गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

सदाबहार कसूरवार!

कभी-कभी मुझे लगता है कि भारत का होना जितना भारतीयों के लिए ज़रूरी है, उससे कहीं ज़्यादा पाकिस्तान सरकार के लिए। अगर भारत नहीं होता तो पाकिस्तान की सरकारें करतीं क्या? वहां के हुक्मरान और सेना के रिटायर्ड अफसर तो कुछ गैर-रचनात्मक न पा सुसाइड कर लेते। बिना पासपोर्ट भारत में घुसने को बेचैन सैंकड़ों-हज़ारों फिदायीन बेरोज़गारी का दंश झेलते।

भारत है तो पाकिस्तान के पास भी साज़िश रचने के लिए एक देश है, अपनी नाकामियों का ठीकरा फोड़ने के लिए एक सिर है। तभी तो रहमान मलिक साहब कहते हैं कि भारत सरकार पाकिस्तान में तबाही के लिए तालिबान की मदद कर रही है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि ये इल्ज़ाम है या एसएमएस जोक। मैं गुज़ारिश करूंगा स्टार वन वालों से कि लॉफ्टर चैलेंज के सीज़न फाइव के लिए वो इस बार रहमान मलिक को स्टैंड अप कॉमेडियन के तौर पर पाकिस्तान से बुलाए।

मलिक साहब ने ये बात भले ही अपनी आवाम की आंखों में धूल झोंकने के लिए कही हो, मगर ऐसा कह उन्होंने भारत सरकार का कद यहां की जनता की नज़र में काफी ऊंचा कर दिया है। हम लोग तो अरसे से तरस रहे थे कि कभी हमारे बच्चे की भी कोई शिकायत लेकर आए। हमारी हालत तो उन बेबस मां-बाप की तरह थी जिनका बच्चा हर दिन यहां-वहां से मार खा कर आता और शिकायत करता। कभी ये कहना कि चीनी सैनिकों ने आज लद्दाख में घुसपैठ कर ली, पाकिस्तान ने वाघा बॉर्डर पर रॉकेट लांचर दाग दिया, कश्मीर में घुसपैठ करवा दी। अरे...वो कर रहा है तो तुम भी तो कुछ करो....तुमने क्या हाथों में करवा चौथ की मेहंदी लगवा रखी है। हम तो कब से यही चाहते थे हमारा रोंदलूं बच्चा भी किसी को एक-आध लगा कर आए। और आज जब मलिक साहब ये इल्ज़ाम लगा रहे हैं तो मैं बता नहीं सकता कि एक भारतवासी होने के नाते मुझे कितनी खुशी हो रही है।


मगर बावजूद इसके पाकिस्तान को भारत से शिकायत रहती है। आपकी नाकामियों का ‘सदाबहार कसूरवार’ बनने के अलावा हम आपको और क्या दे सकते हैं? यहां तक कि चैम्पियंस ट्रॉफी में आपकी टीम हारी तब भी किसी मंत्री ने कहा था कि इसके पीछे भारत के रसूखदार क्रिकेट बोर्ड का हाथ है! बिना ये सोचे कि उसी रसूखदार बोर्ड की टीम तो टूर्नामेंट के सेमीफाइनल तक भी नहीं पहुंच पाई थी...कहते हैं न अच्छा पड़ौसी वही है जो मुसीबत के वक़्त काम आए...आपकी वजह से हमारे यहां मुसीबत आती है और आपकी मुसीबत के वक़्त हम कसूरवार के रूप में आपके काम आते हैं। और क्या चाहिए आपको? तो रिश्ता पक्का समझें...दोस्ती का!

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

झूठ-फरेब के रास्ते, छुट्टी के वास्ते!

हाल ही में एक सर्वे में ये बात सामने आई कि बत्तीस फीसदी लोग ऑफिस से छुट्टी लेने के लिए झूठ बोलते हैं। इन आंकडों पर मुझे हैरानी हुई। मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि अड़सठ फीसदी लोग छुट्टी के लिए सच बोलते होंगे!

