखड़ता है, 'तमीज़ से ही तो बोल रहा हूं।' अब मुझे गुस्सा नहीं, तरस आता है। किसी ने तमीज़ के बारे में शायद उसे 'मिसइन्फार्म' किया है !

टिकिट ले बस में मैं अपने अक्षांश-देशांतर समझने की कोशिश कर ही रहा हूं कि वो फिर तमीज़ से चिल्लाता है-आगे चलो। मैं हैरान हूं ये कौन सा 'आगे' है, जो मुझे दिखाई नहीं दे रहा। आगे तो एक जनाब की गर्दन नज़र आ रही है। इतने में पीछे से ज़ोर का धक्का लगता है। मैं आंख बंद कर खुद को धक्के के हवाले कर देता हूं। आंख खोलता हूं तो वही गर्दन मेरे सामने है। लेकिन मुझे यकीन है कि मैं आगे आ गया हूं, क्योंकि कंडक्टर के चिल्लाने की आवाज़ अब पीछे से आ रही है!

कुछ ही पल में मैं जान जाता हूं कि सांस आती नहीं लेना पड़ती है....मैं सांस लेने की कोशिश कर रहा हूं मगर वो नहीं आ रही। शायद मुझे आक्सीज़न सिलेंडर घर से लाना चाहिये था। लेकिन यहां तो मेरे खड़े होने की जगह नहीं, सिलेंडर कहां रखता।

मैं देखता हूं लेडीज़ सीटों पर कई जेन्ट्स बैठे हैं। महिलाएं कहती हैं कि भाईसाहब खड़े हो जाओ, मगर वो खड़े नहीं होते। उन्होंने जान लिया है कि बेशर्मी से जीने के कई फायदे हैं। वैसे भी 'भाईसाहब' कहने के बाद तो वो बिल्कुल खड़े नहीं होंगे। खैर.. कुछ पुरुष महिलाओं से भी सटे खड़े हैं, और मन ही मन 'भारी भीड़' को धन्यवाद दे रहे हैं!

इस बीच ड्राइवर अचानक ब्रेक लगाता है। मेरा हाथ किसी के सिर पर लगता है। वो चिल्लाता है। ढंग से खड़े रहो। आशावाद की इस विकराल अपील से मैं सहम जाता हूं। पचास सीटों वाली बस में ढाई सौ लोग भरे हैं और ये जनाब मुझसे 'ढंग' की उम्मीद कर रहे हैं। मैं चिल्लाता हूं - जनाब आपको किसी ने गलत सूचना दी है। मैं सर्कस में रस्सी पर चलने का करतब नहीं दिखाता। वो चुप हो जाता है। बाकी के सफर में उसे इस बात की रीज़निंग करनी है।

बस की इस बेबसी में मेरे अंदर अध्यात्म जागने लगा है। सोच रहा हूं पुनर्जन्म की थ्योरी सही है। हो न हो पिछले जन्म के कुकर्मों की सज़ा इंसान को अगले जन्म में ज़रुर भुगतनी पड़ती है। लेकिन तभी लगता है कि इस धारणा का उजला पक्ष भी है। अगर मैं इस जन्म में भी पाप कर रहा हूं तो मुझे घबराना नहीं चाहिये.... ब्लूलाइन के सफर के बाद नर्क में मेरे लिए अब कोई सरप्राइज नहीं हो सकता !

बहरहाल....स्टैण्ड देखने के लिए गर्दन झुकाकर बाहर देखता हूं। बाहर काफी ट्रैफिक है... कुछ समझ नहीं पा रहा कहां हूं। तभी मेरी नज़र भेड़ों से भरे एक ट्रक पर पड़ती है। एक साथ कई भेड़ें बड़ी उत्सुकता से बस देख रही हैं। एक पल के लिए लगा.... शायद मन ही मन वो सोच रही हैं.....भेड़ें तो हम हैं!

शनिवार, 20 जून 2009

सरकारी लापरवाहियों का सौंदर्यशास्त्र!

कुछ दिन पहले मध्यप्रदेश के एक सरकारी स्कूल में मिड डे मील में मेंढक मिला जिस पर खूब हाय-तौबा मची। ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई की बात की गई। स्कूल बंद करवाने की मांग तक उठी। इससे पहले कि मैं मेंढक की प्रजाति और मेन्यू में आई तब्दीली पर विचार करता, एक और धमाका हो गया। झारखंड के एक शासकीय स्कूल में मिड डे मील में सांप पाया गया और इंदौर के एक स्कूल में छिपकली। मैं सोचने लगा कि कैसा दिलचस्प नज़ारा है। बारहवीं में साइंस स्टूडेंट छाती पीट-पीट मर जाते हैं कि सर, प्रेक्टिल के लिए मेंढक दिलवा दो, मगर नहीं मिलता। देशभर के सपेरे जंगलों में सीसीटीवी कैमरे लगा डिजिटल बीन की धुन पर सांप खोजते हैं पर नहीं ढूंढ पाते। और इत्तेफाक देखिए कि वो मिड डे मील की थाली में मिल जाते हैं। साग की जगह सांप और मटर की जगह मेंढक। सरकार कहती है कि हम मुम्बई को शंघाई बना देंगे, विकास दर को चीन के बराबर ले आएंगे। मुझे लगता है और किसी मामले में हम चीन बनें न बनें, सांप और मेंढक डाल अपनी थाली को ज़रूर चीनी थाली बना देंगे। और ऐसा हुआ तो आने वाले दिनों में कछुआ और खरगोश बच्चों को कहानियों में ही नहीं, खाने की थाली में भी मिलेंगे।

दोस्तों, सवाल थाली और उस पर पड़ने वाली गाली का नहीं है बल्कि उससे आगे सरकारी लापरवाहियों के हुस्न का है। मैं देखता हूं कि इन लापरवाहियों में भी ख़ास तरह की सतर्कता बरती जाती है। मसलन, सांप की जगह खाने में मछली भी तो निकल सकती थी। चूंकि मछली हमारे यहां खाई जाती है, इसलिए नहीं निकली। उसी तरह मेंढक की जगह मुर्गा भी निकल सकता था। अब मुर्गा चूंकि बच्चों को बनाया जाता है, खिलाया नहीं इसलिए नहीं निकला।


हमारे मोहल्ले में एक दुकानदार हुआ करते थे। उनका नाम था बनवारी लाल। सौदा लेने के बाद अक्सर वो बकाया पैसों में हेरफेर करते थे। एक बार मैंने शिकायत की तो कहने लगे बेटा चूक हो जाती है। मैंने कहा-लाला जी, हमेशा कम की चूक क्यों होती है, ज़्यादा की तो नहीं होती। ग़लती से कभी चालीस की बजाए एक सौ चालीस तो नहीं लौटाए। खिंचाई के बाद लाला जी सतर्क हो गए। इसके बाद उन्होंने ऐसी बदमाशी नहीं की।

