शुक्रवार, 29 मई 2009

भविष्य का फॉर्मूला! (हास्य-व्यंग्य)

ऐसे समय जब तमाम पार्टियां मुफ्त समर्थन की पेशकश कर भारतीय राजनीति को कलंकित कर रही थीं, करूणानिधि के लालच ने उसकी लाज बचा ली। ख़बर है कि कांग्रेस को अपेक्षित मंत्रालयों की जो पहली सूची उन्होंने सौंपी थी उसमें उनकी तीन बीवियों के तीस रिश्तेदारों के अलावा उनका ड्राइवर, खानसामा, चौकीदार, माली और आठ नौकरों के अलावा उनके भी आगे आठ सौ रिश्तेदारों के नाम थे। और आख़िर मे 'हो सके तो' शीर्षक के अंदर गुज़ारिश की गई थी कि ड्राइवर की दूसरी पत्नी के पहले पति की चौथी औलाद, माली के दत्तक पुत्र की गर्लफ्रेंड और चौकीदार की मुंह बोली बुआ के कान सुने पति को भी जगह मिल जाए, तो हमें खुशी होगी।

इसके बाद कांग्रेस ने जब ये समझाया कि अगर भारत, नेपाल और बांग्लादेश पर कब्ज़ा कर, वहां के मंत्रीमंडल को भी सरकार में शामिल कर ले, फिर भी ये मांग पूरी नहीं हो सकती, तब जा कर करूणानिधि के तेवर नरम पड़े और लम्बा खिंचा विवाद ख़त्म हुआ। मगर जिस तरह उनके अट्ठारह सौ उन्हतर रिश्तेदारों को मायूस होना पड़ा, उससे मैं भी काफी दुखी हूं। लिहाज़ा मैं सरकार से गुज़ारिश करता हूं कि आगे किसी और को यूं निराश न होना पड़े इसके लिए संविधान में कुछ संशोधन किए जाएं। जैसे-कांग्रेस ने सरकार गठन से पहले कहा था कि इस बार एक नेता, एक मंत्रालय की नीति अपनाई जाएगी। मेरा मानना है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को एडजस्ट करने के लिए एक मंत्रालय पर एक नहीं, एक सौ नेता की नीति बनाई जाए। जैसे राज्यों में गठबंधन सरकार की सूरत में आधे-आधे वक्त के लिए मुख्यमंत्री बनते हैं, उसी तरह केंद्रीय कैबिनेट में हफ्ते-हफ्ते के लिए मंत्री बनाए जाएं। काम तो वैसे भी नहीं होना, कम से कम सहयोगियों से रिश्ते तो अच्छे बने रहेंगे। और तो और कांग्रेस चाहे तो मिसाल कायम करने के लिए लालकृष्ण आडवाणी को भी एक हफ्ते के लिए प्रधानमंत्री बना सकती है।

इसके अलावा मंत्रालयों का विघटन कर उससे नए मंत्रालय बनाए जाएं। जैसे खेल मंत्रालय से खेल और कूद दो मंत्रालय बनाए जाएं। आधे लोग खेल और बाकी कूद मंत्रालय में शिफ्ट किए जाएं। इसी से जुड़े युवा मंत्रालय से भी शिशु, बालक, तरूण और युवा चार मंत्रालय बनाए जाएं। साथ ही हर मंत्रालय में राज्य मंत्रियों की संख्या भी देश के कुल राज्यों की संख्या के बराबर की जाए, इससे न सिर्फ लोग ठिकाने लगेंगे बल्कि समान क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व की समस्या भी दूर होगी। और इस सब के बावजूद हल न निकले तो मैं यही कहूंगा कि 'परिवार समायोजन' की समस्या पैदा न हो, इसलिए भावी नेता 'परिवार नियोजन' पर ज़रूर ध्यान दें!

गुरुवार, 21 मई 2009

व्यंग्यकारों के ख़िलाफ है जनादेश!

