गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

खेल है झेल!

कहा जा रहा है कि फिरोजशाह कोटला मैदान में जो कुछ हुआ उसे भारत कलंकित हुआ है। जिस पिच पर ये मैच खेला गया, वो डीडीए की घटिया राजनीति से भी ज़्यादा बुरी थी। उस विकेट पर अगर कुछ देर और मैच होता, तो भारत-श्रीलंका के आपसी सम्बन्ध खतरे में पड़ सकते थे। 23 ओवर की बल्लेबाज़ी में श्रीलंकाई बल्लेबाज़ों ने इतने ज़ख्म खाए, जितने उन्होंने लाहौर आतंकी हमले भी नहीं खाए होंगे। अब सवाल उठाए जा रहे हैं कि इस सबके लिए ज़िम्मेदार कौन हैं? लोग तंज कर रहे हैं कि अगर ढंग की पिच नहीं बना सकते तो बेहतर होगा कि स्टेडियम को बैंकवेट हॉल में तब्दील कर दो। उसे नगर निगम के अधीन कर, शादियों के लिए किराए पर चढ़ा दो।

मगर समस्या की गहराई में उतरने पर मुझे लगता है कि हमें हर खेल शौकिया ही खेलना चाहिए, पेशेवर या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने का विचार छोड़ देना चाहिए। फुटबॉल खेलें, तो मोहन बगान को मोहम्डन स्पोर्टिंग से खेलना चाहिए। हॉकी खेलें, तो इंडियन ऑयल को रेलवे से खेलना चाहिए और क्रिकेट खेलें तो मुम्बई और दिल्ली ही आपस में खेलें, तो बेहतर होगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने पर एक तो परफोर्म करना पड़ता है और दूसरा उसका आयोजन करना होता है। हमें कोई ज़रूरत नहीं है कि हॉकी में हॉलेंड से छह-एक से हार अपनी भद्द पिटवाएं। आठ लोगों की फर्राटा दौड़ में नंवे स्थान पर आएं। कॉमनवेल्थ खेलों के रूप में उड़ता तीर ले हर दिन अपनी बेइज्ज़ती करवाएं। हॉकी विश्व कप का आयोजन का ज़िम्मा लें हर महीने अंतराष्ट्रीय हॉकी फेडरेशन से डांट खाएं।

हम जैसे हैं, वैसे ही बेहतर हैं। अराजकता हमारी कार्य संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। अब सिर्फ इसलिए हम अपने संस्कार नहीं त्याग सकते क्योंकि फलां आयोजन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है। किसी भी कीमत पर चलताऊ रवैये के प्रति हमें अपनी प्रतिबद्धता कम नहीं करनी है। लेकिन ये सब तभी हो सकेगा जब हम सिर्फ घर पर ही अपने भाई-बहनों के साथ खेलें। उसमें भी आइस-पाइस, कैरम, लूडो हमारी प्राथमिकता हो। क्रिकेट खेलें भी तो दोस्तों के साथ घर की बॉलकनी में या फिर गली में। किसी भी स्तर पर खेल अपना स्तर सुधारने की हमें सोचनी भी नहीं चाहिए। वरना होगा ये कि कोई भी माइकल फेनेल हमें कभी भी झाड़ लगा देगा। वेटलिफ्टिंग फेडरेशन डोप टेस्ट में फेल होने पर हम पर दो साल का बैन लगा देगी। हमें तो राष्ट्रीय स्तर के ऐसे ही आयोजन चाहिए जहां न कोई डोप टेस्ट हो न कोई अंतरराष्ट्रीय मापदंड हो, तभी कोटला जैसे कलंकों से बचा जा सकेगा! और अपनी वाली करते हुए हम अपने तरीके से खेल पाएंगें!

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

चरित्रहीनता का जश्न!

