गुरुवार, 30 जुलाई 2009

दर्शन दो घनश्याम!

तस्वीरें, अंग्रेज़ी अख़बार का वो महत्वपूर्ण ‘कंटेंट’ हैं, जिनसे गुज़रते हुए हिंदीभाषी पाठक उसके पन्ने पलटता है। मैं भी यही कर रहा हूं। तस्वीरें देख रहा हूं और साढ़े तीन रूपए की बर्बादी की आत्मग्लानि के भंवर में फंसने से खुद को बचा रहा हूं। बहुत-सी सुंदर बालाएं इस रेस्क्यू ऑपरेशन में मेरी मदद कर रही हैं। एक जगह पैंतीस हज़ार की ‘सस्ती ईएमआई’ पर मर्सीडिज खरीदने का ऑफर है। ऑफर ठुकरा मैं आगे बढ़ता हूं। जिस पन्ने पर अब मेरी निगाह पड़ी है, वो मेरे घर बैठने के सख़्त खिलाफ है। जगह-जगह घूमने-फिरने के दसियों ऑफर हैं। कोई बीस हज़ार में तीन दिन मनाली घूमा रहा है, तो कोई नब्बे हज़ार में ऑस्ट्रेलिया ले जा रहा है। किसी की दिली ख़्वाहिश है कि बस एक बार उसके कहने पर मैं डेढ़ लाख का मामूली भुगतान कर यूरोप हो आऊं।

पढ़ते-पढ़ते अचानक मुझे घनश्याम की याद आ गई, जो कल ही मेरठ जाने के लिए मुझसे डेढ़ सौ रूपये ले गया है। इस वादे के साथ कि तीन दिन में वापिस आ जाएगा, क्योंकि इन्हीं पैसों से आगे मुझे भी घर जाना है। एक बार फिर अख़बार पर नज़र पड़ती है। विज्ञापन कहता है कि दो साल के लिए आठ हज़ार की ईएमआई पर मैं अमेरिका भी घूम सकता हूं। विज्ञापन मुझे जल्दी करने के लिए कह रहा है। तभी मोबाइल की घंटी बजती है। दूसरी तरफ घनश्याम है। वो बता रहा है कि उसे पीलिया हो गया है। आने में देरी हो जाएगी। इससे पहले कि मैं कुछ और पूछता वो ये कह फोन काट देता है कि ‘रोमिंग लग रही है’। सामने रोम घुमाने का भी प्रस्ताव है। वेनिस ले जाने की व्यवस्था है। तीन दिन और चार रातों के एवज़ में पचास हज़ार की मांग है।

दो महीने पहले एक एलआईसी एजेंट मिला। जिस तरह महिलाएं डेढ़ सौ की रेंज बता दुकानदार को ‘बढ़िया सूट’ दिखाने को कहती हैं, उसी तरह मैंने भी हज़ार-बारह सौ के सालाना प्रीमियम पर उसे ‘बढ़िया स्कीम’ बताने के लिए कहा। उसने विस्तार से योजना समझाई, जिसका हासिल ये था कि अगर मैं सभी किस्तें देता रहूं तो बारह साल बाद मुझे बीस हज़ार की ‘रक़म’ मिलेगी। ( बीस हज़ार के साथ ‘रक़म’ का इस्तेमाल उसने मेरा मन खुश करने के लिए किया था।) मैं सोचने लगा कि अगर बारह साल तक दिन-रात मेहनत कर रूपया जोड़ूं तो भी सिंगापुर में तीन दिन और चार रातें नहीं गुज़ार सकता। मुझे घबराहट होती है। सोचता हूं कि आख़िर मेरी ज़िंदगी की किताब में अख़बार का ये पन्ना कब जुड़ेगा।


मुझे आज भी याद है, हमारे गांव में जब कोई बाहर से आता तो दो-चार दिन बाद बेचैन हो उठता। बावजूद ये जानते हुए कि आठवीं तक एक राजकीय स्कूल के अलावा पूरे गांव में कोई पक्की इमारत नहीं है, वो घुमाने की डिमांड करता। मजबूरी में उसे साइकिल पर बिठा गांव से दो किलोमीटर दूर पानी की टंकी दिखाने ले जाते। टंकी से रिसाव के चलते उसके आस-पास उग आई घास दिखाते। ऊंचाई और हरियाली एक साथ देख वो बेचारा निहाल हो जाता। उस गरीब को मज़ा आ जाता। दुनिया लाखों खर्च कर आइफिल टावर देखने जाती है मगर सरकार की मां बदौलत इस देश में आज भी इतना पिछड़ापन है कि लोग पानी की टंकी में भी आश्चर्य और उत्तेजना ढूंढ लेते हैं।