मैं तय नहीं कर पा रहा हूं कि ये किस तरह का जनादेश है। एक गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिल जाना कहां का न्याय है। उम्मीद की जा रही थी कि एक बार फिर अगली सरकार में लेफ्ट बड़ी भूमिका निभाएगा, छोटी पार्टियां बड़ी मह्तवाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए टुच्ची हरक़ते करेंगी और आंकड़ों के खेल में लगने वाली बोली में अनजान निर्दलीय अपनी कीमतों से आइपीएल के नामी सितारों को भी शर्मिंदा करेंगे। मगर मूर्ख मान लिए गए वोटरों ने अचानक परिपक्वता का महंगा शौक फरमा इन सबकों को कहीं का नहीं छोड़ा। एक साथ कई हसरतों का गर्भपात हो गया। वरना, जीत की उम्मीद पाले कितने ही दल-बदलू माथे पर एमआरपी की चिट चिपका चुके थे, वामपंथी इतराने-रूठने की दसियों नई मुद्राओं का अभ्यास कर चुके थे, आधा दर्जन पीएम इन वेटिंग दर्ज़ी को शेरवानी का नाप दे आए थे। मगर हाय री किस्मत....वेटिंग कंफर्म होना तो दूर आरएसी में भी तब्दील नहीं हो पाया। शेरवानी का ऑर्डर कैंसिल करवा पोते की चार निकर सिलवानी पड़ी। छह दशक की राजनीतिक साधना तो व्यर्थ गई ही, चार मीटर कपड़ा भी ख़राब हो गया।


मगर ईमानदारी से कहूं तो मुझे इन सबसे ज़्यादा व्यंग्यकारों की अपनी बिरादरी की चिंता है। जिस तरह से जनता ने एक गठबंधन को पूर्ण बहुमत दिया है उसके बाद कई व्यंग्यकार संन्यास की सोचने लगे हैं। ऐसी सरकार जिसके अंदर या बाहर वामपंथी न हों, सत्ता के सुपर दलाल बिना शर्त समर्थन की बात कर रहे हों, मंत्री पद का फैसला प्रधानमंत्री पर छोड़ दिया गया हो, आप समझ सकते हैं ऐसे में व्यंग्य के लिए क्या कुछ सम्भावना बचती है।

मेरा मानना है कि ये जनादेश बीजेपी या लेफ्ट से ज़्यादा व्यंग्यकारों के ख़िलाफ है। यही नहीं मुझे तो इन नतीजों के पीछे अंतरराष्ट्रीय साज़िश लगती है। वरना क्या ये सिर्फ इत्तेफाक है कि पहले अमेरिका से बुश की विदाई हुई, पाकिस्तान से मुशर्रफ की और फिर व्यंग्यकारों के फेवरेट शिवराज पाटिल की डोली भी उठ गई और जो कुछ उम्मीद खंडित जनादेश की आशंका में बची थी, वो भी स्पष्ट बहुमत की भेंट चढ़ गई। आख़िर में शिशु व्यंग्यकार के नाते मैं नेताओं और जनता से आग्रह करता हूं कि समझदारी या मूर्खता और स्थिर और अस्थिर सरकार में से किसी एक का अंतिम रूप से चुनाव कर लो। वरना मैं धमकी देता हूं कि विधा के रूप में व्यंग्य साहित्य में मेरा आख़िरी चुनाव नहीं है....मैं कविता भी लिख सकता हूं!

मंगलवार, 19 मई 2009

मंदी में नौकरी बचाने के उपाय (हास्य-व्यंग्य)

मंदी में सभी को अपनी नौकरी जाने का ख़तरा सता रहा है। हर वक़्त ये बात ज़ेहन में घूमती है कि नौकरी न रही तो क्या होगा। मकान की पंद्रह साल की किस्त बाकी है। गाड़ी भी साल पहले खरीदी है। पानी, बिजली से लेकर मोबाइल के दसियों बिल भी हैं। ऊपर से सेविंग के नाम पर भी सिर्फ सेविंग अकांउट है और कुछ नहीं। बीवी मैट्रो समाचार भी पढ़ती है तो लगता है मैट्रीमोनियल में खुद के लिए रिश्ता ढूंढ रही है। मोबाइल पर बजी हर घंटी एचआर से आया कॉल लगती है। बॉस के केबिन से निकले पीए की आवारा निगाहें लगता है मुझे ही ढूंढ रही हैं। हर किसी के मन-मस्तिष्क, गुर्दे-घुटने में नौकरी जाने का डर बुरी तरह समा चुका है। लोग अभी से सतर्क हो गए हैं। टूथपेस्ट खरीदते वक्त भी दुकानदार को हिदायत देते हैं भइया छोटा पैकेट देना। वो छोटा दिखाता है और आप कहते हैं इससे छोटा नहीं है क्या। वो खुंदक में तीन लोगों के सामने कह देता है.....इससे छोटा नहीं आता। अकेले में ऑफिस में बैठे पैन का ढक्कन चबाते हुए यही बात आपके कान में ईको कर रही है......इससे छोटा नहीं आता....आप ढक्कन चबा रहे हैं और ख़्यालो में ढक्कन की जगह दुकानदार की गर्दन आ गई है। स्साला बदतमीज़। ऐसे में सवाल यही है कि खुद के ढक्कन समझे जाने और ढक्कन चबाने के अलावा क्या आपके पास कोई रास्ता नहीं है। मेरा मानना है कि अपने रवैए में तब्दीली ला कर हममें से हर कोई अपनी नौकरी बचा सकता है। कुछ ज़रूरी उपाय जो आप कल से ही ऑफिस में ट्राई कर सकते हैं।

