दोस्तों, शौक ही नहीं इंसान जिज्ञासा भी कैपेसिटी के हिसाब से पालता है। आप उतने ही जिज्ञासु हो सकते हैं, जितना आपकी बुद्धि अफोर्ड करती है। यही जिज्ञासा आपको हर वक़्त बेचैन करती है। आप शोध-खोज में लग जाते हैं। मसलन, हॉकिंग्स लम्बे समय तक बेचैन रहे कि सृष्टि का निर्माण ईश्वर ने किया या भौतिकी ने। न्यूटन सेब को पेड़ से गिरता देख उसकी वजह जानने में लग गए। वैज्ञानिकों की पूरी टोली आज तक ये जानने में लगी है कि ब्लैक हॉल का निर्माण किन हालात में हुआ। मगर ये सब बड़े लोगों की जिज्ञासाएं हैं। 'मुफ्त धनिए’ के लिए बनिए से झगड़ने में ज़िंदगी गुज़ारने वाला आम आदमी ऐसी चुनौतियां मोल नहीं लेता।
उसकी ज़िंदगी और जिज्ञासाएं अलग होती हैं। अपनी ही बात करूं तो सालों से दिल्ली के ट्रैफिक में हिंदी और अंग्रेज़ी के सफर के बावजूद मैं नहीं जान पाया कि लोग हॉर्न क्यों बजाते हैं? वो कौनसे भूगर्भीय, समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक कारण हैं, जो आदमी को हॉर्न बजाने पर मजबूर करते हैं। इन्हीं बातों से परेशान हो मैंने हॉर्नवादकों पर शोध करने का फैसला किया। यहां-वहां भटकने के बजाय मैंने मशहूर हॉर्नवादक दिल्ली के दल्लूपुरा निवासी आहत लाल से मिलना बेहतर समझा। इससे पहले कि आहत से हुई बातचीत का ब्यौरा पेश करूं....बता दूं कि छात्र जीवन से ही आहत को हॉर्न बजाने का खूब शौक था। शुरू में ये सिर्फ शौकिया तौर पर हॉर्न बजाते थे मगर कालांतर में मिली अटेंशन के चलते इन्होंने इस शौक को गंभीरता से लिया। लोकप्रियता का आलम ये है कि आज आसपास के सैंकड़ों गांवों से इन्हें शादियों में हॉर्न बजाने के लिए बुलाया जाता है। पिछले तीन सालों में देश-विदेश में हॉर्नवादन के चार हज़ार से ज्यादा कार्यक्रम दे चुके हैं। उभरते नौजवानों के लिए हॉर्न वादन की वर्कशॉप चलाते हैं। इनसे सीखे छात्र दल्लूपुरा घराने के हॉर्नवादक कहलाते हैं। इन्होंने तो सरकार से मांग तक की थी कि वूवूज़ेला की तर्ज़ पर कॉमनवेल्थ खेलों में ट्रैक्टर-ट्राली के किसी हॉर्न को पारंपरिक वाद्य यंत्र के रूप में शामिल किया जाए।
बहरहाल, बिना वक़्त गंवाए मैं बातचीत पेश करता हूं। आहत बताइए, आपकी नज़र में हॉ़र्न बजाने का सबसे बड़ा फायदा क्या है। देखिए, आज देश में जैसे हालात हैं उसमें आम आदमी के हाथ में अगर कुछ है, तो सिर्फ हॉर्न। नौजवान पचास जगह अप्लाई करते हैं, उन्हें नौकरी नहीं मिलती, दस लड़कियों को प्रपोज़ करते हैं मगर कोई हां नहीं कहती। ऐसे में यही नौजवान जब सड़क पर निकलता है तो हॉर्न बजा अपनी फ्रस्ट्रेशन निकालता है। किसी भी लंबी काली गाड़ी को देख यही सोचता है कि जिन कम्पनियों में उसे नौकरी नहीं मिली, हो न हो उन्हीं में से किसी एक का सीईओ इसमें होगा। बाइक के पीछे बैठी लड़की देख उसे चिढ़ होती है कि तमाम टेढ़े-बांके लौंडे लड़कियां घुमा रहे हैं और एक वही अकेला घूम रहा है। इसी सब खुंदक में वो और हॉर्न बजाता है। उसका मन हल्का होता है। आप ही बताइए अब ये हॉर्न न हो तो वो बेचारा नौकरी और छोकरी की फ्रस्ट्रेशन में सुसाइड नहीं कर लेगा?
