गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

अपराधी की सहमति! (व्यंग्य)

पाकिस्तान का कहना था, पहले सबूत दो। भारत ने कहा, ये लो। पाकिस्तान ने कहा, मिले नहीं। भारत ने कहा, भेज तो दिए। हमें और चाहिए....अरे और भिजवाए तो थे....क्या बकवास कर रहे हो...हमें कोई सबूत नहीं मिले।

तीन हफ्ते हो गए, दो देश ऐसे लड़ रहे हैं जैसे खाने का ऑर्डर दे कर आप रेस्टोरेंट वाले से लड़ते हैं। आधा घंटा हो गया अब तक खाना नहीं आया। सर, लड़का निकल चुका है, बस पहुंचता ही होगा। क्या पाकिस्तान के मामले में भी ऐसा ही है। लड़का निकल चुका है मगर पहुंचा नहीं।

एक नज़रिया ये है कि जिन ‘माध्यमों’ से सबूत मंगवाए जा रहे हैं कहीं उन्हीं में तो खोट नहीं। मसलन, जिस नम्बर पर सबूत फैक्स करवाए गए वो एमइए का न हो कर, रावलपिंडी के किसी पीसीओ बूथ का हो, जो ईमेल आईडी बताई गई, उसका इनबॉक्स फुल हो या जिस पते पर सबूत कूरियर करने को कहा गया हो वो किसी किराना स्टोर का हो। इधर सबूत का बंडल पहुंचा, उधर किराने वाले ने बंडल से पन्ने अलग कर उसमें खुला राशन बेचना शुरू कर दिया। काले चिट्ठे में काली मिर्च लपेट दी गई।

भारत ने भले ही पाकिस्तान के साथ क्रिकेट सीरीज़ खेलने से मना कर दिया हो लेकिन वो उससे ‘सबूत मिले नहीं, दे दिए’ टाइप एक बेतुके मैच में ज़रूर उलझा हुआ है, ऐसा मैच जो हर दिन नीरस होने के साथ-साथ ड्रा की ओर बढ़ रहा है।

सबूत के इस पूरे एपीसोड में कुछ बातें बहुत दिलचस्प हैं। पहला- ये मानना कि जो लोग (पाकिस्तान सरकार) कहते हैं हम आतंकवाद ख़त्म करना चाहते हैं, वो वाकई कुछ कर सकने की स्थिति में हैं! दूसरा-ऐसा करने के लिए उन्हें सबूत चाहिए। तीसरा-जो सबूत भारत उन्हें देगा वो उन्हें उत्तेजित करेंगे, वजह-उससे ज़्यादा सबूत तो खुद उनके पास है! किसी मां को ये बताना कि उसके बच्चे के दाएं कंधे पर तिल है और फिर उम्मीद करना कि वो इस जानकारी पर हैरान होगी, ये वाकई उच्च दर्जे का आशावाद और निम्न दर्जे की मूर्खता है।

आतंकी कहां से आए, किसने भेजा, कहां से पैसा आया, किसने ट्रेनिंग दी, क्या हम इतने दिनों से इस सबके सबूत पाकिस्तान को दे रहे हैं! उसकी आत्मकथा से उसका लाइफ स्कैच तैयार कर उसे पढ़ने के लिए दे रहे हैं।

अगर यही न्याय है तो बलात्कारियों और हत्यारों को भी ये छूट दी जाए। उनके अपराध के खिलाफ सबूत जुटा, उनके ही सामने पेश किए जाएं और सज़ा से पहले ये देखा जाए कि वो इन सबूतों से संतुष्ट हैं या नहीं। सबूतों से संतुष्टि अगर अपराधी की मौत है तो इस संतुष्टि का इंतज़ार आपकी मूर्खता!

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

सुधार आश्रम में प्रवेश!

बचपन में पिताजी 'ज़्यादा बोलने' और 'कम सुनने' पर मुझे खूब लताड़ते थे। उनका कहना था बेटा ऐसा करो, अपने कान दान दे दो। वजह, जब तुमने किसी की बात सुननी ही नहीं, तो इनको लटकाये रखने का फायदा क्या? साथ ही वो कहते थे कि भले ही स्कूटर की तरह ज़बान चलाने के लिए लाइसेंस की ज़रूरत नहीं, और न ही इसके बेलगाम होने पर चालान कटता है फिर भी हिदायत दूंगा कम बोला करो, वरना शादी के बाद पछताओगे!

इसके अलावा भी अनुशासनहीनता के तमाम घरेलू और सामाजिक मोर्चों पर जो समझाइश दी जाती थी, उसमें अंतिम धमकी शादी की ही होती थी। कपड़े खुंटी पर टांगों, जूते रैक में रखो, झूठे बर्तन सिंक में रखो, जल्दी उठो, जल्दी सोओ, इंसान बनो, वरना.......बीवी आकर सुधार देगी!

कुल मिलाकर शादी को लेकर इम्प्रैशन ये मिला कि ये एक संस्थान न हो कर पुरूषों के लिए रिहैब कैंप है, जहां बीवियां चुन-चुन कर उनकी बुरी आदतें छुड़ाती हैं! और बुरी आदत किसे कहते हैं इसकी परिभाषा भी बीवी ही देगी!


खैर, कुछ रोज़ पहले मेरी ज़िदंगी में भी वो वक़्त आया जब प्यार में धोखा खा-खा कर मेरा पेट भर गया, और धोखा देने के सारे गोदामों पर अंतरआत्मा ने 'कुछ तो शर्म करो' कह कर ताला जड़वा दिया। आखिरकार मैंने तय किया चलो रिहैब कैंप ज्वॉयन किया जाये।

शादी के मंच पर किराए की शेरवानी में मैं काफी अच्छा दिख रहा हूं। सामने बैठे लोगों की आंखों में खुद के लिए तारीफ और तरस दोनों पढ़ पा रहा हूं। इतने में कैंप इंचार्ज बगल में बैठती हैं। मैं तारीफ की शटल उनकी तरफ फेंकता हूं, अच्छी लग रही हो, रिटर्न का इंतज़ार कर रहा हूं, वो खामोश हैं.....फिर रिटर्न आता है.....ये क्या मतलब है......मतलब..... क्या हुआ डियर......डीजे पर पंजाबी गाने लगे हैं.....आपको पता है न......'हमारे यहां' किसी को पंजाबी समझ नहीं आती.....देखो...कोई भी नहीं नाच रहा..........सोचता हूं 'लव ऑल' पर एक और सर्विस की तो कहीं 'डब्ल फॉल्ट' न हो जाये, लिहाज़ा मैं चुप हूं!

इसके बाद मंडप में पंडित जी इनडायरैक्ट स्पीच में बता रहे हैं कि कन्या पत्नी बनने से पहले तुमसे आठ वचन मांगती है। अगर मंज़ूर हो तो हर वचन के बाद तथास्तु कहो। जो वचन वो बात रहे हैं उसके मुताबिक मैं अपना सारा पैसा, अपनी सारी अक्ल, या कहूं सारा वजूद कन्या के हवाले कर दूं। फिर एक जगह कन्या कहती है अगर मैं कोई पाप करती हूं, तो उसका आधा हिस्सा तुम्हारे खाते में जायेगा, और तुम जो पुण्य कमाओगे उसमें आधा हिस्सा मुझे देना होगा....बोलो मंज़ूर है! मैं पिता जी की तरफ देखता हूं....वो मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं, मानो कह रहे हो....कहा था न सुधर जाओ!

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

डक इट लाइक बुश! (हास्य-व्यंग्य)

बुश पर हुई जूतेबाज़ी को लेकर अप्रत्याशित यही लगा कि किसी ने इसे अप्रत्याशित नहीं माना, यहां तक कि बुश ने भी! मानों वो इसे एंटीसिपेट कर रहे थे। दुनिया को 'उम्मीद' और उन्हें 'आशंका' थी कि ऐसा हो सकता है। जिस सफाई से वो जूते डक कर गए, ये किसी नौसीखिए का काम नहीं था। भला आदमी तो खा बैठता। गावस्कर भी ऐसी सफाई से बाउंसर डक नहीं कर पाए, जैसे बुश जूता कर गए। चारों तरफ वाह! वाह! हो उठी। सब ने एक सुर में कहा....डक इट लाइक बुश।

ख़बर तो ये है कि कुछ समय से वो जूते डक करने की बाकायदा प्रेक्टिस कर रहे थे। उन्हें बता दिया गया था कि सर, कभी भी पड़ सकते हैं, आप तैयारी रखिए। आख़िर वो शुभ घड़ी बगदाद में आ ही गई। बुश की बत्तीसी पर निशाना साधते हुए किसी ने दो जूते फेंके। मगर बुश ने झुक कर उन्हें खाने से मना कर दिया।

उठ कर उन्होंने कहा कि मुझे इसमें हैरान करने लायक कुछ नहीं लगा...बस उस एक पल....पहली बार... वो बाकी दुनिया से सहमत दिखे। उन्हें जूते पड़ने चाहिए, इस पर वे भी सहमत थे और दुनिया भी। मगर इससे पहले कि मैं उनकी ईमानदारी को सलाम करता उन्होंने जोड़ दिया कि राजनीतिक सभाओं में भी ऐसा हो जाता है। कुछ लोग ध्यान खींचने के लिए भी ऐसा करते हैं।

यहीं सारा कबाड़ा हो गया। मतलब उन्हें जूता 'अपनी योग्यता' की वजह से नहीं, किसी 'उन्मादी के चर्चा पाने की उत्कंठा' की वजह से पड़ा। मैं समझ गया की 'अंतरदृष्टि दोष' के चलते नेता अपने गिरेबां में झांक नहीं पाते हैं और दुविधा ये कि आत्मा में झांकने का कोई चश्मा बना नहीं।

खैर, इस घटना पर भारतीय नेताओं की भी प्रतिक्रिया देखी गई। इन तस्वीरों के दिखाए जाने के बाद एक नेता जी न्यूज़ चैनल्स से काफी नाराज़ दिखे। उनका आरोप था कि मुम्बई हादसे के बाद उन लोगों (नेताओं) के जूतियाने की सम्भावना बढ़ी हुई है। कुछ का तो जूत्यार्पण हो भी चुका है। जनता छू के इंतज़ार में है। ऐसे में चैनल्स ये सब दिखा जनता को और भड़का रहे हैं। कुछ चैनल्स ने तो ओपिनियन पोल्स तक चलवा दिए "आप नेता से ज्यादा नफरत करते हैं, या जूते से ज्यादा प्यार।" एक ने तो कार्यक्रम का नाम ही रख दिया "ये चूका, आप न चूकें।"

बोलते-बोलते नेता जी आपा खो बैठे- कहा-ये टीवी वाले ऐसे नहीं सुधरने वाले। इन्हें तो जूते पड़ने चाहिए...तभी किसी ने होशियार किया....सर जी, ख्याल रखना....बुश को जूता मारने वाला टीवी पत्रकार ही था। इतनी मंदी में जूता फेंक दिया...सोचो...कितना भरा बैठा होगा।

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

शर्म की भाषा!(व्यंग्य)

याद नहीं आता दिल्ली आने पर किस के कहने पर अंग्रेज़ी का अख़बार लगवाया। मुश्किल शब्दों का अर्थ लिखने के लिए एक रजिस्टर खरीदा। कुछ दिनों तक सिलसिला चला। फिर रजिस्टर में नोट किए शब्दों के साथ-साथ रजिस्टर भी खो गया। अख़बार फिर भी आता रहा। मैंने उसे उसके हाल पर छोड़ दिया। न पढ़ा, न हटाया। हॉकर रबड़ लगाकर बॉलकॉनी में फेंकता है। महीने-दो महीने बाद कबाड़ी के हवाले किए जाने तक रबड़ नहीं खुलता। दिल दुखता है जब पढ़ना नहीं तो लगवा क्यूं रखा है। सोचता भी हूं इसे हटाकर और एक हिंदी का अख़बार लगवा लूं। लेकिन हिम्मत नहीं होती। सोच कर दहल जाता हूं ऐसा कर दिया तो इस जन्म में अंग्रेज़ी सीखने का चांस ख़त्म हो जाएगा। ऐसा सिरेंडर मुझे मज़ूर नहीं। नहीं, मैं कदम पीछे नहीं हटाना चाहता।
बहरहाल, अख़बार आ रहा है। रबड़ नहीं खुल रहा। कभी-कभी तरस भी आता है। रिपोर्टर ने कितनी मेहनत की होगी, सब-एडिटर ने भी ज़ोर लगाया होगा, प्रूफ रीडर ने भी छत्तीस बार पढ़ा होगा, कम्पनियों ने भी पाठक को लुभाने के लिए लाखों का विज्ञापन दिया है। मगर ये 'बेशर्म पाठक' (मैं) अख़बार खोलता तक नहीं। और कुछ नहीं उस बेचारे हॉकर का तो ख़्याल कर जो तीसरी कोशिश में तीसरी मंज़िल की बॉलकॉनी में अख़बार फेंक पाता है।
ख़ैर, ग़लती से कभी अख़बार खोल भी लिया। कुछ पन्ने पलट भी लिये लेकिन बिज़नेस स्पलीमेंट देख मैं डिप्रेशन में चला जाता हूं। सोचता हूं कब तक इसका इस्तेमाल खाते वक़्त बिस्तर पर बिछाने के लिए करता रहूंगा। कब तक इसके पन्ने अलमारी के आलों में ही बिछते रहेंगे। और इस विचार से तनाव में आकर पढ़ने की कोशिश भी करता हूं तो लगता है शायद पाली भाषा में लिखा कोई शिलालेख पढ़ रहा हूं। तनाव और बढ़ जाता है। अख़बार छूट जाता है।
इस सबसे खुद पर गुस्सा भी आता है। मगर खुद की कमज़ोरी के बारे में सोचने पर आत्मविश्वास टूटता है। लिहाज़ा आज कल अंग्रेज़ी का ही विरोध करने लगा हूं। मुझे लगने लगा है कि अंग्रेजी सीखने या सुधारने की मजबूरी क्या है। पश्चिमी देशों ने क्या अंग्रेज़ी के दम पर तरक्की की है, चीन ने भी ऐसी किसी मजबूरी को नहीं माना। तो फिर हम क्यूं ऐसा सोचते हैं। ऐसा सोचने से मुझे हिम्मत मिलती है। इस तरह से हिम्मत जुटाने में मुझे शर्म भी आती है। मगर ये नहीं समझ पाता कि ये शर्म भाषा न सीख पाने की है या उस भाषा के अंग्रेज़ी होने की!

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

गौरव-खाली इतिहास! (हास्य-व्यंग्य)

इतिहास इस बारे में कोई सबूत नहीं देता कि आज़ादी की लड़ाई में एड एजेंसीज़ की मदद ली गई या नेताओं ने बात को प्रभावी ढंग से रखने के लिए किसी फ्रीलांस राइटर से स्लोगन लिखवाया। मतलब जो नारे उस वक़्त दिए गए वो नेताओं की अपनी क्रिएटिविटी थी। उसमें कोई ‘बाहरी हाथ’ नहीं था।
मुझे भी नहीं लगता कि सुभाष चंद्र बोस ने नेहरू पर स्कोर करने के लिए किसी परिचित बंगाली कवि से कहा हो कि यार, कोई ढंग का नारा बताओ। ये उन नेताओं के जज़्बे और प्रतिभा का ही प्रताप था कि जो उन्होंने कहा जनता ने उसे मूलमंत्र माना। आगे चल कर वो नारे इतिहास की किताबों का हिस्सा बनें और आने वाली पीढ़ियों ने जाना किस महापुरूष ने किस मौके पर क्या कहा।
मैं सोचता हूं जो वक़्त हम जी रहे हैं इसे भी कल इतिहास बनना है। इस दौरान जो भी ‘किया और कहा’ जा रहा है कल को उसकी भी चर्चा होगी और अगर ईमानदारी से इतिहास लिखा गया तो क्या पढ़ेंगें हमारे बच्चे?
26 नवम्बर 2008 को भारत पर आतंकी हमला। 200 लोग मरे, 400 घायल। महाराष्ट्र के गृहमंत्री ने कहा, बड़े-बड़े शहरों में ऐसी छोटी-मोटी घटनाएं होती रहती हैं। टीचर क्या जवाब देगी? बच्चों, श्री पाटिल मनोविज्ञान के भी अच्छे ज्ञाता थे। उन्हें लगता था कि अगर स्वीकार कर लिया गया कि ये एक बड़ा आतंकी हमला था तो लोगों को विश्वास टूटेगा।
मगर मैम उस वक़्त केरल के मुख्यमंत्री ने जो कहा उसका क्या मतलब था कि अगर मेजर संदीप शहीद नहीं होते तो उनके घर कुत्ता भी नहीं जाता। बच्चों, उनका ये बयान आज भी रहस्य का विषय बना हुआ है। इस बयान के बाद सरकार ने उनके कुछ नारको टेस्ट करवाए, जांच आयोग बने, कुत्तों ने धरने-प्रदर्शन किए, यहां तक कि अमेरिकी सैटेलाइट से उनके दिमाग का नक्शा भी मांगा गया, पर हाथ कुछ नहीं लगा।
लेकिन मैम कुछ और बयान पढ़कर लगता है कि लो कट जींस के साथ उस वक़्त मूर्खता भी फैशन में थी। क्या ऐसे बयान दे हर नेता खुद को फैशनेबल दिखाना चाहता था। नहीं बच्चों, अगर ऐसा होता तो उस वक़्त नेता बिंदी-लिपस्टिक लगाकर विरोध जताने का विरोध नहीं करते।
मैम उस वक़्त नारायण राणे नाम के एक नेता भी कांग्रेस के खिलाफ बोले थे...क्या वो आंतकी हमले के लिए अपनी पार्टी से नाराज़ थे?........नहीं बेटा, ऐसी बात नहीं है.......दरअसल वो खुद को मुख्यमंत्री न बनाए जाने से नाराज़ थे। तो मैम, क्या वो आतंकी हमलों के बाद से यही सोच रहे थे कि कब देशमुख हटें और मैं मुख्यमंत्री बनूं? ओह!....अब समझ आया आतंकी उसके बाद भी भारत पर लगातार हमले कैसे करते रहे!

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

स्नानवादियों के खिलाफ श्वेतपत्र (हास्य-व्यंग्य)



सर्दी बढ़ने के साथ ही स्नानवादियों का खौफ भी बढ़ता जा रहा है। हर ऑफिस में ऐसे स्नानवादी ज़बरदस्ती मानिटरिंग का ज़िम्मा उठा लेते हैं। जैसे ही सुबह कोई ऑफिस आया, ये उन्हें ध्यान से देखते हैं फिर ज़रा सा शक़ होने पर सरेआम चिल्लाते हैं... क्यों..... नहा कर नहीं आये क्या? सामने वाला भी सहम जाता है...अबे पकड़ा गया। वो बजाय ऐसे सवालों को इग्नोर करने के सफाई देने लगता हैं। नहीं-नहीं... नहा कर तो आया हूं...बिजली गई हुई थी.. आज तो बल्कि ठंडें पानी से नहाना पड़ा।


लानत है ऐसे डिफेंस पर और ऐसी 'गिल्ट' पर। सवाल उठता है कि न नहाने पर ऐसी शर्मिंदगी क्यों? जिस पानी से हाथ धोने की हिम्मत नहीं पड़ रही...क्या मजबूरी है कि उससे नहाया जाये। एक तरफ प्रकृतिवादी कहते हैं कि नेचर से छेड़छाड़ मत करो और दूसरी तरफ बर्फीले पानी को गर्म कर नहाने की गुज़ारिश करते हैं। आख़िर ऐसा सेल्फ टोरचर क्यों? क्यों हम ऊपर वाले की अक्ल को इतना अंडरएस्टिमेट करते हैं। उसने सर्दी बनायी ही इसलिए है कि उसकी 'प्रिय संतान' को नहाने से ब्रेक मिले। सर्दी में नहाना ज़रुरत नहीं, एडवेंचर है। अब इस कारनामे को वही अंजाम दें, जिन्हें एडवेंचर स्पोर्ट्स में इंर्टस्ट है।
मगर जनाब नहाने की महिमा बताने वाले बड़े ही ख़तरनाक लोग हैं। ये लोग अक्सर ग्रुप में काम करते हैं। जैसे ही इन्हें पता चला कि फलां आदमी नहा कर नहीं आया..लगे उसे मैन्टली टॉर्चर करते हैं। बात उनसे नहीं करेंगे, लेकिन मुखातिब उनसे ही होंगे।
मसलन....भले ही कितनी सर्दी हो हम एक भी दिन बिना नहाये नहीं रह सकते। दूसरा एक क़दम आगे निकलता है। तुम रोज़ नहाने की बात करते हो...हम तो रोज़ नहाते हैं और वो भी ठंडें पानी से। साला एक आधे-डब्बे में तो जान निकलती है, फिर कुछ पता नहीं चलता। सारा दिन बदन में चीते-सी फुर्ती रहती है। अब वो बेचारा जो नहाकर नहीं आया...उसे इनकी बातें सुनकर ही ठंड लगने लगती है। उसका दिल करता है फौरन बाहर जाकर धूप में खड़ा हो जाऊं।
एक ग़रीब मुल्क का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि उसके धरतीपुत्र अपनी अनमोल विल पॉवर, सर्दी में नहा कर वेस्ट करें। इसी विल पॉवर से कितने ही पुल बनाये जा सकते हैं, कितनी ही महान कृतियों की रचना की जा सकती थी। लेकिन नहीं...हम ऐसा कुछ नहीं करेंगें। हम तो चार डिब्बे ठंडें पानी के डालकर ही गौरवान्वित होंगे।
नहाने में आस्था न रखने वाले प्यारे दोस्तों वक़्त आ गया है कि तुम काउंटर अटैक करो। देश में पानी की कमी के लिए इन नहाने वालों को ज़िम्मेदार ठहराओ। किसी भी झूठ-मूठ की रिपोर्ट का हवाला देते हुए लोगों को बताओ कि सिर्फ सर्दी में न नहाने से देश की चालीस फीसदी जल समस्या दूर हो सकती है। अपनी बात को मज़बूती से रखने के लिए एक मंच बनाओ। वैसे भी मंच बनने के बाद इस देश में किसी भी मूर्खता को मान्यता मिल जाती है। प्रिय मित्रों, जल्दी ही कुछ करो...इससे पहले की एक और सर्दी, शर्मिंदगी में निकल जाये !