मगर सरकारी तंत्र में जो बनवारी लाल बैठे हैं, उनकी खाल थोड़ी मोटी है। अपनी अल्पसमझ से मैं कभी नहीं जान पाया कि बिजली के बिल हमेशा ग़लती से ज़्यादा ही क्यों आते हैं, ग़लती से कम भी तो आ सकते हैं। गरीब किसान को मुआवज़े का चैक कम क्यों मिलता है, ज़्यादा का भी तो मिल सकता है। ये किस ग्रह की बदमाशी है जो गरीब आदमी को राशन की दुकान से लाल गेंहू तो दिलवाती है मगर धरती के इस गरीब लाल को बासमती चावल नहीं दिलाती। ग़लती से भी इस तंत्र से ऐसी कोई ग़लती क्यों नहीं होती, जो जनता को फलती हो, मसलती न हो। इसलिए मैं चाहता हूं कि इस पूरे तंत्र का नारको टेस्ट करवा ये पता लगाया जाए कि इसके अवचेतन मन की आखिर कौन सी बुनावट है जो इसे भूलकर भी अपना नुकसान और जनता का भला नहीं करने देती।

मैं सरकार से गुज़ारिश करता हूं कि अब से हर ग़लती की सफाई में वो ‘भूलवश’ के बजाए ‘भूलवंश’ शब्द का इस्तेमाल करे क्योंकि यहां ग़लतियां व्यक्तिगत नहीं वंशवादी समस्या है। सरकारी तंत्र का लापरवाह वंश। और यह वंश सरकार गठन में हो या सरकारी तंत्र के चलन में, इस देश में हमेशा से रहा है।

शुक्रवार, 19 जून 2009

गत विजेता की गत!

मैं चेतावनी जारी करता हूं कि मेरे आस-पास जितने भी लोग हैं, सावधान हो जाएं। इंडियन टीम का तो मैं कुछ नहीं बिगाड़ सकता मगर मेरी रेंज में आने वालों ने अगर बद्तमीज़ी की, तो उनकी खैर नहीं। किराने वाला जान ले कि राशन देने में उसने ज़्यादा वक़्त लगाया तो अपने सार्वजनिक जुलूस का वो खुद ज़िम्मेदार होगा। वहीं दूध वाला एक से ज़्यादा घंटी न बजाए, कचरे वाला जल्दी आ नींद का कचरा न करे, पड़ोसी घर के आगे कार न लगाएं और दफ्तर की राह के सभी राहगीर चलते वक़्त तमीज़ का परिचय दें, वरना वो मेरे भन्नाए सिर और खौलते खून की बलि चढ़ जाएंगे।

दोस्तों, टीम इंडिया ने जितनी बार हार कर अपना मुंह काला करवाया, मां काली की कसम, उसे हारता देख उतनी ही रातें मैंने भी काली की। दसियों बार चेहरे पर पानी के छींटें फेंक, तेज़ पत्ती की चाय पी, खुद को जैसे-तैसे इस उम्मीद में जगाए रखना कि प्यारे, आज वो होगा जो अब तक नहीं हुआ, और फिर वही होना जो अब तक होता आया है, बड़ी तकलीफ देता है। और ये तकलीफ, सौजन्य टीम इंडिया, एक नहीं, तीन-तीन बार सहनी पड़ी। पिछले तेईस साल से खुद को बाईस का बताने वाले लौंडे जब गेंद के पीछे भागते थे तो लगता था मानो ये बाईस के नहीं एक सौ बाईस साल के हैं। तेज़ गेंदबाज़ों की गेंद हाथ से छूटने और बल्लेबाज़ तक पहुंचने में इतना वक़्त लेती थी कि बल्लेबाज़ चाहे तो अलार्म लगा कर सो जाए, और जब उठे, तो स्नूज़ लगा कर फिर सो जाए!

भाई लोगों, कहीं तो उम्मीद छोड़ी होती। वेस्टइंडीज़ के खिलाफ तुम पहले बल्लेबाज़ी कर हारे तो अफ्रीका के खिलाफ बाद में। इंग्लैंड के तेज़ गेंदबाज़ों से पिटे तो अफ्रीका के स्पिनरों से। न तुम तेज़ गेंदबाज़ी खेल पाए, न स्पिन और ये गली क्रिकेट तो था नहीं जो तुम्हें कोई अंडरआर्म गेंद फेंकता। हार पर तुमने जितने बहाने बनाए, उसके आधे भी रन बनाए होते और विज्ञापनों में जितनी देर दिखाई दिए, उसका दसवां हिस्सा भी क्रीज पर दिखते, तो ये हश्र नहीं होता। ‘कान महोत्सव’ तो तुम शायद कभी नहीं गए होंगे मगर तुम्हारे झुके कंधे और ढीली फील्डिंग देख यही लगा कि तुम ‘थकान महोत्सव’ में शिरकत करने आए हो। तुमसे बढ़िया तो महिला टीम निकली जो सेमीफाइनल तक तो पहुंची। शर्माओ मत, बता दो, अगर वाकई थक गए हो तो वेस्टइंडीज़ दौरे पर तुम्हारी जगह महिला टीम भेज देते हैं। वैसे भी मर्दों को औरतों की तरह खेलते देखने से अच्छा है, क्यों न सीधे उन्हें ही खेलते देखा जाए।

बुधवार, 17 जून 2009

किस रिएलिटी शो में जाऊं मैं!

दौलत और शोहरत की मुझे बरसों से तमन्ना है। वैसे भी इंसान उसी चीज़ की तमन्ना करता है जो उसके पास नहीं होती। यूं तो अक्ल भी मेरे पास नहीं है, मगर वो आ जाए ऐसी कोई ख़्वाहिश भी नहीं। ख्वाहिश, पैसे और पॉपुलेरिटी की है मगर हासिल कैसे करूं, तय नहीं कर पा रहा। मौजूदा तनख्वाह में, आगामी दस सालों के लिए, सालाना दस फीसदी की बढ़ोतरी जोड़ूं, और उसमें से खर्च घटाऊं, तो कुल जमा कुछ हज़ार रूपये ही मेरे बचत खाते में बचेंगे और इसी अनुपात में लोकप्रियता बढ़ी तो इन दस सालों में तीस-चालीस नए लोग ही मुझे जान पाएंगे। मतलब ये कि मौजूदा पेस पर दस सालों में कुछ हज़ार रूपये और अपनी प्रतिभा से कायल या घायल हुए तीस-चालीस लोगों की कुल जमा-पूंजी ही मेरे पास होगी, जो मुझे कतई मंज़ूर नहीं है। मैं चाहता हूं कि जल्द ही मेरे पास लाखों रूपये हों, करोड़ों दीवाने हों, जिसमें भी दीवानियों की संख्या ज़्यादा हो, टीवी-अख़बार, हर जगह मेरा इंटरव्यू हो, देश का हर बच्चा-बूढ़ा मेरा ही नाम लेकर सोए, और हर जवां लड़की मेरी ही तस्वीर देख जागे।