वजह बेहद साफ है। ऑफिस से छुट्टी के पीछे सबसे बड़ी वजह है नीयत। अक्सर हमारा ऑफिस जाने का दिल ही नहीं करता। अगर किसी सुबह आप फोन कर बॉस से ये कहें कि सर, मैं आज ऑफिस नहीं आ सकता क्योंकि मेरा दिल नहीं कर रहा तो क्या लगता है...बॉस क्या कहेगा...ऐसा वाहियात काम कर कोई भी बोर हो सकता है...चलो, तुम छुट्टी ले लो...नहीं...बॉस ऐसा हरगिज़ नहीं कहेगा। वो यही पूछेगा कि इस्तीफा तुम ऑफिस आ कर दोगे या घर से ही फैक्स करोगे। यही वजह है कि ज़्यादातर लोगों को छुट्टी के लिए झूठ बोलना पड़ता है।

यूं तो झूठ किसी भी विषय पर बोला जा सकता है मगर ये ज़रूरी है कि बॉस के पास उसकी कोई काट न हो। ऐसे में सबसे लोकप्रिय बहाना है, बीमारी। एक सर्वे में ये बात भी सामने आई कि भारत में अब तक स्वाइन फ्लू से भले ही कुछ-एक हज़ार लोग संक्रमित हुए हों, लेकिन देश भर के दफ्तरों में लाखों कर्मचारी स्वाइन फ्लू की आशंका दिखा छुट्टी ले चुके हैं। नाम न छापने की शर्त पर इस ख़ाकसार को कुछ लोगों ने बताया कि दस साल की नौकरी में पहली बार उन्हें महज़ एक छींक पर खुद बॉस ने आगे बढ़कर कहा कि तबीयत ठीक नहीं है तो छुट्टी ले लो। छुट्टी के आग्रह के साथ ऐसे-ऐसे लोग मेरे हिस्से का काम करने आगे आए, जो खुद अपने हिस्से का काम कभी वक़्त पर नहीं करते।

झूठी बीमारी के अलावा, फर्ज़ी एग्ज़ाम के नाम पर भी मैंने लोगों को साल में तीन-तीन बार छुट्टियां लेते देखा है। मैं कभी नहीं समझ पाया कि आख़िर ये कौन सी यूनिवर्सिटी है जो साल में तीन-तीन बार परीक्षा लेती है। जो भी हो, एग्ज़ाम के नाम पर छुट्टियां मिलने का सफलता प्रतिशत काफी अच्छा है। इस अपराधबोध के साथ कोई भी मालिक नहीं जी सकता कि मेरी वजह से इसका वर्तमान तो ख़राब हो ही रहा है, कहीं इसका भविष्य भी ख़राब न हो जाए!


लेकिन, बहाने बनाते समय कुछ सावधानियां बरतनी बेहद ज़रूरी हैं। मसलन, बरसों पहले गुज़र चुके दादा-नाना का छुट्टी के लिए ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल करने से बचें। मेरे एक परिचित को तो उसके बॉस ने एक बार कह भी दिया था कि मुझे समझ नहीं आता कि हर बार दीपावली के आसपास ही तुम्हारे नानाजी की डैथ क्यों होती है। बहानों में अति भावुकता से भी बचें। जैसे, छुट्टी के लिए नज़दीकी रिश्तेदार की शादी या दोस्त की ख़राब तबीयत की आड़ न लें। एक बात समझ लें कि जिस शख़्स को आप इमोशनल कर छुट्टी लेने की सोच रहे हैं, वो सारे इमोशन्स का गला घोंट कर ही इस पद तक पहुंचा है। ऐसे बहानों पर अक्सर आपको सुनने को मिल सकता है कि या तो रिश्तेदारियां निभा लो या नौकरी कर लो।

दोस्तों, छुट्टियों की ये कशमकश नौकरी का स्थायी भाव है। भले ही भारत में साल में डेढ़ सौ छुट्टियां होती हों, मगर हमारी लड़ाई तो बाकी बचे दो सौ दिनों से है। जब तक दिलो में कामचोरी का जज़्बा है, रगों में मक्कारी का लहू है और बहाने बनाने के लिए कल्पनाशक्ति का चकला मौजूद है, हमें झूठ बोल कर छुट्टियां लेते रहना है। हमारा मक़सद दो वीकली ऑफ नहीं, दो वर्किंग डे है... हमें तो पांच वीकली ऑफ चाहिए।

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

प्लास्टिक बधाइयां!

