सोमवार, 31 मई 2010

सारी शामें उनमें डूबीं, सारी रातें उनमें खोयीं! (हास्य-व्यंग्य)

कॉलेज का नया सत्र शुरू होने वाला है। आए दिन अख़बार-टीवी में फैशनेबल लड़कियों की तस्वीरें आती हैं, जिनमें अक्सर दिखाया जाता है कि एक बला की खूबसूरत लड़की अपनी सहेली से बात कर रही है और पीछे कोने में खड़े दो लड़के किसी ओर दिशा में मुंडी घुमाए हैं। मैं कभी नहीं समझ पाया कि ये बाप के बेटे, लड़कियां न देख दूसरी दिशा में आख़िर क्या देखते हैं। ऐसी कौन-सी अनहोनी है जो इनकी गर्दन को लड़कियां देखने के बजाए पैंतालीस डिग्री घूमने पर मजबूर करती है। सच...आधी बुद्धि इन लड़कियों को देख भ्रष्ट हो जाती है, और बाकी इन गधे लड़कों को देख।

दोस्तों, ये ऐसा दर्द है जिसे वही समझ सकता है जो कभी को-एड में न पढ़ा हो। जिसके सम्पर्क क्षेत्र में दो ही महिलाएं रही हों, एक उसकी मां और दूसरी बहन। जो गर्ल्स कॉलेज के चौकीदार को भी जलन भरी निगाहों से देखता हो। जो बंद पड़े गर्ल्स कॉलेज की चारदीवारी में भी लड़की होने की उम्मीद में झांकता हो। जो साइकिल स्टैंड पर खड़ी लेडीज़ साइकिलों को भी हसरत भरी निगाहों से देखता हो। जिसके जीवन का एकमात्र मकसद ऐसी लड़कियों की तलाश हो जिनकी साइकिल की चैन उतर चुकी है। ऐसी चैनें चढ़ा कर ही इसे चैन मिलता है। किसी और को चैन चढ़ाता देख ये बेचैन हो जाता है, और तब तक चैन से नहीं बैठता जब तक दो-चार साइकिलों की चैन न चढ़ा ले। मित्रों, हिंदुस्तान की कस्बाई ज़िंदगी में थोक के भाव पाए जाने वाले ये वो बांकुरें हैं जो ज़्यादातर जीवन शहर के आउटस्कर्ट्स में गुज़ारते हैं और शहर आने पर कभी स्कर्ट्स के साथ एडजस्ट नहीं कर पाते!

दुनिया भर के वैज्ञानिक मंगल पर पानी की खोज में है तो ये सम्पूर्ण धरती पर लड़कियों की खोज में। बस में चढ़ते ही सैकिंड के सौवें हिस्से में पता लगा लेते हैं कि लड़की कहां बैठी है। फिर यथासम्भव कोण बना उसे एकटक ताड़ते हैं। सवारियां बस के बाहर के सौंदर्य का आनन्द उठाती हैं और ये बस के भीतर का। इनके लिए उस एक पल पूरी दुनिया डायनामाइट लगा उड़ा दी गई है। अगर कोई शह उस क्षण ज़िंदा है और देखने लायक तो वो लड़की जिसे वो पिछले सैंतीस मिनट से बिना सांस लिए, बिना पलक झपकाए, आंखें गढ़ाए देख रहे हैं। इन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं कि लड़की इनके बारे में क्या सोचेगी। इनकी नज़र में पूरी समस्या मात्र ‘शाब्दिक मतभेद’ है। लड़कियां जहां इस एकटक ताड़ने को ‘बेशर्मी’ मानती हैं तो ये ‘आंख सेंकना’।

