रविवार, 17 जनवरी 2010

मुहावरों में पिलती बेचारी सब्ज़ियां (हास्य-व्यंग्य)

बीवी ने अगर सब्ज़ी अच्छी नहीं बनाई तो आप किस पर गुस्सा निकालेंगे? बीवी पर या सब्ज़ी पर। निश्चित तौर पर बीवी पर। लेकिन, इस देश में मर्द चूंकि सदियों से बीवी से डरता रहा है, इसीलिए उसने चुन-चुन कर सब्ज़ियों पर गुस्सा निकाला दिया। यही वजह है कि ज़्यादातर मुहावरों में सब्ज़ियों का इस्तेमाल 'नकारात्मकता' बयान करने में ही किया गया है। मुलाहिज़ा फरमायें।

तू किस खेत की मूली है: एक सर्वे के मुताबिक औकात बताने के लिए इस मुहावरे का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है और अगर आपका खून पानी नहीं हुआ तो ये सुनते ही वो खौल उठेगा और आप झगड़ बैठेंगे। मगर क्या किसी ने सोचा है इससे 'मूली के कॉन्फीडेंस' पर कितना बुरा असर पड़ता होगा ? कितना नुक़सान होता है उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा का?

क्या मानव जाति भूल गई बरसों से मक्खन लगा कर वो इसी मूली के पराठें खाती रही है ? नमक लगी, नीम्बू छिड़की कितनी ही मूलियां रेहड़ियों पर उसके हाथों शहीद हुई हैं। प्याज महंगे होने पर यही मूली सलाद की प्लेंटे भरती आई है। मगर ये एहसान फरामोश इंसान, इसने तो बड़ो-बड़ो को कुछ नहीं समझा, तो ये मूली आखिर किस खेत की मूली है!

थोथा चना बाजे घना- मूली के बाद जिस सब्ज़ी का मुहावरों में सबसे नाजायज़ इस्तेमाल किया गया है, वो चना है। उस पर भी चने का इतने मुहावरों में इस्तेमाल हो चुका है कि अलग से एक पॉकेट बुक निकाली जा सकती है। थोथा चना बाजे घना, अकेला चना भाड़ नहीं भोड़ सकता, लोहे के चने चबाना, चने के झाड़ पर चढ़ाना। ऐसा देश जहां प्रति सैकिंड एक भावना आहत होती है। चने की भावना का क्या ? यक़ीन मानिये अगर सब्ज़ियों की तरफ से मानहानि के मुक़दमें दायर हो सकते, तो हर बंदा चने के खिलाफ एक-आध केस लड़ रहा होता!

एक अनार सौ बीमार:-चरित्र हनन नाम की अगर वाकई कोई चीज़ है, तो अनार से ज़्यादा बदनामी किसी की नहीं हुई। जिंदगी भर आम आदमी अनार का जितना जूस नहीं पीता, उससे कहीं ज़्यादा ये कहावत बोल-बोल कर निकाल देता है। टारगेट कोई, मरा कोई जा रहा और घसीटा जाता है बेचारे अनार को। सोचता हूं अनार को कितनी शर्मिंदगी झेलनी पड़ती होगी, जब उसके बच्चे पूछते होंगे मम्मी लोग आपके बारे में ऐसा क्यों कहते हैं ?

थाली का बैगन- बैगन अपने रंग रुप के चलते बिरादरी में तो राजा है लेकिन कहावतों में उसकी औकात संतरी से ज़्यादा नहीं! किसी को भी रीढ़विहीन, दलबदलू कहना हो तो थाली का बैगन कह दो। इतिहास गवाह है कि किसी भी युग में जनता द्वारा राजा की इतनी भद्द नहीं पिटी गई। गाजर मूली तक ठीक है। मगर बैगन के स्टेट्स का तो ख़्याल रखो। जब से धनिये ने ये कहावत सुनी है वो बैगन को आंख दिखाने लगा है। चल बे! काहे का बैगन राजा। सब पता है तेरी औकात का।

दाल में कुछ काला है- भ्रष्टाचार के नए आयाम स्थापित करते-करते एक रोज़ भारतीय समाज ऐसी जगह पहुंचा जहां सब्ज़ियां कम पड़ गई, लिहाज़ा दालों को निंदा कांड में घसीटना पड़ा। भ्रष्टाचारी घपले करने लगे। शरीफों ने सीधे न बोल कह दिया दाल में कुछ काला है। जांच हुई तो पता चला पूरी दाल ही काली है। फिर दावा किया गया अरे ये तो काली दाल है। इस तरह दाल को गड़बड़ी का प्रतीक बना उसकी मार्केट ख़राब कर दी गई।

लड़के से लड़की नहीं पटी और दोस्तो ने छेड़ दिया क्यों दाल नहीं गली क्या? नाकामी को दाल न गलने से जो़ड़ दिया। हक़ीकत तो ये है कि सभी दालें दो सीटियों में गल जाती है। मुझे नहीं याद आता कि आज तक किसी दाल ने न गलने की ज़िद्द की हो।

इसके अलावा गाजर-मूली की तरह काटना,खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है, करेला नीम चढ़ा सरीखी कुछ ऐसी कहावतें हैं जो बताती हैं कि सब्ज़ियों की ऐसी-तैसी करने में हम कितने लोकतांत्रिक रहे हैं!

5 टिप्‍पणियां:

kavita verma ने कहा…

sach kitani samvedanshelata,is yug me jahan log aadami ki bhavanao ka khyal nahi karte,aap sabjion -falo ke liye aahat ho rahe hai.aapaki samvedanshelata kaayam rahe!

Fighter Jet ने कहा…

bechari..sabjiya.. :)

रंजना ने कहा…

bechari sabjiyon ki pratishtah bachane ke liye aapne jo prayaas kiye hain...we aapko duyaen deti thak na rahi hongi...
Lajawaab post...Waah !!!

मधुकर राजपूत ने कहा…

चने की दाल चार सीटी में गलती है नीरज जी। कुछ और मुहावरे छूट गए हैं। तेरे जैसे धनिए के भाव मिलते हैं,प्याज काट दूंगा, नींब सा निचोड़ दूंगा, सड़े हुए बथुए जैसा।

Telkom University ने कहा…

How do cultural and historical perspectives contribute to the portrayal of vegetables as helpless victims in humorous and satirical expressions in this society?Telkom University