मैं कश्मीरी गेट की तरफ से पुदिरे यानि पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन में प्रवेश करता हूं। स्टेशन अपनी तमाम खूबसूरती लिए मेरे सामने हैं। एक नज़र में यक़ीन करना मुश्किल है कि स्टेशन ज़्यादा पुराना है या दिल्ली। पटरियों में फंसे रंग-बिरंगे पॉलीथिन, ज़र्दे के खाली पाउच, प्लास्टिक की बोतलें, पत्थरों पर फाइन आर्ट बनाती पान की पीकें, पपड़ियों से सजी बेरंग दीवारें, अनजान कोनों से आती बदबू, खड़ी गाड़ियों और उखड़े लोगों के बहाए मल और न जाने ऐसी कितनी अदाएं जो अपनी सम्पूर्ण गंदगी के साथ स्टेशन की पुरातात्विकता को ज़िंदा रख रही हैं। ये समझ पाना मुश्किल है कि आख़िर किस ग़लती की सज़ा स्टेशन को दी जा रही है ? संसद में अटका वो कौन सा विधेयक है जिसके चलते यहां झाडू नहीं लग रही ? किस साजिश के तहत देश की विकास योजनाओं में इसे शामिल नहीं किया जा रहा? आखिर क्यों ये आज भी वैसा ही है जैसा कभी राणा सांगा के वक्त रहा होगा ?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके मैं जवाब जानना चाहता हूं। मगर अभी तो ये जानना है कि जिस ट्रेन से जाना है वो किस प्लेटफॉर्म से चलेगी। जैसे तैसे पूछताछ खिड़की पहुंचता हूं। खिड़की पर कोई मौजूद नहीं है। अंदर एक फोन घंटिया बजा-बजा परेशान हो रहा है मगर उसे उठाना वाला कोई नहीं। मैं अंदर आवाज़ देता हूं। यहां वहां पूछता हूं मगर इनक्वायरी विंडों पर मौजूद शख्स का कोई पता नहीं। कैसी विडम्बना है कि मैं गया तो गाडी का पूछने था मगर लोगों से पूछता फिर रहा हूं कि इन्क्वायरी विंडों वाला किधर है?
सवाल ये है कि ये इन्क्वायरी विंडों वाला आखिर किधर गया ? क्या ये आज बिना किसको बताये आया ही नहीं, क्या ये ऊपर बने किसी कमरे में आराम फरमा रहा है? क्या ये किसी कोने में बैठा बीडी फूंक रहा है? क्या पिछले दो घंटे से ये 'दो मिनट' के किसी काम पर निकला था? सोचता हूं कि स्टेशन पर गुमशुदा लोगों के जो इश्तेहार लगे हैं वहीं पूछताछ खिड़की के उस शख्स का भी एक इश्तेहार लगा दूं, किसी को दिखे तो बतायें!
प्लेटफॉर्म की तलाश में आगे बढ़ रहा हूं। इस बीच भूख लगने लगती है। गाडी चलने में समय है, सोचता हूं कुछ खा लूं। गर्दन घुमा कर देखता हूं। चारों तरफ सेहत के दुश्मन बैठे हैं। कोई भठूरा बेच रहा है तो कोई पकौडा, किसी के पास गंदे तेल में तला समोसा हैं तो किसी के पास पिलाने के लिए ऐसी शिकंजी जिसमें इस्तेमाल की गई बर्फ और पानी का रहस्य सिर्फ बेचना वाला ही जानता है। तमाम चीज़ों की हक़ीकत जानने के बावजूद खाने-पीने के भारतीय संस्कारों के हाथों मजबूर हैं। पहले शिकंज़ी पीता हूं, भठूरे भी खाता हूं, थोड़े पकौडे भी लेता हूं और आधी-कच्ची चाय का भी आनन्द लेता हूं।
खाने पीने को लेकर दिल से उठाया गया ये कदम फौरन पेट पर भारी पड़ने लगता है। बाथरूम की तरफ लपकता हूं। दोस्तों, भारतीय रेलवे स्टेशन्स में शौचालय वो जगह होती है जहां सतत जनसहयोग और सफाई कर्मचारियों की अकर्मण्यता से ज़हरीली गैसों का निर्माण किया जाता है। उस पर ये भी लिखा रहता है-स्वच्छता का प्रतीक। ऐसा लगता है मानों....लोगों को चिढ़ाया जा रहा है।
खैर, सांस रोके जो करना है वो कर बाहर आता हूं। मुझे अब भी अपने प्लेटफॉर्म की ठीक ठीक जानकारी नहीं है। फिर कोई ओवरब्रिज से दूसरे छोर पर जाने का इशारा करता है। सीढ़ियां बड़ी हैं, सांस छोटी, ऊपर पहुंचने तक हांफने लगता हूं। अभी आयी एक गाड़ी से छूटे लोग पुलिया पर धावा बोल देते हैं। धक्कों का मुफ्त लंगर लग जाता है और आवभगत ऐसी की पूछो मत! मना करने के बावजूद थोड़ा और, थोड़ा और कह पेट भर दिया जाता है। सामान थामे आंख बंद कर मैं किनारे लगता हूं। एक-एक कर तमाम कुकर्म फ्लैशबैक में आंखों से गुज़रने लगते हैं। मेरी लांघी दस हज़ार रेड लाइटें, ब्लूलाइन के बेटिकट सफर, ऑफिस में की सैंकड़ों घंटों की कामचोरी! नहीं प्रभु नहीं....तुम इतने बुरे न्यायाधीश नहीं हो सकते। मेरे मिनी भ्रष्टाचारों की इतनी बड़ी सज़ा! इन दरियाई घोड़ों को रोको प्रभु, रोको!
