शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

जैक फोस्टर, तुमने मुझे मरवा दिया


जो लोग हिंदी लेखकों से शिकायत करते हैं कि वो उन्हीं घिसे-पिटे पांच छह विषयों पर कलम चलाते हैं, ट्रैवल नहीं करते, दुनिया नहीं देखते, उन्हें समझना चाहिए कि किसी भी तरह की मोबिलिटी पैसा मांगती है और जिस लेखक की सारी ज़िंदगी दूसरों से पैसा मांगकर गुज़र रही हो, वो मोबाइल होना तो दूर, एक सस्ता मोबाइल रखना तक अफ़ोर्ड नहीं कर सकता। ये लेख चूंकि फ्रेंच से हिंदी में अनुवाद नहीं है, लिहाज़ा ये स्वीकारने में मुझे भी कोई शर्म नहीं कि हिंदी लेखक होने के नाते ये सारी सीमाएं मेरी भी हैं। मगर इस बीच मेरे हाथ अमेरिकी एडगुरु जैक फोस्टर की किताब ‘हाऊ टू गैट आइडियाज़’ लगी जिसमें उन्होंने बताया कि लेखक को रूटीन में फंसकर नहीं रहना चाहिए। लॉस एंजलिस के साथी लेखक का ज़िक्र करते हुए उन्होंने बताया कि कैसे नौ साल की नौकरी के दौरान कुछ नया देखने के लिए वो रोज़ नए रास्ते से ऑफ़ि‍स जाता था। ये पढ़ मैं भी जोश में आ गया। पूछने पर ऑफ़ि‍स में किसी ने बताया कि कचरे वाले पहाड़ के बगल में जो मुर्गा मंडी है, उस रास्ते से चाहो तो आ सकते हो। अगले दिन मैं उस सड़क पर था। कुछ ही चला था कि अचानक बड़े-बड़े गड्ढ़े आ गए। गाड़ी हिचकोले खाने लगी। कुछ गड्ढ़े तो इतने बड़े थे कि भ्रम हो रहा था कि यहां कोई उल्का पिंड तो नहीं गिरा। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता गाड़ी उछलकर ऐसे ही एक छिपे रुस्तम गड्ढ़े से जा टकराई। ज़ोरदार आवाज़ हुई। ऑफ़ि‍स पहुंचने से पहले गाड़ी गर्म होकर बंद हो गई। मैकेनिक ने बताया कि गड्ढ़े में लगने से इसका रेडिएटर और सपोर्ट सिस्टम टूट गया है। इंश्‍योरेंस के बावजूद आपका दस-बारह हज़ार खर्चा आएगा! ये सुनते ही गाड़ी के साथ मैं भी धुंआ छोड़ने लगा। दस हज़ार रुपये! मतलब अख़बार में छपे 18-20 लेख। मतलब अख़बार की छह महीने की कमाई और बीस नए आइडियाज़! जबकि मैं तो वहां सिर्फ एक नए आइडिया की तलाश में गया था। हे भगवान! रेंज बढ़ाने के चक्कर में मैं रूट बदलने के चक्कर में आख़िर क्यों पड़ा। रचनात्मकता साहस ज़रूर मांगती है मगर एक आइडिया के लिए दस हज़ार का नुकसान उठाने का साहस, हिंदी लेखक में नहीं है। शायद मैं ही बहक गया था। जैक फोस्टर, तुमने मुझे मरवा दिया!

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

काश! हम औपचारिक रूप से एलियन होते!