कल ही दो दिन की बारिश के बाद पड़ौ़स में रहने वाले सज्जन कह रहे थे कि मज़ा आ गया। बिल्कुल शिमला जैसा मौसम हो गया। मैं जानता हूं कि वो कभी शिमला नहीं गए। फिर भी हर बारिश पर हल्ला कर घोषणा कर देते हैं कि मौसम शिमला जैसा हो गया। पिता की इस घोषणा के बाद बच्चे शिमला जाने की मांग नहीं करते। पकौड़े खाते समय बीवी भी यही सोचती है कि वो शिमला में बैठी है।

मैं सोचता हूं.....एक ही बारिश में दिल्ली को शिमला बना भगवान इंद्र ने ट्रेवल एजेंसियों की रोज़ी पर लात मार दी। हे प्रभु! मुझ पर भी कृपा करो। जानता हूं तुम बीमारी के नहीं, बारिश के देवता हो...फिर भी घनश्याम को जल्दी ठीक कर दो। मुझे भी घर जाना है।

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

मुसीबतों का इंद्रधनुष!

बारिश के बाद अगली सुबह है। मैं ऑफिस के लिए घर से निकला हूं। कुछ दूरी पर ही बर्बादी का ट्रेलर दिखने लगा है। नालियां ख़तरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। गटरों में हाई टाइड है। ये देख लोगों की हवा टाइट है। सड़क की हालत पर गश खा कुछ पेड़ सड़क पर ही गिरे पड़े हैं। यहां-वहां लटकते लैम्प पोस्ट मानो उनके दुख में शरीक हो रहे हैं। वहीं गंदे पानी पर तैरते रंग-बिरंगे पॉलिथीन सड़क को इंद्रधनुषी लुक दे रहे हैं।

दोनों ओर से लबलबाती नालियों ने सड़क को पूरी तरह आगोश में ले लिया है। ये बताना मुश्किल है कि सड़क कहां है और सड़क के पासपोर्ट में पहचान चिह्न के रूप में दर्ज, स्थायी गड्ढ़े कहां! ऐसे ही एक छुपे रूस्तम गड्ढे से अनजान शख़्स बाइक सहित उसमें धंस जाता है। तभी सड़क क्रॉस करने की कोशिश में एक कैब उसके आगे आ जाती है। उधर, कैब के सामने ब्लूलाइन बस आ जाती है। स्थिति का फायदा उठा लोहे के एंगल हवा में लहराता एक हाथ रिक्शा वहां से निकलता है। एंगल की दहशत से लोग गाड़ियां पीछे करते हैं और पीछे खड़ी गाड़ी से टकरा जाते हैं। अगले दस मिनट तक वो एक-दूसरे के परिजनों को याद कर गुस्से का इज़हार करते हैं।

देखते ही देखते वहां मिनी गृहयुद्ध के हालात बनने लगते हैं। लोगों की ज़बान से भी लम्बा ट्रैफिक जाम लग जाता है। सामने वाले की गर्दन समझ गाड़ियों के हॉर्न ज़ोर-जोर से दबाए जाने लगते हैं। हवा में गूंजते बीसियों बेसुरे हॉर्न और लहराती गालियां कोरस में मानो यमराज को न्यौता देती हैं। आप समझ जाते हैं कि आपका वक्त आ गया। तभी आपके हाथ से गाड़ी का हैंडल फिसलता है, जूते में गंदा पानी घुसता है। हॉर्न की आवाज़ पर भी यमराज नहीं आ रहे और आप सोचते हैं कि क्यों न इसी जूते के पानी में डूब कर अपनी जान दे दूं या फिर जूता उतार वहां खड़े लोगों को दे मारूं। वैसे भी उसे भिगोने की ज़रूरत नहीं है।

