अध्यात्म बताता है कि जीवन को समझना है तो प्रकृति से जुड़ो। मैं जुड़ता हूं। ज़रुरी काम से बाहर जाना है, सोचता हूं जाऊं। मगर भीतर की प्रकृति हाथ पकड़ कर बिठा लेती है। क्या ज़रुरत पड़ी है आज जाने की? ये काम तो कल भी किया जा सकता है। बाहर देख कितनी धूप है। ये भला कोई मौसम है काम करने का। घर बैठ, तरबूज़ काट, कूलर चला, सीरियल देख। मगर बाहर मत जा। लू लग जाएगी।
भीतर और बाहर की प्रकृति फोर्स कर रही है और मैं फोर्स होने लिए तैयार बैठा हूं। धूप की दलील काम न करने की ग्लानि से बचाती है। आख़िरकार मौसम और मैं समझौता कर काम टाल देते हैं। काम टालने में मौसम ने हमेशा मदद की है। गर्मी में लू का डर पांव पकड़ घर बिठा देता है। सर्दी में शीतलहर के सम्मान में रजाई में पड़ा मूंगफली खाता हूं। बारिश में सहज ही मुंह से निकल जाता है-ये भी कोई टाइम है काम करने का? ये वक़्त तो पकौड़े खाने और अदरक वाली चाय पीने का है!
मौसमी चक्र बताता है कि आलसियों के लिए ईश्वर के मन में सॉफ्ट कॉर्नर है। हर मौसम में पड़े रहने की ‘असीम सम्भावनाओं’ के लिए मैं ईश्वर का शुक्रिया अदा करता हूं। जब अख़बार और चैनल चिल्ला-चिल्ला कर बता रहे हैं कि लू से मरने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है, तो क्या ज़रुरत पड़ी है बाहर निकल इस आंकड़े में इज़ाफा करने की। आख़िर मीडिया की विश्वसनीयता जांचने के लिए मैं अपनी जान तो दांव पर नहीं लगा सकता। वैसे भी बुज़ुर्ग कह गये हैं कि किसी के जाने से कोई काम नहीं रुकता। सही बात है। जाने से नहीं रुकता, तो न जाने से भी नहीं रुकता होगा। तो फिर पड़े रहो। वैसे भी ये अहसास कि जो काम मुझे करना है बेहद ज़रुरी है, इंसान में दम्भ पैदा करता है।
प्रकृति चूंकि सैलफोन यूज़ नहीं करती, इसलिए कोई एसएमएस भी नहीं आएगा कि मौसम ठीक नहीं, बाहर मत निकलो। आपको अपने कॉमन सैंस (अगर है तो) का इस्तेमाल कर ही ये तय करना है कि मुझे बाहर नहीं जाना। हो सकता है लू से बचने के लिए बीवी प्याज़ साथ ले जाने का आइडिया दे, मगर आपको नहीं मानना। सोचिए ज़रा, ऑफिस में किसी को पता चले कि आप गर्मी से बचने के लिए जेब में प्याज लेकर आएं हैं तो क्या जवाब देंगे? हो सकता है कि कोई मान बैठे कि इस मंहगाई में आपने ये प्याज रेहड़ी से चुराया हो!
तो सवाल ये है कि क्या प्रकृति हमें अकर्मण्य बनाना चाहती है? शायद हां। हमारे ‘करने’ ने उसका जो नुकसान किया है, इसके बाद शायद वो यही चाहती हो! ये जानलेवा गर्मी, बेइंतहा सर्दी और ज़बरदस्त बाढ़। हमारा भी तो कुछ क्रेडिट है इसमें!
शुक्रवार, 16 मई 2008
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4 टिप्पणियां:
uttam vichar...wo to hum ne thoda purusharth kar ke ee comment likh dia varna, prikriti to ee me bhi razini thi...hahhaa bahut badiya
बहुत खूब...
प्रकृति पर शानदार चिंतन किया है नीरज...अन्दर की और बाहर की, दोनों....
वाह!! बहुत सार्थक चिन्तन. प्रकृति पर हो रहे आत्याचारों को देख दिल दुखी हो जाता है. बस, अपने हिस्से का जो कुछ जो कर पाये, उतना ही कर ले तो स्थितियाँ बदल जायेंगी.
सोचा था बढ़िया कॅमेंट दुन्ग..लेकिन अभी गर्मी बहुत है.. इसलिए की बोर्ड पे हाथ नही चल रहा..
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