जब मैंने अपनी ये ख्वाहिश मित्र को बताई तो उसने कहा कि इसका एक ही तरीका है, किसी रिएलिटी शो में चले जाओ। टीवी पर मेनली तीन तरह के रिएलिटी शो आते हैं। गाने का, नाचने का या अन्य किसी नायाब किस्म की मूर्खता का। सोचने लगा कि मैं इनमें से किस रिएलिटी शो में जा सकता हूं। जहां तक गाने का सवाल है, उससे जुड़ा मेरा और उनका, जिन्होंने मेरा गाना सुना, अनुभव अच्छा नहीं रहा। मुझे याद है जब पहला इंडियन आइडल देख मुझे भी रातोंरात सिंगर बनने का जोश चढ़ा था। सुबह चार बजे मैंने भी रियाज़ शुरू किया मगर क्या देखता हूं। पड़ौस के अंकल हाथ में फायर एक्सटिंग्विशर लिए दरवाज़ा तोड़ते हुए हमारे घर के अंदर घुस आए। मैं एकदम घबरा गया। मुझे लगा शायद कोई मानव बम है। इससे पहले कि मैं उनसे कुछ पूछता, वो बोले-कहां लगी है आग? मैंने कहा-कहीं नहीं। मगर अभी तो मुझे चिल्लाने की आवाज़ आ रही थी। मैंने कहा-शायद आपको कुछ ग़लतफहमी हुई है। वो चिल्लाने की नहीं, मेरे गाने की आवाज़ थी। अंकल बोले-बेटा! ग़लतफहमी मुझे नहीं तुम्हें हुई है, वो गाने की नहीं, चिल्लाने की ही आवाज़ थी!

इससे पहले कॉलेज में भी एक बार ऐसा हादसा हुआ था। मित्रों के प्रोत्साहन पर, बाद में पता चला कि उन्होंने मज़े लिए थे, मैंने सालाना फंक्शन में गायन प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था। जैसे ही मैंने गाना शुरू किया जनता तो जनता वहां मौजूदा कौओं तक ने अपने कान बंद कर लिए, बाग के फूल मुरझाने लगे, कुत्ते भौंकने लगे और माइक में शॉर्ट सर्किट के बाद धुंआ निकलने लगा। कार्यक्रम संचालक ने बीच गाने में आकर मेरे कान में कहा कि हम वादा करते हैं कि पहला पुरस्कार तुम्हें ही देंगे, मगर भगवान के लिए अभी-इसी वक़्त गाना बंद कर दो।

इसी तरह के कुछ और वादों से आहत हो मैंने तय किया कि संगीत की शिक्षा लूंगा। इसी सिलसिले में एक गुरूजी के पास पहुंचा। अपनी महत्वाकांक्षाएं सामने रख उनसे शिक्षा देने का आग्रह किया। उन्होंने पहले नमूना पेश करने को कहा। नमूने की मैं दूसरी पंक्ति ही सुना रहा था कि उन्होंने हाथ उठा चुप होने का इशारा किया। मुझे लगा चावल का एक दाना देख उन्होंने पूरी हांडी का अंदाज़ा लिया है। गुरूजी कैसा लगा-मैंने बेसब्री से पूछा। गुरूजी (कुछ सैकिंड पॉज़ के बाद)-बेटा, तुम में प्रतिभा तो बहुत छिपी है मगर मानवजाति की भलाई इसी में है कि तुम उसे छिपा कर ही रखो!

इसके बाद मैंने तय किया कि अपनी गायन प्रतिभा के रहस्य को कभी उजागर नहीं करूंगा। लिहाज़ा ये ऑप्शन मेरी लिए ख़त्म हो गया। रही डांस की बात। तो लाख चाह कर भी उस पर चांस मारने की हिम्मत नहीं पड़ती। डांसने के लिए पैर चलने बहुत ज़रूरी है। कुछ-एक नचनिया टाइप मित्रों ने सिखाने की कोशिश भी की मगर उन्हें भी लगा कि ‘भारी न होने के बावजूद’ हिलने के मामले में मेरे पांव अंगद के समान हैं।

कुल मिलाकर दोस्तों, तय नहीं कर पा रहा हूं किस रिएलटी शो में जाऊं। सिगिंग-डांसिंग मेरे बस की नहीं है। आख़िर में यही लगता है कि बेमतलब बातों की अंतहीन सड़क पर आवारा-निकम्मे दोस्तों के साथ बेहिसाब दौड़ने का मेरे पास बेशुमार अनुभव है। पांव चलें न चलें, ज़बान खूब चलती है। कभी ज़बान चलाने का कोई रिएलिटी शो हो तो बताइएगा, फिर कोशिश करेंगे।

सोमवार, 15 जून 2009

प्यार के साइड इफेक्ट्स!

कॉलेज चुनने को लेकर लड़कों के सामने एक सवाल यह भी होता है कि गर्लफ्रेंड किस कॉलेज में जा रही है। वो कौन-सा सब्जेक्ट ले रही है। अच्छे-भले पढ़ाकू भी प्यार में बेकाबू हो जाते हैं। बनना तो कलेक्टर चाहते थे, मगर दाखिला होम साइंस मे ले लिया। इस पर भी मज़ा ये कि जिस रुपमती के लिए करियर दांव पर लगा दिया, उसे कानों-कान इसकी ख़बर नहीं।


चार साल स्कूल में साथ गुज़ारे। कॉपियों के पीछे तीर वाला दिल बना उसका नाम लिखा। दोस्तों में उसे ‘तुम्हारी भाभी’ कहा। स्कूल में ही पढ़ने वाले ‘उसकी सहेली के भाई’ से दोस्ती की। उसी मास्टर से ट्यूशन पढ़ी जहां वो जाती थी। इस हसरत में कि घंटा और पास रहेंगे, बावजूद इसके बात करने की हिम्मत नहीं।

फिर एक रोज़ ‘प्रेम पत्रों के प्रेमचंद’ टाइप एक लड़के से लैटर लिखवाया। सोचा, आज दूं, कल दूं, स्कूल में दूं या बाहर दूं। डायरेक्ट दूं या सहेली के भाई से कूरियर करवाऊं जिससे इसी दिन के लिए दोस्ती गांठी थी। मगर किया कुछ नहीं। बटुए में पड़े-पड़े ख़त की स्याही फैल गई। पता जानने के बावजूद उसकी डिलीवरी नहीं हो पाई। वो पर्स में ही पड़ा रहा। और ये बेचारा बिना महबूब का नाम पुकारे हाथ फैलाए खड़ा रहा।


मगर अब कॉलेज में पहुंचे गए हैं। दोस्तों ने कहा रणनीति में बदलाव लाओ। रिश्ते की हालत सुधारना चाहते हो तो पहले अपना हुलिया सुधारो। दर्जी से पैंटें सिलवाना बंद करो, रेडीमेड लाओ। अपनी औकात भूल आप उनकी बात मानते हैं। बरबादी के जिस सफर पर आप निकले हैं उस राह में हाइवे आ चुका है। आप गाड़ी को चौथे गीयर में डालते हैं।