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

बेशर्मी का माइलेज (हास्य-व्यंग्य)

ख़बर है कि एनएसजी कमांडों को आदेश दिए थे कि ताज को आतंकियों से मुक्त कराने के बाद गृह मंत्रालय को शिवराज से मुक्त कराओ। इसी डर से शिवराज ने इस्तीफा दिया। जाते-जाते वो कह गए कि मैं नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे रहा हूं। राष्ट्र ने कहा सिर्फ इस्तीफा दे दो, तो भी चलेगा। मगर वो नहीं माने। नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने पर तुले थे। चार साल में बीस बड़े आतंकी हमलों के बाद उनकी नैतिकता जवाब दे गई। उसका पेट्रोल ख़त्म हो गया। कुछ देर रिज़र्व पर चलने के बाद आख़िरकार उसने इस्तीफा दे दिया।
ख़बर ये भी है कि हर आतंकी हमले के बाद उनकी 'नैतिकता' ने 'इंसानियत' के आधार पर उन्हें इस्तीफा सौंपा। मगर शिवराज ने उसे हर बार लौटा दिया। इस बात को लेकर उनका नैतिकता से झगड़ा हो गया। फिर किसी ने उनसे 'बेशर्मी' की सिफारिश की। उन्हें बताया कि बेशर्मी, नैतिकता जितनी डिमांडिंग नहीं है, सिर्फ बयान के आधार पर मान जाती है। बयान में भी वैरायिटी नहीं मांगती। एक ही बयान हर बार देने पर भी चलेगा। ऊपर से इसकी माइलेज भी ज़्यादा है। इसको आधार बनाइये बहुत दूर तक जाएंगे। इतनी दूर तक... जहां लोग कहेंगे....मेरे लिए तारे तोड़ कर लाना!
लोगों की बात ठीक निकली। उन्होंने लगभग अपना कार्यकाल पूरा कर लिया। मगर मेरी शिकायत ये है कि जब वो आख़िरी सालों में 'बेशर्मी' के आधार पर गृहमंत्री बने रहे तो उन्होंने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा क्यों दिया ? उन्हें बेशर्मी के आधार पर ही इस्तीफा देना चाहिए था। राष्ट्र को बताना चाहिए था कि बेशर्मी को लेकर मेरा स्टेमिना इतना ही है। मैं और ज़लील नहीं हो सकता। ख़तरे का निशान ऊपर उठा-उठा कर मैं तंग आ चुका हूं। मेरे हाथ थकने लगे हैं और उन लोगों के भी जिनके हाथ अपने ऊपर होने की वजह से मैं अब तक गृहमंत्री बना रहा।
खैर शिवराज चले गए। मगर वो तरह-तरह के कपड़ों और एक जैसे बयानों के लिए हमेशा जाने जाएंगें। इस बात का अफसोस हमेशा रहेगा जो तालमेल उनकी ड्रेसिंग में देखा गया उसके लिए सुरक्षा एजेंसियां तरस गई। ये बात हमेशा रहस्य का विषय बनी रहेगी कि जो उठ नहीं पाए और जो वो उठा नहीं पाए, आखिर वो कौन से कड़े कदम थे? क्या 'कड़े कदम' से उनका मतलब हर आतंकी हमले के बाद वो ज़ोर-ज़ोर से पैर पटक कर चलना था। हो सकता है वो हर हमले के बाद ज़ोर-ज़ोर से पैर पटक कर चलते रहे हों और लोग उन्हें यूं ही लताड़ते रहे। इसमें दो राय नहीं शिवराज का जाना देश के लिए बड़ा झटका है, मगर ज़्यादा खुशी तब होती जब वो देश भारत होता!
(Dainik Hindustan 4 dec, 2008)

बुधवार, 26 नवंबर 2008

इनाम और ईमान (हास्य-व्यंग्य)

युवराज सिंह को लगातार दूसरे वनडे में ‘मैन ऑफ द मैच’ चुना गया। इनाम के तौर पर बाइक मिली। बाइक पर वो स्टेडियम के चक्कर लगा रहे हैं। किसी ने मासूम जिज्ञासा हवा में उछाली। अरे! युवराज को तो पिछले मैच में भी बाइक मिली थी। अब फिर मिल गई। दो-दो बाइक का वो करेगा क्या?
इससे पहले दूसरी बाइक के ‘सम्भावित इस्तेमाल’ पर बात हो, उन्होंने एक और सवाल दागा। युवराज बाइक रखेगा या कम्पनी को दे, बदले में पैसे ले लेगा ? वैसे भी चालीस-पचास हज़ार रूपये मिल जाएं तो एक ढंग का एलसीडी आ जाएगा!
अधूरे ज्ञान और पूरे जोश के साथ किसी भी विषय पर राय देना हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। लिहाज़ा एक और सज्जन बीच में कूदते हैं। कुछ पता न हो तो नहीं बोलना चाहिए! तुम्हें क्या लगता है कि कम्पनी ने बाइक की फुल पेमेंट की होगी। अरे! आधा पैसा कम्पनी देती है बाकी खिलाड़ी को पल्ले से देने पड़ते हैं। अब ये पैसा वो लम-सम दे दें या किस्तों में....ये उसकी मर्ज़ी है।
पहले वाला सहमत होता है। हां यार, मुझे भी यही लग रहा था कि कम्पनियां इतनी दिलेर तो नहीं कि 50 हज़ार की चीज़ ऐंवे ही दे दें। मेरे भाई ने भी बाइक फाइनेंस करवा रखी है। एक किस्त भी इधर-उधर हो जाए तो रिकवरी वाले फोन खड़काना शुरू कर देते हैं। अब जो कम्पनी 1500 की किस्त नहीं छोड़ सकती वो 50 हज़ार की बाइक कैसे लंगर में दे सकती है?
बात पेमेंट से निकल कर दूसरी गाड़ी के ‘सम्भावित इस्तेमाल’ पर लौटती है। पहले वाला-मगर मैं सोच रहा हूं दो-दो बाइक का युवराज करेगा क्या? दूसरा तंज मारता है। तू फिक्र मत कर, तुझे तो नहीं देगा। मुझे तो लगता है ये बाइक वो किम शर्मा के भाई को दे देगा!
पहले वाला आस्तीन चढ़ाता है। तू भी अजीब मूर्ख है। किम शर्मा के भाई को क्यों देगा? उसे तो खुद अभी इतनी बड़ी गाड़ी मिली है। वो कोई कम बड़ा खिलाड़ी है। क्या बात कर रहे हो? कौन है उसका भाई? तुम स्साला रहते कौन-सी दुनिया में हो। ईशांत शर्मा और कौन? सच.....ये तो गजब बात बताई तुमने।
एक-दूसरे का सामान्य ज्ञान भ्रष्ट करने के बाद वो फिर बाइक पर लौटते हैं। मुझे तो लगता है वो ये बाइक किसी दोस्त-यार को दे देगा। दोस्त पर अहसान हो जाएगा और बाइक भी ठिकाने लग जाएगी। स्साला! हमारा ऐसा कोई ढंग का दोस्त क्यों नहीं है। सभी कंगले हमारे ही पल्ले पड़े हैं। इस बात पर दोनों सहमत हैं। युवराज ग्राउंड का चक्कर पूरा करते हैं और ये अपनी कल्पना का। मैं निकल लेता हूं।

बुधवार, 19 नवंबर 2008

हमें हमारे हाल पर छोड़ दो! (हास्य-व्यंग्य)

छह महीने हो गए इस सड़क से गुज़रते। मगर पंद्रह फीट ऊपर टंगी इन लाइट्स को आज तक मैंने जलते नहीं देखा। 'न जलने' को लेकर इनमें ज़बरदस्त एकता है। एक-आध भी जलकर बगावत नहीं कर रही। शायद अब अस्तित्व बोध भी खो चुकी हैं। नहीं जानती कि इनका इस्तेमाल क्या है? इतनी ऊपर क्यों टंगी हैं? कुछ पोस्ट, जो आधे झुके हैं, लगता है अपने ही हाल पर शर्मिंदा है।
हमारे यहां ज़्यादातर लैम्प पोस्ट्स की यही नियति है। लगने के बाद कुछ दिन जलना और फिर फ्यूज़ हो, खजूर का पेड़ हो जाना! वक़्त आ गया है कि देश के तमाम डिवाइडरों से इन खम्बो को उखाड़ा जाए। विकसित देशों को संदेश दिया जाए कि विकास के नाम पर तुमने बहुत मूर्ख बना लिया। व्यवस्था के नाम पर तुम्हारे सभी षडयंत्रों को हम तबाह कर देंगे। वैसे भी व्यवस्था इंसान को मोहताज बनाती है। उसकी सहज बुद्धि ख़त्म करती है। हम हिंदुस्तानी हर काम अपने हिसाब से करने की आदी हैं। व्यवस्था में हमारा दम घुटता है। हमें मितली आती है।

हमने तय किया है कि स्ट्रीट लाइट्स के बाद हम ज़ैबरा क्रॉसिंग को ख़त्म करेंगे। वैसे भी जिस देश में नब्बे फीसदी लोगो ने कभी ज़ैबरा नहीं देखा वहां किसी व्यवस्था को ज़ैबरा से जोड़ना स्थानीय पशुओं का सरासर अपमान है। आवारा पशुओं की हमारे यहां पुरानी परम्परा है। क्या हम इस काबिल भी नहीं है कि हमारे पशुओं में ऐसी कोई समानता ढूंढ पाएं। सड़क पर घूमते किसी भी दो रंगें कुते को ये सम्मान दे उसे अमर किया जा सकता है।
इसके अलावा ट्रैफिक सिग्नल्स भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ खिलवाड़ है। क्या ये सिग्नल्स हमें बताऐंगे कि कब जाना और कब नहीं। इंसानों में जब तक संवाद कायम है उन्हें मशीन के हाथों नियंत्रित नहीं होने चाहिए। वैसे भी गालियों का हमारा शब्दोकोष काफी समृद्ध है। ईश्वर और पुलिस से ज्यादा यही गालियां हमारा साथ देती आई हैं। तेरी....तेरी.....

बीच सड़क में बैठी गाय के साइड से निकाल, सामने आते ट्रक से बच, पीछे बजते हॉर्न को बर्दाश्त कर, खुले ढक्कन वाले गटर के चंगुल से निकल हम अक्सर ही घर से ऑफिस और ऑफिस से घर आते जाते रहे हैं। और उस पर भी हमारा ज़िंदा होना इस बात का सबूत है हम किसी स्ट्रीट लाइट, ज़ैबरा क्रॉसिंग और ट्रैफिक सिग्नल के मोहताज नहीं। दुनिया वालो तुम्हारी व्यवस्था तुम्हें मुबारक! भगवान के लिए हमें हमारे हाल पर छोड़ दो।

शनिवार, 15 नवंबर 2008

कोलम्बस की पुश्तें! (हास्य-व्यंग्य)

रास्ते से गुज़रते हुए मेरी नज़र एक होर्डिंग पर पड़ती है। बीजेपी के नेता पराजय कुमार मल्होत्रा की तस्वीर लगी है। साथ में लिखा है, दिल्ली को पहला फ्लाइओवर देने वाले। मन श्रद्धा से भर गया। अचानक मैं खुद को ऋणी मानने लगा। घर गया तो रात भर नींद नहीं आई। बेचैनी देख बीवी ने पूछा-क्या हुआ? मैंने कहा-कैसे चुकाऊंगा मैं ये कर्ज? बीवी तपाक से बोली-कमेटी डालकर। अगले महीने लाख वाली कमेटी डाल लेंगे। जब ठीक लगेगा तब उठा कर दे देंगे। घबराते क्यों हो।

बीवी सो गयी। मगर मैं रात भर जागता रहा। मन में विचार आया कितनी निकम्मी निकली कोलम्बस की पुश्तें। क्या उसके खानदान में एक भी शख्स ऐसा नहीं हुआ जो अमेरिकियों को याद दिला सके कि अहसान मानो हमारा... इस देश की खोज हमारे बाप के बाप ने की थी। क्या डेमोक्रेट या रिपब्लिकन्स किसी के ज़हन में ये बात नहीं आई कि कोलम्बस के खानदान से किसी को पार्टी में लाया जाए। लोगो को बताया जाए कि इस देश पर राज करने का अगर किसी का सहज और पहला हक़ बनता है तो इनका। लिहाज़ा अपने मत को ईएमआई मानें और आपके प्रति इनके महान कर्ज़ की छोटी-सी किस्त अदा करे।

सोचिए ज़रा श्री मल्होत्रा या ऐसा कोई और अमेरिका में होता और कोलम्बस के खानादान से ताल्लुक रखता तो क्या वो ये बात देश को इतनी आसानी से भूल जाने देता। क्या नज़ारा होता। अमेरिका में भी होर्डिंग लगे हैं-स्टूअर्ट कोलम्बस-जिनके दादा जी ने अमेरिका की खोज की। सामने वाले उम्मीदवार की दावेदारी तो इसी आधार पर खारिज हो जाती कि तुम तो उस बिरादरी से हो जो बहुत बाद में अमेरिका में बसी।

इस मामले में मेरी शिकायत इतिहासकारों से भी है जिन्होंने ये बात फैलाई कि कोलम्बस निकले तो भारत की खोज करने थे मगर अमेरिका ढूंढ बैठे। इस एक जानकारी ने उस महान खोज को उपलब्धि न मान ‘दुर्घटना’ में तब्दील कर दिया (यह बात अलग है कि उस दुर्घटना का शिकार आज तक पूरी दुनिया हो रही है)। मगर हम इस बात के लिए संघर्ष करते कि नहीं ये सब झूठ है। हमारे दादा तो निकले ही अमेरिका की खोज करने थे। उनका तो बचपन से सपना था अमेरिका खोजना और अब जब अमेरिका मिल गया है तो भगवान के लिए हमे इसे अपने हिसाब से चलाने दें। दादा जी की विरासत से छेड़छाड़ न करें।

वक्त आ गया है कि अमेरिका भी भारत की तरफ देखे। हम दसियों साल बाद भी लोगों को ‘पहला फ्लाइओवर बनाने वाले’ नहीं भूलने देते और तुम्हारी एक बिरादरी ने स्साला ‘देश खोज लेने’ की उपलब्धि भुला दी। लानत है।

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

बस अड्डे का विहंगम दृश्य (हास्य-व्यंग्य)

जब कभी बस अड्डे जाता हूं ये सवाल अक्सर ज़हन में आता है कि इस बेचारे का आखिर क्या कसूर है ? किस ग़लती की सज़ा इसे दी जा रही है ? संसद में अटका वो कौन सा विधेयक है जिसके चलते यहां झाडू नहीं लग रही ? किस साजिश के तहत देश की विकास योजनाओं में इसे शामिल नहीं किया जा रहा? आखिर क्यों ये आज भी वैसा ही है जैसा कभी राणा सांगा के वक्त रहा होगा ?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके मैं जवाब जानना चाहता हूं। मगर अभी तो ये जानना है कि जिस बस से जाना है वो कहां से चलेगी। पूछताछ खिड़की पहुंचता हूं। बावजूद ये जानते हुए कि पूछताछ खिड़की बस अड्डे में वो जगह होती है जहां लोहे की जाली के उस तरफ एक कुर्सी होती है, एक टेलीफोन, पुराना टूटा पैन भी रहता है, लेकिन वो इंसान जिसे इस नौकरी के लिए दस हज़ार महीना मिलते हैं वो नहीं होता। कैसी विडम्बना है कि मैं गया तो बस का पूछने था मगर लोगों से पूछ रहा हूं कि इन्क्वायरी विंडों वाला किधर है?
सवाल ये है कि ये इन्क्वायरी विंडों वाला आखिर किधर गया ? क्या ये आज बिना किसको बताये आया ही नहीं, क्या ये ऊपर बने किसी कमरे में आराम फरमा रहा है? क्या ये किसी कोने में बैठा बीडी फूंक रहा है? क्या पिछले दो घंटे से ये 'दो मिनट' के किसी काम पर निकला था? मुझे लगता है कि बस अड्डे पर गुमशुदा लोगों के जो इश्तेहार लगे हैं वहीं पूछताछ खिड़की के उस शख्स का भी एक इश्तेहार लगा दूं, किसी को दिखे तो बतायें!
इस बीच भूख लगती है। गर्दन घुमा कर देखतें हूं। चारों तरफ सेहत के दुश्मन बैठे हैं। कोई भठूरा बेच रहा है तो कोई पकौडा, किसी के पास गंदे तेल में तला समोसा हैं तो किसी के पास पिलाने के लिए ऐसी शिकंजी जिसमें इस्तेमाल की गई बर्फ और पानी का रहस्य सिर्फ बेचना वाला ही जानता है। इन तमाम चीज़ों की हक़ीकत जानने के बावजूद खाने-पीने के भारतीय संस्कारों के हाथों मजबूर हैं। पहले शिकंज़ी पीता हूं, भठूरे भी खाता हूं, थोड़े पकौडे भी लेता हूं और आधी-कच्ची चाय का भी आनन्द लेता हूं।
खाने पीने को लेकर दिल से उठाया गया ये कदम पेट पर भारी पड़ने लगता है। बाथरूम की तरफ लपकता हूं। दोस्तों......भारतीय बस अड्डों में शौचालय वो जगह होती है जहां सतत जनसहयोग और सफाई कर्मचारियों की अकर्मण्यता से ज़हरीली गैसों का निर्माण किया जाता है। उस पर ये भी लिखा रहता है-स्वच्छता का प्रतीक। ऐसा लगता है मानों....लोगों को चिढ़ाया जा रहा है।
खैर, सांस रोके जो करना है वो कर बाहर आता हूं। सामने बस खडी है। खुशी से झूम उठता हूं। टिकट लेता हूं। बस में बैठता हूं। सफर शुरू होता है। और कुछ ही देर में जान जाता हूं कि बस अड्डे में जो देखा वो तो ट्रेलर था, फिल्म तो अभी शुरू हुई है।

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

जो दिल करे वो खाओ!

हर मोटे आदमी को ज़िंदगी में एक बार ज़रूर लगता है कि तोंद कम करने के लिए अफ़सोस के अलावा भी कुछ करना चाहिये। इसी अहसास के बाद जिम वाले से बात कर ली जाती है। खाने को लेकर बीवी को हिदायत दी जाती है, अलार्म लगा दिया जाता है।

सुबह अलार्म बजता है। दिल करता है अलार्म का गला घोंट दें। 15 मिनट बाद का अलार्म लगा आप फिर सोने लगते हैं कि बीवी उठ जाती है। अब आपकी खैर नहीं....चलिये उठिये... सैर पर नहीं जाना क्या? रात को तो बड़े-बड़े दावे कर सोये थे..... अब उठते क्यों नहीं? आपका दिल करता है कि अलार्म के साथ बीवी का भी.......।
खैर....भारी मन के साथ हल्के जूते पहन आप सैर के लिए निकलते हैं। घंटे बाद उत्साह से भरे आप घर लौटते हैं। इस उत्साह में सैर से मिला आनन्द कम, और जल्दी उठने की वीरता पर गुमान ज़्यादा है। आपके आफिस के सहतोंदू दोस्तों की अब खैर नहीं, जिनके सामने आप सुबह की सैर की महिमा गाने वाले हैं।
सैर करते अब आपको हफ्ता बीत चुका है। देशभर में फैले तमाम रिश्तेदार जान चुके हैं कि 'फलानां जी' सैर पर जा रहे हैं। ऐसा नहीं कि ये बात अखबार में छपी है बल्कि आप ही ने फोन पर किसी बहाने चिपकाई है।
सैर को अब दो हफ्ते बीत चुके हैं। ये जानने के लिए जोश में इंचीटेप उठाते हैं कि आख़िर 'कितना फर्क' पड़ा है। मगर ये क्या.... साढ़े चवालीस की साढ़े चवालीस। तमाम प्रपचों के बावजूद तोंद टस से मस नहीं हुई। आपको सदमा लगता है। दिल करता है कि कमरा अंदर से बंद करके तकिया मुंह में लेकर रोयें.....मगर आप ऐसा नहीं करेंगे। आप स्ट्रोंग आदमी है और आपकी तोंद भी इसकी गवाही दे रही है !

