सोमवार, 12 मई 2008
नींद क्यूं रात भर नहीं आती ! (व्यंग्य)
भारतीय दर्शन बताता है कि देह मिथ्या है और आत्मा अमर। यूं तो भारतीय दर्शन और भी कई बातें कहता है लेकिन इस देश में मुझे एक यही बात सच होती दिखती है और इसे सच साबित करने में सरकार पूरी शिद्दत से लगी है।
सच...इस शरीर के मायने क्या है ? सांसरिक जीवन में पड़ा क्या है ? और जब मौत ही आखिरी सच्चाई है तो फिर इधर-उधर भटकने की ज़रूरत क्या है ? तो तैयार रहें मरने के लिए। इस मामले में विकल्पों की कमी नहीं है। हर वक्त 'कुछ नये की मांग' करने वाली जनता कम से कम 'मरने के तरीकों' के मामले में कोई शिकायत नहीं कर सकती।
आप किसान हैं तो ये आपको तय करना है कि तिल-तिल के मरें या कर्ज के बोझ से परेशान हो कर आत्महत्या कर लें। आदिवासी हैं तो यहां भी आपकी मर्ज़ी है नक्सलवाद का रास्ता चुन पुलिस के हाथों जान गंवायें, या फिर सलवा जुडूम का हिस्सा बन नक्सलियों के हाथों शहीद हों।
इसके अलावा मौत को लेकर कई सरप्राइज पैकेज भी हैं। मसलन, मेलों में गाड़ियों में कहीं भी आतंकी हमले का शिकार हो सकते हैं, फुटपाथ पर सोयें हैं तो गाड़ी के नीचे आ सकते हैं, और अगर दिल्लावासी हैं तो कहीं भी, कभी भी, कैसे भी ब्लूलाइन बसों की चपेट में आ इस भवसागर से पार पा सकते हैं।
जिंदगी और मौत के इस पूरे भारतीय दर्शन में सरकारों ने जो क्लासीफिकेशन किया है वो भी गजब का हैं। जैसे सरकार मानती है इंसान के लिए इस जीवन के कोई मायने नहीं है लेकिन चूहों के लिए है। तभी तो भारत शायद पूरी दुनिया का इकलौता देश होगा जहां इंसान भूखा मर जाता है और चूहे गोदामों में गेंहूं का मज़ा लूटते हैं! इंसानों और पशुओं के बीच आध्यात्मिक नज़रिये के इस भेद की मिसाल शायद ही कहीं और देखने को मिले!
मौत की सुविधा देने के पीछे सरकार की एक और मंशा पीढ़ी दर पीढ़ी अनुभवों को साम्यता देना है। मसलन, अगर आज से तीस साल पहले आपके परदादा बिहार के किसी गांव में हर साल आयी बाढ़ का शिकार हुए, फिर पन्द्रह साल पहले आपके पिताजी भी उसी गांव में आयी सालाना बाढ़ की बलि चढ़े, तो आप निराश न हो सरकारों ने अपनी स्वाभाविक अकर्मण्यता से इस बात का पूरा प्रबंध किया है कि आप बाढ़ को दुर्घटना न मान घटना मानें, और इस घटना में होने वाली मौतों को दुर्भाग्य न मान जीवन की आखिरी सच्चाई मानें।
वैसे भी ग़ालिब ने कहा है मौत का एक दिन मुअय्यन (तय) है, नींद क्यूं रात भर नहीं आती। मेरा भी यही मानना है जब मरना ही है और उसका दिन भी तय है तो क्यों मौत की वजह पर बहस की जाए, अपनी नींद ख़राब की जाये ।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
8 टिप्पणियां:
यह पढ़ने के बाद तो रही सही नींदे भी आप उड़ा देंगे..:)
शानदार तरीके से कटाक्ष किया आपने.
@नीरज भाई
कुछ दिनों पहले आपने फीड बर्नर की सुविधा लगाने के लिये पूछा था, पूरा लेख आप रविजी के ब्लॉग पर पढ़ कर अपने चिट्ठे पर फीड बर्नर की सुविधा लगा सकते हैं, जवाब देरी से देने के लिये क्षमा चाहता हूँ।
नीरज भाई.. बढ़िया व्यंग्य.. हालाँकि कुछ पंचस और दिए जा सकते थे..
बहुत करारा कटाक्ष है. अगर सरकार देख ले तो उनकी नींद उड़ाने में भी सक्षम!! बहुत खूब.
———————————–
आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
यह एक अभियान है.इस संदेश को अधिकाधिक प्रसार देकर आप भी इस अभियान का हिस्सा बनें.
शुभकामनाऐं.
समीर लाल
(उड़न तश्तरी)
नीरज जी, सिस्टम पर कटाक्ष का इतना करारा तमाचा मारा है कि आवाज़ यहां तक पहुंच गई है। जबरदस्त लिखा है। आप कहां से बात शुरू कर के ...कहां से कहां इतनी सहजता से घुमा कर ले जाते हैं। यह भी एक जबरदस्त आर्ट है कि पोस्ट की शुरूआत से आगे क्या है इस का राज़ बना रहे, पाठकों की क्रयूओसिटी बनी रहे।
मौत तो इक दिन आनी ही है। फजूल में सरकार को काहें फँसा रहे हैं? कुछ ‘न’ करे तो भी हाय-तौबा, और मौत का थोड़ा बहुत प्रबंध कर दिया तो भी ई ब्लॉग ठेल दिया। कौनो बिधी जस नाहीं है।
लोग तो तांग खिचते हे आप ने तो सरकार की निक्कर ही खीचं ली, वाह कहा से शुरु ओर कहा ला के मारा, बहुत धन्यवाद
शानदार!
बहुत खूब लिखा है नीरज. भाई;
एक शेर मुझे भी याद है...
मौत तो लफ्ज़ बेमानी है
जिसको मारा हयात ने मारा
लेकिन एक इच्छा भी है. सरकार कभी ऐसा प्रबंध कर डाले कि हम भी कहें;
जिंदगी को संभालकर रखिये
ज़िंदगी मौत की अमानत है
बहुत अच्छा व्यंग. मौत की सुविधा तो अतुलनीय है और हर भारतीय का इस पर समान अधिकार है, इसमें कोई दो राय नहीं :-)
एक टिप्पणी भेजें