जो बारिश दिल के तार छेड़ती है, वही नकारा निगम की बदौलत व्यवस्था को तार-तार कर रही है। बिना डूब मरे ही नर्क का अहसास करवा रही है। अच्छा होता कि मैं मोटरसाइकिल की जगह मोटरबोट फाइनेंस करवा लेता। बारिश के लिए लाख तड़पता पर उसकी दुआ न मांगता। एक हाथ से बाइक संभाल और दूसरे को आसमान की तरफ उठा मजबूर इंसान यही दुआ मांगता है कि हे प्रभु! बारिश के साथ मुसीबतों का भार भी देना है तो बेहतर होगा कि नगर निगम का प्रभार भी तुम ही संभाल लो।

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

लिखना चिट्ठी इंद्र को और आना जवाब वहां से!

बारिश का इंतज़ार बीजेपी के झगड़ों की तरह लगातार बढ़ रहा था। मौसम विभाग की उल्टी-सीधी भविष्यवाणियां सुन, कान टपकने की हद तक पक चुके थे। बादल, मुंह दिखाई की रस्म निभा विदा ले रहे थे और सब्र का बांध, बजट पूर्व की उम्मीदों की तरह टूटने के कगार पर था। तभी मैंने तय किया कि क्यों न सीधे भगवान इंद्र से शिकायत करूं। इसी बाबत मैंने उन्हें ईमेल किया। गौर फरमाएं-

प्रभुवर,
सादर प्रणाम!
तय नहीं कर पा रहा हूं, गुस्सा करूं या गुज़ारिश। आधा जुलाई बीत चुका है मगर नेताओं के ज़मीर की तरह बारिश का अब भी कोई पता नहीं। हफ्ता पहले सुना था, मॉनसून आने को है। चार दिन पहले सुना, ‘बस! आ गया’ और दो रोज़ पहले कहा गया कि ‘बस! आ ही गया’। बताओ प्रभु, उसे रोडवेज़ की किस बस में बिठा आए हो जो वो अब तक नहीं पहुंचा।

बादल न जाने हमसे किस जन्म का बदला ले रहे हैं? क्यों हमें मुंह चिढ़ा रहे हैं? होता ये है कि अक्सर घने बादल गरज़ने लगते हैं। एक-आध बूंद टपक भी जाती है। बाहर सूखते कपड़े अंदर कुर्सियों पर डाल दिए जाते हैं। बीवी पकौड़ों की तैयारी में तेल गर्म करने लगती है। बेसन लाने का आदेश पा पति किराना दुकानों का रुख करते हैं। ‘आलू या प्याज के’ पकौड़ों के लिए बच्चे टॉस करते हैं और ऐसे समय जब कायनात का पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा बारिश के लिए तैयार होता है, इलाके के सारे मोर बारिश से पहले की फाइनल डांस रिहर्सल को भी अंजाम दे चुके होते हैं, बादलों की झीनी चादर फाड़ सूरज सबसे सामने नुमाया हो जाता है। बेसन लेने गए पति का घर पहुंचते-पहुंचते तेल निकल जाता है। कड़ाही में खौलता तेल धरा का धरा रह जाता है। बारिश में नहाने की उम्मीद बांधा आदमी, पसीने से नहा घर लौटता है।
बताओ प्रभु, ये कहां का न्याय है? या तो बारिश दो या फिर मेरे ख़त का जवाब।

वर्षाभिलाषी...

इसके बाद कुछ दिन और बीते। बारिश तो नहीं आई, भगवान इंद्र का जवाब ज़रूर आया। आप भी पढ़िए।

वत्स,

तुम्हारा मेल मिला। तुमने बताया कि किस तरह बारिश न होने से बुरा हाल है। चारों तरफ हाहाकार मचा है। जन-जन बारिश के लिए तरस रहा है। मगर तुम ही बताओ, मैं क्या करूं? जिन इलाकों में बारिश की है, वहां के हालात देख सहमा गया हूं। कहीं दस मिनट बारिश हुई और दस घंटे के लिए बिजली चली गई। सड़क पर मौजूद मामूली खड्डे, चार बाई छह के गड्ढों में तब्दील हो गए। खुले गटर राहगीरों के लिए जल समाधि बन गए। चार मिलिमीटर की बारिश में दस-दस किलोमीटर के ट्रैफिक जाम लग गए।