तय रूटीन के मुताबिक रात को दलिया पेश किया जाता है। मगर आप बीवी पर उखड़ते हैं। ये क्या बकवास है। मेरी डाइटिंग ने तुम्हें 'कुछ न करने' का बहाना दे दिया है। बीवी हैरान है क्या हो गया आपको ? वो पूछती हैं-बॉस ने कुछ कहा क्या ? आप आपा खोते हैं-तुम्हारा दिमाग ख़राब हो गया है, मैं दलिये की बात कर रहा हूं, तुम बॉस को बीच में ला रही हो। पहले प्यार में धोखा खाई युवती की तरह आप अंदर ही अंदर घुटते हैं मगर किसी को कुछ बताते नहीं?
अगले दिन फिर अलार्म बजता है। मगर आपकी टांग में दर्द है, जिसके बारे में टांग को भी पता नहीं, आप सैर पर नहीं जाते। अब ये टांग ठीक नहीं होगी। धीरे-धीरे सैर बंद हो गई। नाश्ते से दूध सेब गायब । दलिया पर तो दस दिन से पाबंदी है। अरसे बाद फिर से आलू के परांठे का आर्डर दिया जाता है। परांठा खा रहे हैं और खाते-खाते आप नया खाद्य दर्शन दे डालते हैं.......स्साला 60 साल परहेज़ कर तीन साल उम्र बढ़ाई भी तो क्या बढ़ाई ! जो दिल करे वो खाओ।

शनिवार, 8 नवंबर 2008

लोमड़ी की संवेदनशीलता!

एंकर बता रही है कि भागती-दौड़ती और तनाव भरी ज़िंदगी में अगर हंसने-हंसाने के दो पल मिल जाएं तो क्या कहने। आपके इसी तनाव और थकान को दूर करने के लिए देखते हैं कॉमेडी का कॉकटेल।
मतलब हमारा धंधा तो ख़बर दिखाना है मगर आपकी तकलीफ दूर करने के लिए हम 'आउट ऑफ वे' जा कर आपको हंसाएंगे। वाह! इसे कहते हैं 'लोमड़ी की संवेदनशीलता'। ऐसा संवेदनशील इंसान दुनिया भर का बोझ उठाने को तैयार रहता है। वो किसी को कुछ नहीं करने देता। पडोसी खाना खा कर उठता है तो ये आवाज लगाता है भाईसाहब रुको झूठी प्लेट सिंक में रख देता हूं। मकसद पडोसी की मदद करना नहीं उसकी बीवी पर लाइन मारना है।
इसमें दो राय नहीं की तनाव भरी ज़िंदगी में हंसने की ज़रुरत होती है। मगर उस तनाव के दर्शन तो कराओ। क्या जीवन का तनाव ये है कि तमाम बदतमीज़ियों की बावजूद संभावना सेठ राखी सावंत नहीं बन पा रही। नॉमीनेट होने के बाद पायल बिकनी पहन स्विमिंग पूल में कूद पड़ी। या फिर शरलीन चोपडा ने थर्रटी सिक्स-ट्वेंटी फोर-थर्रटी सिक्स के में जो फोर-सिक्स की कमी थी उसे दूर करने के लिए कॉस्मेटिक सर्जरी करा ली। कम से कम चैनल की खिड़की से जो दुनिया का जो तनाव दिखता है वो यही है।
मैं सोचता हूं फूहड़ हो जाने के लिए 'आपका तनाव' कितनी खूबसूरत दलील है। आप जो कूड़ा चैनल पर देख रहे हैं वो इसलिए क्योंकि आप तनाव में है। और ये कूड़ा देखकर अगर आप और तनाव में आ गए हैं तो हम कहेंगे आप ग़लत जगह राहत ढूंढ रहे हैं। टीवी बंद कर दीजिए। अक्लमंदों के लिए यहां कोई आरक्षण नहीं है।
आप इंतज़ार कीजिए। कुछ वक़्त बाद ऐसा भी होगा। रात दस बजे चैनल 'जनहित में धुंधला' कर एक नीली फिल्म दिखाएगा। बिना एडिटिंग के घंटे भर फिल्म चलेगी। फिर एंकर कहेगा देखो क्या हो गया है हमारे बच्चों को। क्या-कुछ चल रहा है समाज में। खैर, गिरते नैतिक मूल्यों पर बात करने के लिए हमारे साथ स्टूडियों में मौजूद हैं........।
ये सब हो तो आप चैनल को दोष मत देना। उसकी संवेदनशीलता को समझना। आख़िर बात तो वो समस्या पर कर रहे है। ये तो टीवी की मजबूरी है कि बिना दृश्य के यहां बात स्थापित नहीं होती इसलिए 'मजबूरी' में थोड़ा-बहुत दिखाना पड़ता हैं। मगर उनका इरादा तो नेक है। अब फिर से आप ये मत कहना समस्या तो फूहड हो जाने की दलील है और मजबूरी की कोई भी दलील कितनी भी सक्षम क्यों न हो वो वेश्वावृति की इजाज़त नहीं देती।

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

प्रेम और संगीत

दीपावली के बाद घर से लौट रहा हूं। बगल की सीट पर बीवी सो रही है। मैं उसका हाथ थामे हूं। इयरफोन लगा है। गाना चल रहा है.....यही वो जगह है...यही वो समां है...यहीं पर कभी आपसे हम मिले थे। गाना सुनते-सुनते फ्लैशबैक में चला गया हूं। कॉलेज के दिनों में ये गाना खूब सुना। सुनने की जायज़ वजह भी थी। ऐसे हालात भी उन दिनों कई बार बने। लगता था दुनिया तबाह हो गई। एक ही लड़की मेरे लिए बनी थी और वो भी नहीं मिली। मैं दुनिया में सबसे बदनसीब हूं। हे ईश्वर...तूने मेरे साथ ये क्या किया।

वहीं दिल तुड़वाने के अभ्यस्त सीनियर बताते थे कि तुम बदनसीब नहीं खुशनसीब हो। सोचो... दुनिया में तुम्हारे लिए एक ही लड़की बनी थी और 18 साल की उम्र में तुम उससे मिल भी लिए। हाऊ लकी। अगर यही लड़की किर्गीस्तान या रवांडा में रहती तो क्या करते? भगवान का शुक्रिया अदा करो। इस शैशव अवस्था में तुम अपने लिए बनी एकमात्र लड़की से मिले तो। हमें देखो....अभी तक सच्चा प्यार ढूंढ रहे हैं।

मैं समझ गया। प्यार में पड़ा आदमी जहां खुद को सबसे ज़्यादा गंभीरता से लेता है, वहीं बाकियों के लिए वो उस नमूने की तलाश ख़त्म करता है जिस पर वो हंस पाएं। रही बात घरवालों की सहानुभूति की....उसे हासिल करने के लिए ज़रूरी था कि उन्हें इस ‘हादसे’ की जानकारी होती....और जानकारी होने का मतलब था खुद के साथ उससे बड़ा हादसा होना। लिहाज़ा अकेले ही खुद पर तरस खाने के सिवा और कोई ऑप्शन नहीं था।

ऐसे में .......तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा.........टाइप गाने माहौल बनाते थे। मैं घंटों ऐसे गाने सुनता। खुद पर तरस खाता। लड़की को बेवफा मानता। दोस्तों को गद्दार, मां-बाप को रूढ़िवादी और खुद को बेचारा। जितने उम्दा बोल.. जितना दिलकश संगीत, उतनी हर पक्ष की छवि निखर कर आती थी। मतलब लड़की और बेवफा लगती और मैं और बेचारा।

बहरहाल, उम्र बढ़ती गई। दिल टूटता गया। उसी अनुपात में प्लेलिस्ट में गाने भी जुड़ते गए। मैं उस स्थिति में पहुंच गया जहां म्यूज़िक को मैंने अपना शौक बना लिया और दिल टूटने से जो शॉक मिला उसे अपना तजुर्बा।

इतने सालों बाद बीवी का हाथ थामे वही गाने फिर सुन रहा हूं। एक पल के लिए बीवी के चेहरे पर नज़र पड़ती है तो ग्लानि होती है। उन गानों को सुन आज भावुक होने पर शर्मिंदगी होती है। सोचता हूं कैसी विडम्बना है जो गाने दिल टूटने पर आसरा बने वही आज आसरा मिलने पर शर्मिंदा कर रहे हैं। इयरपीस निकालता हूं। सो जाता हूं।

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

सेवादार बनने की जंग

सेवा एक ऐसा भाव है जो करने में आनन्द देता है और करवाने में परमानन्द! बचपन से हमें बताया जाता है कि बड़ों की सेवा करो पुण्य मिलेगा। वाक्य संरचना पर गौर करें तो इसकी शुरूआत उपदेश से होती है ...बड़ों की सेवा करो.....मन में सवाल उठता है.....मगर क्यों ? क्या फायदा ? लेकिन..... वाक्य का अगला हिस्सा भरोसा देता है.....पुण्य मिलेगा। अब पूरा प्रस्ताव हमारे सामने कुछ इस तरह से है कि बड़ों की सेवा करो.....तो पुण्य मिलेगा।
हम भारतीयों से कुछ भी करवाना बड़ी टेढ़ी खीर है, जब तक कोई मुनाफा न हो तो कुछ नहीं करेंगे, भले ही वो सेवा ही क्यों न हो ? तमाम मां-बाप बच्चों को कहते हैं बेटे दादा जी के पांव दबा दो...पुण्य मिलेगा। पुण्य की दलील बच्चे को मना नहीं पाती और आख़िर में उसे पांच रूपये का लालच दे पांव दबवाने पड़ते हैं। बच्चे को पांच रूपये मिलते हैं और तो वो दुकान से कुरकुरे का पैकट खरीद लेता है।
बच्चे की कम अक्ल ये मोटी बात जान लेती है कि सेवा फायदे का सौदा है। अब वो सेवा की 'ताक' में रहता है। दादा जी पांव दबाऊं....हां बेटा ज़रूर...पांच रूपये तो खुल्ले हैं न....हां बेटा है....। अब सिलसिला निकल पड़ा है। दादा जी को टांग दबाने वाल होम मसाजर मिल गया है...बच्चे का डेली कुरकुरे का बंदोबस्त हो गया है, और मां-बाप ये सोच कर खुश हैं कि चंद रूपयों के लालच में अगर बच्चा अच्छा काम कर रहा है तो बुरा क्या ?
लेकिन अभी कहानी में ट्वीस्ट है.....ये एक ज्वांयट फैमिली है। बच्चे के कज़न को पता चल गया है कि दादा जी टांग दबाने के पांच रूपये देते हैं। एक दिन वो भी दादा जी के पास जाता है। कहता है दादा जी मैं भी आपकी टांगे दबाऊंगा। दादा जी का सीना ये सोच खुशी से चौड़ा हो जाता है कि दुनिया के सबसे संस्कारी बच्चों की डिलीवरी उन्हीं के घर हुई है।

मगर पहला बच्चा इससे काफी परेशान है। उसे बर्दाश्त नहीं कि उसके अलावा कोई और दादा जी की सेवा करे। सेवा में हिस्सेदारी उसे पसंद नहीं। ये तकलीफ एक्सक्लूसिवली वो खुद ही उठाना चाहता है। खैर....
इस कहानी को मौजूदा संदर्भ में देखें तो पता नहीं क्यों मुझे दादा की हालत लोकतंत्र जैसी और खुंदकी बच्चों की हरक़तें नेताओं जैसी लग रही है। जो चाहते हैं कि लोकतंत्र रूपी दादा की सेवा सिर्फ वही करें और बदले में मिलने वाला सारा मेवा एकमुश्त वही खा जाये। दिल्ली से राजस्थान और मध्यप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ जहां-जहां चुनाव होने है आप देखिए नेता जनता की सेवा करने के लिए मरे जा रहे हैं।
जिन्हें सेवा करने का मौका मिल रहा है वो धन्य हो रहे हैं और जो इस पुण्य काम के लिए नहीं चुने गए वो मरने-मारने पर उतारू हैं।
सेवा करने की तड़प और मेवा खाने की उमंग! वाकई कितनी सुंदर स्थिति है! राजनीति का साम्प्रदायिकरण, खेलों का राजनीतिकरण और अब पेश है एक नया मॉडल संस्कारों का व्यवसायीकरण! सिर्फ मुझे ही सेवा करनी है! आख़िर.... राजनीति एक धंधा ही तो है।

शनिवार, 25 अक्तूबर 2008

ऊपर उठने की मुसीबत

पिछले दिनों साम्प्रदायिक मसले पर छपी एक पुस्तक की समीक्षा पढ़ी। समीक्षक का कहना था कि किताब में कुछ ऐसी कहानियां हैं जो आपको झकझोर देंगी। कहानियां पूरी समस्या पर एक नई दृष्टि डालती हैं। किताब को लेकर कुछ और अच्छी बातें भी लिखी गईं। और अंत में कहा गया, लेकिन इस संकलन में शामिल अधिकतर कहानियां उनके पिछले संकलन में भी थी, और ऐसा लगता है कि 'नई किताब छपवाने की हड़बड़ी' में लेखक नें ऐसा किया! साम्प्रदायिक समस्या पर गम्भीर चिंतन से लिखी कहानियां और किताब छपवाने की हड़बड़ी! वाकई दिलचस्प है।

ऊपर उठने की अजीब मुसीबत है। कट्टरपंथी ऊपर उठने की कोशिश करता है तो उसका दम घुटता है। कट्टरता का मोह वो छोड़ नहीं पाता। कट्टरपंथ को लेकर उसके अपने तर्क (या कुतर्क) हैं। वही उसका जीवन है। उदारवादी लेखक इसे सख़्त नापसंद करता हैं वो उसकी बखियां उधेड़ता है। अपने लेखों, कहानियों के ज़रिये दुनिया को बताता है कि ये कैसे वहशी दरिंदे हैं। लोग उसकी सराहना करते हैं। फिर वो किताब छपवाता हैं। दुनिया कहती है क्या खूब लिखा। उदारवादी लेखक खुश होता है। उसे लैंडिंग स्पेस मिल गया है। वो अब और नहीं उड़ेगा। मान्यता के द्वीप में उसका मन अटक गया है, वो और नहीं उठेगा।

सवाल यही है कि आख़िर हम उपर क्यों नहीं उठते। क्या सालों की गरीबी और गुलामी ने हमें इतना कमज़ोर कर दिया है। भूखे हैं.. तो रोटी चाहिये, बेरोज़गार हैं.. तो नौकरी चाहिये, जानकार हैं.. तो मान्यता चाहिये। सिटी बस में घुसते ही सवारी कंडेक्टर को कहती है, बस.. अगले स्टॉप पर उतार देना मुझे। हम भी ज़िदंगी से यही गुज़ारिश करते हैं, बस.. अगले स्तर तक ले जाओ मुझे !

हर परिवार में रूढ़ियों की रिले दौड़ जारी है। बाप, बेटे को बैटन थमाता है। और वो अपना लैप ख़त्म होने पर अपने बेटे को थमा देगा। ढ़ोना संस्कार बन गया है। पड़ताल गैरज़रूरी है।

वहीं आम आदमी से इधर प्रतिभा या किस्मत के भरोसे कुछ लोग अगर ख़ास हो जायें तो स्टेट्स और दूसरी चोचलेबाज़ियों में फंस जाते हैं। जो पैसे के धनी है, वो 'स्टेटस' की मानसिकता से उपर नहीं उठते, और जिन पर सरस्वती मेहरबान है वो 'मैं' की ज़हनियत से।

चाय की चुस्कियों और सिगरेट के धुंए के बीच जो अधिकतर विमर्श होते हैं उसके पीछे नीयत क्या है। क्या हम ये जानना चाहते हैं कि वाकई समाज की परेशानी क्या है। या फिर उस परेशानी के बहाने ये बताना चाहते हैं कि मेरी समझ का दायरा क्या है। बहस करो...नहीं करोगे तो मैं कहां जा कर ज्ञान की उल्टी करुंगा। किस बहाने ये बता पाऊंगा कि मैंनें 'उन सबको' पढ़ा है जिनके नाम तक तुमने नहीं सुने।

एतराज़ विमर्श पर नहीं है। एतराज़ नीयत पर है। अगर आप युवा पीढ़ी को इस बात पर कोसते हैं कि वो पॉप कॉन और मोबाइल से ऊपर नहीं उठती, इस सबमें उसे न जाने क्या रस आता है। तो आपने अपने विमर्श को किस तरह नैतिकता का जामा पहना दिया। मॉल और पब अगर उनके मनोरंजन मैदान हैं, तो 'गंभीर चिंतन' भी आपकी ज़हनी अय्याशी से ज़्यादा क्या है।
लोकसभा में सांसदों का भिड़ना अगर शर्म है, तो अख़बारों और पत्रिकाओं में बुद्धिजीवियों का वैचारिक द्वंद को क्या कहें....चौथे खम्भे में मौजूद खुले लोकतंत्र का बेहतरीन नमुना! जनप्रतिनिधि अगर स्वार्थों से मजबूर हैं, तो क्या बुद्धिजीवी अपने अहं के हाथों मजबूर नहीं है।

मजबूरियों के मारे एक मजबूर मुल्क बन कर रह गये हैं हम। और इतने बरसों में इस सबका असर ये हुआ कि हमने दोषारोपण की अच्छी परम्परा विकसित कर ली। नेता भ्रष्ट हैं, पुलिस तंग करती है, बाबू नकारा है, बाबा पाखंडी हैं, औलाद निकम्मी है (जैसे ये सभी मंगल ग्रह से आये हों)। सारी माफ़ियां मेरी, सारी ख़ामियां तुम्हारी, सारे दुख मेरे, सारे विलास तुम्हारे। ऊपर उठना भी अजीब मुसीबत है। सच, सिर्फ चिंतन से अगर देश का भला होता तो आज हम अमेरिका से बड़ी महाशक्ति होते!

