सोमवार, 23 नवंबर 2009

लौह राष्ट्र!

ऑफिस के रास्ते की मुख्य सड़क पर कुछ दिन पहले नाइट-आई लगाई गईं। ये देख तसल्ली हुई कि रात के समय सुविधा होगी। मगर क्या देखता हूं कि कुछ ही दिनों में एक-एक कर सभी नाइट-आई गायब हो गईं। सोचा तो यही लगा कि लोहे के खांचे में फिक्स होने के कारण उठाईगिरे उस पर हाथ साफ कर गए। खैर, नाइट-आई कवर तो अपनी जगह है यहां तो लोग बिजली के तार तक नहीं छोड़ते और तो और गटर पर रखे लोहे के ढक्कन तक उठा ले जाते हैं।

अपने एरिया के जिस पार्क में मैं जाता हूं वहां रखे सभी बेंच यहां-वहां से टूटे-फूटे हैं। माली से पूछा तो उसने बताया कि भाईसाहब लोहे के ठीक-ठाक पैसे मिल जाते हैं इसलिए रात को जो नशेड़ी यहां आते हैं वो मौका मिलने पर बेंच तोड़ उसका लोहा कबाड़ी को बेच देते हैं।

ये सुन गर्दन घुटने तक शर्म से झुक गई। सोचने लगा कि इतना पैसा, जुनून और सुविधाएं होने के बावजूद भले ही हम क्रिकेट में ऑस्ट्रेलिया से आज तक लोहा न ले पाए हों, हमारी फिल्में तकनीक और रचनात्मकता में हॉलीवुड फिल्मों के आगे कहीं न टिकती हों, देसी कम्पनियां अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में विदेशी कम्पनियों से मुंह की खाती हों और भले ही हमें ये एहसास है कि युद्ध होने पर हम चीन से लोहा नहीं ले पाएंगे, मगर इसके उल्ट अपने देश में हम हर जगह लोहा ले रहे हैं। कैसी विडम्बना है कि जो दुनिया हमें किसी भी क्षेत्र में लोहा न ले पाने के लिए कोसती है, उसे ज़रा भी इल्म नहीं कि हम तो सिर्फ लोहा ही लेते हैं।

सड़क के बीच डिवाइडर का लोहा हम नहीं छोड़ते। यहां-वहां खराब पड़े लैम्प पोस्टों का लोहा हम बाप का माल समझ बेच डालते हैं। यहां तक कि सरकारी इमारतों का बांउड्री ग्रिल भी हम उखाड़ लेते हैं और कोई हमारा कुछ नहीं उखाड़ पाता। इस पर भी मुझे ज़्यादा शिकायत नहीं है। मेरी आपत्ति ये है कि इतना लोहा खाने के बाद भी ये देश एक भी गैर विवादित लौह पुरूष नहीं पैदा कर पाया। जो पहले हुए उनकी उपलब्धियों पर हाल-फिलहाल लोग पानी फेरने में लगे हैं और जो स्वयंभू लौह-पुरूष हैं वो देश तो दूर पार्टी तक में अपना लोहा नहीं मनवा पाए। इतनी चुनावी जंग हारे कि वो लौह पुरूष से ज़ंग पुरूष हो गए। लौह पुरूष न मिलने का ग़म भी बर्दाश्त है मगर मेरी असल तकलीफ ये है कि इतना लोहा खाने के बाद भी जब आम हिंदुस्तानी डॉक्टर के पास जाता है तो वो आंख में झांक कर यही कहता है ओफ्फ फो...आपमें तो आयरन की कमी है!

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

कॉमनवेल्थ खेलों पर दिल्ली की छाप

दो हज़ार दस कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारी में सरकार जी-जान से जुटी है। इन खेलों के बहाने हमें दुनिया को अपनी ताकत दिखानी है। यही वजह है कि इस आयोजन पर अब तक करोड़ों रूपया लग चुका है और करोड़ों लगाया जाना है। सरकार अपनी तरफ से कोई कमी नहीं रखना चाहती, यहां तक कि उसने दिल्लीवासियों को अगले एक साल में पिछले साठ सालों की गंदी आदतें सुधारने की हिदायत भी दे दी है। ये सब ठीक हैं, मगर मेरा मानना है कि अगर वाकई भारत इन खेलों के ज़रिए अलग छाप छोड़ना चाहता है तो उसे कुछ ऐसा करना चाहिए जिसमें पूरी तरह भारतीयता झलके। मतलब ऐसे खेल करवाए जाएं जो पूरी दुनिया में कहीं और नहीं हो सकते, जिनमें पूरी तरह दिल्ली का फ्लेवर हो। पेश है ऐसे ही कुछ खेलों के सुझाव-