1.अनुशासित कर्मचारी की पहली निशानी है कि वो वक़्त पर ऑफिस पहुंचे। अब आपको करना ये है कि पिऊन से पहली ऑफिस पहुंच जाएं। बॉस से शिकायत करें कि पिऊन देर से आता है। मुझे ऑफिस में ज़रूरी काम करना होता है। लिहाज़ा मेन गेट की चाभी मुझे दिलवा दें। कल से मैं ही ऑफिस का गेट खोल दिया करूंगा। बॉस कहे कि बिना डस्टिंग के आप बैठेंगे कैसे? तो फौरन कहिए, सर, उसकी चिंता मत करें। मैं खुद झाड़ू लगा दिया करूंगा। वैसे भी कोई काम छोटा नहीं होता। ऐसा कह कर आप बॉस को ये आइडिया भी दे सकते हैं कि पिऊन को अगर निकाल भी दें तो ये आदमी कम से कम झाड़ू तो लगा ही देगा। इस तरह ऑफिस को आपका 'अन्य इस्तेमाल' भी समझ में आ जाएगा। जबकि इतने सालों की नौकरी में कम्पनी को आपका 'किसी भी तरह का इस्तेमाल' समझ नहीं आया था।

2. काम से ज़्यादा ज़रूरी होता है काम करते प्रतीत होना। ऑफिस में आप भले ही तिनका न तोड़ें, लेकिन लगे ऐसे कि अगर आप एक भी दिन दफ्तर न आए तो पूरी इमारत भरभरा कर गिर पड़ेगी। ऑफिस के पूरे वातावरण में आप ही आप हो। किसी भी तरह की फालतू की फाइल हाथ में ले दिनभर यहां-वहां दौड़िए। अरे सर ये...अरे सर वो....करते यहां-वहां बेमतलब घूमिए। हर वक़्त टेंशन में दिखें। जल्दबाज़ी दिखाएं। दो मिनट से ज़्यादा अपनी सीट पर न बैंठे। पास जाने के बजाए किसी को दूर से पुकारें। इससे ज़बरदस्ती का हल्ला होगा। चार लोग आपकी आवाज़ सुनेंगे। छोटे से छोटा काम कर बॉस को बताएं...सर वो मैंने कर दिया था। ऐसा करने से आप बेहद सक्रिय दिखाई देंगे। बॉस से ज़्यादा बात करते प्रतीत होंगे। कुछ लोग आपसे खौफ भी खाने लगेंगे। इस तरह धीरे-धीरे आपकी झांकी जमने लगेगी।

3. दोस्तों कार्यक्षेत्र में छवि का विशेष महत्व होता है। मगर जान लें कि आपकी छवि का इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि आप ऑफिस में कैसा काम करते हैं। आपकी छवि बिल्कुल अलग कारणों से बनती हैं। जैसे भूल कर भी किसी से शास्त्रार्थ न करें। आपके ज्ञान की किसी को कोई ज़रूरत नहीं है। कभी ये बताने की कोशिश न करें कि मैं इतना जानता हूं। समझदार और जानकार लोगों को कोई पसंद नहीं करता। हर कोई अपने से मूर्ख के साथ रहकर खुश होता है। वो उनमें कभी हीनता का बोध पैदा नहीं करते। ये सोचने को मजूबर नहीं करते कि प्यारे इस दुनिया में ऐसा बहुत कुछ है जो अभी भी तुम्हें नहीं पता। इसके अलावा अच्छी छवि के लिए बहेद ज़रूरी है कि हर किसी से प्यार से बात करें। बदतमीज़ से बदतमीज़ आदमी के नाम के आगे 'जी' लगाएं। बोलें तो लगे कि जलेबियां तल रहे हैं। ज़ुबान में इतनी मिठास हो डायबिटिक लोग आपको देख रास्ता बदल लें। हर शब्द में इतना रस घोले कि आपके बोलते ही मक्खियां भिनभिनाने लगे, जैसे गन्ने के जूस की मशीन के पास भिनभिनाती हैं। ध्यान रहे कि ज़रूरी नहीं है कि बदतमीज़ के मुहं पर भी उसे बदतमीज़ कहा जाए। पीठ पीछे भी कहा जा सकता है।