टाइगर वुड्स मामले पर पूरे अमेरिका में हंगामा मचा हुआ है। हर कोई उनकी प्रेमिकाएं और तलाक के बाद उनकी बीवी को मिलने वाला पैसा गिनने में लगा है। बताया जा रहा है कि कैसे योजनाबद्ध तरीके से वुड्स ने इतने सालों तक पत्नी और परिवार को धोखा दिया। मगर ये पूरा हंगामा मेरी समझ से परे है। भारत जैसे देश में ऐसी हाय-तौबा मचती तो समझा जा सकता था, मगर अमेरिका, जो सालों से ‘अवैध सम्बन्धों की अंतरराष्ट्रीय राजधानी’ रहा है, वहां ऐसी चीख-पुकार समझ से परे है। ऐसा मुल्क जहां फोटो एल्बम दिखाते समय मांए बच्चों को बताती हैं कि बेटा वो पीले रंग की शर्ट में जो मेरा साथ खड़ा है, वो तुम्हारा पहला डैडी है और उनके साथ जो शख्स हरे रंग की शर्ट में बैठा है, वो तुम्हारे पहले डैडी का दूसरा डैडी है, उनके साथ जो लेडी बैठी हैं वो उनकी तीसरी वाइफ हैं और उसके गोद में जो बच्चा है, वो तुम्हारे पहले डैडी का दूसरा भाई है। समझे!

अब ऐसे मुल्क मे टाइगर वुड्स को यूं देखा जा रहा है जैसे चिड़ियाघर में बच्चे असली टाइगर देखते हैं। अपनी ये दुविधा जब मैंने स्थानीय स्तर के कलंक कथाओं के जानकार को बताईं तो उन्होंने इस हौ-हल्ले के पीछे की वजह समझाई। उनका कहना था कि दरअसल किसी भी समाज में सफल आदमी का चरित्रहीन होना लोगों को हज़म नहीं होता। आम मान्यता है कि चरित्र बचा कर ही सफल हुआ जा सकता है। ‘नेक चरित्र’ वो कीमत है जो हर सफल इंसान को चुकानी पड़ती है। इसलिए आम आदमी ये सोच कर ही तसल्ली कर लेता है कि चलो सफल नहीं हुए तो क्या...चरित्रहीन तो हो ही सकते हैं। मगर सेलिब्रिटी को ये छूट नहीं रहती। वो मिसाल बन चुका होता है। उसे आम समाज की चारित्रिक महत्वकांक्षाओं का बीड़ा उठाना होता है। समाज भी उस पर बराबर नज़र रखता है कि कहीं वो बिगड़ने न पाए। ऐसे में जब-कभी टाइगर वुड्स जैसा कोई नौनिहाल सामने आता है तो लोग बौखला जाते हैं। ऐसे में कुछ को अपना आदर्श टूटने की तकलीफ होती है, तो कुछ को इस बात की तसल्ली कि देखो, ये भी हमारी तरफ गिरा हुआ है।

यही वजह है कि आज समूचा अमेरिका टाइगर वुड्स के चारित्रिक पतन का जश्न मना रहा है। अख़बारों में उनकी प्रेमिकाओं की सूची यूं छापी जा रही हैं जैसे वो देश के लिए कुर्बान हुईं वीरांगनाएं हो और ये सब देख लोग फूले नहीं समा रहे कि जो शख्स उनसे जिस अनुपात में सफल था, वो उसी अनुपात में चरित्रहीन भी निकला। अट्ठारह प्रेमिकाएं!

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

लेखक और बीवी!

कोई भी लेखक दस-बीस फीसदी प्रतिभा और सत्तर-अस्सी फीसदी गलतफहमी के दम पर ही लेखक बनता है। ये अहसास और जबरन खुद पर थोपी गई ये ज़िम्मेदारी कि मेरा जन्म कुछ महान करने के लिए हुआ है, लेखक को हमेशा रोज़मर्रा के छोटे-मोटे काम करने से रोकता है। वो मानता है कि बडे़ लोग हमेशा अपने काम की वजह से जाने जाते हैं न कि इसलिए नहाने के बाद तौलिया रस्सी पर डालते हैं या नहीं, या फिर बचपन में मौहल्ले की दुकान से कभी किराना लाए या नहीं।

