मंगलवार, 4 नवंबर 2008

सेवादार बनने की जंग

सेवा एक ऐसा भाव है जो करने में आनन्द देता है और करवाने में परमानन्द! बचपन से हमें बताया जाता है कि बड़ों की सेवा करो पुण्य मिलेगा। वाक्य संरचना पर गौर करें तो इसकी शुरूआत उपदेश से होती है ...बड़ों की सेवा करो.....मन में सवाल उठता है.....मगर क्यों ? क्या फायदा ? लेकिन..... वाक्य का अगला हिस्सा भरोसा देता है.....पुण्य मिलेगा। अब पूरा प्रस्ताव हमारे सामने कुछ इस तरह से है कि बड़ों की सेवा करो.....तो पुण्य मिलेगा।
हम भारतीयों से कुछ भी करवाना बड़ी टेढ़ी खीर है, जब तक कोई मुनाफा न हो तो कुछ नहीं करेंगे, भले ही वो सेवा ही क्यों न हो ? तमाम मां-बाप बच्चों को कहते हैं बेटे दादा जी के पांव दबा दो...पुण्य मिलेगा। पुण्य की दलील बच्चे को मना नहीं पाती और आख़िर में उसे पांच रूपये का लालच दे पांव दबवाने पड़ते हैं। बच्चे को पांच रूपये मिलते हैं और तो वो दुकान से कुरकुरे का पैकट खरीद लेता है।
बच्चे की कम अक्ल ये मोटी बात जान लेती है कि सेवा फायदे का सौदा है। अब वो सेवा की 'ताक' में रहता है। दादा जी पांव दबाऊं....हां बेटा ज़रूर...पांच रूपये तो खुल्ले हैं न....हां बेटा है....। अब सिलसिला निकल पड़ा है। दादा जी को टांग दबाने वाल होम मसाजर मिल गया है...बच्चे का डेली कुरकुरे का बंदोबस्त हो गया है, और मां-बाप ये सोच कर खुश हैं कि चंद रूपयों के लालच में अगर बच्चा अच्छा काम कर रहा है तो बुरा क्या ?
लेकिन अभी कहानी में ट्वीस्ट है.....ये एक ज्वांयट फैमिली है। बच्चे के कज़न को पता चल गया है कि दादा जी टांग दबाने के पांच रूपये देते हैं। एक दिन वो भी दादा जी के पास जाता है। कहता है दादा जी मैं भी आपकी टांगे दबाऊंगा। दादा जी का सीना ये सोच खुशी से चौड़ा हो जाता है कि दुनिया के सबसे संस्कारी बच्चों की डिलीवरी उन्हीं के घर हुई है।

मगर पहला बच्चा इससे काफी परेशान है। उसे बर्दाश्त नहीं कि उसके अलावा कोई और दादा जी की सेवा करे। सेवा में हिस्सेदारी उसे पसंद नहीं। ये तकलीफ एक्सक्लूसिवली वो खुद ही उठाना चाहता है। खैर....
इस कहानी को मौजूदा संदर्भ में देखें तो पता नहीं क्यों मुझे दादा की हालत लोकतंत्र जैसी और खुंदकी बच्चों की हरक़तें नेताओं जैसी लग रही है। जो चाहते हैं कि लोकतंत्र रूपी दादा की सेवा सिर्फ वही करें और बदले में मिलने वाला सारा मेवा एकमुश्त वही खा जाये। दिल्ली से राजस्थान और मध्यप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ जहां-जहां चुनाव होने है आप देखिए नेता जनता की सेवा करने के लिए मरे जा रहे हैं।
जिन्हें सेवा करने का मौका मिल रहा है वो धन्य हो रहे हैं और जो इस पुण्य काम के लिए नहीं चुने गए वो मरने-मारने पर उतारू हैं।
सेवा करने की तड़प और मेवा खाने की उमंग! वाकई कितनी सुंदर स्थिति है! राजनीति का साम्प्रदायिकरण, खेलों का राजनीतिकरण और अब पेश है एक नया मॉडल संस्कारों का व्यवसायीकरण! सिर्फ मुझे ही सेवा करनी है! आख़िर.... राजनीति एक धंधा ही तो है।

9 टिप्‍पणियां:

Shiv ने कहा…

वाह वाह. हमेशा की तरह शानदार लेखन.

असली चीज मेवा ...सॉरी सेवा ही है. आज के नेताओं के बुजुर्ग उन्हें न सिर्फ़ नेता बना गए बल्कि ये भी सिखाते गए कि जनता की सेवा अतिआवश्यक है.

अजय कुमार झा ने कहा…

neeraj bhai,
aapko pehle bhee padhtaa raha hoon, mera maanna hai ki jo vyangya kartaa hai uskee najar achook hotee aur uskaa asar bhee, sewaa kaa bhaav aaj hee jaana maja aa gaya.

Udan Tashtari ने कहा…

काश मुझे भी जनता सेवा का मौका दे तो थोड़ा मेवा पा जायें..बहुत खूब लिखा है..आनन्द आ गया.

Abhishek Ojha ने कहा…

वाह ! :-)

महुवा ने कहा…

बचपन से ही इतने समझदार हो या यहां आकर ज्ञान चक्षु खुलें हैं.....

महुवा ने कहा…

बचपन से ही इतने समझदार हो या यहां आकर ज्ञान चक्षु खुलें हैं.....

महुवा ने कहा…

ऑफिस कैसा चल रहा है.....:-)

Unknown ने कहा…

"सिर्फ मुझे ही सेवा करनी है!", इसी से तो प्रजातंत्र की शुरुआत हुई है. सेवा से मेवा का पुराना रिश्ता है. मेवा नहीं तो सेवा नहीं. अब फ़िर चुनाव आ गए हैं, अब फ़िर सेवादार दंगल करेंगे, सेवा तो हम ही करेंगे, और जो कोई सेवा करने की हिम्मत करेगा उस की तो ..............

पटिये ने कहा…

नीरज वाधवा की नई शिनाख्त देखी....अच्छा लगा...हमें वक्त रहते अपनी एक अलग पहचान बना लेनी चाहिये...जो किसी चैनल की...मोहताज नहीं रहे..मेरा यकीन है...आपकी हमारी ये नई पहचान ही हमारी साँसों तक ज़िन्दा रहने वाली है.....शिफाली।
कैमरे के सामने सौ बार मिले होंगे...सहारा के समय में...अब ये नई मुलाकात है..है ना।