जो लोग हिंदी लेखकों से शिकायत करते हैं कि वो उन्हीं घिसे-पिटे पांच छह विषयों पर कलम चलाते हैं, ट्रैवल नहीं करते, दुनिया नहीं देखते, उन्हें समझना चाहिए कि किसी भी तरह की मोबिलिटी पैसा मांगती है और जिस लेखक की सारी ज़िंदगी दूसरों से पैसा मांगकर गुज़र रही हो, वो मोबाइल होना तो दूर, एक सस्ता मोबाइल रखना तक अफ़ोर्ड नहीं कर सकता।
ये लेख चूंकि फ्रेंच से हिंदी में अनुवाद नहीं है, लिहाज़ा ये स्वीकारने में मुझे भी कोई शर्म नहीं कि हिंदी लेखक होने के नाते ये सारी सीमाएं मेरी भी हैं। मगर इस बीच मेरे हाथ अमेरिकी एडगुरु जैक फोस्टर की किताब ‘हाऊ टू गैट आइडियाज़’ लगी जिसमें उन्होंने बताया कि लेखक को रूटीन में फंसकर नहीं रहना चाहिए। लॉस एंजलिस के साथी लेखक का ज़िक्र करते हुए उन्होंने बताया कि कैसे नौ साल की नौकरी के दौरान कुछ नया देखने के लिए वो रोज़ नए रास्ते से ऑफ़िस जाता था।
ये पढ़ मैं भी जोश में आ गया। पूछने पर ऑफ़िस में किसी ने बताया कि कचरे वाले पहाड़ के बगल में जो मुर्गा मंडी है, उस रास्ते से चाहो तो आ सकते हो। अगले दिन मैं उस सड़क पर था। कुछ ही चला था कि अचानक बड़े-बड़े गड्ढ़े आ गए। गाड़ी हिचकोले खाने लगी। कुछ गड्ढ़े तो इतने बड़े थे कि भ्रम हो रहा था कि यहां कोई उल्का पिंड तो नहीं गिरा। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता गाड़ी उछलकर ऐसे ही एक छिपे रुस्तम गड्ढ़े से जा टकराई। ज़ोरदार आवाज़ हुई। ऑफ़िस पहुंचने से पहले गाड़ी गर्म होकर बंद हो गई। मैकेनिक ने बताया कि गड्ढ़े में लगने से इसका रेडिएटर और सपोर्ट सिस्टम टूट गया है। इंश्योरेंस के बावजूद आपका दस-बारह हज़ार खर्चा आएगा! ये सुनते ही गाड़ी के साथ मैं भी धुंआ छोड़ने लगा। दस हज़ार रुपये! मतलब अख़बार में छपे 18-20 लेख। मतलब अख़बार की छह महीने की कमाई और बीस नए आइडियाज़! जबकि मैं तो वहां सिर्फ एक नए आइडिया की तलाश में गया था। हे भगवान! रेंज बढ़ाने के चक्कर में मैं रूट बदलने के चक्कर में आख़िर क्यों पड़ा। रचनात्मकता साहस ज़रूर मांगती है मगर एक आइडिया के लिए दस हज़ार का नुकसान उठाने का साहस, हिंदी लेखक में नहीं है। शायद मैं ही बहक गया था। जैक फोस्टर, तुमने मुझे मरवा दिया!
6 टिप्पणियां:
:-)) नीरज जी, जैक फोस्टर पर मुकदमा ठोक दीजिए. और भी नए नए अनुभव प्राप्त होंगे, और अगर जीत गए तो मोबिलिटी के लिए बंदोबस्त हो जायेगा!
हा हा हा, हम रोज मूड बदल लेते हैं, रास्ते कौन बदले।
हा हा हा...
देखते हैं, अब कल किस आइडिये को लेकर लिखते हैं...
वैसे, जैक फ़ोस्टर की उस किताब जैसी कोई किताब मैंने भी कभी पढ़ी थी, जिसे पढ़कर ये आइडिया आया था कि आइंदा ऐसी किताब के आसपास भी कभी नहीं फटकना :)
लेखक होकर गाडी? शर्म की बात है। पेदल ही जाना था।
जैक फ़ास्टर पर उपभोक्ता अदालत में नुकसान की भरपाई के लिये दावा ठोंका जाये।
नीरज जी आपके वन लाइनर्स फेसबुक पर बहुत पसंद आते हैं। पता नहीं था एक जमाने में आप ब्लौग में भी सक्रिय थे।
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