1.जैसा की ख़बर है, साइकलिंग ट्रेक अभी तैयार नहीं हुआ है। मेरा मानना है कि उसे तैयार करवाने की ज़रूरत भी नहीं है। कॉमनवेल्थ खेलों में ये इवेंट दिल्ली की सड़कों पर करवाया जाए। बिल्कुल असल माहौल में। बिना सड़कें खाली करवाए। इधर, बीस-पचास साइकिल सवार एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में हैं। पीछे से ब्लू लाइन बस पीं-पीं कर रही है। सामने सरिए लहराता हुआ ट्रक जा रहा है। साथ में दो किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से गाय चल रही है। वहीं सड़क किनारे कुछ नटखट कुत्ते भौं-भौं कर रहे हैं। इन सबके बीच बिना गिरे, बिना डरे और सबसे महत्वपूर्ण बिना मरे जो फिनिशिंग लाइन तक पहुंचेगा, वही विजेता होगा।

2.दोस्तों, मेरा मानना है कि असली खिलाड़ी वो नहीं है जो पोल वॉल्ट में सात मीटर की छलांग लगा ले या फिर सौ मीटर की फर्राटा दौड़ नौ सैकेंड में पूरी कर दे, असल खिलाड़ी वो है जो पीक आवर में ब्लूलाइन की बस में सीट ढूंढ लें। इसलिए एक इवेंट इससे जुड़ा भी होना चाहिए। आठ-दस खिलाड़ियों को सुबह के वक़्त किसी बस स्टॉप पर खड़ा किया जाए और उन्हें पीछे से आती किसी भीड़ भरी बस में घुस कर सीट ढूंढनी पड़े। जो जिस क्रम में सीट ढूंढेगा उसी क्रम में वो स्वर्ण,रजत और कांस्य का हक़दार होगा।


3.एथलेटिक स्पर्धाओं में एक इवेंट पैदल दौड़ का भी होता है। पैदल दौड़ के लिए यूं तो दिल्ली में कई जगहें उपयुक्त हैं मगर सदर बाज़ार इलाके का कोई सानी नहीं है। इसमें प्रतिस्पर्धी की चुनौती ये है कि उसे पैदल दौड़ना तो है, मगर दौड़ते वक़्त किसी से टकराना नहीं है और अगर टकरा भी गया तो गाली नहीं खानी है। अब टकराना या न टकराना आपकी काबिलियत पर निर्भर करता है जबकि गाली खाना आपकी किस्मत पर। इस तरह ये दौड़ हुनर और किस्मत का मेल होगी। वैसे भी इन दोनों के मेल के बिना इस शहर में कौन सरवाइव कर सकता है। खैर, आख़िर में जो भी प्रतिस्पर्धी सबसे कम धक्के और गालियां खा दौड़ ख़त्म करेगा वही विजेता होगा।


4.दिल्लीवासी होने के नाते मेरी ये हमेशा शिकायत रही है कि जब गंगा नदी में इतने सारे एडवेंचर स्पोर्ट्स होते हैं तो यमुना में क्यों नहीं। लिहाज़ा मैं आयोजन समिति से मांग करूंगा कि वॉटर स्पोर्ट्स से जुड़ी सभी स्पर्धाएं यमुना में करवाई जाएं। जिसमें पचास मीटर फ्री स्टाइल स्विमिंग से लेकर बैक स्ट्रोक,बटरफ्लाई और चार गुना सौ मीटर रिले सब शामिल हों।

यमुना की हालत देख अगर कोई इसे नदी मानने के लिए तैयार न हो तो उसे इतिहास की किताबें दिखाई जाएं, उसका पौराणिक महत्व बताया जाए। इसके बावजूद कोई गंदगी की बात करे तो उसे पिछले सालों में इसकी सफाई पर खर्च पैसे का ब्यौरा दिया जाए। उससे पूछा जाए कि आप ही बताएं, करोड़ों रूपये खर्च करने के बाद भी ये गंदी कैसे हो सकती है।