एक राष्ट्र के रूप में भारत के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि अपनेआप में स्वतंत्र ग्रह न होकर हम इसी धरती का हिस्सा हैं जिसके चलते हमें बाकी राष्ट्रों से मेलमिलाप करना पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों का हिस्सा बनना पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय मापदंड़ों पर खरा उतरना पड़ता है। इस सबके चलते हम सफोकेशन फील करते हैं। हमें लगता है कि हमारी निजता भंग हो रही है। हमारे बेतरतीब होने को लेकर अगर कोई उंगली उठाता है तो हमें लगता है कि वो ‘पर्सनल’ हो रहा है। हमारी हालत उस शराबी पति की तरह हो जाती है जो कल तक घऱ में बीवी बच्चों को पीटता था और आज वो मोहल्ले में भी बेइज्जती करवाकर घर आया है। अब घर आने पर वो किस मुंह से कहे कि मोहल्ले वाले कितने गंदे हैं क्योंकि पति के हाथों रोज़ पिटाई खाने वाली उसकी बीवी तो अच्छे से जानती है कि मेरा पति कितना बड़ा देवता है। दुनिया देवता समान पति को घर में शर्मिंदा कर देती है। उसके लिए ‘डिनायल मोड’ में रहना कठिन हो जाता है। और नाराज़गी में वो घर बेचकर किसी निर्जन टापू पर चला जाता है। जहां वो ‘अपने तरीके’ से रहते हुए बीवी बच्चों को पीट सके और उसे शर्मिंदा करने वाला कोई न हो। मगर राष्ट्रों के लिए इस तरह मूव करना आसान नहीं होता। होता तो एक राष्ट्र के रूप में हम भी किसी और ग्रह पर शिफ्ट कर जाते जहां हम अपने तरीके से जीते। विकास नीतियों की आलोचना करते हुए जहां कोई रेटिंग एजेंसी हमारी क्रेडिट रेटिंग न गिराती, सरकारी दखल पर इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी ओलंपिक से बेदखल न करती, ट्रांसपेरंसी इंटरनेशनल जैसी संस्था हमें भ्रष्टतम देशों में न शुमार करती। एमनेस्टी इंटरनेशनल मानवाधिकारों के हनन पर हमें न धिक्कारती। और अगर कोई उंगली उठाता तो हम उसे विपक्ष का षड्यंत्र बताते, अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ का दलाल बताते, संवैधानिक संस्थाओं पर शक करते और आम आदमी के विरोध करने पर उसे 66ए के तहत भावनाएँ आहत करने का दोषी बता गिरफ्तार करवा देते। काश! हम एक स्वतंत्र ग्रह होते तो दुनिया से बेफिक्र, अपने ‘डिनायल मोड’ में जीते और खुश रहते। वैसे भी दुनिया का हिस्सा होते हुए दुनिया को एलियन लगने से अच्छा है, हम औपचारिक रूप से एलियन होते!

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

सम्मान की लड़ाई और लड़ाकों का कम्फ़र्ट ज़ोन


‘अहम’ आहत होने पर इंसान सम्मान की लड़ाई लड़ता है। वजूद को बचाए रखने के लिए लड़ाई चूंकि ज़रूरी है इसलिए लड़ने से पहले बहुत सावधानी से इस बात का चयन कर लें कि आपको किस बात पर ‘अहम’ आहत करवाना है! दुनिया अगर इस बात के लिए भारत को लानत देती है कि सवा अरब की आबादी में एक भी शख्स ऐसा नहीं जो सौ मील प्रति घंटा की रफ्तार से गेंद फेंक पाए, तो आपको ये सुनकर हर्ट नहीं होना। भले ही आप मौहल्ले के ब्रेट ली क्यों न कहलाते हों, जस्ट इग्नोर दैट स्टेटमेंट। सम्मान की लड़ाई आपको ये सुविधा देती है कि दुश्मन भी आप चुनें और रणक्षेत्र भी! इसलिए जिस गली में आप क्रिकेट खेलते हैं, उसे अपना रणक्षेत्र मानें और जिस मरियल-से लड़के से आपको बेबात की चिढ़ है, उसे कहिए, साले, तेरे को तो मैं बताऊंगा तू बैटिंग करने आइयो! ये एक ऐसा नुस्खा है जिसे आप कहीं भी लागू कर, कुछ ढंग का न कर पाने के व्यर्थता बोध से ऊपर उठ सकते हैं। मसलन, आपकी बिरादरी का कोई भी लड़का अगर आठ-दस कोशिशों के बाद भी दसवीं पास नहीं कर पा रहा, आपके समाज में बच्चों के दूध के दांत भी तम्बाकू खाने से ख़राब हो जाते हैं, तो इन सबसे एक पल के लिए भी आपके माथे पर शिकन नहीं आनी चाहिए। पढ़ने के लिए, कुछ रचनात्मक करने के लिए आपको पूरी दुनिया से लोहा लेना होगा और ये काम आपसे नहीं होगा, क्योंकि आप तो सारी ज़िंदगी पब्लिक पार्क की बेंच का लोहा बेचकर दारू पीते रहे हैं। दुश्मन के इलाके में जाकर हाथ-पांव तुड़वाने से अच्छा है, अपने ही इलाके में दुश्मन तलाशिए। ऐसे में औरत और प्रेमियों से आसान शिकार भला और कौन होगा? आप कह दीजिए... आज से लड़कियां मोबाइल इस्तेमाल नहीं करेंगी, जींस नहीं पहनेंगी, चाउमीन नहीं खाएंगी। लड़के-लड़कियां प्यार नहीं करेंगे। आप फ़रमान सुनाते जाइए और धमकी भी दे दीजिए किसी ने ऐसा किया, तो फिर देख लेंगे। इन फ़रमानों को अपने ‘अहम’ से जोड़ लीजिए। औरत जात आपसे लड़ नहीं सकती। दो प्रेमी पूरे समाज से भिड़ नहीं सकते। आप ऐसा कीजिए और करते जाइए क्योंकि सम्मान की लड़ाई का इससे बेहतर कम्फर्ट ज़ोन आपको कहीं और नहीं मिलेगा।

