भलाई करने के मामले में 'सिफारिश' ने 'दुआ' को कहीं पीछे छोड़ दिया है। एक वक़्त था जब आदमी करीबी लोगों की भलाई के लिए दुआ मांगता था। अब यही लोग ज़्यादा 'डिमांडिंग' हो गये हैं। उनका मानना है कि दुआ तो ज़बानी जमा खर्च है, पेपर वर्क है, इसका ज़मीनी हक़ीकत से कोई सरोकार नहीं। कुछ करना ही है तो सिफारिश करो।
नाक़ाबिल लोगों के लिए सिफारिश ऐसी सुरंग है जिससे वो कहीं भी घुस जाते हैं। सिफारिशी टट्टू अक्सर पिछले दरवाज़े से एंट्री करते हैं, उन्हें डर रहता है कि मेन गेट से आये तो कोई काबलियत का सर्टिफिकेट न मांग ले।
सिफारिशी मोम के बने होते हैं। दबाव की आंच में वो जल्दी पिघल जाते हैं। ऑफिस में मौजूद उनके माई-बाप उनकी इस 'दक्षता' का ख़्याल रखते हैं। लिहाज़ा उन्हें ऐसे कामों में लगाया जाता है जिसके लिए न्यूनतम बुद्धि का आवश्यकता होती है। सिफारिशी भी अपने माई बापों का एहसान नहीं भूलते और उनके लिए चुगलखोरी का काम करते हैं। एक बॉस के लगाये दो सिफारिशी टट्टुओं में बेहतर चुगलखोर बनने की होड़ रहती है। सिफारिशियों द्वारा की गई चुगली की 'क्वालिटी' ही उनकी नौकरी को 'जस्टीफाई' करती है।
सिफारिशी जब भी सिर के ऊपर देखता है तो उसे आसमान नहीं, एक लटकती हुई तलवार दिखाई देती है। सिफारिशी जानता है कि हर सिफारिश का वैलीडिटी पीरियड होता है। सत्ता परिवर्तन के बाद चलने वाले सफाई अभियान में पहली झाडू सिफारिशी पर ही लगती है। उसका यही डर उसे दूरदर्शी बनाता है। वो सम्भावित बॉसेज़ पर नज़र रखता है और होली- दीवाली उन्हें मैसेज भेज विश करना नहीं भूलता। अपने बॉस के इधर-उधर होने पर वो सम्भावित बॉसेज़ के साथ चाय पीता है और बातों-बातों में कह डालता है कि सर, इस कम्पनी में जो जगह आप डिज़र्व करते हैं वो आपको मिली नहीं और यही वो वक़्त होता है जब सिफारिशी बिना यूनिवर्सिटी गये कूटनीति में पोस्ट ग्रेजुएशन कर लेता है!
सिफारिशी गजब के व्यवहारकुशल भी होते हैं। ज़बान के बेहद मीठे। इतने मीठे की लगातार आधे घंटे तक उनकी बात सुनने पर डायबिटीज़ हो सकती है। काबिल लोगों से वो बेवजह नहीं भिड़ते। जानते हैं कि अगर कभी काम करने की नौबत आयी तो यही काबिल उनके काम आयेंगे।
इधर वक्त के साथ सिफारिशी को लेकर लोगों के नज़रिये में बदलाव आया है। पहले लोग सिफारिशियों की भर्ती को भ्रष्टाचार के तौर पर देखते थे, फिर मजबूरी मानने लगे और अब सभी ने इसे हक़ीकत मान लिया है। लेकिन इस हक़ीकत के चलते हालात बिगड़ने लगे हैं।
कम्पनियां सिफारिशी टट्टुओं की भर्ती को लेकर नियमों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन कर रही हैं। कई कम्पनियों में तो सिफारशी मैजोरटी में आ गये हैं। वक़्त आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में हस्तक्षेप करे और साफ निर्देश दे कि किसी भी कम्पनी में 50 फीसदी से ज़्यादा सिफारिशी भर्ती न किया जाये। आख़िर ऐसे लोग जिनके पास ‘प्रतिभा’ के नाम पर सिर्फ काबिलियत हैं उनका भी तो कुछ कोटा फिक्स होना चाहिए!
गुरुवार, 15 मई 2008
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4 टिप्पणियां:
बात आपकी बिल्कुल सही है कि ऐसे लोग जिनके पास ‘प्रतिभा’ के नाम पर सिर्फ काबिलियत हैं उनका भी तो कुछ कोटा फिक्स होना चाहिए! सच पूछिये तो ऐसे लोग अब सिफारिशी लोगों के मुकाबले माइनोरिटी में आते जा रहे हैं.
कल ही एक सिफारिशी पत्र मेरे पास आया था.. आज आपको पढ़ा तो लगा की कितना ठीक लिखा आपने.. सुप्रीम कोर्ट को बीच में आकर पचास प्रतिशत कोटा दिलाने वाली बात में पूर्ण व्यंग्य है.. अगली बार आपसे और बढ़िया मिलने की उमीद है..
सिर्फ़ प्रतिभा होने पर यहाँ पढने का हक़ नहीं मिलने वाला है और आप नौकरी की बात करते हैं... अरे मंत्रीजी ने कहा है की जिनको प्रतिभा है वो पढ़ के क्या करेंगे, वो तो ऐसे ही काबिल हैं... पढने का हक़ बिना प्रतिभा वालों को मिलेगा, और फिर पढे-लिखे लोगों को नौकरी :-)
जिनके पास ‘प्रतिभा’ के नाम पर सिर्फ काबिलियत हैं उनका भी तो कुछ कोटा फिक्स होना चाहिए!
-बहुत उम्दा सोचा है और खरा खरा सुनाया है.
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