(कहीं-कहीं लाउड हो जाने के लिए माफी चाहूंगा। )

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

भारत तोड़ो आंदोलन

भारत एक स्वादिष्ट चीज़ है। पूरा देश एक बड़ी सी मैस है। देश टेबल पर पड़ा है। खाने वालों की लम्बी कतार है। सब देश खाना चाहते हैं। जीभें लपलपा रही है। देश मुर्गे की तरह फड़फड़ा रहा है। खाने वाले ज्यादा है, देश छोटा। हर किसी को उसका हिस्सा चाहिए। समस्या संगीन है। मगर लोग होशियार। उच्च दर्ज़े के न्यायाधीश। वो किसी को भूखा मरने नहीं देंगे। जानते हैं सब एक साथ देश पर टूट पड़े तो अराजकता फैलेगी।
तय हुआ है कि देश के टुकड़े कर लो और कोई चारा नहीं। सभी की भूख शांत करनी है। हर किसी का टेस्ट अलग है। सब ने अपने-अपने हिस्से की पहचान कर ली है। किसी की नज़र कश्मीर पर है तो किसी की असम पर। कोई उड़ीसा चाहता है तो कोई महाराष्ट्र।
कुछ हिस्से ऐसे हैं जिन पर एक से ज़्यादा की नज़र है। मांग की जा रही है इनके अलग से टुकड़े हों। आंध्र को तोड़ कर तेलंगाना बना दो। असम से बोडोलैंड अलग हो। बंगाल से गोरखालैंड निकाला जाए। यूपी से हरित प्रदेश। लोग बेचैन हो रहे हैं। भूख बढ़ रही है। आवाज़े आ रही हैं जल्दी करो। देश को काटने की तैयारी हो रही है। कुछ कह रहे हैं कि इसे काटो मत, ये ठोस है कटेगा नहीं इसे तोड़ दो। देश को तोड़ा जा रहा है वो नहीं टूट रहा। फिर किसी ने बताया कि देश तो लोगों से बना है। इसे तोड़ा नहीं जा सकता। लोगों को अलग कर दो ये अपने आप बिखर जाएगा। जिन्हें तोड़ना है उनकी पहचान हो गई है।
भाषा, जाति, धर्म, संस्कृति जो देश की सबसे बड़ी विशेषता थी उसे ही इसे तोड़ने का हथियार बना लिया गया है। देश तोड़ने की पूरी तैयारी हो चुकी है। बिना किसी निविदा के समाजसेवियों ने रुचि के मुताबिक ठेके ले लिए हैं। महाराष्ट्र में भाषा के नाम पर देश तोड़ने का काम राजठाकरे ने लिया है तो असम में उल्फा ने। जाति के आधार फूट डालने के क्षेत्र में कर्नल बैंसला ने उल्लेखनीय काम किया है। वहीं धर्म के आधार पर फूट डालने में मारा-मारी मची है। मोदी, लालू, अमर सिंह पासवान जैसे कितने ही आईएसआई मार्का देश तोड़ू काम में जुटे हैं। कई फ्रेंचाइज़ी खुली है। राज्य प्रयोगशाला बन गए हैं,कार्यकर्ता शोधार्थी। देश लैब में पड़ा है महाप्रयोग जारी है। उम्मीद करते हैं जैसे 'भारत छोड़ो आंदोलन' के ज़रिए हमने अंग्रेज़ों को भारत से बाहर भेजा था वैसे ही इस 'भारत तोड़ों आंदोलन' के ज़रिए भारत को भी भारत से बाहर निकाल देंगे।

बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

पुरस्कार का एंटी क्लाइमैक्स

पुरस्कार समिति से जुड़े शख़्स का कहना था लोग ख़्वामखाह चिंता करते हैं कि फलां लेखक उम्रदराज़ हो रहा है, डिज़र्व भी करता है, लेकिन अकादमी ध्यान नहीं दे रही। लेखक को वक़्त पर पुरस्कार न मिलना, और मरने से पहले मिल जाना महज़ इतेफ़ाक नहीं है। बहुत कम लोग जानते हैं इस मामले में हमारी तैयारी कॉरपोरेट कम्पनियों से भी अच्छी होती है।
हमने बाकायदा मेडिकल जासूसों की एक टीम तैयार कर रखी है। हर जासूस 70 की उम्र पार कर चुके तीन ब़ड़े लेखकों पर निगरानी रखता है। ये जासूस अलग-अलग तरीकों से हमें रिपोर्ट देते हैं कि फलां लेखक का स्वास्थ्य कैसा चल रहा है। इन तरीकों में लेखक के फैमिली डॉक्टर को खरीद लेना, उससे वक़्त-वक़्त पर लेखक की डॉयबिटिक रिपोर्ट लेना, ब्लड प्रेशर की स्थिति जानना, पता लगाना कि लेखक को कोई बड़ी तक़लीफ तो नहीं है? है तो वो कितनी गंभीर है?
अब इसी रिपोर्ट के आधार पर अकादमी तय करती है कि लेखक को अभी कितना और लटकाया जा सकता है?
मैंने कहा, श्रीमान लेकिन यही तो सवाल है कि आख़िर आप लटकाते क्यों हैं? सारी जवानी लेखक दो पैंटों में निकाल देता है, सौ-सौ रुपये के लिए संपादकों से उलझता रहता है। कुल्फी वाले की घंटी को, ग़फ़लत में डाकिये की घंटी समझ कर दरवाज़ा खोलता है। तब तो उसकी सुध लेते नहीं, फिर अस्सी की उम्र में उसकी उस रचना को सम्मान दे देते हैं जो उसने चालीस में लिखी थी।
बात काटते हुए समिति सदस्य बोले, इसके पीछे भी हमारा अपना दर्शन है। दरअसल समिति मानती है कि 'व्यवस्था से नाराज़गी' ही लेखक की सबसे बड़ी ताकत होती है। अब लेखक की नाराज़गी कोई आशिक की नाराज़गी नहीं कि वो गुस्से में शराब पीने लगे या फांसी पर लटक जाए। इसी नाराज़गी से रचनात्मक ऊर्जा मिलती है। वो उम्दा रचनाएं लिखता है।
हमें लगता है वक़्त पर अगर लेखक को सम्मान और पैसा दोनों मिल जाएगा तो वो 'जीवन के द्वंद्व' को कैसे समझेगा?
मैंने कहा, श्रीमान वो तो ठीक है, लेकिन उस पर भी लेखक की सर्वश्रेष्ठ रचना को पुरस्कार न दिया जाना भी क्या इतेफ़ाक है? उपन्यासकार की कहानी को पुरस्कार दे दिए जाते हैं, और कहानीकार के उपन्यास को, और वो भी ऐसी रचना पर जो खुद लेखक की नज़र में सर्वश्रेष्ठ नहीं होती।
देखिये... चौधराहट का उसूल है कि आप ऐसा कुछ करते रहें जो लोगों की समझ से परे हो। अगर हमें भी उसी पर मुहर लगानी है, जिसकी दुनिया तारीफ कर रही है तो हमारी क्या रह जाएगी? आख़िर हमें भी तो 'अपनी वाली' दिखानी होती है।
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शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

सोने दो, सोना मत दो!

गहरी नींद में था कि अचानक कुछ बजने की आवाज़ आई। ये मोबाइल की आवाज़ थी। कम्बल हटाया, तकिये के नीचे देखा, बेड के साइड्स में भी चैक कर लिया,आवाज़ आ रही है, मगर मोबाइल का पता नहीं.. भयंकर नींद में हूं... दिल कर रहा है सो जाऊं, मगर....कोई ज़रूरी कॉल हुआ तो....
एक पल के लिए सोचता हूं। सोने से पहले कहां रखा था। तभी.....याद आता है रात को देर से घर आना हुआ, और मोबाइल पैंट में रह गया!
पैंट की तरफ लपकता हूं। वो उसी में था। ये नोएडा का नम्बर था। एक पल में हज़ार ख़्याल। नोएडा की कुछ कम्पनियों में मैंने अप्लाई किया था, वहीं से तो नहीं... दिल धड़कता है..माता रानी भला करना... फोन उठाता हूं और आवाज आती है ......झाबुआ के छेदीलाल ने जीता है एक किलो सोना....आप भी चाहें तो जीत सकते हैं एक किलो सोना...सोना ही सोना....इसके लिए आपको करना सिर्फ ये है......सिर दीवार में दे मारे। उसने तो नहीं कहा... लेकिन, दिल यही किया कि सिर दीवार में दे मारूं। इन कम्पनियों को मुझे सोना जीताने की तो फिक्र है, मेरे सोने की नहीं।
पहले इस तरह के सिर्फ अंट-शंट मैसिज आया करते थे। लोगो ने पढ़ने बंद कर दिये। अब ये कम्पनियां साधारण दिखने वालों नम्बरों से कॉल करती है। आप फ़ोन काटने का रिस्क नहीं ले सकते।
दोस्त बता रहा था कि उसका बॉस बड़ा खुंदकी है। तीन रिंग से ज़्यादा चली जाए तो उसे लगता है मैं चिढ़ाने के लिए फोन नहीं उठा रहा। इसी दहशत में लू में भी मुझे मोबाइल साथ ले जाना पड़ता है। कल ही मैं लू में था...अचानक मोबाइल बजा....समझ नहीं आया नम्बर कहां का है.... फोन उठाया तो दूसरी तरफ मोहतरमा बताने लगी...आप चाहे 'कहीं' भी हों....अब सुन सकते हैं लेटस्ट पंजाबी और हिंदी गाने....इसके लिए आप अपने......
हे ईश्वर! ......कहीं मतलब क्या ....बोलने से पहले कंफर्म तो कर लो.. सुनने वाला असल मे है कहां!

इस सबको लेकर एक आदमी कुछ ज़्यादा ही गुस्से में था। बता रहा था इन्ही फोन कॉल्स के चलते उसका तलाक होते-होते बचा है। मैंने पूछा- क्या हुआ? होना क्या है-कल घर पहुंचा, तो बीवी पूछने लगी आप 'साढ़े आठ मिनट' देर से आये हो, जान सकती हूं कहां थे 'इतनी देर'।
मैं समझाने लगा.. रेड लाइट में फंस गया। उसके बाद गाड़ी रिज़र्व में आ गयी, तो पैट्रोल भरवाने रूक गया। बीवी कंविंस नहीं हुई। मैं उसे बात समझा ही रहा था.....कि मोबाइल बज उठा। इससे पहले की मैं चेक करता, उसने मोबाइल छीन लिया, स्पीकर फोन ओन किया, मेरी तरफ घूरते हुए फोन पिक किया........दूसरी तरफ से आवाज़ आई.......क्या बात है दोस्त, रेखा और हेमा तुम्हारी बड़ी तारीफ कर रही थी......सुना है तुम उन्हें अच्छे-अच्छे शेर सुना कर इम्प्रैस कर रहे हो......बीवी ने यहीं फोन काट दिया और मित्र, इसके बाद जो हुआ वो रहस्य ही रहे तो बेहतर होगा!

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

पिक्चर अभी बाकी है...(व्यंग्य)

मेरा मानना है कि हर समझौते में बराबर न्याय होना चाहिए। मतलब किसी सांसद को ख़रीदते वक़्त अगर कहा गया कि तुम हमें वोट दो, हम तुम्हें नोट देंगे, नोट नहीं तो पद देंगे। तो उसे टाइमली पेमेंट होनी चाहिए। इएमआई का कोई टंटा नहीं, एक मुश्त, लम-सम जितना बने, दे के नक्की करो। वैसे भी ऐसा सांसद जो किसी लालच में पार्टी से विश्वासघात कर आया हो, पैसे न मिलने पर किसी और पर विश्वासघात का इल्ज़ाम नहीं लगा सकता। जैसे झारखंड के राजनीतिक विवाद में भी मेरी पूरी हमदर्दी आदरनीय सोरेन के साथ थी। मैं बराबर तिलमिलाता रहा कि भाई उन्हें मुख्यमंत्री बना क्यों नहीं रहे। उन्होंने 'देश हित' को देखते हुए सरकार के पक्ष में वोट दिया और मधु कोड़ा थे कि 'देश हित' सधने नहीं दे रहे। आख़िर में देशभक्त सोरने की जीत हुई और वो मुख्यमंत्री बने।

मगर ये कहानी एक हिस्सा था। जिनको पद, पैसा मिलना था मिला। पर सवाल ये था कि जिस महान उद्देश्य के लिए ये सब किया जा रहा था उसकी प्राप्ति तो बाकी थी। मेरी हमदर्दी अब कांग्रेस के साथ हुई। बेचारी ने क्या नहीं किया। कितने ईमान खरीदे, कितने घर उजाड़े, कितना निवेश किया, कितने सपने तोड़े(पीएम बनने के), कितनों से धमकी देने का सुख छीना, कितनी लानतें झेलीं सिर्फ इसलिए कि परमाणु डील कर देश तरक्की कर पाए।

ये सोच कर ही मैं कांप जाता था कि इस सबके बावजूद अगर डील नहीं हुई तो कांग्रेस कैसे अपना मुंह, जो पहले ही दिखाने लायक नहीं बचा था, किसी को दिखाएगी। शिबू सोरेने का देश हित तो सध चुका अब किस मुंह से उन्हें उनके पद से हटाते। न ही सांसदों से अपील की जा सकती थी कि चूंकि डील नहीं हुई इसलिए 50 परसेंट पैसे वापिस दो। ये वाकई उसके लिए कष्टदायक होता। लेकिन जैसा कि सब जानते हैं ऊपर वाला किसी के साथ अन्याय नहीं करता। अगर कांग्रेस ने अपने सारे वादे पूरे किए तो उसको भी मनचाहा नतीजा मिला। वैसे भी कहानी फिल्मी हो या असली हम भारतीय विपरित अंत नहीं चाहते। एंटी-क्लाइमेक्स से हमें सख़्त नफरत है। हम सुखांत के आदी हैं। और हमें एनएसजी के देशों, अमेरिकी कांग्रेंस और अमेरिकी दबदबे का शुक्रिया अदा करना चाहिए जिन्होंने ये सुखांत दिखाया। और रही बात सबक की। तो तब तक ख़ैर मनाए जब तक कोई अमेरिकी राष्ट्रपति ये न कह दे..... पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त....

शनिवार, 12 जुलाई 2008

फुटबॉल में गोल!

ख़बर पढ़ी कि यूरो कप में जीत के बाद स्पेन फीफा रैंकिंग में पहले स्थान पर पहुंच गया। कुछ बड़ी टीमों की रैंकिंग के अलावा आख़िर में लिखा था कि ताज़ा रैंकिंग में भारत ने 153 वां स्थान बरकरार रखा है। वाह! कैसा गौरवशाली क्षण है! दिल किया भोंदूराम हलवाई की दुकान से 5 किलो जलेबी ला पूरे मोहल्ले में बांटूं। रिक्शे पर ढोल बजाता शहरभर घूमूं। महिलाएं घरों के आगे रंगोली बनाएं। लड़कियां मेहंदी लगवाएं। बच्चे पटाखे फोड़ें। कवि ओजपूर्ण कविताएं लिखें। पीने का बहाना ढूंढने वाले ठेकों का रुख करें। राष्ट्रीय प्रवक्ता महेश भट्ट जीत की महिमा बताएं और सरकार में ज़रा भी राष्ट्र प्रेम बाकी है तो वो राष्ट्रीय अवकाश घोषित करे। आख़िर मामला 153 वां स्थान ‘बरकरार’ रखने का है।

जहां तक मेरा भाषायी ज्ञान है इंसान उपलब्धियों को बरकारार रखता है शर्मिंदगी को नहीं। जैसे वित्तमंत्री कहते हैं नौ फीसदी विकास दर ‘बरकरार’ रखना चुनौती होगा लेकिन 153 वें स्थान को बनाए रखने के लिए भारत को क्या चुनौतियां झेलनी पड़ीं, ये शोध का विषय है। क्या ये स्थान हमने अच्छी फुटबॉल खेल कर बरकरार रखा है या फिर इसके लिए राजनयिक स्तर पर कोशिशें की गईं। गरीब देशों को धमकाया गया कि हमें पछड़ाने की कोशिश की तो चावल सप्लाई रोक दी जाएगी या फिर गृहयुद्द के चलते कुछ देश फुटबॉल नहीं खेल पाए। कहीं तुनकमिजाज राजा ने खेल पर प्रतिबंध लगा दिया तो कहीं छोटे देशों ने आपस में विलय कर लिया। जानना चाहता हूं कि इस महान उपलब्धि के लिए हम खुद ज़िम्मेदार हैं या फिर बाहरी कारण।

कुछ लोगों को लग सकता है कि मैं दीन-हीन भारतीय फुटबॉल का मज़ाक उड़ा रहा हूं। तो राष्ट्रीय फुटबॉल टीम के कोच बॉब हॉटन का बयान मुलाहिज़ा फरमाएं। ‘अगर भारत 2018 के विश्व कप फुटबॉल के लिए क्वॉलिफाई करना चाहता है तो राज्य संघों को अपना रवैया सुधारना होगा।‘
कहना नहीं चाहिए मगर भारतीय दंड विधान के तहत अगर अव्यावहारिक सपने देखना अपराध की श्रेणी में आता तो हॉटन को सज़ा से बचाने के लिए उनके वकील को काफी मेहनत करनी पड़ती। 153 वां स्थान बरकरार रखना अगर मज़ाक है तो 2018 विश्व कप के लिए क्वॉलिफाई करने की बात करना गैर ज़मानती अपराध है। फुटबॉल संघ के मुखिया प्रियरंजन दास मुंशी से कुछ वक़्त पहले एक पत्रकार ने उनके कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि पूछी तो उनका जवाब था मेरे आने से पहले संघ घाटे में चल रहा था जबकि अब मुनाफा पांच करोड़ हो गया है। कह सकते हैं कि जब संघ के मुखिया को ही खेल की बेहतरी इसके बहीखाते में दिखती हो ऐसे में 153 वां स्थान ‘बरकरार रखना’ भी तो उपलब्धि हो ही सकता है।

शुक्रवार, 11 जुलाई 2008

सलाह छोड़ना मना है! (हास्य-व्यंग्य)

जिस तरह ताने मारने के लिए, चुगली करने के लिए और मज़ाक उड़ाने के लिए होता है, उसी तरह सलाह देने के लिए होती है। हर आदमी सलाहों की फैक्ट्री खोले बैठा है। सलाहों के गोदाम भरे पड़े हैं। इस रूट में सारा ट्रैफिक वन-वे है। इस क्नेक्शन में सारी कॉल्स आउटगोइंग हैं। सलाहों के मैसेज सेंड किये जा रहे हैं लेकिन डिलीवरी रिपोर्ट नहीं आ रही। पूरे माहौल में सलाह ही सलाह है। दम घुटने लगा है। सलाह प्रदूषण हो गया है। ज़रूरत है, 'सलाह नियंत्रण मशीनें' लगाई जायें। रास्ते में रोक लोगों की जांच की जाए कि कहीं कोई ज़्यादा सलाह तो नहीं छोड़ रहा!

पूरा मुल्क सलाहों की रणभूमि में तब्दील हो गया है। हर तरफ सलाहों के तीर छोड़े जा रहे हैं। मूर्ख समझदार से सलाह कर रहा है। मूर्ख, मूर्ख से भी सलाह कर रहा है। मूर्ख अपने अनुभव से मूर्खतापूर्ण सलाह दे रहे हैं। मूर्ख उन सलाहों को मान वैसी ही मूर्खता कर रहे हैं। तमाम मूर्खताओं पर परम्पराओं के लेबल चिपके हैं। लिहाज़ा सभी खुश है!

जिस तरह डाकू लोगों को लूटते हैं। बाप, बच्चों की अक़्ल लूट रहे हैं। बच्चे पेड़ से बंधे हैं। मुंह में कपड़े ठूंसे हुए हैं। बच्चे बेहाल है। लेकिन बाप सलाह दे कर रहेगा क्योंकि उसके बाप ने भी उसे सलाह दी थी। बच्चे सलाह मान रहे हैं, फ़ेल हो रहे हैं। वो नहीं जानते उन सलाहों की एक्सपायरी डेट आ गयी है!

प्रकृति के आधार पर सलाह देने वालों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है-
-शौकिया सलाहदाता
-स्वयंभू बुद्धिजीवी सलाहदाता
और पेशेवर सलाहदाता

हममें से ज़्यादातर शौकिया यानी 'एमेच्योर' सलाहदाता की श्रेणी में आते हैं। इनमें सलाह देने की विशेष उत्कंठा नहीं होती। न ही ये सलाह देने के लिए माहौल बनाते हैं। लेकिन मौका मिले तो चूकते नहीं हैं।

दूसरी श्रेणी स्वयंभू बुद्धिजीवी सलाहदाताओं की है। हर शहर में ये 10 से 15 प्रतिशत के बीच पाये जाते हैं। आम आदमी से दो अख़बार ज़्यादा पढ़ते हैं। वक़्त निकाल कर गीता के कुछ उपदेश रटते हैं और किसी भी न समझ आने वाली बात को, कबीर या तुलसीदास के दोहे का हिंदी रूपांतरण बता, लोगों को धमकाते हैं। ओए गुरु!

सलाह के रंगमंच पर ये शुरूआत तो आत्मसंशय से करते हैं, लेकिन दाद मिलने के बाद ओवरएक्टिंग शुरू कर देते हैं। ज़बरदस्ती की छूट लेने लगते हैं। राह चलतों पर घात लगाकर हमला करते हैं। पढ़ने वालों को कहते हैं, धंधा करो। धंधा करने वालों को समझाते हैं कि 'जीवन के और भी मायने हैं' और जीवन समझने में लगे लोगों को धिक्कारते हैं, 'किस फिज़ूल के काम में लगे हो, भला आज तक कोई जान पाया है जीवन क्या है!' समझो गुरू समझो!

आपके सुख-दुख से इन्हें कोई सरोकार नहीं। इन्हें बस सलाह देनी है। सलाह देना ही इनका जीवन है। इसी में ये पूर्णता महसूस करते हैं। ऐसे लोग सामाजिक दायरे के जिस टापू में रहते हैं, वहां ऐसे आठ-दस लोगों की पहचान कर ही लेते हैं जो इनकी सलाहों के परमानेंट ग्राहक बन पाये।

तीसरी श्रेणी में आते हैं पेशेवर सलाहदाता। ऐसे सलाहदाता जिनके पास सलाह देने का लाइसेंस हैं। इनमें करियर काउंसलर हैं, मनोविज्ञानी हैं, डाइटिशयन हैं। लेकिन विडम्बना है कि हम आधों को हिंदी के नाम तक नहीं दे पाये हैं। ये सब पैसे लेकर सलाह देते हैं लेकिन हम अपने मौहल्ले की किसी भी मुफ्त क्लिनिक में अपना इलाज, 'बड़े भाई' या 'दुनिया देख चुके' सरीख़े किसी शख़्स से करवा लेते हैं। लेकिन ये सलाहदाता परवाह नहीं करते। उदारीकरण से लाभान्वित हुए कुछ चुनिंदा लोग इनके 'मोटे ग्राहक' हैं।

दिल कर रहा है सलाह पर और लिखूं मगर मित्र सलाह दे रहा है कि लोगों को बहुत पका लिया इससे पहले की वो झड़ कर गिर पड़े, रुक जाओ। मैं रुकता हूं, आप पढ़ें।

सोमवार, 7 जुलाई 2008

चीनी ग़म है!