यहां तक तो सब ठीक है। मगर दिक्कत वहां आती है जब यही लेखक शादी कर बैठता है। वो कचंनबाला जो इसी लेखक की क्रिएटिविटी के गुण गाते नहीं थकती थी, उसे क्या पता कि रचनात्मकता हमेशा पैकेज डील में आती है। जो शख्स उसे दुनिया का सबसे होनहार और अक्लमंद इंसान लगता था, शादी के महज़ तीन महीने में ही वो उसे एलियन लगने लगता है। हर पल वो यही सोचती है कि कोई इंसान इतना गंदा कैसे रह सकता है! इतने चलताऊ रवैये के साथ कैसे जी सकता है! और यहीं से...जी हां दोस्तों, ठीक यहीं से वो प्रक्रिया शुरू होती है जो सालों से रास्ता भटकी लेखक की अक्ल को ठिकाने लाने का काम करती है।

आप अगले लेख के लिए विषय तलाश रहे हैं और बीवी रसोई से आवाज़ लगाती है...ज़रा इधर आना... लाइटर नहीं मिल रहा। आप लेखन से क्रांति की अलख जगाना चाहते हैं, वो लाइटर से चूल्हा जलाना चाहती है। आप सोच रहे हैं कि समाज में अपराध के मामले बढ़ते जा रहे हैं...वो बताती है कि पेस्ट कंट्रोल करवा लेते हैं…अलमारियों में कीड़े-मकौड़े बढ़ते जा रहे हैं। आप दिल का छू ले, ऐसा भाव तलाश रहे हैं...वो फिक्रमंद है कि सब्जी के भाव फिर बढ़ गए हैं!

आप दस दिन तक बीवी की डांट खाने के बाद पिछले कमरे का पंखा ठीक करवाते हैं...पता चला कि अगले दिन उसी कमरे की ट्यूब खराब हो गई। ट्यूब ठीक भी नहीं हुई थी कि दो दिन बाद बाथरूम में सीलन आ जाती है। बिग बाज़ार चलो...महीने का राशन लाना है। इस संडे को मुझे चांदनी चौक वाली बुआ से मिलवा लाओ। अगली छुट्टी पर मौसी के बेटे सोनू को घर बुला लेते हैं। एक ही शहर में रहता है...आज तक कभी बुलाया नहीं...

इस सब के बावजदू समीक्षक ताना कसते हैं...लेखक अपना बेहतरीन शुरू के सालों में ही देता है...बाद में तो सब खुद को ही रिपीट करते हैं। बनियान का विज्ञापन ठीक कहता है...लाइफ में हो आराम तो आइडियाज़ आते हैं। आराम हो तब न...

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

द ग्रेट इंडियन वेडिंग तमाशा!

ये मेरे मित्र की मति का शहादत दिवस है। आज वो शादी कर रहा है। मैं तय समय से एक घंटे बाद सीधे विवाह स्थल पहुंचता हूं, मगर लोग बताते हैं कि बारात आने में अभी आधा घंटा बाकी है। मैं समझ गया हूं कि शादी पूरी भारतीय परम्परा के मुताबिक हो रही है। तभी मेरी नज़र कन्या पक्ष की सुंदर और आंशिक सुंदर लड़कियों पर पड़ती है। सभी मेकअप और गलतफहमी के बोझ से लदी पड़ी हैं। इस इंतज़ार में कि कब बारात आए और वर पक्ष का एक-एक लड़का खाने से पहले, उन्हें देख गश खाकर बेहोश हो जाए।

इस बीच ध्वनि प्रदूषण के तमाम नियमों की धज्जियां उड़ाती हुई बारात पैलेस के मुख्य द्वार तक पहुंचती है। ये देख कि उनके स्वागत में दस-बारह लड़कियां मुख्य द्वार पर खड़ी हैं, नाच-नाच कर लगभग बेहोश हो चुके दोस्त, फिर उसी उत्साह से नाचने लगते हैं। किराए की शेरवानी में घोड़ी पर बैठा मित्र पुराने ज़माने का दरबारी कवि लग रहा है। उम्र को झुठलाती कुछ आंटियां सजावट में घोडी को सीधी टक्कर दे रही हैं। और लगभग टुन्न हो चुके कुछ अंकल, जो पैरों पर चलने की स्थिति में नहीं हैं, धीरे-धीरे हवा के वेग से मैरिज हॉल में प्रवेश करते हैं।