यहां प्यार में विचारों का मिलना नहीं, मौके का मिलना ज़रूरी होता है। अक्सर जिस लड़की से प्यार करते हैं उसे कानों-कान इसकी ख़बर नहीं लगती। दोस्तों में उसे ‘तुम्हारी भाभी’ कहते हैं। मगर उनकी भाभी को कभी नहीं बता पाते कि ये उसका पति बनना चाहते हैं। फिर एक रोज़ इसके दोस्त ही इसे खुशखबरी देते हैं कि-‘हमारी भाभी’ अब तुम्हारी भी भाभी बनने वाली है। उसके घर वालों ने उसका रिश्ता तय कर दिया है। ये सुन इस मासूम का दिल टूट जाता है। बिना कभी लड़की को प्रपोज़ किए, बिना अपने दिल का हाल बताए ये इस महान नतीजे पर पहुंचता है कि इसके साथ ‘धोखा’ हुआ है! ये जीवन भर ऐसे ही धोखे खाता है और इन्हीं मुगालतों में जीवन बनाने के मौके खोता है। आशिक के ऐसे ही हालात पर सरदार अली जाफरी ने कहा है... सारी शामें उनमें डूबीं, सारी रातें उनमें खोयीं, सारे सागर उनमें टूटे, सारी मय गर्क उन आंखों में है, देखती हैं वो मुझे लेकिन बहुत बेगानावार (जैसे जानती ही न हों)।

रविवार, 30 मई 2010

अपनी-अपनी पहचान! (व्यंग्य)

दुनिया को एक बड़ा-सा क्लास रूम माना जाए और अलग-अलग देशों को स्टूडेन्ट्स तो बड़ी रोचक तस्वीर उभरती है। कक्षा में जहां जापान जैसे कुछ मेहनती बच्चे हैं, जिन्होंने सिर्फ पढ़ाई-लिखाई के दम पर पहचान बनाई है जो सिर्फ अपने काम से काम रखते हैं तो वहीं अमेरिका जैसी अमीर बाप की औलादें भी हैं, जिनका ध्यान पढ़ाई में कम और नेतागिरी में ज़्यादा है। जो ‘पैसा फेंक और पर्चा खरीद’ में माहिर हैं। एक इंग्लैंड है, जिसका ज़्यादातर वक़्त अमीर दोस्त अमेरिका की चमचागिरी में बीतता है तो वहीं यूरोपीय देशों के छात्रों का एक गुट भी है जो अमेरिकी दादागिरी से बचने के लिए साथ खाता-पढ़ता है।

ये सब बच्चे पहली दुनिया के देश कहलाते हैं जो या तो अपनी मेहनत के दम पर टिके हैं, पैसे के दम पर या फिर एक दूसरे के दम पर। वहीं इस क्लास में कुछ ऐसे बच्चे भी हैं, जो स्कूल क्यों जा रहे हैं, वो खुद नहीं जानते। उन्हें पता है कि दसवीं के बाद उन्हें गल्ले पर बैठ पिताजी की दुकान संभालनी है। मगर ये सब भी कुछ न कुछ करने में लगे हुए हैं। कक्षा में अगर किसी बच्चे के इम्पोर्टेंट नोट्स चोरी हो गए हैं और इसके एवज़ में कोई छात्र पैसे मांग रहा है तो मान लें कि ये सोमालिया होगा। क्लास में अगर चोरी छिपे जर्दे-तम्बाकू के पाउच आ गए हैं तो ये नाइजीरियाई छात्र की करतूत होगी। वहीं बड़े डौलों की धौंस दिखा, ड्रैगन छपी टी-शर्ट पहन, हर दूसरे छात्र को डराने वाला निश्चित तौर पर चीन ही होगा। अमेरिकी और यूरोपीय छात्रों को पीटने की अगर कहीं प्लानिंग चल रही है तो उसके पीछे पाकिस्तानी होगा और वहीं पूरी कक्षा में जिसका कोई दोस्त नहीं, जिसे सब से शिकायत है, साथी बैंच वालों से भी जिसका झगड़ा है, जिसकी हर कोई बेइज़्ज़ती कर जाता है, जो औसत होने के बावजूद दंभी है... जी हां, वो मेरा भारत महान है।