और इसी क्रम में आप गाड़ी के लिए बाप से झगड़ा करते हैं। वो कहते हैं कि बाइक की क्या ज़रुरत है? 623 कॉलेज के आगे उतारती है। इस ख़्याल से ही आप भन्ना जाते हैं। अगर उसने बस से उतरते देख लिया तब वो मेरे वर्तमान से अपने भविष्य का क्या अंदाज़ा लगाएगी। आप ज़िद्द करते हैं। मगर वो नहीं मानते। आप इस महान नतीजे पर पहुंचते हैं कि सैटिंग न होने की असली वजह मेरा बाप है। और ऐसा कर वो खुद को बाप साबित भी कर रहा है। इधर जिस लड़की के लिए आप बाप को पाप मान बैठे हैं उसे इस दीवाने की अब भी कोई ख़बर नहीं।


हो सकता है फिर एक रोज़ आपको लड़की के हाथ में अंगूठी दिखे और आप सोचें कि करियर की बेहतरी के लिए उसने पुखराज पहना है। पर सवाल ये है कि पुखराज ही पहना है तो सहेलियां उसे बधाई क्यों दे रही ह

शनिवार, 13 जून 2009

एक आध्यात्मिक घटना!(हास्य-व्यंग्य)

आजकल परीक्षा परिणामों का सीज़न चल रहा है। रोज़ अख़बार में हवा में उछलती लड़कियों की तस्वीरें छपती हैं। नतीजों के ब्यौरे होते हैं, टॉपर्स के इंटरव्यू। तमाम तरह के सवाल पूछे जाते हैं। सफलता कैसे मिली, आगे की तैयारी क्या है और इस मौके पर आप राष्ट्र के नाम क्या संदेश देना चाहेंगे आदि-आदि। ये सब देख अक्सर मैं फ्लैशबैक में चला जाता हूं। याद आता है जब मेरा दसवीं का रिज़ल्ट आना था। अनिष्ट की आशंका में एक दिन पहले ही नाई से बदन की मालिश करवा ली थी। कान, शब्दकोश में न मिलने वाले शब्दों के प्रति खुद को तैयार कर चुके थे। तैंतीस फीसदी अंकों की मांग के साथ तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को सवा रूपये की घूस दी जा चुकी थी और पड़ौसी, मेरे सार्वजिनक जुलूस की मंगल बेला का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे।

वहीं फेल होने का डर बुरी तरह से तन-मन में समा चुका था और उससे भी ज़्यादा साथियों के पास होने का। मैं नहीं चाहता था कि ये ज़िल्लत मुझे अकेले झेलनी पड़े। उनका साथ मैं किसी कीमत पर नहीं खोना चाहता था। उनके पास होने की कीमत पर तो कतई नहीं। दोस्तों से अलग होने का डर तो था ही मगर उससे कहीं ज़्यादा उन लड़कियों से बिछड़ जाने का था जिन्हें इम्प्रैस करने में मैंने सैंकड़ों पढ़ाई घंटों का निवेश किया था। असंख्य पैंतरों और सैंकड़ों फिल्मी तरकीबें आज़माने के बाद ‘कुछ एक’ संकेत भी देने लगी थीं कि वो पट सकती हैं। ये सोच कर ही मेरी रूह कांप जाती थी कि फेल हो गया तो क्या होगा! मेरे भविष्य का नहीं, मेरे प्रेम का! या यूं कहें कि मेरे प्रेम के भविष्य का!

कुल मिलाकर पिताजी के हाथों मेरी हड्डियां और प्रेमिका के हाथों दिल टूटने से बचाने की सारी ज़िम्मेदारी अब माध्यमिक शिक्षा बोर्ड पर आ गयी थी। इस बीच नतीजे आए। पिताजी ने तंज किया कि फोर्थ डिविज़न से ढूंढना शुरू करो! गुस्सा पी मैंने थर्ड डिविज़न से शुरूआत की। रोल नम्बर नहीं मिला तो तय हो गया कि कोई अनहोनी नहीं होगी! (फर्स्ट या सैकिंड डिविज़न की तो उम्मीद ही नहीं थी) पिताजी ने पूछा कि यहीं पिटोगे या गली में.....इससे पहले की मैं ‘पसंद’ बताता...फोन की घंटी बजी...दूसरी तरफ मित्र ने बताया कि मैं पास हो गया...मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था....पिताजी भी खुश थे...आगे चलकर मेरा पास होना हमारे इलाके में बड़ी 'आध्यात्मिक घटना' माना गया....जो लोग ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे, वो करने लगे और जो करते थे, मेरे पास होने के बाद उनका ईश्वर से विश्वास उठ गया!

शुक्रवार, 12 जून 2009

जिम पुकारे… आ रे! आ रे! आ रे!

पैंट और विचारधारा में मूलभूत फर्क लोचशीलता का है। विचारधारा हालात बदलने पर खुद को एडजस्ट कर लेती है मगर पेंट की अपनी सीमा है। कुछ दिनों से कमर के हालात बदले हैं और पैंट ने उसे आगोश में लेने से इंकार कर दिया है। अब दो ही रास्ते मेरे सामने हैं। दर्ज़ी को बीस रूपये दे, पैंट की कमर चौंतीस से अड़तीस करवा लूं या जिम में पसीना बहा अपनी कमर चौंतीस कर लूं। मैं दूसरा रास्ता चुनता हूं। वैसे ये दूसरा रास्ता पहली बार नहीं चुना है। वजन घटाने और इंसान दिखने का लक्ष्य ले इससे पहले एक दर्जन बार जिम ज्वॉइन कर चुका हूं। इतनी कोशिशों के बाद असफलता का डर जा चुका है, शर्मिंदगी का रसायन बनना भी बंद हो गया है। लिहाज़ा तय हुआ कि सोमवार से जिम जाऊंगा।

मन में भरपूर जोश है मगर वॉड्रोब में जिम लायक कपड़े नहीं। बीवी को समस्या बताता हूं तो वो कुछ दिन पुराने कपड़ों के साथ जिम जाने की सलाह देती है। कहती है जिम जाने को ‘इवेंट’ मत बनाओ। तीन दिन से ज़्यादा आप जिम नहीं जाओगे, जिम के पैसे तो वेस्ट होंगे ही, नए कपडों को देख मेरा खून अलग खौलेगा। खून बीवी का है मगर उसके खौलने का सीधा सम्बन्ध मेरी सेहत से है। वैसे भी मैं सेहत सुधारने के मिशन पर निकला हूं, इसलिए सहमत हो जाता हूं।