अंदर आते ही बारात का एक बड़ा हिस्सा फूड स्टॉल्स पर धावा बोल देता है। मुख्य खाने से पहले ज़्यादातर लोग स्नैक्स की स्टॉल का रुख करते हैं। मगर पता चलता है कि वो तो बारात आने से पहले ही लड़की वालों ने निपटा दीं। ये सुन कुछ रिश्तेदारों को आनन्द आ जाता है। इतना मज़ा शायद उन्हें गोभी मंचूरियन खाने में नहीं आता, जितना ये सुन कर आया। बाकी लोग खाने की स्टॉलस की तरफ लपकते हैं। एक प्लेट में सब्ज़ियां, एक में रोटी। फिर भी चेहरे पर अफसोस है कि ये प्लेट इतनी छोटी क्यों है? कुछ का बस चलता तो घर से परात ले आते। कुछ पेंट की जेब में डाल लेते।

खाते-खाते कुछ लोग बच्चों को लेकर परेशान हो रहे हैं। भीड़ की आक्रामकता देख उन्हें लगता है कि पंद्रह मिनट बाद यहां कुछ नहीं बचेगा। बच्चा कहीं दिखाई नहीं दे रहा। मगर उसे ढूंढने जाएं भी तो कैसे...कुर्सी छोड़ी तो कोई ले जाएगा। या तो बच्चा ढूंढ लें या कुर्सी बचा लें। इसी कशमकश में उन्हें डर लगने लगा है कि कहीं वो सगन के पैसे पूरे कर भी पाएंगे या नहीं। उनका नियम है हर बारात में सौ का सगन डाल कर दो सौ का खाते हैं। मगर लगता है कि आज ये कसम टूट जाएगी।

वहीं कोने में दो आंटियां हाथ में अमरस का गिलास थामे निंदा रस का आनन्द ले रही हैं। वो चुन-चुन कर व्यवस्था में से कीड़े निकाल रही हैं। एक को मैरिज हॉल पसंद नहीं आया तो दूसरी को खाना। वो भारी गुस्से में हैं। उनका बस चले तो अभी लड़की वालों को खा जाएं। मगर मैं देख पा रहा हूं कि इस बुराई में वो एक सुकून भी महसूस कर पा रही हैं। जिस अव्यवस्था से उन्हें तकलीफ हुई है...लगता है वो उस तकलीफ के लिए अरसे से तरस रही थीं।

तभी अचानक कुछ लोग गेट की तरफ भागते हैं। पता चलता है कि लड़के के फूफा किसी बात पर नाराज़ हो गए हैं। दरअसल, उन्होंने वेटर को पानी लाने के लिए कहा था, मगर जब दस मिनट तक पानी नहीं आया तो वो बौखला गए। दोस्त के पापा, चाचा और बाकी रिश्तेदार फूफा के पीछे पानी ले कर गए हैं। इधर मैं देखता हूं कि लड़की के परिवारवाले बिना किसी कसूर के ही शर्म से पानी-पानी हो रहे हैं।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

जूत्यार्पण नहीं, माल्यार्पण के हैं हक़दार!

सड़क किनारे जिस रेहड़ी वाले से मैं सब्ज़ी खरीद रहा हूं, वहीं अचानक एक पुलिसवाला आकर रुकता है। वो इशारे से सब्ज़ीवाले को साइड में बुलाता है। वापिस आने पर जब मैं सब्जीवाले से बुलाने की वजह पूछता हूं, तो वो पहले कुछ हिचकिचाता है। फिर कहता है कि यहां खड़े होने के ये (पुलिसवाला) रोज़ तीस रूपये लेता है। करूं भी क्या मेरे पास और कोई चारा भी नहीं है। दुकान यहां किराए पर ले नहीं सकता और रेहड़ी लगानी हैं, तो इन्हें पैसे तो देने ही होंगे।