न जाने कितनी निचली बस्तियों में पानी भर गया। कितने ही लोग तेज़ धाराओं में बह गए। ऊपर से न तो तुम्हारी सरकार के पास जल नीति है और न ही डिज़ास्टर मैनेजमेंट। उसे सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट की तो चिंता है मगर बारिश में डूबते शख्स की सुरक्षा की कोई चिंता नहीं। तुम्हारे कृषि मंत्री कहते हैं कि देश में अनाज रखने की जगह नहीं है। सोचो, ऐसे में मेघ बरस गए तो क्या होगा? गरीबों की हालत मेघनाद की ताकत से घायल लक्ष्मण सरीखी हो जाएगी और आज की सरकारों में तो ऐसा कोई हनुमान भी नहीं जो उनके लिए संजीवनी ला सके।

यही सब सोच और देख मैं सिहर गया हूं। तय नहीं कर पा रहा क्या करूं...तुम्हें मौसमी बारिश दूं या बारिश न दे मुसीबतों की बारिश से बचाऊं!

इति अलम्!
तुम्हारा इंद्र

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

राजनीति का मुआवज़ा!

‘संयम’ की आंखें नम हैं। वो दसियों सालों से विस्थापन की मार झेल रहा है। राजनीति की ज़रूरत बता एक बार किसी नेता ने उससे जगह खाली करवाई थी, मगर तब से उसे न मुआवज़ा मिला, न मकान। वो न जाने कब से राजनीति की चौखट पर ‘अंदर आ जाओ’ सुनने की उम्मीद में बैठा है। इस बीच बहुतों ने समझाया कि व्यर्थ का आशावाद मत पालो। तुम ‘आउट ऑफ फैशन’ हो गए हो। मगर वो नहीं मानता। उसे लगता है कि वो तो संस्कारों का हिस्सा है और संस्कार कभी आउट ऑफ फैशन नहीं होते।

‘संयम’ का विश्वास अपनी जगह है मगर मुझे भी लगने लगा है कि संस्कार कहीं ‘आउट ऑफ फैशन’ ही तो नहीं हो गए। ‘संयम’ और ‘शुचिता’ कहीं सत्तर के दशक की बैल बॉटम तो नहीं हो गई जिसका ट्रेंड अब नहीं रहा। फिर सोचता हूं कि शायद ये अलग-अलग सभ्यताओं की एक पैमाने पर तुलना जैसा है। मसलन, निर्वस्त्र रहना सभ्य समाज में बुरा माना जा सकता है मगर कई आदिवासी समाजों में नहीं। और जिस तरह ‘पहनावा’ सभ्यता से जुड़ा है उसी तरह ‘भाषायी संस्कार’ भी। गाली देना सभ्य समाज में बुरा हो सकता है मगर राजनीतिक समाज में नहीं। मतलब तो भावनाओं के इज़हार से है। किसी विद्वान ने कहा भी है कि ‘अभिव्यक्ति’ आपके एहसास की सर्वोत्तम वेशभूषा है। अब ये हमारा दोष है अगर हमें उस वेशभूषा में फटा नज़र आता है, उस पर गंदगी दिखती है। यहां एक का वजूद, दूसरे के विनाश पर टिका है इसलिए भाषा के मर्तबन में मिठास कैसे हो सकती है?

अब कोई इज़राइली आप से शिकायत करे कि आप हिंदी में क्यों बात करते हैं, हिब्रू में क्यों नहीं, तो आप क्या कहेंगे? यही ना कि भाई, हिब्रू तुम्हें आती होगी, हमें नहीं, हम तो हिंदी जानते हैं, उसी में बात करेंगे। इसलिए जब कोई रीता बहुगुणा जोशी किसी मायावती से और कोई मायवती किसी मुलायम सिंह से बात करे तो आप बुरा न मानें कि वो हिब्रू में बात क्यों कर रहे हैं। अरे भाई, राजनीतिक प्रदेश की यही भाषा है।

रही बात इस भाषा के अभद्र होने की तो इस पर मेरी अलग सोच है। विज्ञान कहता है कि आदमी मूलत: जानवर है, मगर वो इंसान होने की कोशिश करता है। ऐसे में अगर आपको नेताओं की हरक़ते और बातें ग़ैर इंसानी लगती हैं तो उसका यही अर्थ है कि इन लोगों ने अपने मूल के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया है। पर अफसोस...यही लोग राजनीति के प्रतिनिधि भी हैं, और गुनाहगार भी...आख़िर राजनीति मुआवज़ा मांगे भी तो किससे? उसके लिए तो एक करोड़ भी कम हैं!