इन दिनों दो लोग ख़ासी चर्चा में हैं। डॉक्टर मनमोहन और कम्पांउडर कृष्णा। मगर दोनों के इधर जिन पर सब की निगाहें हैं वो हैं वहम के मरीज़, वहमपंथी। पांचवी पास से तेज़ भी नहीं समझ पा रहा है कि परमाणु डील पर उनका एतराज़ क्या है। वहमपंथी लगातार कह रहे हैं कि डील देशहित में नहीं है। मगर ये नहीं बता रहे, किस देश के हित में? भारत या चीन? जानकारों को वहमपंथियों की मंशा पर श़क है। लिहाज़ा वो सलाह दे रहे हैं कि उनका लाई डिटेक्टर टेस्ट करवाया जाए। वहीं कुछ अति-उत्साहित ब्रेन मैपिंग की बात भी कर रहे हैं। कुल मिलाकर देश नहीं जान पा रहा कि डील पर एतराज़ की असली वजह वहमपंथियों की स्वाभाविक राष्ट्रीय चिंता है, अनुवांशिक अमेरिकी एलर्जी या फिर पैदाइशी चीन प्रेम। ख़ैर, इस मामले पर मैंने एक वरिष्ठ वहमपंथी से बात की। पेश हैं उसके कुछ अंश।

मैं-सर, देश नहीं समझ पा रहा कि डील को लेकर आख़िर आपका एतराज़ क्या है। वहमपंथी-बेटा, जो बात देश नहीं समझ पा रहा, वो तुम्हारे भेजे में क्या बैठेगी। ‘फिर भी कुछ तो बताएं।‘ वहमपंथी-संघी हो क्या? एक बार में समझ नहीं आती। ‘मतलब आप डील पर बात नहीं करेंगे।‘ वहमपंथी-बिल्कुल नहीं। ‘तो फिर ऐसा क्या पूछूं आपसे, जिस पढ़ने में लोग इंटरेस्टेड हों।‘ वहमपंथी- हल्की-फुल्की बात तो हो ही सकती है।

‘अच्छा तो ये बताएं आख़िरी फिल्म कौन-सी देखी आपने।‘ वहमपंथी-चीनी कम। ‘अरे वाह! वो तो काफी बोल्ड सब्जेक्ट पर थी। वहमपंथी-बोल्ड-इटैलिक को गोली मारो, मुझे तो लगा शायद किसी ने चीन के खिलाफ साज़िश की है। चीनी कम है, हमला करो।

‘चलिए, चीनी को छोड़ते हैं। खाने की बात करते हैं। बंगाली फूड के अलावा ज़्यादा क्या पसंद है। वहमपंथी-चाइनीज़! ‘मगर चाइनीज़ का टेस्ट आपने कैसे डिवेलप किया।‘ वहमपंथी- वो मेरी डिवेलपमंट के साथ ही डिवेलप हुआ है। ‘मतलब, मामला स्वाद से ज्यादा संस्कारों का है।‘ वहमपंथी-जी, बिल्कुल।

‘आप बंगाली हैं, फुटबॉल में तो आपकी दिलचस्पी होगी, यूरो देखा?’ देखिए, पश्चिम की तरफ ताकने की आदत हमारी नहीं है। वो तो बीजेपी और कांग्रेस का चरित्र है। ‘फिर भी किसी खेल में तो दिलचस्पी होगी।‘ वहमपंथी- हां, एक इवेंट का मुझे बेसब्री से इंतज़ार है। ‘वो कौन-सा?’ बीजिंग ओलम्पिक!

‘और एक आख़िरी सवाल, घूमने-फिरने का शौक तो होगा, कोई फेवरेट टूरिस्ट प्लेस।‘ वहमपंथी-ऐसी तो एक ही जगह है। ‘वो कौनसी।‘ वहमपंथी- द ग्रेट वॉल ऑफ चाइना। ‘मतलब चीन की महान दीवार।‘ दरअसल वहीं से हमें प्रेरणा मिलती है कि जहां कहीं से चीन को ख़तरा हो वहां दीवार खड़ी कर दो।

सोमवार, 30 जून 2008

लफ़्ज़-ए-मोहब्बत

मुस्कुराहट

अदाएं
मुस्कुराहटें
तो वो हर्फ़ हैं
जिनके सिलसिले
मोहब्बत लफ़्ज़
लिखते हैं

तुम बताओ
अदाओं
मुस्कुराहटों के
इस सिलसिले में
बातों
मुलाकातों
के हर्फ़
कब जुड़ेंगे

कब हम
इश्क की इबारत लिखेंगे
प्यार के झूठे-सच्चे वादे करेंगे
छिपते-छिपाएंगे
आंसू बहाएंगे

बताओ अजनबी
कब तक सिर्फ़
मुस्कुराओगी!


दिलचस्पियां

मेरी दिलचस्पियों को समझाओ
वो नाउम्मीद हो जाएं
क्यों कर वो सोचें
बात का
मुलाकात का
इक लम्स (स्पर्श) के एहसास का!


शुक्रिया

न जाने किसे ढूंढती वो चांदनी
तुम्हारी आखों में आई
और ठहर गई,

किस शबनम को तलाश्ता गुलाब
इन होठों से छूआ
और कुर्बान हुआ,


किस फिज़ा ने क़ाइनात
की कूची से रंग चुराये
और इन अदाओं
में घोल डाले,


अहसान फ़रामोश तुम सही,
मगर मैं तो नहीं,

तलाशता हूं
उस चांदनी
उस गुलाब और
उस फिज़ा को
शुक्रिया कहने!

हिंदी लेखकों से सबक लें! (हास्य-व्यंग्य)

मौसमी बीमारियों की तरह इस देश में बहुत से मौसमी रोने भी हैं। मसलन, हर साल आने वाली बाढ़ के बाद डिज़ास्टर मैनेजमेंट की बात की जाये, हर आतंकी हमले के बाद सुरक्षा एजेंसियों पर जानकारी न होने का इल्ज़ाम लगे, हर विदेशी दौरे में हार के बाद देश में तेज़ पिचें बनाने की ज़रूरत महसूस की जाये और हर रेल हादसे के बाद रेलों की जर्जर व्यवस्था के आधुनिकीकरण की मांग उठे।


मतलब जब कुछ किया जाना चाहिये तब सोए रहें और हादसा हो जाने पर छाती पीटें कि हाय! हमने ये कर लिया होता तो कितना अच्छा होता।

अब सवाल ये है कि किसी भी मसले को लेकर हम प्रो-एक्टिव क्यों नहीं रहते ? आखिर लकीर पिटने को हमने अपना राष्ट्रीय चरित्र क्यों बना लिया है ?

दोस्तों, मुझे लगता है इस मामले में हमें हिंदी लेखकों और उनमें भी व्यंग्यकारों से सबक लेना चाहिये। इस देश का हिंदी व्यंग्यकार जितना प्रो-एक्टिव है उतना अगर सरकार और बाकी संस्थाएं भी हो जाएं तो सारी समस्या हल हो जाये। मैं ऐसे-ऐसे लेखकों को जानता हूं जो मॉनसून आते ही डेंगू पर व्यंग्य लिख लेते हैं और कुछ अतिउत्साहित तो भेज भी देते हैं और फिर फोन कर संपादक को समझाते फिरते हैं कि किस तरह आप इसका इस्तेमाल सितम्बर महीने के तीसरे हफ्ते में कर सकते हैं। क्या हुआ जो अभी जुलाई ही शुरु हुआ है।

अभी कल एक सम्पादक ऐसे एक इक्तीस मार खां लेखक के बारे में बता रहे थे जिसने परमाणु डील पर लेफ्ट के समर्थन को लेकर उन्हें दो लेख भेज दिए और अलग से लिख भी दिया कि अगर लेफ्ट समर्थन वापिस ले और सरकार गिर जाए तो ये वाला लेख छाप सकते हैं और अगर समाजवादी पार्टी के समर्थन से बच जाए तो ये वाला । मैंने पूछा लेकिन इसमें क्या दिक्कत है। संपादक बोले दिक्कत......दिक्कत ये है कि लेख भले ही कितना घटिया हो, लेखक तो मानकर चलता है कि दोनो ही छपने लायक हैं!

ये तो हुई बात सम्पादक की। फिर मैं एक ऐसे ही एक इक्तीस मार खॉ प्रो-एक्टिव लेखक से मिला। मैंने उनके इस नज़रिये की वजह पूछी तो बोले डियर, आज के दौर में सब कुछ इंस्टेंट कॉफी की तरह है। अब सरकार इंस्टेंट कार्रवाई करे न करे, एक लेखक के लिए ज़रूरी है कि वो इंस्टेंट रिएक्शन के लिए तैयार रहे। आपको हमेशा एंटीसिपेट करते रहना पड़ता है कि क्या हो सकता है ? लेखक की इस सोच से मैं काफी प्रभावित हुआ। मैंने कहा अच्छा सर, अब जाने से पहले ये भी बता दीजिये हाल- फिलहाल आपने क्या लिखा है? हाल-फिलहाल तो मैंने एशिया कप के फाइनल में भारतीय टीम की हार पर लिखा है.....फिर थोड़ा रूककर बोले हैरान मत हो....जीत पर भी लिखा है।

गुरुवार, 26 जून 2008

ठाकरे ले लो, सरबजीत दे दो! (हास्य-व्यंग्य)

तमाम कोशिशों के बावजूद सरबजीत की रिहाई होते न देख भारत ने मुशर्रफ को दिल्ली आने का न्यौता दिया। भारतीय अधिकारी-मुशर्रफ साहब रिहाई को लेकर हम पर लगातार दबाव बढ़ता जा रहा है, अब तो कोई रास्ता निकालना ही होगा। मुशर्रफ-देखिए, दबाव तो मुझ पर भी कम नहीं है। वैसे भी आगरा वार्ता के बाद खाली हाथ लौट, एक बार मैं अपनी फजीहत करवा चुका हूं। भा.अधि-मतलब? मुशर्रफ-मतलब साफ है। सरबजीत के बदले आप अपना सबसे काबिल, चर्चित और होशियार आदमी हमें दे दें। भा.अधि-तो आप सौदेबाज़ी करना चाहते हैं......... ठीक है अगर ऐसी ज़िद्द है तो आप सरबजीत हमें सौंप दें और उसके बदले.......मुशर्रफ-उसके बदले क्या? भा.अधि-उसके बदले राज ठाकरे ले जाइये। मुशर्रफ चिल्लाते हुए खड़े हो जाते हैं-लाहौल विलाकुव्वत, इस वाहियात बात के लिए आपने हमें दिल्ली बुलाया है, अब हम यहां एक पल भी नहीं रूक सकते, टेम्पो बुलाओ।
भारतीय अधिकारी-आप बैठिये तो सही। अगर राज मंजूर नहीं तो हम और ऑप्शन दे सकते हैं। हमारे यहां 'नगीनों' की कमी नहीं है। ऐसा करें आप सरबजीत दे दें, और राखी सावंत ले लें।

मुशर्रफ-देखिए, मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आप समझौता करना चाह रहे हैं या ज़्यादती? राज ठाकरे या राखी सावंत लेने से अच्छा है आप हमें शक्ति कपूर दे दें। भारतीय अधिकारी-सीरियसली! मुशर्रफ-आप मज़ाक भी नहीं समझते। आपकी तरह हमारे यहां भी सर्कस का धंधा चौपट हो चुका है, चिड़ियाघरों पर ताले लगे हैं, ऐसे में आप ही बताएं, भला क्या करेंगे हम शक्ति कपूर का?
मुशर्रफ(थोड़ा रुककर)- देखिए, इंडियन म्यूज़िक की पाकिस्तान में बड़ी धूम है, उसकी कोई हस्ती हमें ऑफर करें, लता मंगेशकर या सोनू निगम..... उनके बारे में सोचिए। भा.अ.-देखिए, उन्हें तो हम आपके बदले भी नहीं देंगे। आपको अच्छी आवाज़ से मतलब है न, ऐसा करें आप हिमेश रेशमिया ले लें। मुशर्रफ-देखिए, हमें नगमे सुनने हैं, मस्जिदों से कौए नहीं उड़वाने। चलिए, आप हमें अमिताभ बच्चन दे दीजिए। भा.अ-मुशर्रफ साहब, अमिताभ को दे भी दिया तो आप लेंगे नहीं। मुशर्रफ-वो क्यों?

भा.अ- वो इसलिए क्योंकि उनके साथ अमरसिंह फ्री है। मुशर्रफ-तौबा, तौबा, तौबा....खैर छोड़ें....ये बताएं हिंदुस्तानी क्रिकेट टीम आजकल काफी अच्छा खेल रही है, ..सचिन, सौरव या द्रविड़ में से कोई मिल जाए तो...भा.अ-जिन खिलाड़ियों के आप नाम ले रहे हैं ये सब तो एक-आध साल में रिटायर हो जाएंगे, मेरी मानें आप आशीष नेहरा ले लें, उसके साथ कॉम्बो ऑफर में मुनाफ पटेल भी ले सकते हैं....आप भी क्या याद रखेंगे चलिए बालाजी भी दिया।
मुशर्रफः(जो अब तक आपा खो चुके थे) मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आप खिलाड़ियों के नाम गिना रहे हैं या मरीज़ों के। इन खिलाड़ियों के साथ तो आपको एक डॉक्टर भी देना पड़ेगा। भा.अ.-हां दे देंगे न, आप भारत के सबसे मशहूर डॉक्टर को ले लीजिए। मुशर्रफ-कौन, डॉक्टर त्रेहन? भारतीय अधिकारी-नहीं, डॉक्टर तलवार!

मंगलवार, 24 जून 2008

सड़क पर लोकतंत्र! (व्यंग्य)

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में आम शिकायत है कि कहीं भी लोकतंत्र नहीं है। हर जगह ताकतवर और भ्रष्ट लोग भरे हैं। बात ठीक है। मगर मेरा मानना है कि इस देश में एक जगह ऐसी है जहां पूरी तरह लोकतंत्र है और वो है सड़क!

सड़क में जिस जगह मैं रूका हूं वहां मर्सिडीज़ के बगल में एक मोटरसाइकिल वाला, उसके बगल में साइकिल सवार, बीच में एक बैलगाड़ी, कुछ हाथ रिक्शा और आगे नगर निगम का कचरा ढोने वाला एक ऐसा ट्रक खड़ा है, जिसे देख लगता है कि उसका इस्तेमाल द्वितिय विश्व युद्ध के वक़्त से किया जा रहा है! बहरहाल, आसपास खड़े हम तमाम लोगों के लिए ये कुछ मीटर का दायरा इस मुल्क में इकलौता मंच है जिसे हम एक साथ शेयर कर पा रहे हैं!

ये मंच एक मायने में लोकतंत्र ही नहीं, खुला लोकतंत्र है, क्योंकि ये किसी भी तरह के लेन के बंधन से मुक्त है। आप जहां चाहे गाड़ी चला सकते हैं, जहां चाहे गाड़ी घुसा सकते हैं, और जहां चाहे गाड़ी चढ़ा भी सकते हैं! इसके अलावा जितनी फ्रस्टेशन हो, वो आप सड़क पर निकाल लें। मसलन, आप मोटरसाइकिल पर हैं और सोच रहे हैं कि स्साला, इतनी जगह अप्लाई कर दिया आज तक कहीं से कोई कॉल नहीं आया, ये कम्पनी वाले पता नहीं खुद को क्या सोचते हैं ? तभी आप देखते हैं सामने एक लम्बी काली गाड़ी चल रही है, अब सोचिये हो न हो उन्हीं कम्पनियों में से किसी एक का सीईओ इस गाड़ी में सवार है। अब उस गाड़ी के आगे से एक गंदा कट मारिये, फिर उस कार के आगे आ जाइये और उसे काफी देर तक साइड मत दीजिये। वो भले ही कितने हॉर्न दे, मगर नीचा दिखाने के इस मिशन से आपको पीछे नहीं हटना है। हो सकता है इस दौरान ये सोच शर्म भी आये कि ये सब करने के लिए तो भगवान ने मुझे धरती पर नहीं भेजा, मगर शर्मिंदा न हों। साहित्य की ज़बान में इसे भावानात्मक विस्फोट कहते हैं, और ऐसा कर आप कविता रच रहे हैं। लिहाज़ा, छंद पर यानि हैंडल पर ध्यान दें!

इसके अलावा आपको ये शिकायत भी रही है कि भ्रष्टाचार को लेकर हमारा लोकतंत्र समान अवसर नहीं देता। मगर, सड़क का लोकतंत्र ये शिकायत भी दूर करता है। सामने रेड लाइट है। चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस वाला भी नहीं। आप बिना सोचे समझे रेड लाइट तोड़ दें। अवसर के मामले में रेड लाइट तोड़ने के भ्रष्टाचार पर जितना हक़ एक कार वाले का है, उतना ही आपका भी।

कुल मिलाकर सड़क लोकतंत्र की इस हद तक सच्ची नुमाइंदगी करती है कि लोकतंत्र को चलाने वाले नेताओं ने आम आदमी को सड़क पर ला दिया है, और वो भी सिर्फ इसलिए ताकि वो उस लोकतंत्र का सही मज़ा ले पाए।

सोमवार, 23 जून 2008

न मिले सुर मेरा तुम्हारा ! (हास्य-व्यंग्य)

संगीत प्रतिभाओं के अलावा इन दिनों इन कार्यक्रमों के जजों की भी काफी धूम है। जिस तरह ये लोग चिल्लाते पाए जाते हैं, हो सकता है एक पल के लिए आप ठिठक जायें....सोचने लगें...अरे! ऐसी आवाज़ मैंने कहां सुनी है और फिर याद आये बस अड्डे पर! अक्सर कन्डक्टर इसी अंदाज़ में चिल्ला-चिल्ला कर सवारियों को आवाज़ लगाते हैं। खैर, इस समानता का एक फायदा ये है कि कल को अगर इनके पास काम न भी रहे तो करियर के रूप में एक विकल्प और है।

बहरहाल, भला इंसान जो आंख बंद कर सुर साध रहा था गाना ख़त्म कर जैसे ही आंख खोलता है, जज चिल्लाता है, तुम्हारी हिम्मत कैसे पड़ी ये गाना गाना की ? ये कुछ ऐसे ही साउंड करता है जैसे होटल मालिक बैरे को डांट रहा हो कि तुम्हारी हिम्मत कैसे पड़ी ये खाना खाने की। लो नोट्स पर तुमने क्या गाया, कुछ साफ नहीं था और हाई नोट्स तो तुमने लगाये ही नहीं। गायक परेशान है। हे ईश्वर! ये नोट्स कब मेरा पीछा छोड़ेंगे। स्कूल में कभी नोट्स बनाए नहीं, कॉलेज में पढ़े नहीं, इन सबसे भाग कर गायक बनने चला तो ये महोदय बता रहे हैं कि तुम नोट्स का सत्यानाश कर रहे हो।

खैर, जैसे-तैसे लड़का खुद को सम्भालता है, शब्दों को तलाशता है और माफी मांगने ही लगता है कि दूसरा जज बीच में कूद पड़ता है, ‘नो स्माइल खबरदार जी, आप कैसे कह सकते हैं कि कानफाड़ू राम ने हाई नोट्स नहीं लगाये। अरे! मैं दावा करता हूं जितना अच्छा इसने गाया है उतना तो इस गाने के मूल गायक नगर निगम ने भी नहीं गाया।‘ नो स्माइल के अहम को ठेस लगती है। वो चिल्लाता है- हिमेश सुख-चैनलिया जी, तो आप कहना क्या चाहते हैं, मुझे गायकी की समझ नहीं? हिमेश सुख-चैनलिया चूंकि आदतन मुंहफट है, कह देता है, नो स्माइल' जी, अगर आपको कानफाड़ू राम का ये गाना समझ नहीं आया तो मुझे ये कहने में कोई हर्ज़ नहीं कि आपको गायकी की समझ नहीं है। नो स्माइल' का चेहरा जूम इन-जूम आउट, बीस सैकिंड तक नाटकीय संगीत।

नो स्माइल' आपा खोता है 'अबे' तू समझता क्या है अपने आप को ? सुभानल्लाह! इस 'अबे' के साथ ही बातचीत हाईवे से निकल कर पुरानी दिल्ली के गली में घुस गई है। माहौल काफी हद तक ढाबेनुमा हो गया है। जनरल डिब्बे में सफर करने वाला घर बैठा दर्शक ये सब देख रोमांचित है। उसे छह महीने पहले गोमती एक्सप्रेस में हुए एक झगड़े की याद आती है। बुल फाइट के अंदाज़ में लड़ने के लिए तैयार इन धुरंधरों के प्रति उसके मन में आस्था और गहराती है। वो रियलाइज़ करता है उसके जितने बदतमीज़ होने पर जब ये लोग इतने बड़े संगीतकार बन सकते हैं तो वो क्यों नहीं ? चैनल की प्रोजेक्टेडे लड़ाई में दर्शक को सार्थकता मिल जाती है।

शुक्रवार, 20 जून 2008

मुहावरों में पिलती बेचारी सब्ज़ियां (हास्य-व्यंग्य)

बीवी ने अगर सब्ज़ी अच्छी नहीं बनाई तो आप किस पर गुस्सा निकालेंगे? बीवी पर या सब्ज़ी पर। निश्चित तौर पर बीवी पर। लेकिन, इस देश में मर्द चूंकि सदियों से बीवी से डरता रहा है, इसीलिए उसने चुन-चुन कर सब्ज़ियों पर गुस्सा निकाला दिया। यही वजह है कि ज़्यादातर मुहावरों में सब्ज़ियों का इस्तेमाल 'नकारात्मकता' बयान करने में ही किया गया है। मुलाहिज़ा फरमायें।


तू किस खेत की मूली है: एक सर्वे के मुताबिक औकात बताने के लिए इस मुहावरे का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है और अगर आपका खून पानी नहीं हुआ तो ये सुनते ही वो खौल उठेगा और आप झगड़ बैठेंगे। मगर क्या किसी ने सोचा है इससे 'मूली के कॉन्फीडेंस' पर कितना बुरा असर पड़ता होगा ? कितना नुक़सान होता है उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा का?

