रविवार, 8 मार्च 2009

हाल-ए-पुदिरे (हास्य-व्यंग्य)

मैं कश्मीरी गेट की तरफ से पुदिरे यानि पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन में प्रवेश करता हूं। स्टेशन अपनी तमाम खूबसूरती लिए मेरे सामने हैं। एक नज़र में यक़ीन करना मुश्किल है कि स्टेशन ज़्यादा पुराना है या दिल्ली। पटरियों में फंसे रंग-बिरंगे पॉलीथिन, ज़र्दे के खाली पाउच, प्लास्टिक की बोतलें, पत्थरों पर फाइन आर्ट बनाती पान की पीकें, पपड़ियों से सजी बेरंग दीवारें, अनजान कोनों से आती बदबू, खड़ी गाड़ियों और उखड़े लोगों के बहाए मल और न जाने ऐसी कितनी अदाएं जो अपनी सम्पूर्ण गंदगी के साथ स्टेशन की पुरातात्विकता को ज़िंदा रख रही हैं। मैं जान गया हूं इस स्टेशन पर एक क्षण भी स्टे करना मुश्किल है।

आगे बढ़ता हूं। दो भिखारी दैनिक ऊब मिटाने के लिए झगड़ रहे हैं। दो पुलिसवाले बेलगाम तोंदों के साथ उन पर लगाम लगाने पहुंचते हैं। भिखारियों की सेहत और कर्कशता पर पुलिसवालों की मौजूदगी का असर नहीं पड़ता। उन्हें झगड़ता छोड़ पुलिसवाले डंडे लिए आगे बढ़ते है। वो जानते हैं कि किसी अनहोनी की इतनी औकात नहीं जो उनके डंडे के काबू में न आए वैसे भी सीएसटी जैसे हादसे तो रोज़-रोज़ होते नहीं।
वहीं प्लेटफार्म पूछने के लिए अब भी मैं 'रिलाएबल चेहरे' की तलाश कर रहा हूं। फिर कोई ओवरब्रिज से दूसरे छोर पर जाने का इशारा करता है। सीढ़ियां बड़ी हैं, सांस छोटी, ऊपर पहुंचने तक हांफने लगता हूं। अभी आयी एक गाड़ी से छूटे लोग पुलिया पर धावा बोल देते हैं। धक्कों का मुफ्त लंगर लग जाता है और आवभगत ऐसी की पूछो मत! मना करने के बावजूद थोड़ा और, थोड़ा और कह पेट भर दिया जाता है। सामान थामे आंख बंद कर मैं किनारे लगता हूं। एक-एक कर तमाम कुकर्म फ्लैशबैक में आंखों से गुज़रने लगते हैं। मेरी लांघी दस हज़ार रेड लाइटें, ब्लूलाइन के बेटिकट सफर, ऑफिस में की सैंकड़ों घंटों की कामचोरी! नहीं प्रभु नहीं....तुम इतने बुरे न्यायाधीश नहीं हो सकते। मेरे मिनी भ्रष्टाचारों की इतनी बड़ी सज़ा! इन दरियाई घोड़ों को रोको प्रभु, रोको!
तभी भीड़ छंटती है, सांस आती है, गाड़ी पहुंचती है। एस-सैवन कोच में प्रवेश करता हूं। अंदर वही सब कुछ....मूंगफली के छिलके, पान की पीकें, बिखरी चाय, खाली बोतलें....लगता है निगम के कचरा ढ़ोने वाले ट्रक में बैठ गया हूं और पीछे तख़्ती टंगी है-रेलवे का मुनाफा 90 हज़ार करोड़!

6 टिप्‍पणियां:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

लगता है निगम के कचरा ढ़ोने वाले ट्रक में बैठ गया हूं और पीछे तख़्ती टंगी है-रेलवे का मुनाफा 90 हज़ार करोड़!
Waah...bahut khoob vyang....आपको होली की शुभकामनाएं.
नीरज

कुश ने कहा…

एक नज़र में यक़ीन करना मुश्किल है कि स्टेशन ज़्यादा पुराना है या दिल्ली।

पत्थरों पर फाइन आर्ट बनाती पान की पीकें

दो भिखारी दैनिक ऊब मिटाने के लिए झगड़ रहे हैं।

पुलिसवाले बेलगाम तोंदों के साथ उन पर लगाम लगाने पहुंचते हैं

धक्कों का मुफ्त लंगर लग जाता है

और आवभगत ऐसी की पूछो मत! मना करने के बावजूद थोड़ा और, थोड़ा और कह पेट भर दिया जाता है।

लगता है निगम के कचरा ढ़ोने वाले ट्रक में बैठ गया हूं और पीछे तख़्ती टंगी है-रेलवे का मुनाफा 90 हज़ार करोड़!


जबरदस्त नीरज भाई.. इन पंक्तियो ने तो समा बाँध दिया है.. ये सिर्फ़ आप ही लिख सकते है.. बहुत ही उम्दा.. वाकई

Unknown ने कहा…

नीरज भाई बहुत खूब । मजा आ गया पढ़कर । हकीकत तो यही है पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन की । आपने वहां के चूहों का जिक्र नहीं किया जिससे बिल्लियां भी भय खाती हैं और इंसान भी सहमता है । होली मुबारक

बेनामी ने कहा…

समाज के भीतरी सच को देख पाने का अच्छा हुनर है आपके पास। बधाई।

Fighter Jet ने कहा…

kaash hum log saaf safai pasand karne wale aadmi hote.lagta hai..sara jahan ka kachra hamre yahan hi paida hota hai.

बेनामी ने कहा…

इन दरियाई घोड़ों को रोको प्रभु!

वाह!

नीरज, आज से आप मेरी ब्लॉग लिस्ट में शामिल