दीपावली से पहले पुलिस ने इतनी जगह छापेमारी कर नकली मावा, नकली घी और नकली पनीर भारी मात्रा में पकड़ा। मगर, वो संगठित अपराधियों की ऐसी जमात नहीं पकड़ पाई, जो हर दीपावली लाखों-करोड़ों लोगों का जीना हराम करती है। ये कौम है-मोबाइल मैसेज माफिया की। हर त्योहार से पहले ये लोग हिंदी-अंग्रेजी के सैंकड़ों मैसेज फॉरवर्ड कर समाज में हाहाकार मचा देते हैं। घड़ी की सुई के बारह पर पहुंचते ही परिचितों के इनबॉक्सों पर हमला कर देते हैं। जिन लोगों को अंग्रेज़ी में ‘हाय’ लिखना नहीं आता, वो तीन-तीन पंक्तियों में शेक्सपियराना अंदाज़ में बधाई संदेश लिखते हैं। ऐसे संदेश मिलते ही मेरे तन-बदन में आग लग जाती है। दिल करता है कि उसी वक़्त स्कूटर पकड़ उस आदमी के घर जाऊं और उसे चप्पलों से पीटना शुरू कर दूं। कॉलर पकड़ उसे धमकाऊं कि आइंदा तुमने ऐसा कोई बनावटी बधाई संदेश फॉरवर्ड किया तो असली बम फेंक तुम्हारी जान ले लूंगा।

मैसेज फॉरवर्ड करने के पीछे भेजने वाले के छिपे प्यार और मानसिकता को मैं कभी नहीं समझ पाया। दोस्त-रिश्तेदारों को ऐसे निराले संदेश भेज हमें ये थोड़ा ही न बताना है कि अगला ‘निराला’ मैं ही हूं। वैसे भी जिसे संदेश भेजा जा रहा है, वो आपका दोस्त या रिश्तेदार ही है न कि कोई बड़ा प्रकाशक, जिसे आप अपनी काव्य-प्रतिभा से चमत्कृत कर किताब छपवाने की भूमिका बांध रहे हैं। ऐसा ही एक संदेश कहता है-आपकी उम्मीदों का प्रकाश, सफलता का आकाश और लक्ष्मी का वास...जीवन में हो सबसे ख़ास-शुभ दीपावली। मेरा मानना है कि इसके पीछे भावना भले ही नेक है मगर ऐसी तुकबंदी करने वाले को फौरन बंदी बना लेना चाहिए। ऐसे आकाश, प्रकाश और वास वाले मैसेज मुझे कभी नहीं आते रास। किसी और के भेजे बनावटी संदेश को फॉरवर्ड कर, बिना सामने वाले को सम्बोधित किए, भावनाएं कैसे सम्प्रेषित हो सकती हैं, मेरी समझ से परे हैं।

रैंप पर चलते हुए एक मॉडल अपना पूरा कॉरियर एक अदद प्लास्टिक मुस्कान के सहारे निकाल देती है। हिंदी फिल्मों के कितने ही जम्पिंग जैक कुछ-एक प्लास्टिक एक्सप्रेशन्स के ज़रिए तीन सौ से ऊपर फिल्में कर गए। असली जैसे दिखने वाले सैंकड़ों-हज़ारों की तादाद में प्लास्टिक फूल हर दिन सड़कों पर बेचे जाते हैं। मगर जहां तक भावनाओं के इज़हार की बात है, वहां तो हमें इन प्लास्टिक शुभकामनाओं से बचना चाहिए। किसी आयुर्वेदिक या होम्योपैथिक डॉक्टर ने ऐसी हिदायत नहीं दी और न ही कोई वास्तुविद् ऐसा करने के लिए कहता है, शास्त्रों में भी इसका कोई ज़िक्र नहीं, फिर भी, ऐसी प्लास्टिक बधाइयों का कारोबार ज़ोरो पर है। ज़रूरत है कि पॉलीथिन की तरह इन प्लास्टिक बधाइयों पर भी बैन लगा देना चाहिए।

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

दुर्घटना से देर भली!