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

वो आया, खाया और चला गया!


ज़िंदगी में बहुत सी चीज़ें और लोग स्थायी चिढ़ बन हमेशा माहौल में रहते हैं। चाहकर भी हम उनका कुछ उखाड़ नहीं पाते और जो उखाड़ सकते हैं, वो कुछ करते नहीं। ऐसे में मजबूर होकर हम चिढ़ से निपटने के लिए उनका मज़ाक बनाते हैं। चिढ़ का मज़ाक बन जाना और बने रहना व्यवस्था पर उसकी नैतिक जीत है और अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि पिछले 4 सालों से कसाब ऐसी ही नैतिक जीत का आनन्द ले रहा था। आम आदमी उस पर चुटकुले बनाकर खुश था और वो डाइट कोक के साथ बिरयानी खाकर! ऐसे में जब उसे फांसी दी गई तो बहुतों की तरह मुझे भी यकीन नहीं हुआ। ये जांचने के लिए कि मैं सपना तो नहीं देख रहा, मैंने बीवी से दो बार मुझे नाखून से नोंचने के लिए कहा और उसने रूटीन वर्क समझ बड़ी सहजता से इसे अंजाम दे दिया। दसियों चैनल पर ख़बर देखने के बाद मैं उसकी मौत को लेकर आश्वस्त तो हो गया मगर तभी अंदर के आशंकाजीवी ने सवाल पूछा कि ऐसा तो नहीं कि कसाब डेंगू से ही मरा हो, और सरकार ने शर्मिंदगी से बचने के लिए बाद में उसे फांसी पर लटका दिया हो। अगर ऐसा है, तो वाकई शर्मनाक है। मच्छर बीएमसी की लापरवाही से पनपा। बीएमसी पर शिवसेना का कब्ज़ा है। लिहाज़ा कसाब की मौत का क्रेडिट कांग्रेस को नहीं, शिवसेना को जाता है। शाम होने तक चूंकि शिवसेना ने ऐसा कोई दावा नहीं किया, लिहाज़ा मैंने भी ज़िद्द छोड़ दी। मगर मन अब भी आशंकाओं से भरा था। सिवाय अफज़ल गुरू के, कसाब की मौत पर पूरा देश खुश था। उसकी हालत वैसी ही हो गई थी जैसे बड़ी बहन की शादी के बाद सभी छोटी के पीछे पड़ जाते हैं। उसे छोड़ दें तो हर कोई इस काम के लिए सरकार की तारीफ कर रहा था। तभी मुझे लगा कि माहौल का फायदा उठा सरकार फिर से कहीं तेल की कीमतें न बढ़ा दे। सब्सिडाइज़्ड सिलेंडर की संख्या छह से दो न कर दे। कलमाड़ी फिर से आईओसी अध्यक्ष न बन जाएं। मगर रात होते होते ऐसा भी कुछ नहीं हुआ। कसाब आया, खाया और चला गया। मगर मुझे उसके चले जाने पर अब भी यकीन नहीं हो रहा। शायद निराशाभरे माहौल में इंसान को आसमान में छाए बादल भी चिमनी का धुआं लगते हैं।

पानी नहीं, पार्किंग के लिए होगा तीसरा विश्व युद्ध!