हां, ये बात तो ठीक है मगर आजकल मोटरसाइकिल में जो ट्रक वाला हॉर्न लगावने लगे हैं, उसके पीछे क्या दर्शन है? देखिए, जो जितना कुंठित होगा, उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही कर्कश होगी। इसके अलावा ध्यानाकर्षण की इच्छा भी एक वजह हो सकती है। हो सकता है उस बेचारे की बचपन से ख़्वाहिश रही हो कि जहां कहीं से गुजरूं, लोग पलट-पलट कर देखें। मगर उसे इसका कोई जायज़ तरीका न मिल पा रहा हो। अब हर कोई तो सिंगिंग या डांसिंग रिएल्टी शो में जा नहीं सकता। ऐसे में सिर्फ गंदा हॉर्न बजाने भर से किसी को अटेंशन मिल रहा है, तो क्या प्रॉब्लम है। जिस दौर में लोग पब्लिसिटी के लिए अपनी शादी तक का तमाशा बना देते हैं, वहां हॉर्न बजाना कौनसा अपराध है!
मैंने कहा-ये तो बड़ी वजहें हो गईं... इसके अलावा...आहत लाल-इसके अलावा छोटे-मोटे तात्कालिक कारण तो हमेशा बने रहते हैं। घर में बीवी से झगड़ा हो गया तो हॉर्न को बीवी की गर्दन समझ ऑफिस तक दबाते जाइए, ऑफिस पहुंचते-पहुंचते सारा गुस्सा छू हो जाएगा। ये समझना होगा कि ज़िंदगी के जिस-जिस मोड़ पर आप मजबूर हैं, वहां-वहां हॉर्न आपके साथ है। ऑफिस में रुके इनक्रीमेंट से लेकर कई दिनों से घर में रुकी सास तक का गुस्सा हॉर्न के ज़रिए निकाल सकते हैं। ज़माने भर का दबाया आदमी भी, हॉर्न दबा अपनी भड़ास निकाल सकता है और ये चूं भी नहीं करता, बावजूद इसके कि ये हॉर्न है! कहने वाले कहते होंगे कि किताबें इंसान की सबसे अच्छी दोस्त हैं मगर इंसान तो यही कहता है...तू ही तो मेरा हॉर्न है!
(नवभारत टाइम्स 18,अक्टूबर, 2010)
सोमवार, 18 अक्तूबर 2010
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5 टिप्पणियां:
बात तो सही की आहत जी ने पर मेरी गाडी की बैटरी दस महीने से डाउन है तो होर्न बहुत धीरे बजता है.. सोचता हु वो दूद्वालो या ऑटो वालो को भोंपू लगा लु.. आहत जी से पूछिए ज़रा क्या उसको बजाने की भी क्लास देते है.. ?
उफ़ ...क्या क्या पकड़ लेती है आपकी नज़र....
लाजवाब !!!!
टेढ़े बांके लोंडो के पीछे बैठी कन्या को देखकर खुंदक तो मेरे मन में भी रोज होती है..पर ये होर्न से भी frustration निकला जा सकता है..कभी सोचा नहीं था..पर अब जरुर कोशिश करंगा...कोटि कोटि साधुवाद आहत जी को :)...शानदार!!!..
मान्यवर
नमस्कार
अच्छी रचना
मेरे बधाई स्वीकारें
साभार
अवनीश सिंह चौहान
पूर्वाभास http://poorvabhas.blogspot.com/
very good article. Chetan Upadhyaya
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