समाज (एक)
किरदार
समाज पूछता है
ग़र मैं उसका हिस्सा हूं
तो बताऊं
मेरा किरदार क्या है
और मेरे संवाद क्या
समाज कुरेदता है
पर मैं चुप हूं
मुझे बोलना होगा
अपने लिबास दिखाने होंगे
अपना किरदार बताना होगा
और ये भी ज़ाहिर करना होगा
कि मेरी पसन्द क्या है
और नापसन्द क्या
मगर मैं क्या करूं, किस सम्त (तरफ) जाऊं
रंगमंच के तमाशे से हमेशा बचा हूं
अदाओं की अय्यारी से हमेशा डरा हूं
रिश्तों के सुनहरे रेशों में कई बार फंसा हूं
नहीं जानता क्या करूं
मगर ये समाज है कि
मुसलसल पूछता है,
मेरा किरदार क्या है
और मेरे संवाद क्या
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समाज (दो)
होना (Being)
लोग कहते हैं
तुम बोलते बहुत हो
हँसते ज़्यादा हो
संजीदा नहीं हो
सॉफिस्टिकेटिड नहीं हो
संतुलन की कमी है
मज़ाक़ में कहें तो
तुममें एडिटिंग की
सख़्त ज़रूरत है
ये सब हो जाये
तो तुम बेहतर
हो जाओ
सोशल हो जाओ
या फिर एक्सेप्टेबल हो जाओ
प्रिय...गुज़ारिश है
मत मानना लोगों की बात
जो हो बने रहना
इस समाज ने पहले भी बहुत से
इंसान ख़त्म किये हैं।
मंगलवार, 29 अप्रैल 2008
वैयक्तिकता! (individuality)
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3 टिप्पणियां:
वाह, दोनों ही बहुत उम्दा.
प्रिय...गुज़ारिश है
मत मानना लोगों की बात
जो हो बने रहना
इस समाज ने पहले भी बहुत से
इंसान ख़त्म किये हैं।
बहुत खूब लिखा आपने !
बहुत गहरी बात कहती है ये रचना.. बधाई
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