‘भइया कितने दिन लगेंगे’- कमरे को कमर बनाने से जुड़ी ये मेरी पहली जिज्ञासा है, जिसे मैं जिम इंस्ट्रक्टर के सामने रखता हूं। ‘हर रोज़ दो घंटे एक्सरसाइज़ करें। परांठें, आइसक्रीम, पिज्ज़ा-विज़्जा सब छोड़ दें तो तीन महीने में आप पतले हो जाएंगे’-जिम वाला जवाब देता है। ‘और ये सब न छोड़ूं और सिर्फ एक्सरसाइज़ करता रहूं तो कब तक पतला हो सकता हूं’? ‘तब तो आप सिर्फ ‘स्टेटस मेनटेन’ रख सकते हैं’। मैं समझ गया कि जिम जाने का तभी फायदा है जब वो सब छोड़ दूं जो आज तक जीमता रहा हूं।

दीवार पर आमिर का ‘एट पैक एब्स’ का पोस्टर है तो सामने आईने में मेरे ‘एट पैक फ्लैब्स’ दिखाई दे रहे हैं। मुझे भी जोश चढ़ता है। इसी जोश के साथ मैं मशीनों से भिड़ पड़ता हूं। खुद को आर्मस्ट्रांग समझ कुछ देर साइक्लिंग करता हूं, उसेन बोल्ट मान ट्रेड मिल पर दौड़ता हूं। स्किपिंग करता हूं, एब क्रंच करता हूं।

जिम जाते हुए अब हफ्ता बीत चुका है। आईना भी इस हफ्ते की गवाही दे रहा है। व्यायाम की मेरी बगावत से नाराज़ हो गाल झड़ने लगे हैं। कमर मुरझाने लगी है। फूले गालों की ओट में छिपी आंखें भी अब दिखने लगी हैं। बीवी को भी विश्वास हो चला है कि इस बार तो कुछ हो कर ही रहेगा।


मगर तभी पतला होने के मेरे इरादों और बीवी की उम्मीदों के बीच मेरा पहला प्यार आड़े आ जाता है। इस बार तो उसकी टाइमिंग भी बहुत ग़लत है। वो मुझसे वक़्त मांगता है और मैं उसकी मांग के आगे मजबूर हूं। बीवी भी जानती है अब कुछ नहीं हो सकता। भारतीय समय के अनुसार रात साढ़े दस बजे मैच शुरू होते हैं। ख़त्म होते-होते दो बज जाते हैं। सुबह नौ बजे मुझे ऑफिस जाना होता है। और दो बजे सोने वाले आदमी से ये उम्मीद करना कि वो छह बजे उठ जाएगा, नासमझी होगी। बीवी समझदारी दिखा रही है, मैं मैच देख रहा हूं, गाल जिम न जाने की खुशी में फूल गए हैं और पतले होने के अरमान फिर से काल के गाल में समा गए हैं।

बुधवार, 10 जून 2009

विज्ञापन प्रदेश की लड़कियां!

टीवी पर इन दिनों मोटरबाइक का एक विज्ञापन आ रहा है जिसमें दिखाया गया है कि कैसे एक लड़का अपनी गर्लफ्रेंड को गुड नाइट का एसएमएस करने की बजाय नई मोटसाइकिल उठा उसे गुडनाइट कहने जाता है। लड़की भी मोटरसाइकिल देखते ही उस पर फिदा हो जाती है। विज्ञापन का संदेश साफ है। गर्लफ्रेंड को इम्प्रैस करना है तो आज ही हीरो गुंडा कम्पनी की मोटरसाइकिल ले आएं। मोटरसाइकिल से तो मैं प्रभावित नहीं हुआ मगर उस पर फिदा हो जाने की लड़की की अदा का ज़रूर कायल हो गया।

विज्ञापन प्रदेश में रहने वाली ज़्यादातर लड़कियों का मैंने यही चरित्र देखा है। ये ज़रा भी डिमांडिंग नहीं होतीं। लड़का डेढ़ सौ सीसी की बाइक चलाए तो उस पर लट्टू हो जाती हैं, सवा सौ सीसी की बाइक ले आए तो भी फ्लैट हो जाती हैं। गाड़ी के इंजन का इनके पिकअप पर कोई फर्क नहीं पड़ता। ये आदतन सैल्फ स्टार्ट होती हैं। प्रभावित होने के लिए कोई शर्त नहीं रखतीं। बंदरछाप लड़का कबूतरछाप दंतमंजन भी लगाता है तो उसे दिल दे बैठती हैं। ढंग का डियो लगाने पर उसके कपड़े फाड़ देती हैं। आम तौर पर लड़कियों को पान-गुटके से भले जितनी नफरत हो लेकिन विज्ञापन बालाएं उसी को दिल देती हैं जो ख़ास कम्पनी का गुटका खाता है। मानो बरसों से ऐसे ही लड़के की तलाश में हो जो जर्दा या गुटका खाता हो।

दोस्तों, मैं जानना चाहता हूं कि ऐसी परमसंतोषी लड़कियां दुनिया के किस हिस्से के कौन से टापू पर रहती हैं। जहां भी हैं उनसे मिल उनके ‘यथास्थिति मोह’ का कारण जानना चाहता हूं। उनसे पूछना चाहता हूं कि हर छोटी-मोटी चीज़ पर लट्टू हो जाने की तत्परता उनके संस्कारों का हिस्सा है, या फिर उनका उत्पाद प्रेम। अपने लिए कुछ तो स्टैंडर्ड सैट करो यार। बीएमडब्ल्यू पर भी जान छिड़कती हो और बिमला छाप बीड़ी पर भी। प्लास्टिक की कुर्सी देख भी डांवाडोल होती हो और पान मसाले पर भी।


हसीन लड़कियों को स्कूल से घर और घर से स्कूल हमने भी कम नहीं छोड़ा...उन्हें पटाने की आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक और ऐलोपैथिक विधियों पर हमने भी कम रिसर्च नहीं की...मगर प्लास्टिक कुर्सी में ऐसा कौन सा हुस्न छिपा है, ऐसी क्या रूमानियत घुसी है जो तुम उसके मालिक को दिल दे बैठती हो। बताओ प्रिय, मैं दुनिया के तमाम असफल प्रेमियों के प्रतिनिधि के नाते पूछता हूं.... आज तुम्हें जवाब देना ही होगा। तुम विज्ञापन में इतनी सहज उपलब्ध हो तो असल ज़िंदगी में क्यों नही। क्या कॉलेज के दिनों में मेरे पास सवा सौ सीसी की बाइक नहीं थी। क्या तुम जैसियों का पीछा करते हुए मैंने हज़ारो लीटर ईंधन नहीं फूंका। कर्कश हॉर्न बजाते हुए क्या तुम्हारी गलियों के सैंकड़ों चक्कर नहीं काटे। चक्कर काटने के इसी चक्कर में क्या तुम्हारे मोहल्ले वालों से नहीं पिटा। और इस सबका जवाब हां है तो बताओ प्रिय, पटने को लेकर तुम्हारी व्यवहार भिन्नता की वजह क्या है। जिस अदा पर तुम विज्ञापन में पट जाती हो, असल ज़िंदगी में तुम क्यूं उसी से कट जाती हो। तुम्हारा कटना मेरे दिल का फटना है।