मंगलवार, 25 मई 2010

एक आध्यात्मिक घटना! (हास्य-व्यंग्य)

आजकल परीक्षा परिणामों का सीज़न चल रहा है। रोज़ अख़बार में हवा में उछलती लड़कियों की तस्वीरें छपती हैं। नतीजों के ब्यौरे होते हैं, टॉपर्स के इंटरव्यू। तमाम तरह के सवाल पूछे जाते हैं। सफलता कैसे मिली, आगे की तैयारी क्या है और इस मौके पर आप राष्ट्र के नाम क्या संदेश देना चाहेंगे आदि-आदि। ये सब देख अक्सर मैं फ्लैशबैक में चला जाता हूं। याद आता है जब मेरा दसवीं का रिज़ल्ट आना था। अनिष्ट की आशंका में एक दिन पहले ही नाई से बदन की मालिश करवा ली थी। कान, शब्दकोश में न मिलने वाले शब्दों के प्रति खुद को तैयार कर चुके थे। तैंतीस फीसदी अंकों की मांग के साथ तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को सवा रूपये की घूस दी जा चुकी थी और पड़ौसी, मेरे सार्वजिनक जुलूस की मंगल बेला का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे।

वहीं फेल होने का डर बुरी तरह से तन-मन में समा चुका था और उससे भी ज़्यादा साथियों के पास होने का। मैं नहीं चाहता था कि ये ज़िल्लत मुझे अकेले झेलनी पड़े। उनका साथ मैं किसी कीमत पर नहीं खोना चाहता था। उनके पास होने की कीमत पर तो कतई नहीं। दोस्तों से अलग होने का डर तो था ही मगर उससे कहीं ज़्यादा उन लड़कियों से बिछड़ जाने का था जिन्हें इम्प्रैस करने में मैंने सैंकड़ों पढ़ाई घंटों का निवेश किया था। असंख्य पैंतरों और सैंकड़ों फिल्मी तरकीबें आज़माने के बाद ‘कुछ एक’ संकेत भी देने लगी थीं कि वो पट सकती हैं। ये सोच कर ही मेरी रूह कांप जाती थी कि फेल हो गया तो क्या होगा! मेरे भविष्य का नहीं, मेरे प्रेम का! या यूं कहें कि मेरे प्रेम के भविष्य का!

कुल मिलाकर पिताजी के हाथों मेरी हड्डियां और प्रेमिका के हाथों दिल टूटने से बचाने की सारी ज़िम्मेदारी अब माध्यमिक शिक्षा बोर्ड पर आ गयी थी। इस बीच नतीजे आए। पिताजी ने तंज किया कि फोर्थ डिविज़न से ढूंढना शुरू करो! गुस्सा पी मैंने थर्ड डिविज़न से शुरूआत की। रोल नम्बर नहीं मिला तो तय हो गया कि कोई अनहोनी नहीं होगी! (फर्स्ट या सैकिंड डिविज़न की तो उम्मीद ही नहीं थी) पिताजी ने पूछा कि यहीं पिटोगे या गली में.....इससे पहले की मैं ‘पसंद’ बताता...फोन की घंटी बजी...दूसरी तरफ मित्र ने बताया कि मैं पास हो गया...मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था....पिताजी भी खुश थे...आगे चलकर मेरा पास होना हमारे इलाके में बड़ी 'आध्यात्मिक घटना' माना गया....जो लोग ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे, वो करने लगे और जो करते थे, मेरे पास होने के बाद उनका ईश्वर से विश्वास उठ गया!

शुक्रवार, 21 मई 2010

लोकतंत्र की ख़ातिर!

