बुक स्टॉल पर किताबें पलटते हुए अचानक मेरी नज़र एक मैगज़ीन पर पड़ती है। ऊपर लिखा है, ‘गीत-ग़ज़लों की सर्वश्रेष्ठ त्रैमासिक पत्रिका’। ‘सर्वश्रेष्ठ त्रैमासिक पत्रिका’, ये बात मेरा ध्यान खींचती हैं। स्वमाल्यार्पण का ये अंदाज़ मुझे पसंद आता है। मैं सोचने लगता हूं कि पहले तो बाज़ार में गीत-ग़ज़लों की पत्रिकाएं हैं ही कितनी? उनमें भी कितनी त्रैमासिक हैं? बावजूद इसके, प्रकाशक ने घोषणा कर दी कि उसकी पत्रिका ‘सर्वश्रेष्ठ’ है। अपने मां-बाप की इकलौती औलाद होने पर आप ये दावा तो कर ही सकते हैं कि आप उनकी सबसे प्रिय संतान हैं! जीने के लिए अगर वाकई किसी सहारे की ज़रूरत है तो कौन कहता है कि ग़लतफ़हमी सहारा नहीं बन सकती। गौरवपूर्ण जीवन ही अगर सफल जीवन है, तो उस गौरव की तलाश भी तो व्यक्ति या संस्था को खुद ही करनी होती है।
दैनिक अख़बारों में तो ये स्थिति और भी ज़्यादा रोचक है। एक लिखता है, भारत का सबसे बड़ा समाचार-पत्र समूह। दूसरा कहता है, भारत का सबसे तेज़ी से बढ़ता अख़बार। तीसरा कहता है, सबसे अधिक संस्करणों वाला अख़बार। और जो अख़बार आकार, तेज़ी और संस्करण की ये लड़ाई नहीं लड़ पाते वो इलाकाई धौंस पर उतर आते हैं। ‘हरियाणा का नम्बर वन अख़बार’ या ‘पंजाब का नम्बर दो अख़बार’। एक ने तो हद कर दी। उस पर लिखा आता है-फलां-फलां राज्य का ‘सबसे विश्वसनीय अख़बार’। अब आप नाप लीजिए विश्वसनीयता, जैसे भी नाप सकते हैं। कई बार तो स्थिति और ज़्यादा मज़ेदार हो जाती है जब एक ही इलाके के दो अख़बार खुद को नम्बर एक लिखते हैं। मैं सोचता हूं अगर वाकई दोनों नम्बर एक हैं तो उन्हें लिखना चाहिए ‘संयुक्त रूप से नम्बर एक अख़बार’!
खैर, ये तो बात हुई पढ़ाने वालों की। पढ़ने वालों के भी अपने गौरव हैं। मेरे एक परिचित हैं, उन्हें इस बात का बहुत ग़ुमान हैं कि उनके यहां पांच अख़बार आते हैं। वो इस बात पर ही इतराते रहते हैं कि उन्होने फलां-फलां को पढ़ रखा है। प्रेमचन्द को पूरा पढ़ लेने पर इतने गौरवान्वित हैं जितना शायद खुद प्रेमचन्द वो सब लिखकर नहीं हुए होंगे। अक्सर वो जनाब कोफ्त पैदा करते हैं मगर कभी-कभी लगता है कि इनसे कितना कुछ सीखा जा सकता है। बड़े-बड़े रचनाकार बरसों की साधना के बाद भी बेचैन रहते हैं कि कुछ कालजयी नहीं लिख पाए। घंटों पढ़ने पर भी कहते हैं कि उनका अध्ययन कमज़ोर हैं। और ये जनाब घर पर पांच अख़बार आने से ही गौरवान्वित हैं! साढ़े चार सौ रूपये में इन्होंने जीवन की सार्थकता ढूंढ ली।