प्रिय, मैं गुज़ारिश करता हूं कि अपने प्रिय उत्पादों की तुम आज ही एक सूची जारी करो। बताओ कि मुझे इस कम्पनी का पंखा, उसकी झाड़ू, इसकी कुर्सी, इनवर्टर, कार, स्कूटर पसंद है। इससे न सिर्फ तुम्हारी लोकतांत्रिक और पारदर्शी छवि बनेगी बल्कि देश का युवा भी जान जाएगा कि लड़की पटाने के लिए उसे क्या करना है। दोस्तों से प्रेम पत्र लिखवाने के बजाए वो शोरूम मे जा प्रोडक्ट्स की ईएमआई पूछेगा। सोचो ज़रा...ऐसा हुआ कितना सुलभ हो जाएगा इक्कीसवीं सदी का प्रेम। लड़के की लड़की से आंख मिली। लड़के ने पूछा-दीदी, क्या आप फ्री हैं? लड़की ने कहा दस लड़कों की एप्लीकेशन लगी है, कुछ तय नहीं किया, फ्री ही समझो। लड़का-तो बताओ ऐसा क्या खरीदूं कि तुम सुध-बुध खो मेरी हो जाओ। लड़की-मुझे धूल-धक्कड़ कम्पनी की फूलझाड़ू पसंद है और अल्सर कम्पनी का फोर स्ट्रोक स्कूटर। लड़का-अरे अल्सर कम्पनी का स्कूटर तो मैंने कल ही खरीदा है। रही बात फूलझाड़ू की तो पिता जी का किराना स्टोर है। अपनी होने वाली बहू को वो फूलझाड़ू तो मुफ्त दे ही देंगे। दोस्तों, अगर ऐसा हुआ तो आनी वाली नस्लें फूलझाड़ू के रास्ते अपना प्रेम परवान चढ़ाएंगी और एक झाडू प्रेम की राह में आने वाले सारे जाले हटाएगी।

रविवार, 7 जून 2009

समस्या की टेली प्रजेंस!

इंसानों की तरह समस्याएं भी आजकल बेहद महत्वकांक्षी हो गई हैं। कल ही एक समस्या मिली। कहने लगी कि इतनी भीषण होने के बावजूद मेरी कोई पूछ नहीं। कहीं कोई चर्चा नहीं। आत्मसंशय होने लगा है। सोचती हूं उतनी विकराल हूं भी या नहीं। ऐसी लाइमलाइटविहीन ज़िंदगी से तो अच्छा है सुसाइड कर लूं। मैंने टोका-इतनी नेगटिव बातें मत करो। ये बताओ तुम हो कौन? समस्या क्या है? वो बोली-मेरा नाम पानी की समस्या है। कहने को तो मैं खुद समस्या हूं। मगर मेरी समस्या अटैंशन की है।

मैंने पूछा-मगर तुम अटैंशन चाहती क्यों हो। वो तपाक से बोली-ओबिवियसली डिज़र्व करती हूं इसलिए। हैंडपंप में आती नहीं। कुंओं से गायब हो चुकी हूं। नदियों में सिमट चुकी हूं। जब कभी टैंकर में लद किसी मोहल्ले में पहुंचती हूं एक-एक बाल्टी के लिए तलवारें खिंच जाती हैं। क्या अख़बारों में सिटी पन्नों में छप गुमनामी के अंधेरे में मर जाने के लिए मेरा जन्म हुआ है। मेरा भी अरमान है टीवी पर आऊं। प्राइम टाइम में मुझ पर डिस्कशन हो। आख़िर क्या कसूर है मेरा?

मैंने कहा डियर वजह बेहद सीधी है। जिस तरह सिर्फ अच्छा दिखने मात्र से कोई मॉडल नहीं बन जाता। मॉडल बनने के लिए चेहरे का फोटोजनिक होना ज़रूरी है। या हीरो बनने के लिए अच्छी स्क्रीन प्रजेंस होनी ज़रूरी है। उसी तरह समस्या सिर्फ समस्या होने भर से पर्दे पर आने की हक़दार नहीं हो जाती। उसमें नाटकीयता लाज़मी है।

पर्दे पर आने का तुम्हारा चांस तब बनता है, जब कोई आदमी पानी की टंकी पर चढ़ जाए और कहे कि चौबीस घंटे के अंदर मेरे मोहल्ले में पानी नहीं आया तो मैं जान दे दूंगा। ऐसे में महापौर से पूछा जा सकता है लोग जान देने पर उतारूं हैं और आप कुछ कर नहीं रहे। इस पर महापौर कहे कि जो आदमी टंकी पर चढ़ा है वो विपक्षी पार्टी का कार्यकर्ता है। और आप कैसे कह सकते हैं कि मैंने कुछ किया नहीं। जिस टंकी पर चढ़ कर वो जान देने की धमकी दे रहा है वो मेरी ही बनवाई हुई है। और चाहें तो देख लें वो टंकी पूरी तरह फुल हैं। ऐसे में पानी की समस्या की बात सरासर झूठ है।

ऐसी सूरत में पानी की समस्या पर चर्चा हो सकती है। लेकिन ध्यान रहे कि कोई पानी की टंकी पर चढ़े तब, पेड़ पर नहीं। पेड़ पर चढ़ना कोई विज़ुअली रिच नहीं है। और खाली पानी की समस्या....उसकी तो कोई औकात ही नहीं है।

बुधवार, 3 जून 2009

अकर्मण्यता का दर्शन!

काम करने से अनुभव आता है। अनुभव से इंसान सीखता है। सीखने पर जानकार हो जाता है। ये एहसास कि मैं जानता हूं, अहंकार को जन्म देता है। अहंकार तमाम पापों की जड़ है। मतलब, पाप से बचना है तो कर्म से बचो। इसीलिए भारतीय कर्म में जीवन की गति नहीं, दुर्गति देखते हैं और हर काम को तब तक टालते हैं जब तक वो टल सकता है। रजनीश ने कहा भी है, पश्चिम का दर्शन कर्म पर आधारित है और भारतीय दर्शन अकर्मण्यता पर। यही वजह है कि हमारे यहां कर्म व्यर्थ माना गया है, समय लोचशील और जीवन मिथ्या।

ऐसे में मुक्ति का एक ही मार्ग है-बेकारी। लिहाज़ा जब जानकार आंकड़े पेश करते हैं कि देश में इतने करोड़ बेरोज़गार हैं तो इसके लिए आप सरकार को साधुवाद दीजिए। ये करोड़ों बेकार नहीं बल्कि संन्यासी हैं। नौकरी नहीं-छोकरी नहीं, तनख़्वाह नहीं-टीडीएस नहीं, घर नहीं-होम लोन नहीं। मतलब, न ज़र, न ज़ोरू, न ज़मीन। एक बेकारी और सभी झंझटों से मुक्ति।

