भारत उन चंद गौरवशाली देशों में शामिल है जो फुटबॉल विश्व कप में आज तक एक भी मैच नहीं हारा! ये बात अलग है कि ये गौरव उसने विश्व कप में एक मैच भी न खेल कर हासिल किया है! मगर सवाल यही है कि कब तक हम भारतीय रात दो-दो बजे तक जागकर मुशायरे में सिर्फ तालियां ही पीटते रहेंगे, ये सोच कर खुश होते रहेंगे कि टूर्नामेंट के फलां गाने में भारतीय ने संगीत दिया या उदघाटन समारोह में फलां सेबीब्रिटी ने भारतीय डिज़ाइनर की ड्रेस पहनी। लानत है ऐसी संतुष्टि पर। खेल फुटबॉल का है और हम दर्जियों के हुनर पर गौरवान्वित हो रहे हैं। ड्रेस की जगह फुटबॉल भी सिली होती तो बात और होती।
दोस्तों, न तो हमें हार से परहेज़ है और न ही धूल से एलर्जी तो फिर कब तक हम क्रिकेट टीमों के हाथों क्रिकेट मैदानों की ही धूल चाटते रहेंगे। वो दिन कब आएगा जब हम भी ब्राज़ील के हाथों धूल चाटेंगे, अर्जेंटीना हमारी बख्खियां उधेड़ेगा और जर्मनी हमें रौंद डालेगा। कब तक हम सैफ खेलों में भूटान और मालदीव से हारते रहेंगे। कब तक नेपाल को हरा और बर्मा से हार हम खुश और दुखी होते रहेंगे। जितनी आबादी रोज़ाना डीटीसी की बसों में ‘खड़ी होकर’ सफर करती है; उससे भी कम आबादी वाले देश विश्व कप खेल रहे हैं और डीटीसी के डिपो जितने देश विश्व कप में धूम मचाए हुए हैं। और एक हम हैं कि विश्व कप के दौरान बिके रंगीन टीवी और खाली हुई बियर की बोतलें गिन कर ही खुश हो रहे हैं। टीम के कोच बॉब हॉटन दावा करते हैं कि हम भी 2018 के विश्व कप में क्वॉलिफाई कर जाएंगे मगर जैसे हालत अभी दिखते हैं, उसे देख लगता नहीं कि हम अठारह हज़ार दो तक भी क्वॉलिफाई कर पाएंगे।
शनिवार, 26 जून 2010
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6 टिप्पणियां:
बढ़िया पोस्ट. हमदोनो के विचार इस मुद्दे पर पूरी तरह से मिलते हैं. यह संयोग ही है की ऐसा कुछ हमने भी लिखा है.
सही बात !!!!!!!!!
अच्छी और समसामयिक सार्थक पोस्ट नीरज भाई , आपकी इसी पोस्ट से प्रेरित होकर एक पोस्ट लिखी हैं ।
अठारह हज़ार दो के लिए सौ नंबर :)
सही कहा....
sahi kaha :(
"जितनी आबादी रोज़ाना डीटीसी की बसों में ‘खड़ी होकर’ सफर करती है; उससे भी कम आबादी वाले देश विश्व कप खेल रहे हैं"...बहुत खूब..:)
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