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

इक तेरी इनायत और इक मेरी आफत!

बेशर्मी ने अपना दायरा बढ़ाया है। इंसानों से होते हुए वो सब्जियों तक जा पहुंची है। मैं आलू को समझाने की कोशिश कर रहा हूं, मगर वो नहीं समझ रहा। लाखों करोड़ की सब्सिडी का हवाला देता हूं, फ्रिंज बेनिफिट टैक्स के खात्मे की याद दिलाता हूं, नौ फीसदी विकास दर का भी ज़िक्र करता हूं, मगर सब नाकाम। औसत चाकू से कट जाने वाला आज किसी तर्क से नहीं कट रहा। एक सीटी में गल जाने वाला आज किसी दलील पर नहीं पिघल रहा। किसी क़ीमत पर अपनी क़ीमत कम करने को तैयार नहीं है।

निराश हो मैं शिमला मिर्च का रुख करता हूं। इस उम्मीद में कि शायद उसने बजट भाषण सुना हो, आर्थिक सर्वेक्षण पढ़ा हो और शायद वो मेरी अवस्था देख, मेरी ख़राब अर्थव्यवस्था का अंदाज़ लगा पाए, मगर सब व्यर्थ। मेरी बकवास से बचने के लिए शिमला मिर्च भी कान में हरी मिर्च डाले बैठी रही। दालों से भी फरियाद की मगर वहां भी दाल नहीं गली। हारकर प्याज के पास पहुंचा। उसे किसानों के ऋण पर घटे ब्याज के बारे में बताया, मगर प्याज भी ब्याज की बात से प्रभावित नहीं हुआ।

आंखों से आंसू छलक आए हैं, पर ये प्याज के नहीं, भूख के हैं। समझ नहीं पा रहा, क्या करूं? ब्रांडेड ज्वैलरी को फ्राई कर खाऊं या एलसीडी टीवी के टुकड़े कर उसे कुकर में सीटी लगवा लूं और ऊपर से बायोडीज़ल पी लूं? बर्दाश्त की सीमा ख़त्म हो रही है। तभी याद आता है कि जीवन रक्षक दवाओं पर सीमा शुल्क में कटौती हुई है। सोचता हूं...जान बचाने का एक ही तरीका है कि कुछ जीवन रक्षक दवाएं खा लूं। विचार आते ही सरकार की दूरदर्शिता को सलाम करने का दिल चाहता है। उसे आभास था कि उसके ‘जीवन भक्षक’ इंतज़ामों के बाद ये ‘जीवन रक्षक’ दवाएं ही लोगों के काम आएंगी। तभी इनकी क़ीमतें कम कर दीं।

फिर भी मैं इस कोशिश में हूं कि कहीं किसी कोने में दबी-छिपी खुशी अगर दबी-सहमी बैठी है तो उसे ढूंढ लाऊं। मेरी नज़र आयकर छूट की बढ़ी सीमा पर पड़ती है जो डेढ़ लाख से एक-साठ हो गई है। मतलब, सालाना एक हज़ार तैंतीस और मासिक पच्चासी रूपये की ‘भारी बचत’। आंखें खुशी से छलछला उठी हैं। तय नहीं कर पा रहा हूं कि बढ़े पैसों को कहां निवेश करूं? इन पैसों से तीन पाव दूध फालतू लगवाऊं, ढाई किलो देसी घी खरीदूं, दो अख़बार और लगवाऊं या सारा पैसा स्विस बैंक में जमा करवा दूं। भारी कन्फ्यूजन है। सोचता हूं ऑफिस से हफ्ता-दस दिन की छुट्टी ले, सीए से सलाह करूं। आख़िर मामला हज़ार रूपये के निवेश का है। जल्दबाज़ी में कहीं पैसा ‘फंसा’ न बैठूं।