हिंदुस्तान में एकमात्र ऐसी जगह जहां मैंने लोगों को बिना किसी तनाव के गाड़ी चलाते देखा है, वो है टीवी विज्ञापन! बंदे ने शोरूम से गाड़ी निकाली और खाली पड़ी सड़क पर बेधड़क चला जा रहा है। तीस सैकेंड के विज्ञापन में उसे न तो कोई रेडलाइट मिलती है, न कोई गड्ढ़ा आता है, न कोई बाइक वाला गंदा कट मारता है और न ही उसके आजू-बाजू से सरिये लहराते कोई हाथ-रिक्शा गुज़रता है। उसका सारा ध्यान बैकग्राउंड में बज रहे जिंगल पर लिप मूवमेंट करने और बगल में बैठी बीवी को देख फ़ेक स्माइल देने में होता है। उस बाप के बेटे को इस बात की रत्तीभर भी फिक्र नहीं कि रास्ते में कहीं कोई भिड़-विड़ न जाए, नई गाड़ी पर कहीं कोई स्क्रैच न मार दे। ऐसा लगता है शोरूम से गाड़ी खरीदने से पहले उसने ज़िला कलेक्टर को इसकी जानकारी दे दी थी और उन्हीं के आदेश पर शोरूम से लेकर उसके घर तक सारा ट्रैफिक क्लियर करवा दिया गया है ताकि नई गाड़ी खरीदने से हमारे शहज़ादा सलीम के मन में जो कविता उपजी है वो घर पहुंचने से पहले ही गद्य में तब्दील न हो जाए। कहीं उस बेचारे का मूड ख़राब न हो जाए। तभी मेरी नज़र विज्ञापन में ढल रहे सूरज पर पड़ती है और ख्याल आता है कि कलेक्टर की मेहरबानी से ये घर तो फिर भी पहुंच जाएगा मगर इस वक्त गाड़ी लगाने के लिए क्या इसे सोसाइटी में जगह मिलेगी? नहीं, बिल्कुल नहीं...शोरूम से निकलने के बाद हमारा हीरो गाड़ी लेकर मंदिर जाएगा और घर लौटते-लौटते उसे काफी देर हो चुकी होगी। और ये उम्मीद करना कि इसकी नई गाड़ी के सम्मान में पड़ौसी आज एक पार्किंग खाली छोड़ देंगे, गाड़ी के विज्ञापन में उसके माइलेज के दावे को सच मान लेने जैसी मूर्खता होगी। घर पहुंचने पर बंदे को पार्किंग मिली या नहीं, विज्ञापन इस बारे में कुछ नहीं बताता। वो उन्हें किसी अनजाने पहाड़ की हसीन वादियों में जिंगल गुनगुनाते छोड़ देता है। ठीक वैसे ही जैसे फिल्म में तमाम संघर्षों के बाद लड़का लड़की की शादी हो जाती है और आख़िर में लिखा आता है, ‘एंड दे लिव्‍ड हैप्पिली एवर आफ्टर’। जबकि शादी के बाद आज तक कितने लोग हैप्पिली जी पाए हैं, ये बताने की ज़रूरत नहीं। कुछ इसी अंदाज़ में ये विज्ञापन भी ख़त्म हो जाता है और आख़िर में लिखा आता है, ‘एंड दे ड्रोव हैप्पिली एवर आफ्टर’! और मेरा दिल करता है पलटकर पूछूं कि दे ड्रोव हैप्पिली एवर आफ्टर...बट कुड दे पार्क देयर कार ईज़ली एवर आफ्टर! मैं ऐसा कोई सवाल नहीं पूछता लेकिन जानता हूं कि फिल्मी हीरो के स्टाइल में लड़की को पा लेना कोई बड़ी चुनौती नहीं है, शादी के बाद उससे निभा लेना है। उसी तरह ड्राइविंग स्कूल से पंद्रह दिन में ड्राइविंग सीख लेना और ‘एक मिनट में कार लोन’ पास करने वाले किसी बैंक से लोन ले गाड़ी खरीदना कोई चैलेंज नहीं है; असली चुनौती उस कार के लिए पार्किंग ढूंढना है! घर से ऑफिस के लिए निकलो तो बचा हुआ असाइनमेंट, धूर्त सहकर्मी, नकचढ़ा बॉस इंसान की चिंताओं में बहुत पीछे होते हैं, सबसे पहले ये सोच-सोचकर उसका खून सूखने लगता है कि क्या ऑफिस पहुंचने पर मुझे पार्किंग मिलेगी! और अगर आप ऑफिस पहुंचने में ज़रा लेट हो गए तो पार्किंग में जगह बनाना, जवानी में किसी खूबसूरत लड़की के दिल में जगह बनाने से ज़्यादा मुश्किल हो जाता है। मेरा दावा है कि जब एक आदमी वर्कप्रेशर की बात करता है तो उसका 30 फीसदी हिस्सा ऑफिस जाकर खुद के लिए पार्किंग ढूंढने का होता है। व्यक्तिगत जीवन के तनाव का 40 फीसदी सोसाइटी में पार्किंग रिज़र्व न होने से होता है और जब वो कहता है कि आजकल खरीदारी मुश्किल हो गई है तो उसका मतलब महंगाई से नहीं, बाज़ार में पार्किंग न मिलने से होता है! मेरा मानना है कि ये समस्या इतनी गंभीर है कि ‘व्यावसायिक भविष्यफल’ और ‘प्रेम भविष्यफल’ की तर्ज पर अख़बारों को रोज़ ‘पार्किंग भविष्यफल’ भी देने चाहिए ताकि बंदा घर से निकलने से पहले पार्किंग में आने वाली मुश्किलों के लिए खुद को तैयार कर पाए। जानकार कहते हैं कि अगर तीसरा विश्वयुद्द हुआ तो पानी के लिए होगा मगर मुझे लगता है इस वक्त पार्किंग की जो स्थिति है उसमें तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए नहीं, पार्किंग के लिए होगा। हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर कल को ख़बर मिले कि किसी बड़े देश ने छोटे देश पर सिर्फ इसलिए हमला कर दिया ताकि उसे अपने पार्किंग लाउंज के तौर पर इस्तेमाल कर पाए! और जिस तरह आजकल चीन नेपाल के साथ नज़दीकी बढ़ा रहा है, मुझे उसका इरादा नेक नहीं लगता! (नवभारत टाइम्स 22 नवम्बर, 2012)