बेकारों के इतर असल चुनौती उनके सामने है जो किसी काम-धंधे में फंसे हैं। ऐसे लोगों को अपनी पूरी उर्जा ये सोचने में लगानी पड़ती है कि काम से कैसे बचा जाए। मतलब तनख्वाह तो मिलती रहे मगर करना कुछ न पड़े। ये ऐसी आदर्श काल्पनिक स्थिति है जो कम ही लोगों को नसीब होती है और जिन्हें नसीब होती है उनमें सरकारी कर्मचारी भी एक हैं। वे जानते हैं कि तनख्वाह शाश्वत है और कर्म मिथ्या। लिहाज़ा किसी के बाप में दम नहीं जो उनसे कुछ करवा पाए। सुधी पाठकों को यहां बताना ज़रूरी है कि सरकारी कर्मचारी वो जीव होता है जो कर्म की चोरी करता है और निजी कर्मचारी वो पशु होता है जो लाचारी में काम करता है। लेकिन ध्यान रहे करने को लेकर दोनों के संस्कार भारतीय ही हैं। मतलब, कर्म कर कोई भी पाप का भागीदार नहीं बनना चाहता।

बहरहाल, दफ्तरी ज़िंदगी के इतर निजी ज़िंदगी में सभी को काम टालने की समान स्वतंत्रता होती है। मतलब कर्महीनता के क्षेत्र में प्रतिभा प्रदर्शन के लिए आप किसी बड़े मंच के मोहताज नहीं। चीज़ जगह पर न रख, ज़रूरत के वक़्त सब भूल, हर काम में चलताऊ रवैया दिखा, मां-बाप की गालियां खा आप दोस्त-रिश्तेदारों में ख़ासी ख़्याति बटोर सकते हैं।

इसके अलावा जो काम जितना लटक सके, उसे उसकी सीमाओं तक ले जाएं। मसलन सात तारीख़ को आपको बिजली का बिल मिला। इसे भरने की आख़िरी तारीख 25 है। वक़्त और पैसे की आपके पास कोई कमी नहीं है। फिर भी इसे न भरवाएं। इसे लटकाएं। हो सकता है 18-20 तारीख़ तक आपको आपकी आत्मा धिक्कारने लगे या फिर यहां-वहां पड़े बिल पर चाय गिर जाए, लेकिन घबराना नहीं है। याद रहे अब भी पूरे पांच दिन बाकी हैं। तीन-चार दिन और बीतने दें। 24 को देर रात पिक्चर देखकर सोएं। अगली सुबह 11 बजे आंख खोलें। आज 25 तारीख है। शनिवार का दिन है। 12 बजे के बाद बिल जमा नहीं होंगे। फुर्ती दिखाएं, सांस फुलाएं, धड़कन बढ़ाएं, पैनिक करें। परांठे का रोल मुंह में डाल, शर्ट को पेंट के भीतर घुसा गाड़ी के पास पहुंचें। जी हां, कहानी शानदार क्लाइमेक्स की तरफ बढ़ रही है। आप दफ्तर पहुंचते हैं, बारह बजने में सिर्फ पांच मिनट बाकी। खिड़की के पास कोई नज़र नहीं आ रहा। लगता है खिड़की बंद हो गई, बंदा भाग गया।


नहींईईईईईईईईईईईईई.....रूको भइया...रूको सौ-सौ के नोटों के साथ हाथ और बिल अंदर...ये लगी स्टाम्प, ये मिले खुल्ले पैसे और जमा हो गया बिल। शाबाश....निठल्ला फिर चैम्पियन!


अब आप ही सोचिए बिल भरने जैसे मामूली और फिज़ूल काम में ज़रा सी कोताही बरत आप खुद के लिए रोमांच और उत्तेजना के कितने अनमोल पल जुटा सकते हैं । तो दोस्तों, भगवान न करे पहले तो ये नौबात आए कि आप को कुछ करना पड़े और आ जाए तो उसे बेशर्मी की सीमा तक लटकाएं। याद रहे कोई कर्म सद्कर्म नहीं है, कर्म अपने आप में ही दुष्कर्म है। ऐसा सोच और इस महान रास्ते पर चल ही आप मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।

(कादम्बिनी, जून 2009)

सोमवार, 1 जून 2009

वो सुबह कभी नहीं आएगी।

पिछले दिनों इंटरनेट पर अमिताभ बच्चन का एक पुराना रेडियो इंटरव्यू सुना। इंटरव्यू में उनकी फिल्मों, शोहरत, पंसद-नापसंद के अलावा उनके पिता हरिवंश राय बच्चन की भी चर्चा हुई। पिता के बारे में पूछे जाने पर अमिताभ का कहना था कि बाबूजी सुबह चार बजे उठते थे। फिर सैर पर जाते, हल्का-फुल्का नाश्ता करते और पढ़ते-लिखते। इसके बाद दो-चार सवाल और हुए और बातचीत ख़त्म हो गई। एक-आध मेल चैक कर, मैं भी बाकी कामों में मसरूफ हो गया मगर एक बात मेरे ज़ेहन में कौंधती रही, ‘बाबू जी सुबह चार बजे उठते थे’। मैं सोचने लगा कि अमिताभ बच्चन कितने गर्व से बता गए कि बाबू जी सुबह चार बजे उठते थे। ईश्वर ने अगर मेरी तकदीर में भी मशहूर होना लिखा है और मेरे बच्चों को भी मुझसे जुड़ा ऐसा कुछ बताना पड़ा तो क्या बताएंगे वो मासूम....बाबू जी आख़िर कितने बजे उठते थे! मेरे होने वाले बच्चों के बाबूजी यानि मैं, तो कभी ग्यारह बजे से पहले उठा नहीं। और जिस तेज़ी से वक़्त और ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ रही है, हो सकता है कि जब तक उनके इंटरव्यू की बारी आए तब तक ग्यारह बजे का समय, सुबह के बजाए दोपहर में शामिल होने लगे। ये सोच कर ही मेरी रूह कांप उठती है कि ऐसा हुआ तो बच्चों को मेरी वजह से कितना शर्मिंदा होना पड़ेगा। बीवी को मैंने तकलीफ बताई तो उसने कहा कि बेफिक्र हो जाओ, कुछ और साल ग्यारह बजे तक सोते रहे तो ऐसी नौबत ही नहीं आएगी! मतलब न आप मशहूर होंगे, और न ही बच्चों को शर्मिंदा होना पड़ेगा।