देश में अगर बहुत-सी बुरी चीज़ें हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि हम कुछ अच्छी चीज़ें न होने दें और अगर कुछ अच्छी चीज़ें हो रही हैं तो ये भी ज़रूरी नहीं कि बुरा होना रूक जाए। अच्छाई-बुराई के इस सह-अस्तित्व को भारत से अच्छा और किसी ने नहीं समझा। दिल्ली में वर्ल्ड क्लास मैट्रो है ये अच्छी बात है, हम चाहते हैं कि हमारे यहां बुलेट ट्रेन चले, ये भी अच्छा है। मगर देश की राजधानी में गाडी पकड़ने में मची भगदड़ में अगर दो-चार लोग मारें जाएं तो इसमें भी कोई बुराई नहीं है। इंडिया होने के चक्कर में भारत अपनी पहचान नहीं गंवा सकता है।

भले ही आज तक हम ड्रेनेज लाइन और पीने के पानी की पाइप लाइन को मैनेज न कर पाएं हो, मगर हिंदुस्तान से ईरान के बीच गैस पाइप लाइन बिछाने की तो सोच ही सकते हैं। हमारे खिलाड़ी भले ही राष्ट्रीय कैंपों में अपने बर्तन तक खुद धोएं मगर राष्ट्रमंडल खेलों के खिलाड़ियों को विश्वस्तरीय सुविधाएं देने के प्रति तो हम वचनबद्ध हैं हीं। तो क्या हुआ जो हमने आज तक पब्लिक टॉयलेट्स को साफ रखना नहीं सीखा, मगर कार्बन उत्सर्जन में कटौती का वादा कर हमने ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी तो निभा ही दी है। हमारा पब्लिक ट्रांसपोर्ट भले ही कितना घटिया हो मगर ताज़ा ऑटो सेल नतीजे बताते हैं कि गाड़ियों की बिक्री में हमने सबको पीछे छोड़ दिया है। गरीब बढ़े हैं तो क्या फोर्ब्स की सूची में भारतीय अरबपति भी तो बढ़े हैं। और ये विरोधाभास यूं ही नहीं है। खाते-कमाते लोग तो वोट देते नहीं। रही बात साफ पानी और बढ़िया पब्लिक ट्रांसपोर्ट की तो जो स्टेशनों में मची भगदड़ में मारे जाते हैं उन्हीं से साफ पानी और पब्लिक ट्रांसपोर्ट के नाम पर वोट मांगा जा सकता है। लोकतंत्र बचा रहे उसके लिए ज़रूरी है कि थोड़ी बहुत अव्यवस्था भी बची रहे।

शुक्रवार, 14 मई 2010

नग और नगीने!

वक़्त आ गया है कि क्रिकेट की हार को हम क्रिकेटीय कारणों से आगे बढ़ कर देखें। बहुत हो चुका ये कहते-कहते कि हमारे गेंदबाज़ों की गति कुछ ब्लैक एंड व्हाइट हिंदी फिल्मों से भी धीमी है, फील्डिंग देश की कानून-व्यवस्था से भी लचर है और शॉर्ट पिच गेंदें देख बल्लेबाज़ों की तकनीक में शॉर्ट सर्किट हो जाता है। वक़्त आ गया है कि शोध करें कि कहीं इसके पीछे ज्योतिषय, खगोलिय या वास्तुशास्त्रीय कारण तो ज़िम्मेदार तो नहीं। जिन बल्लेबाज़ों को हम तेज़ गेंदबाज़ी न खेल पाने के लिए अरसे से कोस रहे हैं, ऐसा तो नहीं कि उनका शनि ठीक न चल रहा हो। पैदल गेंदबाज़ किसी ग्रह की वक्रीय चाल से बेहाल हों या फिर कैच छोड़ने वाला खिलाड़ी खुद किसी ग्रह की गिरफ्त में हो।

वक़्त आ गया है कि बीसीसीआइ सभी क्रिकेट खिलाड़ियों की कुंडलिया मंगवाए। पैसे को व्यर्थ बताने वाले कुछ बडे़ पंडितों को अनाप-शनाप पैसा दे हायर किया जाए। वो देखें कि गड़बड़ी कहां है। वास्तुशास्त्रियों से खिलाड़ियों के घर का मुआयना करवाया जाए। ये देखा जाए कि जो गेंदबाज़ फील्ड प्लेसमेंट के हिसाब से गेंद नहीं करता उसके घर में किन-किन सामानों की प्लेसमेंट ग़लत है। अंगदनुमा फुटवर्क के चलते पगबाधा होने वाले बल्लेबाज़ के रास्ते में, कही ग़लत जगह रखा उसका डब्ल बैड तो बाधा नहीं।