कुछ लोगों का कहना है कि कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारियां देखकर लगता है कि ये खेल दो हज़ार दस में न होकर, मानो दस हज़ार दो में होने हों। ऐसा कहने वालों के संस्कृति-बोध पर मुझे तरस आता है। ये लोग शायद भारत की कार्य-संस्कृति से वाक़िफ नहीं हैं। मेरा मानना है कि इस कार्य-संस्कृति के पीछे हो न हो, अस्सी-नब्बे के दशक की हिंदी फिल्मों का गहरा असर है। उसमें भी ख़ासतौर पर उनके क्लाइमेक्स का।


हीरो-हीरोइन का ‘किसी ग़लतफहमी’ की वजह से ब्रेकअप हो चुका है। अमीर बाप की बेटी इससे काफी दुखी है। बाप सलाह देता है कि कुछ महीने लंदन बिता आओ, मूड़ ठीक हो जाएगा। हीरोइन देश छोड़ने के लिए एअरपोर्ट पहुंचती है। तभी हीरो को ‘हक़ीकत’ का पता चलता है। वो जैसे-तैसे ऑटो पकड़ एअरपोर्ट पहुंचता है और फिल्म ख़त्म होने से एक या दो मिनट पहले दोनों का मिलन हो जाता है। ये सब देख भारतीय दर्शक काफी रोमांचित होता है। उसे ‘शानदार क्लाइमेक्स’ की परिभाषा समझ आती है।


यही वजह है कि निजी ज़िदंगी में वो छोटे-बड़े जितने भी काम करता है, चाहता है कि उसका क्लाइमेक्स भी उतना ही रोचक हो। आख़िरी तारीख़ के आख़िरी घंटों में बिल जमा करवा, ट्रेन छूटने से एक मिनट पहले स्टेशन पहुंच, नम्बरिंग स्टार्ट होने के बाद सिनेमा हॉल में घुस, वो अक्सर अपने लिए उत्तेजना जुटाता रहता है। फिर बड़ी शान से लोगों को बताता है कि कैसे मैं स्टेशन पहुंचा या फिर कैसे मैंने आख़िरी वक़्त पर फिल्म की टिकट जुटाई।


अब हमारे नेता या सरकार कोई बृहस्पति या मंगल ग्रह से तो आए नहीं, लिहाज़ा उनके शौक या आदतें भी वही होंगे, जो जनता के हैं। ऐसे समय जब पूरी दुनिया उम्मीद छोड़ चुकी होगी, मीडिया कोस-कोस कर थक चुका होगा, देश बिना नाक के अपनी कल्पना से कांप चुका होगा, सरकार कहेगी, ये देखो हमने सारा काम कर दिया। दर्शक अपनी सीटों से खड़े हो ताली बजाएंगे, कुछ मासूम रो पड़ेंगे और सरकार एक ऐसे काम के लिए हीरो या विजेता बन उभरेगी, जो असल में उसे एक साल पहले ही कर देना चाहिए था!

क्लाइमेक्स का ये फंडा कब का बॉलीवुड फिल्मों से निकल देश की कार्य-संस्कृति का हिस्सा बन चुका है। लोगों को तो शुक्र मनाना चाहिए कि सारे स्टेडियम वक़्त पर बन नहीं गए....वरना तो कॉमनवेल्थ खेलों से पहले ही हम उनकी बैंड बजा देते। हड़बड़ी के साथ गड़बड़ी भी तो जु़ड़ी रहती है। बावजूद इसके लोग शिकायत करते हैं। वे नहीं जानते कि ज़रा-सी लेटलतीफी से सरकार तारीफ भी बटोरेगी और स्टेडियम भी बचा जाएगी। दुर्घटना से देर भली!