मैं निवेश की समस्या से जूझ ही रहा था कि बेरोज़गार मित्र घर में प्रवेश करता है। उसके हाथ में हिंदी-अंग्रेज़ी के दसियों अख़बार थे और चेहरे पर चिंता की बीसियों लकीरें। पूछने लगा-कहां है? मैंने कहा-क्या? वो बोला-‘एक करोड़ बीस लाख नौकरियां। सभी अख़बार खंगाल मारे। मुझे तो एक भी नहीं मिली’। मैंने कहा-‘मित्र, अभी तो वित्त मंत्री ने घोषणा ही की है, इन्हें क्रिएट किया जाएगा। मैंने समझाया कि ‘राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन’ के तहत साठ करोड़ लोगों के लिए ‘बायोमैट्रिक कार्ड’ जारी किए जाएंगे। ‘यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया’ को भी पहचान पत्र बनाने हैं। दोनों जगह लोग रखे जाने हैं’। मित्र उतावला हो उठा। इससे पहले मैं कुछ और कहता, उसने पूछा- ‘मगर क्या ये सारी भर्तियां दस तारीख से पहले हो जाएगा?’ मैंने पूछा-वो क्यों? वो इसलिए क्यों कि मुझे हर हाल में दस तारीख से पहले किराया देना है...मैंने कहा-मित्र, उन्हें तुम्हारे भाड़े की नहीं, भाड़ की चिंता और तुम्हें वहां भेजने का उन्होंने पूरा बंदोबस्त कर लिया। अब तो दुआ करो कि अगले बजट में 'राष्ट्रीय ग्रामीण किराएदार मिशन' के नाम से कोई योजना आ जाए।

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

जो ज़्यादा आसान है!

उम्मीद, मेरा प्रिय कर्म है। जब चाहें, जहां चाहें, जितनी चाहें और जिससे चाहें आप मुझसे उम्मीद करवा सकते हैं। मैं वक़्त और सीज़न के हिसाब से लोग चुनता हूं। उनके लिए मापदंड तय करता हूं और बताता हूं कि वो मेरी उम्मीदों पर ख़रे उतरे या नहीं। अभी-अभी बजट का सीज़न ख़त्म हुआ है। ट्रेन बजट से पहले ममता बैनर्जी से उम्मीद थी और आम बजट से पहले प्रणव मुखर्जी से। न बैनर्जी मेरी उम्मीदों पर खरी उतरीं, न ही मुखर्जी। ममता जी से उम्मीद थी कि वो फर्स्ट क्लास में डबल बैड लगवाएंगी, सैकिंड क्लास में एसी और साधारण डिब्बे में कूलर। मुझे पक्का यकीन था कि वो पच्चीस रूपये के पास में पैलेस ऑन व्हील्स का सफर भी शामिल करेंगी। सामान्य किराए पर तत्काल का टिकट देंगी! हर यात्री को मुफ्त खाना देंगी और ऐसा खाना खा बीमार पड़ने वालों की दवा भी करवाएंगी, मगर नहीं हुआ। किया उन्होंने ये कि पत्रकारों को टिकट में पचास फीसदी की छूट दे दी। ऐसा कर उन्होंने पत्रकारों पर अहसान नहीं किया, बल्कि रेलवे का ही पचास फीसदी नुकसान कम किया है!

वहीं, प्रणव दा से उम्मीद थी कि वो कर मुक्त आय की सीमा बीस लाख कर देंगे। कर चोरी से सीमा हटा देंगे। मेरे प्रिय फ्रूट लीची पर सब्सिडी दिलवाएंगे। उसकी कीमत पांच रूपये किलो कर देंगे। होटलों में पनीर बटर मसाला की फुल थाली बीस रूपये करा देंगे। मल्टीप्लैक्स का टिकट दस का करवा देंगे और तीस रूपये के महंगे मिनरल वॉटर से बचाने के लिए पिक्चर हॉल में ही हैंडपंप लगवा देंगे, मगर ऐसा भी नहीं हुआ।

मुझे उम्मीद थी कि अंतरराष्ट्रीय दबाव के बाद उत्तर कोरिया परमाणु परीक्षण नहीं करेगा, शादी से पहले सानिया मिर्जा विम्बल्डन के सेमीफाइनल में पहुंचेंगी, प्रीतम अपनी फिल्मों में कुछ अपना भी संगीत देंगे। पडौ़सी मंगलू की नई जरसी गाय बीस लीटर दूध देगी, उसका बेटा आड़ूराम दसवीं में नब्बे फीसदी अंक लाएगा, उसकी बहन कचरा देवी अपने ससुराल से मेरे लिए नया स्वेटर लाएगी, मगर ये भी नहीं हुआ।