क्या मानव जाति भूल गई बरसों से मक्खन लगा कर वो इसी मूली के पराठें खाती रही है ? नमक लगी, नीम्बू छिड़की कितनी ही मूलियां रेहड़ियों पर उसके हाथों शहीद हुई हैं। प्याज महंगे होने पर यही मूली सलाद की प्लेंटे भरती आई है। मगर ये एहसान फरामोश इंसान, इसने तो बड़ो-बड़ो को कुछ नहीं समझा, तो ये मूली आखिर किस खेत की मूली है!

थोथा चना बाजे घना- मूली के बाद जिस सब्ज़ी का मुहावरों में सबसे नाजायज़ इस्तेमाल किया गया है, वो चना है। उस पर भी चने का इतने मुहावरों में इस्तेमाल हो चुका है कि अलग से एक पॉकेट बुक निकाली जा सकती है। थोथा चना बाजे घना, अकेला चना भाड़ नहीं भोड़ सकता, लोहे के चने चबाना, चने के झाड़ पर चढ़ाना। ऐसा देश जहां प्रति सैकिंड एक भावना आहत होती है। चने की भावना का क्या ? यक़ीन मानिये अगर सब्ज़ियों की तरफ से मानहानि के मुक़दमें दायर हो सकते, तो हर बंदा चने के खिलाफ एक-आध केस लड़ रहा होता!

एक अनार सौ बीमार:-चरित्र हनन नाम की अगर वाकई कोई चीज़ है, तो अनार से ज़्यादा बदनामी किसी की नहीं हुई। जिंदगी भर आम आदमी अनार का जितना जूस नहीं पीता, उससे कहीं ज़्यादा ये कहावत बोल-बोल कर निकाल देता है। टारगेट कोई, मरा कोई जा रहा और घसीटा जाता है बेचारे अनार को। सोचता हूं अनार को कितनी शर्मिंदगी झेलनी पड़ती होगी, जब उसके बच्चे पूछते होंगे मम्मी लोग आपके बारे में ऐसा क्यों कहते हैं ?

थाली का बैगन- बैगन अपने रंग रुप के चलते बिरादरी में तो राजा है लेकिन कहावतों में उसकी औकात संतरी से ज़्यादा नहीं! किसी को भी रीढ़विहीन, दलबदलू कहना हो तो थाली का बैगन कह दो। इतिहास गवाह है कि किसी भी युग में जनता द्वारा राजा की इतनी भद्द नहीं पिटी गई। गाजर मूली तक ठीक है। मगर बैगन के स्टेट्स का तो ख़्याल रखो। जब से धनिये ने ये कहावत सुनी है वो बैगन को आंख दिखाने लगा है। चल बे! काहे का बैगन राजा। सब पता है तेरी औकात का।

दाल में कुछ काला है- भ्रष्टाचार के नए आयाम स्थापित करते-करते एक रोज़ भारतीय समाज ऐसी जगह पहुंचा जहां सब्ज़ियां कम पड़ गई, लिहाज़ा दालों को निंदा कांड में घसीटना पड़ा। भ्रष्टाचारी घपले करने लगे। शरीफों ने सीधे न बोल कह दिया दाल में कुछ काला है। जांच हुई तो पता चला पूरी दाल ही काली है। फिर दावा किया गया अरे ये तो काली दाल है। इस तरह दाल को गड़बड़ी का प्रतीक बना उसकी मार्केट ख़राब कर दी गई।

लड़के से लड़की नहीं पटी और दोस्तो ने छेड़ दिया क्यों दाल नहीं गली क्या? नाकामी को दाल न गलने से जो़ड़ दिया। हक़ीकत तो ये है कि सभी दालें दो सीटियों में गल जाती है। मुझे नहीं याद आता कि आज तक किसी दाल ने न गलने की ज़िद्द की हो।

इसके अलावा गाजर-मूली की तरह काटना,खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है, करेला नीम चढ़ा सरीखी कुछ ऐसी कहावतें हैं जो बताती हैं कि सब्ज़ियों की ऐसी-तैसी करने में हम कितने लोकतांत्रिक रहे हैं!

बुधवार, 18 जून 2008

प्यार के साइड इफेक्ट्स! (हास्य-व्यंग्य)

कॉलेज चुनने को लेकर लड़कों के सामने एक सवाल यह भी होता है कि गर्लफ्रेंड किस कॉलेज में जा रही है। वो कौन-सा सब्जेक्ट ले रही है। अच्छे-भले पढ़ाकू भी प्यार में बेकाबू हो जाते हैं। बनना तो कलेक्टर चाहते थे, मगर दाखिला होम साइंस मे ले लिया। इस पर भी मज़ा ये कि जिस रुपमती के लिए करियर दांव पर लगा दिया, उसे कानों-कान इसकी ख़बर नहीं।


चार साल स्कूल में साथ गुज़ारे। कॉपियों के पीछे तीर वाला दिल बना उसका नाम लिखा। दोस्तों में उसे ‘तुम्हारी भाभी’ कहा। स्कूल में ही पढ़ने वाले ‘उसकी सहेली के भाई’ से दोस्ती की। उसी मास्टर से ट्यूशन पढ़ी जहां वो जाती थी। इस हसरत में कि घंटा और पास रहेंगे, बावजूद इसके बात करने की हिम्मत नहीं।

फिर एक रोज़ ‘प्रेम पत्रों के प्रेमचंद’ टाइप एक लड़के से लैटर लिखवाया। सोचा, आज दूं, कल दूं, स्कूल में दूं या बाहर दूं। डायरेक्ट दूं या सहेली के भाई से कूरियर करवाऊं जिससे इसी दिन के लिए दोस्ती गांठी थी। मगर किया कुछ नहीं। बटुए में पड़े-पड़े ख़त की स्याही फैल गई। पता जानने के बावजूद उसकी डिलीवरी नहीं हो पाई। वो पर्स में ही पड़ा रहा। और ये बेचारा बिना महबूब का नाम पुकारे हाथ फैलाए खड़ा रहा।


मगर अब कॉलेज में पहुंचे गए हैं। दोस्तों ने कहा रणनीति में बदलाव लाओ। रिश्ते की हालत सुधारना चाहते हो तो पहले अपना हुलिया सुधारो। दर्जी से पैंटें सिलवाना बंद करो, रेडीमेड लाओ। अपनी औकात भूल आप उनकी बात मानते हैं। बरबादी के जिस सफर पर आप निकले हैं उस राह में हाइवे आ चुका है। आप गाड़ी को चौथे गीयर में डालते हैं।

और इसी क्रम में आप गाड़ी के लिए बाप से झगड़ा करते हैं। वो कहते हैं कि बाइक की क्या ज़रुरत है? 623 कॉलेज के आगे उतारती है। इस ख़्याल से ही आप भन्ना जाते हैं। अगर उसने बस से उतरते देख लिया तब वो मेरे वर्तमान से अपने भविष्य का क्या अंदाज़ा लगाएगी। आप ज़िद्द करते हैं। मगर वो नहीं मानते। आप इस महान नतीजे पर पहुंचते हैं कि सैटिंग न होने की असली वजह मेरा बाप है। और ऐसा कर वो खुद को बाप साबित भी कर रहा है। इधर जिस लड़की के लिए आप बाप को पाप मान बैठे हैं उसे इस दीवाने की अब भी कोई ख़बर नहीं।


हो सकता है फिर एक रोज़ आपको लड़की के हाथ में अंगूठी दिखे और आप सोचें कि करियर की बेहतरी के लिए उसने पुखराज पहना है। पर सवाल ये है कि पुखराज ही पहना है तो सहेलियां उसे बधाई क्यों दे रही हैं!

गुरुवार, 12 जून 2008

अधूरी समझदारी!

सिलेंडर पचास रुपये महंगा हुआ और पेट्रोल पांच रुपये। सफाई में प्रधानमंत्री ने कहा कि बड़ी मजबूरी में ये 'मामूली' वृद्धि करनी पड़ी। मतलब, मजबूरी तो बड़ी थी फिर भी वो ज़्यादा मजबूर नहीं हुए। सोचिए, अगर मजबूरी के हिसाब से वो मजबूर हो जाते तो सिलेंडर दो हजार का भी हो सकता था और पेट्रोल पांच सौ का भी। मगर, मजबूरी के अनुपात में मजबूर न होने के श्री सिंह के अदम्य साहस के कारण ऐसा नहीं हुआ।

इस पर भी तारीफ करने के बजाए हम उन्हें कोस रहे हैं। मैं पूछता हूं रसोई गैस महंगी हो भी गई तो क्या? गैस की ज़रुरत तो तब पड़ेगी न जब कुछ पकाओगे और पकाओगे तब जब कुछ खरीद पाओगे।

इस स्तर पर भी सरकार की संवेदनशीलता को समझिए। रसोई गैस महंगी करने से पहले उसने सब्जियां महंगी कर दी। मतलब भूकंप से बचने का कोई रास्ता न दिखे तो मकान तोड़ बेफिक्र हो जाओ। भूकंप आ भी गया तो क्या? गैस महंगी कर सरकार जो भूकंप लाई है उसका क्या अफसोस? महंगाई बढ़ा..उसने चूल्हा तो पहले ही फोड़ दिया था। ताज़ा 'वार' तो मलबा हटाने की कार्रवाई भर है!

और चिल्लाने वाले लोग हैं कौन? देश के अस्सी करोड़ लोग तो दिन के बीस रुपये भी नहीं कमाते। ये लोग तो रसोई गैस यूज़ कर नहीं सकते। पेट्रोल क़ीमतों से इनका क्या सरोकार? इन्हें कौन-सा लॉंग ड्राइव पर जाना है। रही बात आत्महत्या करने की तो गांव-देहातों में पेड़ से लटक मरने का फैशन है, पेट्रोल छिड़क कर आग लगाना तो निहायत ही सामंती और शहरी तरीका है।

बाकी लोगों की तरह मेरी सरकार से कोई शिकायत नहीं है। मै बस यही चाहता हूं कि नासमझ जनता को समझाने के लिए वो कुछ लोकप्रिय कदम उठाए।

मसलन, सबसे पहले सर्वशिक्षा अभियान का ढकोसला ख़त्म हो। लोगों को समझाया जाए भाई लोगों, विकास का जो मॉडल हम अपना रहे हैं उसमें सरकारी स्कूल वालों के लिए कोई जगह नहीं है। पढ़-लिख कर ख़्वामखाह कुंठा पालोगे। खुद को बेरोज़गार मानोगे।

जो दिहाड़ी मज़दूरी तुम्हें अठाराह की उम्र में करनी है वो बारह में करो। हम बाल मज़दूरी से भी रोक हटा देंगे। दुकानों-ढाबों में काम करो। व्यवसायियों की सस्ती लेबर बनो। इससे उत्पाद लागत कम होगी। जनता को फायदा होगा। तुम्हारे मां-बाप को अर्निंग हैंड मिलेगा जिससे इस मंहगाई में उनकी भी कुछ मदद होगी। इस पर भी तसल्ली नहीं हुई तो चलो हम इच्छा मृत्यु की इजाज़त दे देते हैं। अब खुश!

शुक्रवार, 6 जून 2008

लैट्स प्ले निंदा-निंदा

भारत जैसे देश में आम आदमी के लिए निंदा से सस्ता मनोरंजन कोई नहीं है। निंदा एक ऐसा खेल है जो हमेशा 'डबल्स' में खेला जाता है। इसलिए ज़रुरी है कि पहले अच्छा पार्टनर ढूंढ लें। ऐसा शख्स.. जिसके मन में उतना ही ज़हर हो जितना आपके मन में है। इससे 'मोमन्टम' बनता है। निंदा वैसे तो कई विषयों पर की जा सकती है लेकिन इंसानी निंदा सबसे रसीली होती है।

एक अच्छे निन्दक के लिए ज़रुरी है कि वो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से दोस्ती करे। जितना बड़ा दायरा होगा, उतने ही ज़्यादा आप्शंस पास रहेंगे। अक्सर देखने में आता है कि दो-चार लोगों की बुराई करते करते बोरियत होने लगती है। इसलिये ज़रुरी है कि दस-पंद्रह लोगों से नज़दीकी बढ़ायी जाये। पार्टनर के साथ निंदा करने से पहले एक लिस्ट बना लें। जिसकी निंदा होती जाये उसके नाम के आगे टिक लगा ले। ऐसा करने से रेपिटिशन से बचेंगें।

निंदा के दौरान जिसे भी आप निपटा रहे हैं, उसका असली नाम कभी न लें। क्रिएटिविटी और गालियों के जैसे संस्कार आप में है, उसके हिसाब से एक 'उपनाम' दें। ऐसा करने से निंदा का मज़ा दोगुना हो जाता है और ज़रुरी पंच भी मिल जाता है।

सिर्फ बुरे आदमी की निंदा न करें। ऐसा कर आप 'सेफ' खेलेंगें। जिसकी सारी दुनिया बुराई कर रही है, उसकी बुराई कर 'निंदा साहित्य' में आप अमर योगदान नहीं दे पायेंगें। ऐसे लोगों की बुराई करें जो 'भले आदमी' के तौर पर बदनाम हैं। ऐसा करना चैलेंजिंग है।

मसलन...कोई आदमी काम करने में अच्छा है, लेकिन कम बोलता है। तो आप कहिये साला अकडू है... पता नहीं खुद को क्या समझता है। कोई आदमी बहुत लम्बा है, और आपको उसकी हाइट से जैलिसि है, तो कहिये साला ऊंट, कोई आदमी वैल मैनर्ड है और आप शर्मिंदा होते हैं कि मैं इतना तमीज़दार नहीं....तो कहिये साला काइयां हैं। ऐसा कर आप एक भले आदमी की इमेज तो स्पॉइल करेंगे ही, अपनी हीनता पर भी विजय पा लेंगें।

नैतिकता के मुद्दे पर कभी किसी की निंदा न करें। ऐसे वक़्त आप प्रगतिशील बन जायें। कोई आदमी शादी के बाद किसी से सम्बन्ध रखता है तो फौरन कहिये...यार ये उसकी मर्जी है....हमें 'इन्डिविजुअल फ्रीडम' की रेस्पेक्ट करनी चाहिये। उस आदमी की जगह खुद को रखिये, खुद-ब-खुद उसके बचाव में दलीलें मिलती जायेंगी!

एक अच्छे निन्दक की ख़ासियत ये है कि उसे खुद नहीं पता होना चाहिये कि वो किस विचारधारा का हिमायती है। ध्यान रखिये आपका काम निन्दा करना है। बखिया उधेड़ना है। सही-गलत के चक्कर में पड़ेंगे तो इस खेल का पूरा मज़ा नहीं ले पायेंगे। निन्दा करने का जोश कभी ढीला न पड़े.....इसलिये ज़रुरी है कि हमेशा खुद को समझाते रहें कि जो आप डिज़र्व करते हैं, वो आपको मिला नहीं।

और अंत में निन्दक ध्यान रखें... आलोचना और निंदा में फर्क होता है। आलोचना में तर्क होता है, सामने वाले की बेहतरी की इच्छा होती है। लेकिन निंदा में ऐसा कुछ नहीं। निंदा का मतलब है सामने वाले को सिरे से खारिज़ करना। मतलब....स्साला घटिया आदमी है।

बुधवार, 4 जून 2008

महंगाई पीड़ित लेखक का ख़त (हास्य-व्यंग्य)

सम्पादक महोदय,

पिछले दिनों महंगाई पर आपके यहां काफी कुछ पढ़ा। कितने ही सम्पादकीयों में आपने इसका ज़िक्र किया। लोगों को बताया कि किस तरह सरिया, सब्ज़ी, सरसों का तेल सब महंगे हुए हैं और इस महंगाई से आम आदमी कितना परेशान है। ये सब छाप कर आपने जो हिम्मत दिखाई है उसके लिए साधुवाद। हिम्मत इसलिए कि ये सब कह आपने अनजाने में ही सही अपने स्तम्भकारों के सामने ये कबूल तो किया कि महंगाई बढ़ी है।दो हज़ार पांच में महंगाई दर दो फीसदी थी, तब आप मुझे एक लेख के चार सौ रुपये दिया करते थे, यही दर अब सात फीसदी हो गई है लेकिन अब भी मैं चार सौ पर अटका हूं।आप ये तो मानते हैं कि भारत में महंगाई बढ़ी है, मगर ये क्यों नहीं मानते कि मैं भारत में ही रहता हूं? आपको क्या लगता है कि मैं थिम्पू में रहता हूं और वहीं से रचनाएं फैक्स करता हूं? बौद्ध भिक्षुओं के साथ सुबह-शाम योग करता हूं? फल खाता हूं, पहाड़ों का पानी पीता हूं और रात को 'अनजाने में हुई भूल' के लिए ईश्वर से माफी मांग कर सो जाता हूं! या फिर आपकी जानकारी में मैं हवा-पानी का ब्रेंड एम्बेसडर हूं। जो यहां-वहां घूम कर लोगों को बताता है कि मेरी तरह आप भी सिर्फ हवा खाकर और पानी पीकर ज़िंदा रह सकते हैं।महोदय, यकीन मानिये मैंने आध्यात्म के ‘एके 47’ से वक़्त-बेवक़्त उठने वाली तमाम इच्छाओं को चुन-चुन कर भून डाला है। फिर भी भूख लगने की जैविक प्रक्रिया और कपड़े पहनने की दकियानूसी सामाजिक परम्परा के हाथों मजबूर हूं। ये सुनकर सिर शर्म से झुक जाता है कि आलू जैसों के दाम चार रुपये से बढ़कर, बारह रुपये किलो हो गए, मगर मैं वहीं का वहीं हूं। सोचता हूं क्या मैं आलू से भी गया-गुज़रा हूं। आप कब तक मुझे सब्ज़ी के साथ मिलने वाला 'मुफ़्त धनिया' मानते रहेंगे। अब तो धनिया भी सब्ज़ी के साथ मुफ्त मिलना बंद हो गया है।नमस्कार।
इसके बाद लेखक ने ख़त सम्पादक को भेज दिया। बड़ी उम्मीद में दो दिन बाद उनकी राय जानने के लिए फोन किया। 'श्रीमान, आपको मेरी चिट्ठी मिली।' 'हां मिली।' 'अच्छा तो क्या राय है आपकी।' 'हूं.....बाकी सब तो ठीक है, मगर 'प्रूफ की ग़लतियां’ बहुत है, कम से कम भेजने से पहले एक बार पढ़ तो लिया करो!

मंगलवार, 3 जून 2008

जितनी तारीफ की जाये, ज़्यादा है!

जितनी तारीफ की जाये, ज़्यादा है!