तभी भीड़ छंटती है, सांस आती है, गाड़ी पहुंचती है। एस-सैवन कोच में प्रवेश करता हूं। अंदर वही सब कुछ....मूंगफली के छिलके, पान की पीकें, बिखरी चाय, खाली बोतलें....लगता है निगम के कचरा ढ़ोने वाले ट्रक में बैठ गया हूं और पीछे तख़्ती टंगी है-रेलवे का मुनाफा 90 हज़ार करोड़!
गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011
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19 टिप्पणियां:
बहुत सही कहा
बहुत शुभ दिन यह पोस्ट आयी है -आज रेलवे बजट जलवा फरोश हो रहा है !
ऐसा जीवंत वर्णन कर दिया आपने की मन गिजगिजा गया...लग रहा है सारी गन्दगी आकर लिपट गयी देह से...
indian railways, it's pide of india ,only on slogan , like this problem rare everywhere in idia, so how can we finish this cancer,,, it's a slap on our country,,,
भारतीय रेल को भ्रष्टाचार मुक्त प्रबंधन की सख्त जरूरत है....भ्रष्ट मंत्री,सांसद,विधायक और अधिकारी सब इस सबसे बड़े सरकारी व्यवसाय को लूट रहें हैं...........रेल के निजीकरण की भी साजिशें चल रही है.....रेल को मुनाफे का व्यवसाय बनाने के वजाय देश और समाज के प्रगति में अहम् सहयोग देने वाला व्यवसाय बनाने की आवश्यकता है.........इस देश के ज्यादातर बड़े उद्योगपति इस देश व समाज का खून चूस रहें हैं भ्रष्ट मंत्रियों को दलाल बनाकर इसलिए व्यवसाय का निजीकरण नहीं बल्कि सरकारी करण होनी चाहिए सख्त और ईमानदारी भरे प्रबंधन के साथ......
ha sans roke padhati rahi...dar tha kahi ye koi aur desh ki rail na nikal pade par shukra hai ye hamari bhartiya rain ka hi vratant tha....vaise bhi ek sath itani sari khoobi kisi aur desh ki rail me ho bhi nahi sakati...umeed hai aap sakushal pahunch gaye honge....
बढिया व्यंग्य। वाकई भारतीय रेलवे की हालत दयनीय है।
सरकारी सांडों का एक बड़ा दल...जिसमें बड़ी दलदल...इस दलदल में दलबदल है...बल है...छल है...बेईमानी पल पल है...बाकी आप जानते ही है स्टेशन सरकारी सांड का शौचालय है...अब जो देखा वो तो होगा ही...
कहाँ गये वे लोग .... जो कहते थे ...
Cleanliness is next to godliness.
सीढ़ियां बड़ी हैं, सांस छोटी :)
जय हो!
neerajji bahut sahi kaha hai..par moongfali ke chhilke aur pan ki peek ke liye to hamara civic sense bhi responsible hai... sara dosh ham railways ko nahi de sakte hai...
Bahut Satik tamacha.
बस स्टैंड भी तो ऐसा ही था.. सर.. :)
बस स्टैंड भी तो ऐसा ही था.. सर.. :)
गज़ब
लाखों की भीड़ होती है स्टेशनों पर, न जाने कितने विश्व निर्माण हो जाते हैं वहाँ।
लाजवाब चित्रण.
railway ka anootha chitran !
बहुत सुंदर... वाकई
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