भारत जैसे देश में आम आदमी के लिए निंदा से सस्ता मनोरंजन कोई नहीं है। निंदा एक ऐसा खेल है जो हमेशा 'डबल्स' में खेला जाता है। इसलिए ज़रुरी है कि पहले अच्छा पार्टनर ढूंढ लें। ऐसा शख्स.. जिसके मन में उतना ही ज़हर हो जितना आपके मन में है। इससे 'मोमन्टम' बनता है। निंदा वैसे तो कई विषयों पर की जा सकती है लेकिन इंसानी निंदा सबसे रसीली होती है।
एक अच्छे निन्दक के लिए ज़रुरी है कि वो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से दोस्ती करे। जितना बड़ा दायरा होगा, उतने ही ज़्यादा आप्शंस पास रहेंगे। अक्सर देखने में आता है कि दो-चार लोगों की बुराई करते करते बोरियत होने लगती है। इसलिये ज़रुरी है कि दस-पंद्रह लोगों से नज़दीकी बढ़ायी जाये। पार्टनर के साथ निंदा करने से पहले एक लिस्ट बना लें। जिसकी निंदा होती जाये उसके नाम के आगे टिक लगा ले। ऐसा करने से रेपिटिशन से बचेंगें।
निंदा के दौरान जिसे भी आप निपटा रहे हैं, उसका असली नाम कभी न लें। क्रिएटिविटी और गालियों के जैसे संस्कार आप में है, उसके हिसाब से एक 'उपनाम' दें। ऐसा करने से निंदा का मज़ा दोगुना हो जाता है और ज़रुरी पंच भी मिल जाता है।
सिर्फ बुरे आदमी की निंदा न करें। ऐसा कर आप 'सेफ' खेलेंगें। जिसकी सारी दुनिया बुराई कर रही है, उसकी बुराई कर 'निंदा साहित्य' में आप अमर योगदान नहीं दे पायेंगें। ऐसे लोगों की बुराई करें जो 'भले आदमी' के तौर पर बदनाम हैं। ऐसा करना चैलेंजिंग है।
मसलन...कोई आदमी काम करने में अच्छा है, लेकिन कम बोलता है। तो आप कहिये साला अकडू है... पता नहीं खुद को क्या समझता है। कोई आदमी बहुत लम्बा है, और आपको उसकी हाइट से जैलिसि है, तो कहिये साला ऊंट, कोई आदमी वैल मैनर्ड है और आप शर्मिंदा होते हैं कि मैं इतना तमीज़दार नहीं....तो कहिये साला काइयां हैं। ऐसा कर आप एक भले आदमी की इमेज तो स्पॉइल करेंगे ही, अपनी हीनता पर भी विजय पा लेंगें।
नैतिकता के मुद्दे पर कभी किसी की निंदा न करें। ऐसे वक़्त आप प्रगतिशील बन जायें। कोई आदमी शादी के बाद किसी से सम्बन्ध रखता है तो फौरन कहिये...यार ये उसकी मर्जी है....हमें 'इन्डिविजुअल फ्रीडम' की रेस्पेक्ट करनी चाहिये। उस आदमी की जगह खुद को रखिये, खुद-ब-खुद उसके बचाव में दलीलें मिलती जायेंगी!
एक अच्छे निन्दक की ख़ासियत ये है कि उसे खुद नहीं पता होना चाहिये कि वो किस विचारधारा का हिमायती है। ध्यान रखिये आपका काम निन्दा करना है। बखिया उधेड़ना है। सही-गलत के चक्कर में पड़ेंगे तो इस खेल का पूरा मज़ा नहीं ले पायेंगे। निन्दा करने का जोश कभी ढीला न पड़े.....इसलिये ज़रुरी है कि हमेशा खुद को समझाते रहें कि जो आप डिज़र्व करते हैं, वो आपको मिला नहीं।
और अंत में निन्दक ध्यान रखें... आलोचना और निंदा में फर्क होता है। आलोचना में तर्क होता है, सामने वाले की बेहतरी की इच्छा होती है। लेकिन निंदा में ऐसा कुछ नहीं। निंदा का मतलब है सामने वाले को सिरे से खारिज़ करना। मतलब....स्साला घटिया आदमी है।
शुक्रवार, 6 जून 2008
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7 टिप्पणियां:
सोच रहा हू निंदा करू या नही.. बहुत बढ़िया व्यंग्य हमेशा की तरह..
बहुत अच्छे , यानी आपके और मेरे विचार एक जैसे है.क्योकी हम भी निंदा और आलू-चना के विरोधी है.आइये दोनो मिलकर बाकियो की ऐसी तैसी करते है :)
हा हा हा
धारदार व्यंग्य है. हमेशा कि तरह.
बहुत अच्छे.
लगे रहिये.
badhia ....
बिल्कुल सडा लिखा है लगता ही नही कि दिमाग का इस्तेमाल किया गया है आजकल नीरज जी कुछ ढंग से सोच ही नही पा रहे है पता नही ऐसा कब तक चलेगा
सही चेला हूँ न
आप पे ही इस्तेमाल करने की कोशिश की है कैसी रही
कितना घटिया लिखा है..लिखना ही नहीं जानते जैसे..!!
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-सर, उपर होमवर्क स्बमिट कर दिया है. बताईयेगा कि पाठ ठीक से पढ़ा कि नहीं मैने. :)
---बहुत उम्दा--
are aap ko to maine pepar men bhi padha hai.
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