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

छुट्टियां लेने का टेलेंट!


जैसे यूनिवर्सिटीज़ में विज़ि‍टिंग प्रोफेसर होते हैं, उसी तरह हर ऑफिस में कुछ विज़ि‍टिंग एम्पलॉई होते हैं। स्थायी होने के बावजूद, ये रोज़ ऑफिस आने की किसी बाध्यता को नहीं मानते। ऐसे लोग ऑफिस तभी आते हैं जब इन्हें ऑफिस की तरफ कुछ काम पड़ता है। और अगर ये दो दिन लगातार दफ्तर आ जाएं तो लोग इन्हें इस हैरानी से देखते हैं कि जैसे दिल्ली की सड़क पर किसी अफ्रीकन पांडा को देख लिया हो। मगर मेरा मानना है कि ज्यादा छुट्टी लेने वाले यही लोग किसी भी ऑफिस में सबसे ज्यादा क्रिएटिव होते हैं। अब अगर आप हर हफ्ते एक-दो छुट्टी ले रहे हैं तो बॉस को जाकर ये तो नहीं कहते होंगे कि सर, मैं ये वाहियात काम कर-करके थक गया हूं, मुझे छुट्टी चाहिए। न ही हर हफ्ते आपको ये कहने पर छुट्टी मिल सकती है कि मुझे कानपुर से आ रही बुआ की लड़की को लेने स्टेशन जाना है। बुआ की लड़की जो एक बार कानपुर से आ गई है, उसे वापिस कानपुर की ट्रेन में बैठाने के लिए आप ज्यादा से ज्यादा एक छुट्टी और ले सकते हैं। जाहिर है अगली बार छुट्टी लेने के लिए आपको कुछ और बहाना बनाना पड़ेगा। अब ये तो आपको मानना पड़ेगा कि जो आदमी हर हफ्ते इतने बहाने सोच पा रहा है, उसकी कल्पनाशक्ति अच्छी है। उसका दिमाग विचारों से भरा है। और देखा जाए तो एक तरह से ये काम सप्ताह में दो हास्य कॉलम लिखने से ज्यादा मुश्किल है। कालम लिखने के लिए आपको सिर्फ आइडिया सोचना है जबकि छुट्टी लेने के लिए आपको न सिर्फ आइडिया सोचना है बल्कि पूरी कंविक्शन के साथ बॉस के सामने उसे एग्‍ज़ीक्‍यूट भी करना है। मतलब आप जानते हैं कि आप झूठ बोल रहे हैं। बॉस भी जानता है कि आप झूठ बोल रहे हैं। बावजूद इसके बहाना इतना अकाट्य हो, एक्टिंग इतनी ज़बरदस्त हो कि बॉस को भी समझ न आए कि मैं इसे कैसे मना करूं। ऐसे ही छुट्टी लेने वाले एक साथी कर्मचारी से जब मैंने पूछा कि वो कैसे हर हफ्ते इतने बहाने कैसे सोच पाते हैं, तो उनका जवाब था...मेरे ऊपर कोई वर्कप्रेशर नहीं रहता न इसलिए! वैसे भी बनियान का विज्ञापन कहता है...लाइफ में हो आराम तो आइडियाज़ आते हैं। अब ये आइडिया आते रहें इसीलिए मैं छुट्टियां लेता रहता हूं।