साथ ही बीसीसीआइ ये भी सुनिश्चित करे कि समस्याओं का जल्द निपटारा हो। खिलाड़ियों को झाड़ा लगवाने से लेकर उनके लिए बाज़ार में अच्छे नग तलाशने का काम वो खुद करे। खिलाड़ियों को ईस्ट फेसिंग मकान दिलवाएं। सत्यनारायण की कथा करवाए। कालसर्प योग कराए। जो कुछ हो सकता है वो करे। मुझे पक्का यकीन है कि ठीक नग पहन कर हमारे नगीने ठीक से खेलने लगेंगे। और आख़िर में विपक्षी खिलाड़ी बुरा खेलें इसके लिए किसी तांत्रिक की सेवाएं भी ली जा सकती है।

शुक्रवार, 7 मई 2010

नैतिकता के टावरों से बंजी जम्पिंग!

गजब मंजर है। चारों ओर लोग नैतिकता के टावरों से बंजी जम्पिंग कर रहे हैं। प्रतिस्पर्धा है तेज़ी से नीचे गिरने की। कर्तव्य की ज़मीन से भाग स्वार्थ के पैराशूट खोलने की। सालों से लोग सेफ लैंडिंग भी कर रहे हैं। और कभी-कभार जब रस्सी नहीं खुलती तो पता चलता है कि कोई माधुरी गुप्ता, जिसका काम तो भारत के लिए पाकिस्तान की जासूसी करना था मगर वो लगी पाकिस्तान के लिए भारत की जासूसी करने। रस्सी न खुलने पर रस्सा कस गया। अजब त्रासदी है। फॉरवर्ड टीम को बढ़त दिलवाने में लगे हैं और गोलची सेल्फ गोल कर रहा है!

अप्रेल के शुरू में दंतेवाड़ा में नक्सलियों से लड़ते हुए सीआरपीएफ के चौहत्तर जवान शहीद हुए थे और महीने के आख़िर में पता चला कि सीआरपीएफ के जवान ही अरसे से नक्सलियों को हथियार सप्लाई कर रहे थे। मैं सोचता हूं कि जिस दौर में भ्रष्टाचार ही राष्ट्रीय आचरण बन गया हो, वहां शहीदों को इससे बेहतर ‘विभागीय श्रद्धांजलि’ और भला क्या दी सकती थी!

संसद में इस मामले पर बहस होती रही कि सरकार खुफिया एजेंसियों के माध्यम से नेताओं के फोन टैप करवा रही है। फिर ख़बर आई कि अमेरिकी और ब्रिटिश एजेंसियों ने आगाह किया है कि दिल्ली के बाज़ारों में धमाके हो सकते हैं। कैसी विडम्बना है कि हमें अपने नेताओं पर भरोसा नहीं है और उन्हें हमारे बाज़ारों की फिक्र है। एसीएसयू प्रमुख पॉल कोन्डन ने दो हज़ार आठ में आईसीसी को चेताया था कि आईपीएल में बड़े पैमाने पर मैच फिक्सिंग हो सकती है और कैसा हसीन इत्तेफाक है कि आज मैच फिक्सिंग में हम खुद आइपीएल कमीश्नर के शामिल होने की बात कर रहे हैं!!! जिस-जिस स्तर पर और जितना गिरा जा सकता था, वहां-वहां हमने बोरवैल खोद लिए हैं। कुछ बचा नहीं है। गुनुदगी में जीने वाले देश को कुछ और नाचा-गाना सुनाओ। शुक्र है! इंडियन आइडल फाइव शुरू हो गया है।