दोस्तों, इस तरह खेल करवाने का सबसे बड़ा फायदा ये होगा कि ज्यादातर खेलों में सबसे ज़्यादा स्वर्ण पदक भारत ही जीतेगा। ऐसे में उन लोगों के मुंह भी बंद हो जाएंगे जो ये कहते हैं कि खेल आयोजन करवाने से खेलों का स्तर नहीं सुधरता, उसके लिए खिलाड़ियों को परफॉर्म करना पड़ता है। अब आप ही बताएं, दिल्ली की भीड़ भरी सड़कों पर दौड़ने, घटिया ट्रांसपोर्ट में सफर करने और सांस रोक यमुना में तैरने में, हमसे बढ़िया भला पूरी दुनिया में कौन परफॉर्म कर सकता है!

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

सनसनी का बेंचमार्क!

ये बहस तो अवहेलना से आहत हो कब की आत्महत्या कर चुकी है कि न्यूज़ चैनलों को सनसनी परोसनी चाहिए या नहीं। अब तो सवाल ये है कि सनसनी का स्तर कैसे बनाकर रखा जाए। मतलब, आज से छह महीने पहले लोग जिस खबर पर हैरान होते थे, आज उसने उत्तेजित करना बंद कर दिया है। जिस ‘कूड़े’ को तैयार करने में पहले एक-आध चैनल को महारत हासिल थी, उसकी रेसिपी आज सब ने जान ली है। इस सबके चलते हुआ ये है कि सनसनी का ‘बार’ रेज़ हो गया है। जो चैनल कल तक ‘साल की सबसे बड़ी’ ख़बर या घटना बता धमकाते थे वो अब सदी से नीचे बात ही नहीं करते।

नक्सली बंगाल में गाड़ी रोकते हैं-चैनल बताता है-भारत का सबसे बड़ा अपहरण। जयपुर के तेल डिपो में आग लगती है-वो लिखता है-भारत का सबसे बड़ा अग्निकांड। मंझोले या छुटके के लिए यहां कोई जगह नहीं है, क्योंकि उसका मानना है कि बड़ा है तो बेहतर है। आतंकियों ने मुम्बई पर हमला किया था तब भी उसने बताया था-सबसे बड़ा आतंकी हमला। इंचटेप ले त्रासदी का साइज नापा जा रहा है। अगर कोई बताए कि मेरे पिताजी तो इस-इस तरह से सड़क हादसे में मारे गए और हादसे का विवरण सुन सामने वाला कहे, अरे! ये तो सदी का सबसे बड़ा सड़क हादसा था! तो क्या पीड़ित शख्स ‘दुख की बढ़िया हैडलाइन’ सुन खुश हो जाएगा।

खैर, पीड़ित शख्स कुछ भी सोचे, यहां तो हर किसी की कोशिश है कि उसका बड़ा, सामने वाले के बड़े से किसी कीमत पर छोटा नहीं पड़ना चाहिए। इसलिए ‘सदी’ प्राइम टाइम का नया बेंचमार्क हो गई है और अगर कोई अतिउत्साही ‘दशक की सबसे बड़ी ख़बर’ ले प्रोड्यूसर के पास जाए तो उसे पूरे न्यूज़रूम के सामने पीटा जाता है। सबको बताया जाता है कि शाम छह बजे के बाद सदी से नीचे की कोई खबर नहीं चलनी चाहिए। सुबह ‘दशक की’ और रात बारह बजे बाद ‘साल की’। ‘आज की सबसे बड़ी ख़बर’ कहने का रिवाज़ तो अक्लमंदी की तरह न जाने कब का गायब हो चुका है। प्राइम टाइम और नॉन प्राइम टाइम कहे जाने वाले एंकर भी अब ‘सदी टाइम’ और ‘नॉन सदी टाइम’ कहलाने लगे हैं। ऐसे लोग जो चैनलों में साल की सबसे बड़ी ख़बर वाले बुलेटिन बनाते हैं, उन्हें नीची निगाहों से देखा जाता है। लोग बॉयोडेटा में लिखते हैं कि फलां चैनल में पिछले तीन सालों से सदी के सबसे बड़े बुलेटिन का ज़िम्मा निभा रहा हूं। और जैसा मुकाबला आज चैनल्स के बीच है उसे देख लगता नहीं कि सदी का ये चलन इस सदी के आख़िर तक भी जाएगा।