औसत भारतीय पिता पिटाई को अभिव्यक्ति का सबसे कारगर माध्यम मानता है, बच्चों से संवाद का सर्वोत्तम ज़रिया। और ये ऐसी मान्यता है जो हर बच्चे को उसके बाप से विरासत में मिलती है और यही बच्चा कल बाप बन, बच्चों को पीट इस विरासत को आगे बढ़ाता है।
यूं तो पिटाई के पीछे कई कारण हो सकते हैं....लेकिन ज़्यादातर भारतीय पिता पीटने के लिए 'वजह' के मोहताज नहीं होते। किसी भी बाहरी तनाव पर बच्चों की ठुकाई कर आप हल्के हो सकते हैं! इस तरह बच्चों की पिटाई 'स्ट्रेस बस्टर' का भी काम करती है। वैसे कुछ बाप बोरियत की स्थिति में बच्चों को झापड़ रसीद कर मनोरंजन करते भी देखे गए हैं। ऐसे बच्चों को शक़ होता है कि जैसे पिता जी 'पीटने की हसरत' पूरी करने के लिए मेरे पैदा होने का इंतज़ार ही कर रहे थे। इधर नर्स ने इत्तला दी....ठाकुर साहब लड़का हुआ है...उधर ठाकुर साहब आधा किलो लड्डू के साथ एक बॉक्सिंग किट ले आए। आज से प्रेक्टिस शुरू!
आम भारतीय बच्चा जीवन में तब से पिटना शुरू हो जाता है जब उसे ‘पीटना’ और ‘पिटना’ में फर्क तक मालूम नहीं होता। बाप को लगता है बच्चा ज़िद्द कर रहा है इसलिए पिटना चाहिए और वच्चा जानता ही नहीं, जो वो कर रहा है वो ज़िद्द है! हर बच्चे के पिटने की अलग-अलग फ्रीक्वेंसी होती है। कुछ दो-चार चपत में ही महीने-दो महीने टिके रहते हैं तो कुछ बच्चे 'शॉर्ट टर्म मैमरी लॉस' की वजह से दिन में तीन से चार बार पिटते हैं। सुबह जिस ग़लती पर ठुके, वही गुल दोपहर में भी खिला दिया। फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन और ये ठुके हैं हर-पल, हर-क्षण!
पिटने के मामले में कुछ बच्चों की निजता का भी ख़्याल रखा जाता है। पिता की कोशिश रहती है कि ये 'शुभ काम' घर की चारदीवारी में ही किया जाए। घर के अंदर भले ही इतना पीट लें की पूरा मोहल्ला उसकी चीख-पुकार सुन ले, लेकिन किसी के सामने नहीं। वहीं ज़्यादातर बाप ऐसा 'वहम' नहीं पालते। इस मामले में उनकी अप्रोच थोड़ी केज़ुअल होती है। नतीजतन इनके बच्चों की पिटाई के कई गवाह होते हैं। मेहमान के सामने 'भूख दिखाने' पर, आवाज़ अनसुनी करने पर गली में दोस्तों के सामने और चीज़ के लिए ज़िद्द करने पर दुकानदार की मौजूदगी में बच्चे का जुलूस निकाला जा सकता है।
नतीजतन ऐसे बच्चे उम्र के साथ ढीठ हो, आत्मसंशय का शिकार हो जाते हैं। मन ही मन कुढ़ते हैं और फिर इंतज़ार करते हैं शादी कर अपने बाप बनने का, ताकि अपने हिस्से की परम्परा का निर्वाह कर पाएं।