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

क़ातिल भी तुम, मुंसिफ भी तुम!


कहीं न होने के बावजूद राजनीति में शुचिता के अपने मायने हैं। आरोपों का कलंक यहां बहुत बड़ा होता है। ये देखते हुए कि अदालतों पर काम का पहले ही काफी बोझ है, एक नेता ज़्यादा दिन तक खुद को आरोपी कहलवाना अफोर्ड नहीं कर सकता। ऐसे में क्या किया जाए....किया ये जाए कि प्राइवेट सिक्योरिटी की तर्ज पर खुद के लिए प्राइवेट जस्टिस की व्यवस्था की जाए। अपनी ही पार्टी के दो-चार लोग जिनके साथ चाय के ठेले पर आप अक्सर चाय पीने जाते हैं, उन्हें अपने ऊपर लगे आरोपों की जांच करने का ज़िम्मा सौंपा जाए। उनकी न्यायप्रियता का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि चाय के साथ एक मट्ठी लेने पर जब वो उसे तोड़ते हैं, तो खुद बड़ा टुकड़ा अपने पास तो नहीं रखते या फिर संसद की कैंटीन में आलू का परांठा लेने पर उसके किस हद तक बराबर हिस्से करते हैं। एक बार जब इन गंभीर मुद्दों पर इंसाफ करने की उनकी काबिलियत से आश्वस्त हो जाएं तो अपने ऊपर लगे आरोपों की जांच शुरू करवा सकते हैं। अपने लोगों से जांच करवाने एक फायदा ये है कि वो इस बात को समझते हैं कि बुरा इंसान नहीं, हालात होते हैं पर अदालतें ऐसी किसी ‘इमोश्नल अपील’ को काउंट नहीं करतीं। हिंदी फिल्मों के अंदाज़ में कहूं तो अदालत सिर्फ सबूत देखती है। वहीं आपके नज़दीकी लोग सबूत के अलावा आपकी नीयत भी देखते हैं। वो देखते हैं कि आपका इरादा तो नेक था पर बरसात की रात और फायरप्लेस में जल रही आग को देख आप भड़क गए और अनजाने में भूल कर बैठे। नतीजा आप बाइज्ज़त बरी कर दिए जाते हैं और आपके पार्टी प्रवक्ता मीडिया के सामने दावा करते हैं कि हमने उनकी पूरी जांच कर ली है और हम दावे से कह सकते हैं कि उन्होंने कोई गडकरी, सॉरी गड़बड़ी नहीं की! मेरे पड़ौसी कल ही शिकायत कर रहे थे कि उनका लड़का पढ़ने में बहुत होनहार है मगर पांच साल से दसवीं में फेल हो रहा है। मैंने सवाल किया कि अगर फेल हो रहा है तो होनहार कैसे हुआ, नालायक हुआ। उनका जवाब था... ये तो सीबीएसई का आकलन है, पर मेरी उम्मीदों पर वो हमेशा ख़रा उतरता है। मैं दावा करता हूं कि इस बार सीबीएसई की जगह मुझे उसकी कॉपियां जांचने दी जाएं, वो फर्स्ट डिवीज़न लाकर न दिखाए, तो फिर कहना! (दैनिक हिंदुस्तान 9 नवम्बर, 2012) *