घर आते समय जब मैं पूरे वाकये को याद कर रहा था तो मन पुलिसवाले के लिए श्रद्धा से भर गया। यही लगा कि आज तक किसी ने पुलिसवालों को ठीक से समझा ही नहीं। हो सकता है कि ऊपर से देखने पर लगे कि पुलिस वाले भ्रष्ट हैं, गरीब रेहड़ी वालों से पैसे ऐंठते हैं, मगर ये कोई नहीं सोचता कि अगर वो वाकई ईमानदारी की कसम खा लें तो इन गुमटी-ठेलेवालों का होगा क्या? पुलिस का ये ‘मिनी भ्रष्टाचार’ तो लाखों लोगों के लिए रोज़गार की वैकल्पिक व्यवस्था है। जो सरकार इतने सालों में इन लोगों के लिए काम-धंधे का बंदोबस्त नहीं कर पाई उनसे दस-बीस रूपये लेकर यही पुलिसवाले ही तो इन्हें संभाल रहे हैं। इतना ही नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में पुलिसवाले अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं, मगर हममें से किसी ने आज तक उन्हें सराहा ही नहीं।

मसलन, पुलिसवालों पर अक्सर इल्ज़ाम लगता है कि वो अपराधियों को पकड़ते नहीं है। मगर ऐसा कहने वाले सोचते नहीं कि जितने अपराधी पकड़े जाएंगे उतनों के खिलाफ मामले दर्ज करने होंगे। जितने मामले दर्ज होंगे उतना ज़्यादा अदालतों पर काम का बोझ बढ़ेगा। जबकि हमारी अदालतें तो पहले ही काम के बोझ तले दबी पड़ी है। ऐसे में पुलिसवाले क्या मूर्ख हैं जो और ज़्यादा से ज़्यादा अपराधियों को पकड़ अदालतों का बोझ बढ़ाएं। लिहाजा़, पुलिसवाले या तो अपराधियों को पकड़ते ही नहीं और पकड़ भी लें तो अदालत के बाहर ही मामला ‘सैटल’ कर उन्हें छोड़ दिया जाता है।

अक्सर कहा जाता है कि अपराध से घृणा करो अपराधी से नहीं। हमारे पुलिसवाले भी ऐसा सोचते हैं। यही वजह है कि अपनी ज़ुबान और आचरण से वो हमेशा कोशिश करते हैं कि पुलिस और अपराधी में भेद ही ख़त्म कर दें। इस हद तक कि सुनसान रास्ते पर खूंखार बदमाश और पुलिसवाले को एक साथ देख लेने पर कोई भी लड़की बदमाश से ये गुहार लगाए कि प्लीज़, मुझे बचा लो मेरी इज्ज़त को ख़तरा है। यही वजह है कि पुलिसवाले अपने शब्दकोष में ऐसे शब्दों का ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं जो किसी शब्दकोष में नहीं मिलते। सिर्फ इसलिए कि पुलिसवाले से पाला पड़ने के बाद अगर किसी का गुंडे-मवाली से सम्पर्क हो तो उसकी भाषायी संस्कारों को लेकर किसी को कोई शिकायत न हो। उल्टे लोग उसकी बात सुनकर यही पूछें कि क्या आप पुलिस में है।

दोस्तों, हम सभी जानते हैं कि निर्भरता आदमी को कमज़ोर बनाती है। ये बात पुलिसवाले भी अच्छे से समझते हैं। यही वजह है कि वो चाहते हैं कि देश का हर आदमी सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर बने। तभी तो सूचना मिलने के बावजूद हादसे की जगह न पहुंच, रात के समय पेट्रोलिंग न कर, बहुत से इलाकों में खुद गुंडों को शह दे वो यही संदेश देना चाहते हैं कि सवारी अपनी जान की खुद ज़िम्मेदार हैं। सालों की मेहनत के बाद आज पुलिस महकमे ने अगर अपनी गैरज़िम्मेदार छवि बनाई है तो सिर्फ इसलिए कि देश की जनता सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर हो पाए। हम भले ही ये मानते हों कि कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है मगर पुलिस के मुताबिक वो हमारा निजी विषय है।


अब आप ही बताइये दोस्तों ऐसी पुलिस जो गरीब तबके को रोज़गार मुहैया कराए, अदालतों का बोझ कम करे, सुरक्षा के मामले में जनता को आत्मनिर्भर होने की प्रेरणा दे और अपराधियों के प्रति सामाजिक घृणा कम करने के लिए खुद अपराधियों-सा सलूक करे, क्यों…आख़िर क्यों ऐसी पुलिस को हम वो सम्मान नहीं देते जिसकी की वो सालों से हक़दार है।