मन भारी हो गया है। गुस्से और अवसाद से घिर गया हूं। दिल कर रहा है मिट्टी का तेल डाल पूरी दुनिया को आग लगा दूं और सारे अग्निशमन यंत्र दरिया में फेंक दूं। क्यों...आख़िर क्यों...ये दुनिया मेरी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती। परेशान हूं। नहीं जानता क्या करूं। कभी-कभी सोचता हूं कि दुनिया को छोड़, खुद से कुछ उम्मीद कर लूं। फिर ख़्याल आता है कि नहीं, मैं आम आदमी हूं। मुझे सारी उम्मीदें दूसरों से ही करनी है। वैसे भी दुनिया को आग लगाना, आत्मदाह करने से कहीं ज़्यादा आसान है!

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

जितनी तारीफ की जाये, ज़्यादा है!

तारीफ के मामले में हम हिंदुस्तानी इनकमिंग में यकीन करते हैं और आउटगोइंग से परहेज़। वजह, हम जानते हैं कि तारीफ कर देने का मतलब है सामने वाले को मान्यता देना और ऐसा हम कतई नहीं होने देंगे। हम चाहते हैं कि वो भी उतने ही संशय में जियें जितने में हम जी रहे हैं।

अगर किसी दिन हमारा कोई कलीग ब्रेंडेड शर्ट पहन कर आया है और वो उम्मीद कर रहा है कि हम शर्ट की तारीफ करें तो हमें नहीं करनी है। जैलिसी का पहला नियम ही ये है कि सामने वाला जो चाहता है, उसे मत दो! वो तारीफ सुनना चाहता है आप मत करो। अगर वो तंग आकर खुद ही बताने लगे कि मैंने कल शाम फलां शोरूम से अपने बुआ के लड़के के साथ जा ये शर्ट खरीदी थी तो भी हमें उसके झांसे में नहीं आना। इसके बाद भी वो अगर बेशर्म हो पूछ ही ले बताओ न कैसी लग रही है ? फिर भी आपके पास दो आप्शंस है।

पहला ये कि चेहरे पर काइयांपन ला मुस्कुरा दें, अब ये उसकी सिरदर्दी है इसका मतलब निकाले। दूसरा ये कि अगर आपकी अंतरआत्मा अब भी ज़िंदा है, और वो आपको धिक्कारने लगी है कि तारीफ कर, तारीफ कर..... तो 'ठीक है' कह कर छुटकारा पा लें। लेकिन ध्यान रहे... भूल कर भी आपके मुंह से 'बढ़िया', 'शानदार' या 'डैशिंग' जैसा कोई शब्द फूटने न पाये।

'दुनिया देख चुके' टाइप एक सीनियर ने मुझे बताया हमें तो अपनी प्रेमिकाओं तक की तारीफ नहीं करनी चाहिये। अगर वो ज़्यादा इनसिस्ट करें तो कह दो, डियर, तारीफ 'उस खुदा की' जिसने तुम्हें बनाया, या फिर तुम्हारी तारीफ के लिए 'मेरा पास शब्द नहीं है'। मतलब ये कि या तो आप ऊपर वाले को क्रेडिट दे दें, या फिर ‘सीमित शब्दावली' का बहाना बना अपनी जान छुड़ा लें, लेकिन तारीफ मत करें। वजह, एक बार अगर इमोशनल हो कर आपने प्रेमिका की तारीफ कर दीं, तो वो बीवी बनने के बाद भी उन बातों को 'सच मानकर' याद रखेगी। आप शादी के बाद झूठ बोलने का मोमेंटम बना कर नहीं रख पायेंगे। और फिर वो सारी उम्र आपको 'बदल' जाने के ताने देगी।

यहां तक तो ठीक है। मैंने सीनियर से पूछा मगर सर, हमारी भी तो इच्छा होती है कि कुछ अच्छा करें तो तारीफ हो। फिर? सीनियर तपाके से बोले, बाकी चीज़ों की तरह तारीफ के मामले में भी आत्मनिर्भर बनो! घटिया लेखक होने के बावजूद तुम्हें लगता है कि तुम्हारी किसी रचना की तारीफ होनी चाहिये और आसपास के लोगों में इतनी अक्ल नहीं है तो खुद ही उसकी तारीफ करो! वैसे भी हर रचना समाज के अनुभवों से निकलती है, उसमें समाज का उतना ही बड़ा योगदान होता है, जितना लेखक का। ऐसे में उस रचना की तारीफ कर तुम अपनी तारीफ नहीं कर रहे, बल्कि समाज का ही शुक्रिया अदा कर रहे हो!