पढ़ना या लिखना तो फिर भी कुछ हद तक निजी उपलब्धि हो सकता है, पर मैंने तो ऐसे भी लोग देखे हैं जो जीवन भर दूसरों की महिमा ढोते हैं। एक श्रीमान अक्सर ये कहते पाए जाते हैं कि मेरे जीजाजी तो एसपी हैं। मैं सोचता हूं...परीक्षा जीजा ने पास की। पढ़ाया उनके मां-बाप ने। रिश्ता बिचौलिए ने करवाया। शादी बहन की हुई और इन्हें ये सोच रात भर नींद नहीं आती कि मेरे जीजाजी तो एसपी हैं। हर जानने वाले पर ये अपने जीजा के एसपी होने की धौंस मारते हैं। परिचितों का बस चले तो आज ही इनके जीजाजी का निलंबन करवा दें! उन्हें देखकर मुझे अक्सर लगता है कि पढ़-लिख कर कुछ बन जाने से इंसान अपने मां-बाप का ही नहीं, अपने साले का भी गौरव बन सकता है! सच...सफलता के कई बाप ही नहीं, कई साले भी होते हैं।
पद के अलावा पोस्टल एड्रेस में भी मैंने बहुतों को आत्मगौरव ढूंढते पाया है। सहारनपुर में रहने वाला शख़्स दोस्तों के बीच शान से बताता है कि उसके मामाजी दिल्ली रहते हैं। दिल्ली में रहना वाला व्यक्ति सीना ठोक के कहता है कि उसके दूर के चाचा का ग्रेटर कैलाश में बंगला है। उसके वही चाचा अपनी सोसायटी में इस बात पर इतराते हैं कि उनकी बहन का बेटा यूएस में सैटल्ड है। कभी-कभी सोचता हूं तो लगता है कि जब आत्मविश्लेषण में ईमानदारी की जगह नहीं रहती तब ‘जगह’ भी आत्गौरव बन जाती है। फिर वो भले ही दिल्ली में रहने वाले दूर के चाचा की हो, या फिर यूएस में सैटल्ड बहन के बेटे की!
बुधवार, 23 सितंबर 2009
मंगलवार, 22 सितंबर 2009
री-लॉन्चिंग की आउटसोर्सिंग!
वैसे तो यह ट्रेंड गाड़ियों में ज़्यादा देखने को मिलता है। किसी कम्पनी ने कोई मॉडल लॉन्च किया। उसकी खूबियों को लेकर बड़े-बड़े दावे किए, मगर जब गाड़ी बाज़ार में उतरी तो उसे वैसा रिस्पॉन्स नहीं मिला। जानकारों ने ख़ामियां बताईं और वो मॉडल वैसा परफॉर्म नहीं कर पाया जैसी उम्मीद थी। लिहाज़ा, कम्पनी तय करती है कि गाड़ी को री-लॉन्च किया जाए। कुछ नए फीचर्स के साथ। पुरानी ख़ामियों को दूर करते हुए।
ठीक इसी तर्ज़ पर अब वक़्त आ गया है कि हम भारत को भी री लॉन्च करें। भारत का नया इम्प्रूव्ड वर्ज़न लाएं, जिसमें पुरानी कमियां न हो, ताकि भारत नामक 'महान् विचार' में लोगों की आस्था फिर से लौटाई जा सके।
जब मैंने अपना ये विचार एक मित्र को बताया तो उनका कहना था कि इसमें कई तकनीकी ख़ामियां हैं। पहली तो ये कि भारत को लेकर दुनिया को जो-जो समस्याएं हैं जैसे, इसका माइलेज, इंजन, सीट-कवर, हैडलाइट, पिकअप अगर सभी सुधार दी गईं तो इस नए मॉडल में ढूंढने पर भी भारत नहीं मिलेगा। तब दुनिया को पता कैसे चलेगा कि ये भारत का ही नया वर्ज़न है या फिर किसी देश ने हाल ही में स्वायत्तता हासिल की है। दूसरा, जब कोई ब्रांड एक बार बदनाम हो जाता है तो उसे फिर से उसी नाम से लॉन्च करने में दिक़्कत आती है। इसके अलावा इन ख़ामियों को दूर करेगा कौन? हम जब इतने सालों में इस देश को नहीं सुधार पाए तो री-लॉन्चिंग के बाद क्या उखाड़ लेंगे।