तारीफ के मामले में हम हिंदुस्तानी इनकमिंग में यकीन करते हैं और आउटगोइंग से परहेज़। वजह, हम जानते हैं कि तारीफ कर देने का मतलब है सामने वाले को मान्यता देना और ऐसा हम कतई नहीं होने देंगे। हम चाहते हैं कि वो भी उतने ही संशय में जियें जितने में हम जी रहे हैं।

अगर किसी दिन हमारा कोई कलीग ब्रेंडेड शर्ट पहन कर आया है और वो उम्मीद कर रहा है कि हम शर्ट की तारीफ करें तो हमें नहीं करनी है। जैलिसी का पहला नियम ही ये है कि सामने वाला जो चाहता है, उसे मत दो! वो तारीफ सुनना चाहता है आप मत करो। अगर वो तंग आकर खुद ही बताने लगे कि मैंने कल शाम फलां शोरूम से अपने बुआ के लड़के के साथ जा ये शर्ट खरीदी थी तो भी हमें उसके झांसे में नहीं आना। इसके बाद भी वो अगर बेशर्म हो पूछ ही ले बताओ न कैसी लग रही है ? फिर भी आपके पास दो आप्शंस है।

पहला ये कि चेहरे पर काइयांपन ला मुस्कुरा दें, अब ये उसकी सिरदर्दी है इसका मतलब निकाले। दूसरा ये कि अगर आपकी अंतरआत्मा अब भी ज़िंदा है, और वो आपको धिक्कारने लगी है कि तारीफ कर, तारीफ कर..... तो 'ठीक है' कह कर छुटकारा पा लें। लेकिन ध्यान रहे... भूल कर भी आपके मुंह से 'बढ़िया', 'शानदार' या 'डैशिंग' जैसा कोई शब्द फूटने न पाये।

'दुनिया देख चुके' टाइप एक सीनियर ने मुझे बताया हमें तो अपनी प्रेमिकाओं तक की तारीफ नहीं करनी चाहिये। अगर वो ज़्यादा इनसिस्ट करें तो कह दो, डियर, तारीफ 'उस खुदा की' जिसने तुम्हें बनाया, या फिर तुम्हारी तारीफ के लिए 'मेरा पास शब्द नहीं है'। मतलब ये कि या तो आप ऊपर वाले को क्रेडिट दे दें, या फिर ‘सीमित शब्दावली' का बहाना बना अपनी जान छुड़ा लें, लेकिन तारीफ मत करें। वजह, एक बार अगर इमोशनल हो कर आपने प्रेमिका की तारीफ कर दीं, तो वो बीवी बनने के बाद भी उन बातों को 'सच मानकर' याद रखेगी। आप शादी के बाद झूठ बोलने का मोमेंटम बना कर नहीं रख पायेंगे। और फिर वो सारी उम्र आपको 'बदल' जाने के ताने देगी।

यहां तक तो ठीक है। मैंने सीनियर से पूछा मगर सर, हमारी भी तो इच्छा होती है कि कुछ अच्छा करें तो तारीफ हो। फिर? सीनियर तपाके से बोले, बाकी चीज़ों की तरह तारीफ के मामले में भी आत्मनिर्भर बनो! घटिया लेखक होने के बावजूद तुम्हें लगता है कि तुम्हारी किसी रचना की तारीफ होनी चाहिये और आसपास के लोगों में इतनी अक्ल नहीं है तो खुद ही उसकी तारीफ करो! वैसे भी हर रचना समाज के अनुभवों से निकलती है, उसमें समाज का उतना ही बड़ा योगदान होता है, जितना लेखक का। ऐसे में उस रचना की तारीफ कर तुम अपनी तारीफ नहीं कर रहे, बल्कि समाज का ही शुक्रिया अदा कर रहे हो!

शनिवार, 31 मई 2008

बहस की भसड़! (हास्य-व्यंग्य)

परिचयः-

मैं बहस हूं। लोग कहते हैं मेरा कोई फायदा नहीं, फिर भी मैं हर भारतीय की पहली पसंद हूं। पनवाड़ी की दुकान से पेज थ्री पार्टियों, और चाय के खोखे से कॉफी हाउस तक हर तरफ जमकर सुनी जा सकती हूं। इस तरह फ्रीक्वेंसी मे मैं एफएम स्टेशनों को भी पीछे छोड़ती हूं। महिलाएं, स्त्रीलिंग के तौर पर मेरे इस्तेमाल पर आपत्ति कर सकती हैं, मगर इसमें किसी का कोई दोष नहीं है।

हर इंसान के लिए मैं अलग मायने रखती हूं। बच्चों के लिए मैं ज़िद्द हूं, तो बेरोज़गारों के लिए कुंठा। औरतों के लिए दाम कम करवाने का ज़रिया हूं, तो बुद्धिजीवियों के लिए पहाड़ के साइज़ का नारियल, जिसमें सभी घंटों स्ट्रॉ ड़ाले मज़ा लेते हैं।

फायदे:-

सच कहूं तो मेरे इतने फायदे हैं कि हल्दी को भी हीनता होती है। मैं हूं तो संसद हैं, मैं हूं तो टीवी सीरियल हैं। मैं न होती तो संसद में सांसद क्या करते? टीवी सीरियलों में सास-बहुएं क्या करतीं? देश के बेरोज़गार क्या करते? और अहिंसा में विश्वास रखने वाले सरकारी बाबू, जो झक नहीं मारते, वो क्या करते ?

काम से बचने का भी मैं बेहतरीन तरीका हूं। कोई काम कहे, और आप न करना चाहें तो बहस करें। जैसे-तैसे ये साबित कर दें कि इस काम से कोई फायदा नहीं।

खुद ग़लती करके इल्ज़ाम सामने वाले पर लगा देने पर भी मैं छिड़ सकती हूं, इस तरह मैं 'सेल्फ डिफेंस' का भी पुख्ता बंदोबस्त हूं।

सावधानियां:-

-बॉस से किये जाने पर मैं नौकरी ले सकती हूं।
-गुस्सैल पिता से किये जाने पर घर से निकलवा सकती हूं।
-बीवी से किये जाने पर मैं जान भी ले सकती हूं।
-अधूरी जानकारी होने पर बेइज़्जती करवा सकती हूं।
-शौक बनने पर मैं आदत बन सकती हूं।
-आधे घंटे तक मेरा मतलब रहता है। फिर मैं रास्ता भटक जाती हूं । उसके बाद मैं ईगो का सवाल बन जाती हूं।
-हां, एक बात और, पूरे मज़े के लिए मुझे हमअक्ल लोगों के बीच ही किया जाये, वरना मैं बोरियत देनी लगती हूं।


आपत्तियां:-

न चाहते हुए भी अक्सर मुझे फिज़ूल के मुद्दों में ही घसीटा जाता है। खली की कुश्ती असली या नकली, मूर्ति ने दूध क्यों पीया? राखी सावंत ज़्यादा सैक्सी या मल्लिका शेरावत?

मैं उन बच्चों पर क्यों नहीं की जाती, जिन्हें पीने के लिए साफ पानी नहीं मिलता, बुनियादी शिक्षा नहीं मिलती, अच्छा खाना नहीं मिलता, मैं उन लोगों पर क्यों नहीं की जाती, जिनके लिए खुशी अब भी एक अफवाह है!
यही बात एक टीवी प्रोड्यूसर से पूछी तो कहने लगे, 'इन मुद्दों में विरोधाभास नहीं, कोई टकराहट नहीं तो बहस किस बात की? विरोध ही तुम्हारा यौवन है, उसी में तुम निखर कर आती हो और उसी में तुम्हारी टीआरपी भी आती है।'
मैं तिलमिलायी, 'आप लोग नेताओं को नैतिकता के मुद्दे पर कोड़े मारते हैं, आपकी खुद की कोई नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं? वो बोले-तुम अभी बच्ची हो, नहीं जानती। नैतिकता, जवाबदेही होने पर ही ज़िम्मेदारी बनती है। हमारी जवाबदेही नैतिकता के प्रति नहीं, टीआरपी के प्रति है। और डियर हम तो लोकतंत्र के चौथे खम्भे हैं। सभी सीसीटीवी कैमरे इसी खम्भे पर ही लगे हैं। इसी से हम सब पर नज़र रखते हैं। मैं बोली- 'लेकिन....' 'लेकिन-वेकिन छोड़ों दफा हो जाओ यहां से। बहस मत करो।‘

शुक्रवार, 30 मई 2008

न आपकी, न मेरी! (हास्य-व्यंग्य)

इतिहासकार इस बारे में कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है मोलभाव की शुरूआत भारत में आखिर कब हुई ? न किसी दरबारी कवि ने इस बारे में कोई संकेत दिया, न किसी शिलालेख में इसका सबूत मिला और न ही ऐसा किस्सा सुना कि किसी राजा ने दुकानदार को इसलिए हाथी के पैर के नीचे कुचलवा दिया क्योंकि उसने दो किलो कद्दू पांच रूपये फालतू में बेच दिये।

इतिहास मदद न करें फिर भी हर किसी ने बचपन से एक-एक रूपये के लिए 'जान दे भी सकता हूं और ले भी सकता हूं', टाइप बहसों के विहंगम दृश्य ज़रूर देखे हैं। इन बहसों से जु़ड़ी सबसे बड़ी खूबसूरती है दुकानदार और ग्राहक का ये विश्वास की सामने वाला मूर्ख है!

मोलभाव मेरे हिसाब से एक महान कला है जिसके लिए सबसे ज़रूरी गुण है बेशर्मी। दुकानदार के नाते सौ की चीज़ आठ सौ की बता रहे हैं तो एक पल के लिए भी माथे पर शिक़न नहीं आना चाहिये।

वहीं ग्राहक के नाते आपको दाम सुनते ही बिना कुछ बोले खड़े हो जाना है। दुकानदार प्रैशर में आ जायेगा। उसे लगने लगेगा कि उसने ज़्यादा होशियारी दिखा दी। गेंद अब उसके पाले में है। वो पूछेगा-क्या हुआ? आपको कुछ नहीं बोलना, वो फिर पूछेगा-बहनजी, कुछ तो बोलो। अब ऐसी जली बात करें कि उसकी आत्मा सड़ जाये। जली हुई बात सोचने के लिए दुकानदार में पति की सूरत देखें, बात खुद-ब-खुद सूझ जाएगी! इसी बहाने पति से ये शिकायत भी दूर हो जाएगी कि आपका इस्तेमाल क्या है ?

खैर, दुकानदार कहेगा बैठिये। आप बैठ जायें। हो सकता है इतनी देर में कोई लड़का ठंडा ले आए। मगर आप भूलकर भी इसे न पिएं। दस का ठंडा आपका तीन सौ का नुक़सान भी कर सकता है। दुकानदार के नाते कहिये बहनजी, हमारा उसूल नहीं कि दो सौ की चीज़ को आठ सौ का बता, पांच सौ में बेच दें, आप जानते हैं आप ऐसा ही करते हैं फिर भी एक्टिंग इतनी शानदार हो कि ऐल पचीनो भी शर्मा जाये!

ग्राहक के नाते बात काटते हुए बोले दो सौ लेने हैं। दुकानदार हैं तो लम्बी सांस खींच वही कहें, जो देश का हर दुकानदार दिन में तीन लाख तिहतर हज़ार बार चार सौ अड़सठ बार कहता है, वो ये कि 'इतनी तो हमें घर पर नहीं पड़ती'।

दुकानदार को टोके और कहिये फालतू बात मत करो। इसके बाद लम्बी बहस होगी। जिसमें बहस करने की आपकी मौलिक प्रतिभा के अलावा, आवाज़ का ऊंचा होना, दूसरी दुकान पर कम रेट का हवाला, पुराना ग्राहक होने की दुहाई, 'सारी कमाई हम से ही करोगे' जैसे घिसे हुए तर्क आप काम में ले सकते हैं। इसके बावजूद लगे दुकानदार नीचे नहीं आ रहा। तो आख़िर में मोलभाव विधा का ब्रह्मास्त्र 'न आपकी न मेरी' छोडें, पचास रूपये फालतू दें, चीज़ खरीदें और घर आ जायें।

बुधवार, 28 मई 2008

एक सलाम भारतीय पुलिस के नाम! (हास्य-व्यंग्य)

भारतीय पुलिस का इस दर्शन में गहरा यकीन है कि जो दिखता है वो होता नहीं। इसी विश्वास के चलते देश के हर चौराहे पर खड़े पुलिस वाले की कोशिश होती है कि कोई भी 'शरीफ दिखने वाला' आदमी बिना ज़लील हुए गुज़रने न पाए। इसके अलावा ऐसे और भी कई गुण हैं जिनमें भारतीय पुलिस की गहरी आस्था है।

क्वॉलिटी कंट्रोल- ऐसे वक़्त जब क्वॉलिटी कंट्रोल हर कम्पनी के लिए एक बड़ा मसला है, पुलिस महकमा एक अलग पहचान रखता है। आप पायेंगे कि मेरठ का पुलिस वाला जिस कर्कशता का धनी है, जिन गालियों का ज्ञाता है, जिस बेहूदगी का सिकंदर है, इंदौर का पुलिसवाला भी उन तमाम सदगुणों का आत्मसात किये है। इंसानियत के बुनियादी नियमों से जो दूरी आगरा पुलिस की है, उससे ठीक वैसा ही परहेज़ अमृतसर पुलिस को भी है। जिस पल कोई नई गाली बरेली पुलिस लांच करती है, ठीक उसी क्षण मुरादाबाद पुलिस भी अपना सॉफ़्टवेयर अपडेट कर लेती है। बदतमीज़ी के जितने दोहे दिल्ली पुलिस को याद हैं, उतने ही मुम्बई पुलिस ने भी कंठस्थ कर रखे हैं।

समान व्यवहार- हो सकता है आप अपने ऑफिस में सर हों, घर में बड़े भाई या फिर मौहल्ले में नेक आदमी। लेकिन, पुलिसवाले ऐसे किसी वर्गीकरण में यकीन नहीं करते। बाईक साइड में रोकने का इशारा कर पुलिसवाला कहता है चल बे, कागज़ दिखा। देश के तमाम डॉक्टर, इंजीनियर, कवि, लेखक, दादा, नाना, फूफा, चाचा, मामू पुलिस वालों के लिए 'चल बे' हैं। और अगर आपने इस 'चल बे' का विरोध किया तो वो 'अबे' पर आ जायेगा और पायेंगे कि महज़ पांच मिनट में आपका दूसरा नामाकरण हो गया!

महिला सम्मान- ट्रेनिंग के वक्त पुलिस वालों को हिदायत दी जाती है कि महिलाओं को विशेष सम्मान दें और जैसा कि नियम है सम्मान ज़रूरत से ज़्यादा होने पर श्रद्धा में बदल जाता है, श्रद्धा प्यार में तब्दील हो जाती है और प्यार अपने ही हाथों मजबूर हो अभिव्यक्ति तलाश्ता है। इसी कशमकश में बेचारे कुछ ऐसा कह बैठते हैं जिसे सभ्य समाज 'टोंट' कहता है। मेरी गुज़ारिश है आप टोंट का बुरा न मानें। उन बेचारों में भाषा के जो संस्कार हैं, उसमें प्यार अक्सर घटिया अभिव्यक्ति के हाथों शहीद होता रहा है!

पर्या्वरण प्रेम:-पुलिस वालों का पर्यावरण प्रेम भी उन्हें ज़्यादा मामले दर्ज करने से रोकता है। उन्हें लगता हैं जितनी ज़्यादा शिकायते लिखेंगे, उतने ही कागज़ बरबाद होंगे, उतनी ही नई पेड़ों की कटाई होगी और उतना ही पर्यावरण असंतुलन पैदा होगा। ऐसे में किसी घटिया शिकायत को न लिख अगर वो पर्यावरण बचाने में महान योगदान दे सकते हैं तो बुरा क्या है!

गुरुवार, 22 मई 2008

ब्लॉग बने जंगी जहाज!

एक महीने के अंदर ही अमिताभ बच्चन ने हमें बताया कि कैसे ब्लॉगिंग दुश्मनों को निपटाने का एक कारगार माध्यम हो सकता है। अपने ब्लॉग पर पहले उन्होंने शत्रुघ्न सिन्हा को हड़काया। केबीसी के आंकड़े दे शाहरुख को पटखनी दी। फिर ज़मीन मामले पर सलीम खान को लताड़ा और सिनेमा में सिगरेट के प्रतिबंध पर रामदौस की भी ख़बर ली। मतलब कंटेंट के हिसाब से ये ब्लॉग कम और जंगी जहाज ज्यादा लग रहा था।


अमिताभ के ब्लॉग पर शोध जारी ही था कि इस बीच आमिर खान ने अपने ब्लॉग पर डिटेल दी कि उनके कुत्ते का नाम शाहरुख कैसे पड़ा? सुभानल्लाह!!!!! उनके चाहने वाले बाकी सब तो जान ही चुके थे। अपने सत्रह अफेयर और दो शादियों के बारे में वो सब बता चुके। यही एक सनसनीखेज ख़बर बाकी रह गई थी और इक सुबह उन्हें लगा चलो... अपने फैन्स का ज्ञानवर्धन किया जाए!


वाकई, बदनीयत तो उस चलताऊ औरत की तरह होती है जिसे आप सौ दरवाज़ों में बंद रखें फिर भी वो बाहर झांक ही लेती है। सब को दिख ही जाती है!


खैर, मुझे आमिर-अमिताभ से कोई शिकायत नहीं है। मेरा तो मानना है इसी तर्ज पर तमाम बड़े लोगों को अपने झगड़े निपटाने और सफाई देने के लिए ब्लॉग खोल लेने चाहिए।


इसी क्रम में सबसे पहले अर्जुन सिंह ब्लॉग बनांए। नाम रखें-‘छूटे तीर’ डॉट ब्लॉगस्पॉट। पहली पोस्ट में वो बिना लाग लपेट माफी मांगे। गांधी-नेहरु परिवार के प्रति वफादारी का ट्रैक रिकॉर्ड बतांए। हो सके तो इस रिकॉर्ड को फिर बजाएं। चापलूसी से जुड़ी महत्ववपूर्ण घटनाओं और तिथियों का ज़िक्र करें। चमचागिरी के चार दशकों के अपने कार्यकाल को ग्राफिक्स के माध्यम से समझाएं और पार्टी से पूछें कि जब चापलूसी ने इतने सालों में मुझे इतना कुछ दिया है तो उम्र के इस पड़ाव पर मैं ट्राइड एंड टेस्टिड फार्मूला क्यों त्याग दूं?


इसके अलावा के पी एस गिल भी झट से एक ब्लॉग बना लें। अपने चाहने वालों को (जिस भी ग्रह पर वो हों) बताएं कैसे इस ज़ालिम दुनिया ने उनके साथ ज़्यादती की। ‘बाकी रह गए’ अपने कामों का ज़िक्र करें। (अपने अलावा) उन लोगों के नाम बताएं जिनके चलते भारतीय हॉकी का बेडागर्क हो गया है। उस पर्वत की भौगोलिक स्थिति बताएं जहां से वो भारतीय हॉकी के लिए संजीवनी लाने वाले थे मगर उनकी फ्लाइट कैंसिल करवा दी गई।

उस क्षेत्र-विशेष का नाम भी बताएं जहां अब वो अपनी सेवाएं देना चाहते हैं!


इनके अलावा ऐसे तमाम बड़े लोग जिन्हें लगता है ब्लॉगिंग बेलगाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या रचनात्मकता का माध्यम नहीं, बल्कि पर्सनल स्कोर सैटल करने का ज़रिया है वो जल्द से जल्द ब्लॉग बना लें। ये मंच उनके चरण-कमलों को तरस रहा है!

शुक्रवार, 16 मई 2008

मौसम की साजिश! (हास्य-व्यंग्य)

अध्यात्म बताता है कि जीवन को समझना है तो प्रकृति से जुड़ो। मैं जुड़ता हूं। ज़रुरी काम से बाहर जाना है, सोचता हूं जाऊं। मगर भीतर की प्रकृति हाथ पकड़ कर बिठा लेती है। क्या ज़रुरत पड़ी है आज जाने की? ये काम तो कल भी किया जा सकता है। बाहर देख कितनी धूप है। ये भला कोई मौसम है काम करने का। घर बैठ, तरबूज़ काट, कूलर चला, सीरियल देख। मगर बाहर मत जा। लू लग जाएगी।

भीतर और बाहर की प्रकृति फोर्स कर रही है और मैं फोर्स होने लिए तैयार बैठा हूं। धूप की दलील काम न करने की ग्लानि से बचाती है। आख़िरकार मौसम और मैं समझौता कर काम टाल देते हैं। काम टालने में मौसम ने हमेशा मदद की है। गर्मी में लू का डर पांव पकड़ घर बिठा देता है। सर्दी में शीतलहर के सम्मान में रजाई में पड़ा मूंगफली खाता हूं। बारिश में सहज ही मुंह से निकल जाता है-ये भी कोई टाइम है काम करने का? ये वक़्त तो पकौड़े खाने और अदरक वाली चाय पीने का है!

मौसमी चक्र बताता है कि आलसियों के लिए ईश्वर के मन में सॉफ्ट कॉर्नर है। हर मौसम में पड़े रहने की ‘असीम सम्भावनाओं’ के लिए मैं ईश्वर का शुक्रिया अदा करता हूं। जब अख़बार और चैनल चिल्ला-चिल्ला कर बता रहे हैं कि लू से मरने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है, तो क्या ज़रुरत पड़ी है बाहर निकल इस आंकड़े में इज़ाफा करने की। आख़िर मीडिया की विश्वसनीयता जांचने के लिए मैं अपनी जान तो दांव पर नहीं लगा सकता। वैसे भी बुज़ुर्ग कह गये हैं कि किसी के जाने से कोई काम नहीं रुकता। सही बात है। जाने से नहीं रुकता, तो न जाने से भी नहीं रुकता होगा। तो फिर पड़े रहो। वैसे भी ये अहसास कि जो काम मुझे करना है बेहद ज़रुरी है, इंसान में दम्भ पैदा करता है।

प्रकृति चूंकि सैलफोन यूज़ नहीं करती, इसलिए कोई एसएमएस भी नहीं आएगा कि मौसम ठीक नहीं, बाहर मत निकलो। आपको अपने कॉमन सैंस (अगर है तो) का इस्तेमाल कर ही ये तय करना है कि मुझे बाहर नहीं जाना। हो सकता है लू से बचने के लिए बीवी प्याज़ साथ ले जाने का आइडिया दे, मगर आपको नहीं मानना। सोचिए ज़रा, ऑफिस में किसी को पता चले कि आप गर्मी से बचने के लिए जेब में प्याज लेकर आएं हैं तो क्या जवाब देंगे? हो सकता है कि कोई मान बैठे कि इस मंहगाई में आपने ये प्याज रेहड़ी से चुराया हो!