बीवी ने ये कोई पहली बार तंज नहीं किया और न ही वो कोई पहली है जिसने तंज किया हो। शादी से पहले मां-बाप ने भी कई बार समझाया कि बेटा जल्दी उठा करो। जल्दी उठने के कई फायदे भी बताए। फायदों से तो मैं सहमत था, मगर जल्दी उठने से नहीं। दरअसल ‘अविश्वास’ मेरे चरित्र में कभी रहा ही नहीं। बचपन में किताबों में पढ़ा, जानकारों ने भी बताया और इतने गुणी लोग जब एक ही बात कह रहे हैं तो क्या ज़रूरत है उनकी ईमानदारी और अक्ल पर संदेह करूं। अगर सब कहते हैं कि सूर्य पूर्व से उगता है और पश्चिम में अस्त होता है, तो ठीक ही कहते होंगे। क्रॉस चैकिंग की ज़रूरत क्या है? और मैं पूछता हूं कि सुबह उठने के अपने फायदे हैं तो क्या देर तक सोने का अपना मज़ा नहीं और अगर आनन्द ही अंतिम लक्ष्य है तो विवाद किस बात का? तुम जल्दी उठ कर आनन्द उठाओ, मैं देर तक सो कर उठाता हूं। तुम सूरज उगने से पहले उठो, मैं सूरज डूबने से पहले उठता हूं। तुम मुर्गे की बांग सुनकर उठो, मैं वादा करता हूं कि सोने से पहले बांग देने के लिए उस मुर्गे को ज़रूर उठा दूंगा।

मित्रों, मैं आह्वान करता हूं कि इतना सोओ कि सो-सो कर थक जाओ और उस थकावट को मिटाने के लिए फिर सो जाओ। सोना खोना नहीं है, सोना ही तो असली सोना है। इसलिए इतना सोओ कि लोग तुम्हें सोने की खदान कहने लगे। सोओ, उठो, खाद्यान्न लो और फिर से लम्बी तान लो।

वक़्त आ गया है कि ज़्यादा सोने वाले अलग एक मंच बना लें। नुक्कड़ नाटकों के ज़रिए लोगों को सोने के फायदे समझाएं। उन्हें बताएं कि जो जग गया है वो कुछ करेगा और ‘कर्म’ ही इक्कीसवीं शताब्दी का सबसे बड़ा संकट है। दुनिया का इतना कबाड़ा ‘न करने वालों’ ने नहीं किया, जितना ‘करने वालों ने’ किया है इसलिए घंटा, दो घंटा फालतू सोने से अगर दुनिया बर्बाद होने से बचती है तो हर्ज़ क्या है?

उल्टे दुनिया को ऐसे लोगों को धन्यवाद देना चाहिए जो देर तक सोते हैं। अगर ये लोग भी रातों-रात सुधरने की ठान लें तो सुबह उठने की जिस आदत पर तुम इतराते फिरते हो, उसकी मार्केट वैल्यू क्या रह जाएगी। प्रिय, अच्छाई के मामले में अल्पसंख्यक होना ही बेहतर है। बुद्धिजीवियों की कद्र अपनी काबिलियत की वजह से नहीं, समाज में मूर्खों की अधिकता के कारण है। जो बुद्धिजीवी मूर्खों को गाली देते नहीं थकते, उन्हें तो उनके चरण धो कर पीने चाहिए। चरण धुलवाने की मेरी कोई ख़्वाहिश नहीं। ना ही मैं ये चाहता कि तुम किसी तरह का दूषित जल पी प्राण त्यागो। भगवान के लिए मुझे बस सोने दो। रही बेटे के जवाब की चिंता, तो बीवी ठीक ही कहती है कि यूं ही सोता रहा तो उसकी नौबत ही नहीं आएगी!

शुक्रवार, 29 मई 2009

भविष्य का फॉर्मूला! (हास्य-व्यंग्य)

ऐसे समय जब तमाम पार्टियां मुफ्त समर्थन की पेशकश कर भारतीय राजनीति को कलंकित कर रही थीं, करूणानिधि के लालच ने उसकी लाज बचा ली। ख़बर है कि कांग्रेस को अपेक्षित मंत्रालयों की जो पहली सूची उन्होंने सौंपी थी उसमें उनकी तीन बीवियों के तीस रिश्तेदारों के अलावा उनका ड्राइवर, खानसामा, चौकीदार, माली और आठ नौकरों के अलावा उनके भी आगे आठ सौ रिश्तेदारों के नाम थे। और आख़िर मे 'हो सके तो' शीर्षक के अंदर गुज़ारिश की गई थी कि ड्राइवर की दूसरी पत्नी के पहले पति की चौथी औलाद, माली के दत्तक पुत्र की गर्लफ्रेंड और चौकीदार की मुंह बोली बुआ के कान सुने पति को भी जगह मिल जाए, तो हमें खुशी होगी।

इसके बाद कांग्रेस ने जब ये समझाया कि अगर भारत, नेपाल और बांग्लादेश पर कब्ज़ा कर, वहां के मंत्रीमंडल को भी सरकार में शामिल कर ले, फिर भी ये मांग पूरी नहीं हो सकती, तब जा कर करूणानिधि के तेवर नरम पड़े और लम्बा खिंचा विवाद ख़त्म हुआ। मगर जिस तरह उनके अट्ठारह सौ उन्हतर रिश्तेदारों को मायूस होना पड़ा, उससे मैं भी काफी दुखी हूं। लिहाज़ा मैं सरकार से गुज़ारिश करता हूं कि आगे किसी और को यूं निराश न होना पड़े इसके लिए संविधान में कुछ संशोधन किए जाएं। जैसे-कांग्रेस ने सरकार गठन से पहले कहा था कि इस बार एक नेता, एक मंत्रालय की नीति अपनाई जाएगी। मेरा मानना है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को एडजस्ट करने के लिए एक मंत्रालय पर एक नहीं, एक सौ नेता की नीति बनाई जाए। जैसे राज्यों में गठबंधन सरकार की सूरत में आधे-आधे वक्त के लिए मुख्यमंत्री बनते हैं, उसी तरह केंद्रीय कैबिनेट में हफ्ते-हफ्ते के लिए मंत्री बनाए जाएं। काम तो वैसे भी नहीं होना, कम से कम सहयोगियों से रिश्ते तो अच्छे बने रहेंगे। और तो और कांग्रेस चाहे तो मिसाल कायम करने के लिए लालकृष्ण आडवाणी को भी एक हफ्ते के लिए प्रधानमंत्री बना सकती है।

इसके अलावा मंत्रालयों का विघटन कर उससे नए मंत्रालय बनाए जाएं। जैसे खेल मंत्रालय से खेल और कूद दो मंत्रालय बनाए जाएं। आधे लोग खेल और बाकी कूद मंत्रालय में शिफ्ट किए जाएं। इसी से जुड़े युवा मंत्रालय से भी शिशु, बालक, तरूण और युवा चार मंत्रालय बनाए जाएं। साथ ही हर मंत्रालय में राज्य मंत्रियों की संख्या भी देश के कुल राज्यों की संख्या के बराबर की जाए, इससे न सिर्फ लोग ठिकाने लगेंगे बल्कि समान क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व की समस्या भी दूर होगी। और इस सब के बावजूद हल न निकले तो मैं यही कहूंगा कि 'परिवार समायोजन' की समस्या पैदा न हो, इसलिए भावी नेता 'परिवार नियोजन' पर ज़रूर ध्यान दें!