मैंने कहा, वो कोई इश्यू नहीं है। हम री-लॉन्चिंग का काम आउटसोर्स कर सकते हैं। हम जिस क्षेत्र में जिस भी देश पर निर्भर हैं, उसमें सुधार का काम पूरी तरह से उसी देश को सौंप सकते हैं। भारतीयों को नौकरी कैसे मिले, ये काम हम अमेरिका और ब्रिटेन को आउटसोर्स कर सकते हैं। सुरक्षा को लेकर हमें चीन से सबसे ज़्यादा ख़तरा है लिहाज़ा सुरक्षा का ठेका हम चीन को दे सकते हैं। शिक्षा और खेलों की दशा-दिशा सुधारने के लिए ऑस्ट्रेलिया से कॉन्ट्रेक्ट कर सकते हैं। मनोरंजन उद्योग के लिए अमेरिका में हॉलीवुड से संधि की जा सकती है। कुछ मामलों में अलग-अलग देशों के लोग मिलकर कमेटी भी बना सकते हैं।
तभी मित्र बोला, मगर तुम भूल रहे हो भारत एक लोकतांत्रिक देश है...ऐसे में सरकार का क्या होगा? मैंने कहा...अगर हमें वाकई सुधरना है तो हमें अपना लोकतंत्र भी आउटसोर्स कर देना चाहिए। वैसे भी हर ओर किफायत की बात हो रही है। विदेशी हमें उतने महंगे तो नहीं पड़ेंगे जितने ये देसी पड़ रहे हैं!
ठीक इसी तर्ज़ पर अब वक़्त आ गया है कि हम भारत को भी री लॉन्च करें। भारत का नया इम्प्रूव्ड वर्ज़न लाएं, जिसमें पुरानी कमियां न हो, ताकि भारत नामक 'महान् विचार' में लोगों की आस्था फिर से लौटाई जा सके।
जब मैंने अपना ये विचार एक मित्र को बताया तो उनका कहना था कि इसमें कई तकनीकी ख़ामियां हैं। पहली तो ये कि भारत को लेकर दुनिया को जो-जो समस्याएं हैं जैसे, इसका माइलेज, इंजन, सीट-कवर, हैडलाइट, पिकअप अगर सभी सुधार दी गईं तो इस नए मॉडल में ढूंढने पर भी भारत नहीं मिलेगा। तब दुनिया को पता कैसे चलेगा कि ये भारत का ही नया वर्ज़न है या फिर किसी देश ने हाल ही में स्वायत्तता हासिल की है। दूसरा, जब कोई ब्रांड एक बार बदनाम हो जाता है तो उसे फिर से उसी नाम से लॉन्च करने में दिक़्कत आती है। इसके अलावा इन ख़ामियों को दूर करेगा कौन? हम जब इतने सालों में इस देश को नहीं सुधार पाए तो री-लॉन्चिंग के बाद क्या उखाड़ लेंगे।
मैंने कहा, वो कोई इश्यू नहीं है। हम री-लॉन्चिंग का काम आउटसोर्स कर सकते हैं। हम जिस क्षेत्र में जिस भी देश पर निर्भर हैं, उसमें सुधार का काम पूरी तरह से उसी देश को सौंप सकते हैं। भारतीयों को नौकरी कैसे मिले, ये काम हम अमेरिका और ब्रिटेन को आउटसोर्स कर सकते हैं। सुरक्षा को लेकर हमें चीन से सबसे ज़्यादा ख़तरा है लिहाज़ा सुरक्षा का ठेका हम चीन को दे सकते हैं। शिक्षा और खेलों की दशा-दिशा सुधारने के लिए ऑस्ट्रेलिया से कॉन्ट्रेक्ट कर सकते हैं। मनोरंजन उद्योग के लिए अमेरिका में हॉलीवुड से संधि की जा सकती है। कुछ मामलों में अलग-अलग देशों के लोग मिलकर कमेटी भी बना सकते हैं।
तभी मित्र बोला, मगर तुम भूल रहे हो भारत एक लोकतांत्रिक देश है...ऐसे में सरकार का क्या होगा? मैंने कहा...अगर हमें वाकई सुधरना है तो हमें अपना लोकतंत्र भी आउटसोर्स कर देना चाहिए। वैसे भी हर ओर किफायत की बात हो रही है। विदेशी हमें उतने महंगे तो नहीं पड़ेंगे जितने ये देसी पड़ रहे हैं!
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