तो सवाल ये है कि क्या प्रकृति हमें अकर्मण्य बनाना चाहती है? शायद हां। हमारे ‘करने’ ने उसका जो नुकसान किया है, इसके बाद शायद वो यही चाहती हो! ये जानलेवा गर्मी, बेइंतहा सर्दी और ज़बरदस्त बाढ़। हमारा भी तो कुछ क्रेडिट है इसमें!

गुरुवार, 15 मई 2008

सिफारिश की सुरंग! (हास्य-व्यंग्य)

भलाई करने के मामले में 'सिफारिश' ने 'दुआ' को कहीं पीछे छोड़ दिया है। एक वक़्त था जब आदमी करीबी लोगों की भलाई के लिए दुआ मांगता था। अब यही लोग ज़्यादा 'डिमांडिंग' हो गये हैं। उनका मानना है कि दुआ तो ज़बानी जमा खर्च है, पेपर वर्क है, इसका ज़मीनी हक़ीकत से कोई सरोकार नहीं। कुछ करना ही है तो सिफारिश करो।

नाक़ाबिल लोगों के लिए सिफारिश ऐसी सुरंग है जिससे वो कहीं भी घुस जाते हैं। सिफारिशी टट्टू अक्सर पिछले दरवाज़े से एंट्री करते हैं, उन्हें डर रहता है कि मेन गेट से आये तो कोई काबलियत का सर्टिफिकेट न मांग ले।

सिफारिशी मोम के बने होते हैं। दबाव की आंच में वो जल्दी पिघल जाते हैं। ऑफिस में मौजूद उनके माई-बाप उनकी इस 'दक्षता' का ख़्याल रखते हैं। लिहाज़ा उन्हें ऐसे कामों में लगाया जाता है जिसके लिए न्यूनतम बुद्धि का आवश्यकता होती है। सिफारिशी भी अपने माई बापों का एहसान नहीं भूलते और उनके लिए चुगलखोरी का काम करते हैं। एक बॉस के लगाये दो सिफारिशी टट्टुओं में बेहतर चुगलखोर बनने की होड़ रहती है। सिफारिशियों द्वारा की गई चुगली की 'क्वालिटी' ही उनकी नौकरी को 'जस्टीफाई' करती है।

सिफारिशी जब भी सिर के ऊपर देखता है तो उसे आसमान नहीं, एक लटकती हुई तलवार दिखाई देती है। सिफारिशी जानता है कि हर सिफारिश का वैलीडिटी पीरियड होता है। सत्ता परिवर्तन के बाद चलने वाले सफाई अभियान में पहली झाडू सिफारिशी पर ही लगती है। उसका यही डर उसे दूरदर्शी बनाता है। वो सम्भावित बॉसेज़ पर नज़र रखता है और होली- दीवाली उन्हें मैसेज भेज विश करना नहीं भूलता। अपने बॉस के इधर-उधर होने पर वो सम्भावित बॉसेज़ के साथ चाय पीता है और बातों-बातों में कह डालता है कि सर, इस कम्पनी में जो जगह आप डिज़र्व करते हैं वो आपको मिली नहीं और यही वो वक़्त होता है जब सिफारिशी बिना यूनिवर्सिटी गये कूटनीति में पोस्ट ग्रेजुएशन कर लेता है!

सिफारिशी गजब के व्यवहारकुशल भी होते हैं। ज़बान के बेहद मीठे। इतने मीठे की लगातार आधे घंटे तक उनकी बात सुनने पर डायबिटीज़ हो सकती है। काबिल लोगों से वो बेवजह नहीं भिड़ते। जानते हैं कि अगर कभी काम करने की नौबत आयी तो यही काबिल उनके काम आयेंगे।

इधर वक्त के साथ सिफारिशी को लेकर लोगों के नज़रिये में बदलाव आया है। पहले लोग सिफारिशियों की भर्ती को भ्रष्टाचार के तौर पर देखते थे, फिर मजबूरी मानने लगे और अब सभी ने इसे हक़ीकत मान लिया है। लेकिन इस हक़ीकत के चलते हालात बिगड़ने लगे हैं।

कम्पनियां सिफारिशी टट्टुओं की भर्ती को लेकर नियमों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन कर रही हैं। कई कम्पनियों में तो सिफारशी मैजोरटी में आ गये हैं। वक़्त आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में हस्तक्षेप करे और साफ निर्देश दे कि किसी भी कम्पनी में 50 फीसदी से ज़्यादा सिफारिशी भर्ती न किया जाये। आख़िर ऐसे लोग जिनके पास ‘प्रतिभा’ के नाम पर सिर्फ काबिलियत हैं उनका भी तो कुछ कोटा फिक्स होना चाहिए!

मंगलवार, 13 मई 2008

लौट के फिर न आने वाले! (हास्य-व्यंग्य)

नाम-खाऊमल पचाऊ लाल, कद-पांच फीट पौने पांच इंच, मुंह-काला, दांत-काले, कान पर हल्के बाल, माथे पर चाकू का निशान, चेहरे पर होशियारीमिश्रित स्थायी मुस्कान!

ये जनाब पिछले ढाई साल से चुनाव जीतने के बाद से गायब हैं। आखिरी बार टीवी पर लोकसभा की कार्यवाही के दौरान एक मंत्री की पिछली सीट पर ऊंघते पाए गए थे। उसके बाद से इनका कोई पता नहीं।

इलाके के लोगों ने इन्हें ढूंढनें की हरसम्भव कोशिश की। बस अड्डे, रेलवे स्टेशन पर पोस्टर चिपकाये । थाने में गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाई। गूगल में सर्च मारी .....मगर कोई फायदा नहीं हुआ।

फिर किसी ने सुझाव दिया कि अखबार में इनके नाम अपील की जाये। बात सब को जंची। 'जो बोला वो फंसा' के भारतीय सिद्धांत के चलते अपील का टैक्स्ट लिखने का ज़िम्मा सुझावदाता को ही दिया गया। इसके बाद खुले ख़त के रुप में जो अपील अख़बारों में छपी, वो इस तरह थी.....मुलाहिज़ा फरमाएं।

सांसद साहब,
ऐसा तो नहीं कहूंगा कि आपके भागने की हमें उम्मीद नहीं थी। मगर बेवफाई के सारे रिकार्ड आप इतनी जल्दी तोड़ देंगे ये हमने नहीं सोचा था। मुझे आज भी याद है 3 मई 2004 की वो गर्म दोपहर, जब भीड़ भरी सभा में आपने दावा किया था कि बस एक बार, बस एक बार मुझे चुन लें, मैं आपके इलाके का नक्शा बदल दूंगा। मगर..... सारा शहर गवाह है इन चार सालों में सिवाय आपके मकान के नक्शे के पूरे शहर में कुछ नहीं बदला। पहले वो एक मंज़िला था अब तीन मंज़िला हो गया।

सड़कों के लिए आपने कहा था कि इसे फिल्मी हीरोइन के गालों की तरह चिकना बना देंगे (इस फूहड़ तुलना पर तब खूब तालियां भी बजी थी।) लेकिन यकीन मानिये ये अब भी वैसी ही हैं जैसी कभी मौर्यकाल में रही होंगी। 18 घंटे बिजली का भी आप वायदा कर गये थे। लेकिन शायद विद्युत विभाग को बताना भूल गये कि 18 घंटे देनी है या काटनी!

पानी का भी कुछ ऐसा ही हाल है। वो नालियों में तो खूब है लेकिन टंकियों में कम। शहर में जब भी किसी का नहाने का दिल करता है तो वो शर्म से पानी-पानी हो जाता है और सोचता है नहा लिया।

खैर....आपको हमने ये सोचकर चुना था कि जब अपराधी ही सत्ता सम्भालेंगे... तो अपराध कौन करेगा। कुछ लोगों ने दलील भी दी कि स्कूलों में इस तर्क के चलते शरारती बच्चों को मॉनिटर बनाया जाता है। लेकिन हम भूल गये कि स्कूल की पाठशाला और राजनीति की पाठशाला में क्या फर्क है ? आप निश्चिंत रहे आज आप भले ही यहां नहीं है लेकिन, आपके गुर्गे आपका अपराधखाना उसी दक्षता से सम्भाले हैं, जिस दक्षता से संगीतघरानों में बेटे, बाप से ली दीक्षा को आत्मसात कर उसे दुनिया तक पहुंचाते हैं !

और अंत में आपसे पैर जोड़ कर गुज़ारिश है कि आप कहीं भी हों कुछ दिनों के लिए यहां ज़रुर आयें, हमारी धमनियों से रक्त निकल कर आपके होंठ छूने को बेकरार है। आखिर हर वोटर को अपने नेता से इतनी उम्मीद तो रहती है कि वो चुने जाने के बाद मुसलसल उसका खून चूसता रहे।

शेष कुशल है।

दर्शनेच्छु
आपका भावी वोटर !

सोमवार, 12 मई 2008

नींद क्यूं रात भर नहीं आती ! (व्यंग्य)


भारतीय दर्शन बताता है कि देह मिथ्या है और आत्मा अमर। यूं तो भारतीय दर्शन और भी कई बातें कहता है लेकिन इस देश में मुझे एक यही बात सच होती दिखती है और इसे सच साबित करने में सरकार पूरी शिद्दत से लगी है।

सच...इस शरीर के मायने क्या है ? सांसरिक जीवन में पड़ा क्या है ? और जब मौत ही आखिरी सच्चाई है तो फिर इधर-उधर भटकने की ज़रूरत क्या है ? तो तैयार रहें मरने के लिए। इस मामले में विकल्पों की कमी नहीं है। हर वक्त 'कुछ नये की मांग' करने वाली जनता कम से कम 'मरने के तरीकों' के मामले में कोई शिकायत नहीं कर सकती।

आप किसान हैं तो ये आपको तय करना है कि तिल-तिल के मरें या कर्ज के बोझ से परेशान हो कर आत्महत्या कर लें। आदिवासी हैं तो यहां भी आपकी मर्ज़ी है नक्सलवाद का रास्ता चुन पुलिस के हाथों जान गंवायें, या फिर सलवा जुडूम का हिस्सा बन नक्सलियों के हाथों शहीद हों।

इसके अलावा मौत को लेकर कई सरप्राइज पैकेज भी हैं। मसलन, मेलों में गाड़ियों में कहीं भी आतंकी हमले का शिकार हो सकते हैं, फुटपाथ पर सोयें हैं तो गाड़ी के नीचे आ सकते हैं, और अगर दिल्लावासी हैं तो कहीं भी, कभी भी, कैसे भी ब्लूलाइन बसों की चपेट में आ इस भवसागर से पार पा सकते हैं।

जिंदगी और मौत के इस पूरे भारतीय दर्शन में सरकारों ने जो क्लासीफिकेशन किया है वो भी गजब का हैं। जैसे सरकार मानती है इंसान के लिए इस जीवन के कोई मायने नहीं है लेकिन चूहों के लिए है। तभी तो भारत शायद पूरी दुनिया का इकलौता देश होगा जहां इंसान भूखा मर जाता है और चूहे गोदामों में गेंहूं का मज़ा लूटते हैं! इंसानों और पशुओं के बीच आध्यात्मिक नज़रिये के इस भेद की मिसाल शायद ही कहीं और देखने को मिले!

मौत की सुविधा देने के पीछे सरकार की एक और मंशा पीढ़ी दर पीढ़ी अनुभवों को साम्यता देना है। मसलन, अगर आज से तीस साल पहले आपके परदादा बिहार के किसी गांव में हर साल आयी बाढ़ का शिकार हुए, फिर पन्द्रह साल पहले आपके पिताजी भी उसी गांव में आयी सालाना बाढ़ की बलि चढ़े, तो आप निराश न हो सरकारों ने अपनी स्वाभाविक अकर्मण्यता से इस बात का पूरा प्रबंध किया है कि आप बाढ़ को दुर्घटना न मान घटना मानें, और इस घटना में होने वाली मौतों को दुर्भाग्य न मान जीवन की आखिरी सच्चाई मानें।

वैसे भी ग़ालिब ने कहा है मौत का एक दिन मुअय्यन (तय) है, नींद क्यूं रात भर नहीं आती। मेरा भी यही मानना है जब मरना ही है और उसका दिन भी तय है तो क्यों मौत की वजह पर बहस की जाए, अपनी नींद ख़राब की जाये ।

शुक्रवार, 9 मई 2008

इस शहर में हम भी भेड़ें हैं? (हास्य-व्यंग्य)

ब्लूलाइन में घुसते ही मेरी नज़र जिस शख़्स पर पड़ी है, बस में उसका डेज़ीग्नेशन कन्डक्टर का है। पहली नज़र में जान गया हूं कि सफाई से इसका विद्रोह है और नहाने के सामन्ती विचार में इसकी कोई आस्था नहीं । सुर्ख होंठ उसके तम्बाकू प्रेम की गवाही दे रहे हैं और बढ़े हुए नाखून भ्रम पैदा करते हैं कि शायद इसे ‘नेलकटर’ के अविष्कार की जानकारी नहीं है।

इससे पहले कि मैं सीधा होऊं वो चिल्लाता है- टिकट। मुझे गुस्सा आता है। भइया, तमीज़ से तो बोलो। वो ऊखड़ता है, 'तमीज़ से ही तो बोल रहा हूं।' अब मुझे गुस्सा नहीं, तरस आता है। किसी ने तमीज़ के बारे में शायद उसे 'मिसइन्फार्म' किया है !

टिकिट ले बस में मैं अपने अक्षांश-देशांतर समझने की कोशिश कर ही रहा हूं कि वो फिर तमीज़ से चिल्लाता है-आगे चलो। मैं हैरान हूं ये कौन सा 'आगे' है, जो मुझे दिखाई नहीं दे रहा। आगे तो एक जनाब की गर्दन नज़र आ रही है। इतने में पीछे से ज़ोर का धक्का लगता है। मैं आंख बंद कर खुद को धक्के के हवाले कर देता हूं। आंख खोलता हूं तो वही गर्दन मेरे सामने है। लेकिन मुझे यकीन है कि मैं आगे आ गया हूं, क्योंकि कंडक्टर के चिल्लाने की आवाज़ अब पीछे से आ रही है!

कुछ ही पल में मैं जान जाता हूं कि सांस आती नहीं लेना पड़ती है....मैं सांस लेने की कोशिश कर रहा हूं मगर वो नहीं आ रही। शायद मुझे आक्सीज़न सिलेंडर घर से लाना चाहिये था। लेकिन यहां तो मेरे खड़े होने की जगह नहीं, सिलेंडर कहां रखता।

मैं देखता हूं लेडीज़ सीटों पर कई जेन्ट्स बैठे हैं। महिलाएं कहती हैं कि भाईसाहब खड़े हो जाओ, मगर वो खड़े नहीं होते। उन्होंने जान लिया है कि बेशर्मी से जीने के कई फायदे हैं। वैसे भी 'भाईसाहब' कहने के बाद तो वो बिल्कुल खड़े नहीं होंगे। खैर.. कुछ पुरुष महिलाओं से भी सटे खड़े हैं, और मन ही मन 'भारी भीड़' को धन्यवाद दे रहे हैं!

इस बीच ड्राइवर अचानक ब्रेक लगाता है। मेरा हाथ किसी के सिर पर लगता है। वो चिल्लाता है। ढंग से खड़े रहो। आशावाद की इस विकराल अपील से मैं सहम जाता हूं। पचास सीटों वाली बस में ढाई सौ लोग भरे हैं और ये जनाब मुझसे 'ढंग' की उम्मीद कर रहे हैं। मैं चिल्लाता हूं - जनाब आपको किसी ने गलत सूचना दी है। मैं सर्कस में रस्सी पर चलने का करतब नहीं दिखाता। वो चुप हो जाता है। बाकी के सफर में उसे इस बात की रीज़निंग करनी है।

बस की इस बेबसी में मेरे अंदर अध्यात्म जागने लगा है। सोच रहा हूं पुनर्जन्म की थ्योरी सही है। हो न हो पिछले जन्म के कुकर्मों की सज़ा इंसान को अगले जन्म में ज़रुर भुगतनी पड़ती है। लेकिन तभी लगता है कि इस धारणा का उजला पक्ष भी है। अगर मैं इस जन्म में भी पाप कर रहा हूं तो मुझे घबराना नहीं चाहिये.... ब्लूलाइन के सफर के बाद नर्क में मेरे लिए अब कोई सरप्राइज नहीं हो सकता !

बहरहाल....स्टैण्ड देखने के लिए गर्दन झुकाकर बाहर देखता हूं। बाहर काफी ट्रैफिक है... कुछ समझ नहीं पा रहा कहां हूं। तभी मेरी नज़र भेड़ों से भरे एक ट्रक पर पड़ती है। एक साथ कई भेड़ें बड़ी उत्सुकता से बस देख रही हैं। एक पल के लिए लगा.... शायद मन ही मन वो सोच रही हैं.....भेड़ें तो हम हैं!

शुक्रवार, 2 मई 2008

क्या थिंक टैंक लीक हो गया है? (हास्य-व्यंग्य)

राज भाई, मैं हैरान हूं। दुनिया देख रही है। आपने नहीं देखा? देखा तो अब तक कुछ किया क्यों नहीं? ठेका आपने ले रखा है। दिहाड़ी मज़दूर भी पास हैं, फिर देर क्यों हो रही है? जमीन और आसमान आलिंगन को तरस रहे हैं। उन्हें एक कर दीजिए।

आप तो तिल का ताड़ बनाते रहे हैं। यहां ताड़ सामने है। आप चाहें तो उसका पहाड़ बना सकते हैं। फिर चाहें तो चढ़ भी सकते हैं। मगर आप नहीं चढ़ रहे। क्या हुआ ट्रेकिंग शूज़ नहीं मिल रहे या ज़्यादा ज़हर उगलने की वजह से डिहाइड्रेशन हो गया है। आप लोगों को पानी पिलाते रहे हैं, आप कहें तो मैं आपको पिलाऊं। हिम्मत मत हारिए। आगे बढ़िये। हालिया कारनामों के बाद देश को आपसे काफी उम्मीदें हैं। आप तो संकीर्ण राजनीति के गौरव हैं, कुमार गौरव मत बनिए। वरना आप भी 'वन विवाद वंडर' कहलाएंगे।

आप लम्बी रेस के घोड़े हैं। और इस रेस में कितने ही गर्दभों का समर्थन आपको मिला हुआ है। उन्हें आदेश दीजिए कि इस मुद्दे की ज़मीन पर लोटकर अपनी खुजली मिटाएं। आख़िर ये मराठी अस्मिता मामला है।

जहां तक मेरी जानकारी है हरभजन सिंह जालंधर के हैं। जालंधर पंजाब में है। पंजाब भारतीय नक्शे के हिसाब से उत्तर भारत में है। शॉन पॉलक दक्षिण अफ्रीका से हैं। जयसूर्या श्रीलंका से हैं और दक्षिण अफ्रीका और श्रीलंका महाराष्ट्र की किसी ग्राम पंचायत के नाम नहीं, बल्कि अलग देश हैं।

उम्मीद करता हूं आप पांचवी पास से तेज़ हैं और ये आपको भी पता होगा। तो फिर ये तमाम गैर मराठी लोग मुम्बई आइपीएल टीम में क्या कर रहे हैं? इस मामले पर आपने अब तक ज़हर क्यों नहीं उगला? लट्ठ क्यों नहीं निकाले। कब तक उन्हें तेल पिलाते रहेंगे। मौका है ताड़ का पहाड़ बना इन्हीं लट्ठों के सहारे उस पर चढ़ जाइये।

खिलाड़ी तो खिलाड़ी चीयर गर्ल्स भी बाहर से बुलवाई गई हैं। सरकार से पूछिए, एक तरफ तो वो अश्लीलता की दुहाई देकर बार डांस पर रोक लगाती है, दूसरी ओर भोंडेपन की ऐसी सार्वजनिक नुमाइश। नाचना ज़रूरी भी है तो उन बार बालाओं को मौका क्यों न मिले, जो इस पाबंदी के बाद बेरोज़गार हुई हैं।

राज भाई, मैं हैरान हूं। आपने न सही आपके थिंक टैंक ने भी ये सब अब तक नहीं सोचा। ज़रा चैक तो कीजिए कहीं टैंक लीक तो नहीं हो रहा। हो रहा है तो मज़दूरों से मरम्मत करवा लीजिए। और हां, मज़दूर बुलाते वक़्त ये ज़रुर पूछ लीजिएगा, कौन जिला?

( यह लेख ‘झापड़ कांड’ और चीयर गर्ल्स विवाद से पहले लिखा था। प्रकाशित आज हुआ है। इसलिए वैसा ही छाप रहा हूं जैसा उस वक़्त लिखा था)