बुधवार, 1 जुलाई 2009

किंगस्टन में रथ यात्रा!

गेलचंद की गाड़ी कुछ दिनों से उसे काफी परेशान कर रही थी। चलते-चलते वो हर थोड़ी दूर पर रूक जाती। इससे परेशान हो उसने सीट कवर बदलवा लिए। वो आश्वस्त था कि अब गाड़ी ठीक चलेगी। गाड़ी चलायी तो फिर वही समस्या। इस बार उसने स्टीरियो चेंज करवाया। वो खुश था कि अब तो गाड़ी सरपट दौड़ेगी। गाड़ी, चूंकि उसके किसी ‘मूर्खतापूर्ण आत्मविश्वास’ की गुलाम नहीं थी इसलिए नहीं दौड़ी! इस बार उसने गाड़ी को पेंट करवाया। मगर नतीजा वही। एक-एक कर उसने परफ्यूम, फुट मैट, सब बदल डाले मगर वो नहीं सुधरी। गेलचंद अब बेहद तनाव में था। इसी तनाव में वो एक मित्र के पास पहुंचा। समस्या सुनते ही मित्र चिल्लाया, अरे मूर्ख! तूने इंजन चैक किया। वो हैरानी से बोला ओफ् फो! वो तो मैंन देखा ही नहीं।

मैं ये नहीं कहूंगा कि बीजेपी नेताओं की आई-क्यू गेलचंद से भी गई-गुज़री है। मगर हार पर जिस चिंतनीय किस्म का आत्मचिंतन उसने अब तक किया है, उससे पूरी पार्टी ही गेलचंद लग रही है। फर्क इतना है कि गेलचंद ने इंजन भी चैक नहीं किया और बीजेपी सब जांचने-परखने के बावजूद ख़राबी को खराबी मानने के लिए तैयार नहीं। वो अब भी इस मासूम आशावाद में जी रही है कि रथ यात्रा जैसे सीट कवर बदलू बंदोबस्त से गाडी सरपट दौड़ने लगेगी। ‘हिंदुत्व ही हमारी मूल विचारधारा है और हिंदुत्व के चलते हम नहीं हारे’, अगर यही उसकी डेढ़ हज़ार आत्मचिंतन बैठकों का हासिल है तो मित्रों मैं यही कहूंगा कि वो लानत की नहीं, आपकी दुआ कि हक़दार है।

बीजेपी नेताओं से मैं गुज़ारिश करता हूं कि वो इस विचारधारा और आत्मविश्वास को बनाए रखें। हो सकता है कि भारतीय जनता की अक्ल दाढ़ आना अभी बाकी हो, इसलिए ज़रूरी है कि तब तक इस महान विचार को भारत से बाहर आज़माएं। पार्टी, अगले चुनावों तक नेपाल, मॉरीशस, फिजी और कैरेबियाई देशों में चुनाव लड़े। यहां हिन्दू वोटरों की तादाद काफी है। कुछ-एक देशों में हिन्दू राष्ट्राध्यक्ष भी हैं। ज़मीन से जुड़े और पार्टी अध्यक्ष बनने के लिए ज़मीन-आसमां एक कर देने वाले दूसरी पंक्ति के नेताओं को अलग-अलग देशों की कमान सौंपी जाए। जो चुनाव जिता लाएं, उन्हें भारत में पार्टी अध्यक्ष बनाया जाएं और जो हरवा दें, उन्हें आगे की राजनीति उसी देश में करने की हिदायत दी जाए। आख़िर में आडवाणी साहब से पूछना चाहूगा कि मन के गहरे अंधेरे कोने में अगर अब भी पीएम बनने की ख्वाहिश कुलांचें मार रही है तो वो भी एक-आध देश में हाथ आज़मा सकते हैं। मगर शक़ ये है कि उन्हें जमैका या किंगस्टन में रथयात्रा की इजाज़त मिलेगी या नहीं!