4. हर कम्पनी ऐसे कर्मचारी को पसंद करती है जो ऑफिस के हित की सोचें। इसलिए हर समय ऐसे विचारों पर काम करें जिससे ऑफिस का भला हो सके। बॉस को कहिए सर सुबह-शाम की चाय बंद कर दीजिए। इससे भारी बचत होगी। लोगों परेशान न हो इसके लिए मैं ऑफिस आते समय केतली भर चाय साथ ले आऊंगा। मेरे साले की फैन की फैक्ट्री है। सस्ते फैन भी दिलवा दूंगा। बॉस कहेगा मगर रोज़-रोज़ तुम क्यों लाओगे। इतने में बाकी साथी नम्बर बनाने कूद पड़ेंगे। तय होगा कि हर बंदा हफ्ते में एक दिन चाय लाएगा। मगर आप सोच रहे हैं कि बीवी एक बार कहने पर मेरे लिए चाय नहीं बनाती तो पूरे ऑफिस के लिए क्यों बनाएगी। ऐसा है तो उसे समझाइए कि मासिक आय आती रहे इसलिए ज़रूरी है कि तुम साप्ताहिक चाय बनाती रहो। उम्मीद है आपकी ये बात तो वो मान ही जाएगी।

रविवार, 17 मई 2009

विज्ञापन जो प्रकाशित न हो सका! (हास्य-व्यंग्य)

जिस तरह के चुनावी नतीजे आए हैं उसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। एक राष्ट्रीय पार्टी ने तो बाकायदा नतीजों के बाद समर्थन जुटाने के लिए विज्ञापन भी लिखवा लिया था। इसके पीछे मंशा ये थी कि खुद किसी से सीधे सम्पर्क करने के बजाए विज्ञापन के माध्यम से संभावित साथियों तक पहुंचा जाए। इससे जोड़-तोड़ का आरोप भी नहीं लगेगा और काम भी हो जाएगा। मगर जैसे नतीजे आए उसके बाद इसकी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। फिर भी ये देखते हुए कि कॉपी लिखने वालों ने इतनी मेहनत की और भविष्य में शायद ये किसी के काम आ सके, अप्रकाशित विज्ञापन की मूल कॉपी यहां दी जा रही है। गौर फरमाएं-


विज्ञापन का शीर्षक है-बुला रही है भारत मां। आगे की भाषा ज्यों की त्यों यहां दी जा रही है। हम, देश सेवा पार्टी, जो पिछले कई सालों से देश सेवा के धंधे में हैं, ये बताने में अत्यंत हर्ष महसूस कर रहे हैं कि पार्टी के आला नेताओं ने फिर से पांच साल के लिए देश सेवा का ठेका लेने का मन बनाया है। इसके लिए हमें दिल्ली हेड ऑफिस में डेढ़ सौ से दो सौ सांसदों की ज़रूरत है। किसी भी पार्टी और विचारधारा से जुड़े सांसद बेझिझक अप्लाई कर सकते हैं।

भर्ती के मानदंडों को लेकर हम काफी उदार हैं। न तो अतीत में हमें दी गालियों पर हम आपसे जवाब मांगेंगे और न ही ये पूछ शर्मिंदा करेंगे कि पिछले पांच साल में आपने पंद्रह पार्टियां क्यों बदली। हमें सिर्फ आपका समर्थन चाहिए। हमसे जुड़ने से पूर्व आपका राजनीतिक जीवन हमारी नज़र में आपका निजी जीवन है और पेशेवर पार्टी होने के नाते हमें आपके निजी जीवन से कोई सरोकार नही हैं।

आपका सांसद बनना अपने आप में ही आपकी काबिलियत का प्रमाण है और देश सेवा पार्टी ये बात अच्छे-से समझती है कि हर काबिल आदमी को उसकी कीमत मिलनी चाहिए। इस मामले में आप बेफिक्र रहें, जो शख़्स अपना अमूल्य समर्थन दे हमें देश सेवा का मौका दे रहा है उसकी कोई भी मांग हमारे लिए नाजायज़ नहीं होगी। वैसे भी दस-बीस करोड़ रूपये या एक-आध कैबिनेट पद ‘राजनीतिक स्थिरता’ के सामने कोई मायने नहीं रखता। पेमेंट को लेकर हमारा पिछला रिकॉर्ड भी शानदार रहा है। ज़रूरत पड़ने पर जिन-जिन लोगों ने आज तक अपनी पार्टी को दगा दे, हमें समर्थन दिया है हमने उन सभी को शानदार पेमेंट किया है। आप चाहें तो हमारी कस्टमर केयर यूनिट से नम्बर ले ऐसे लोगों से बात कर सकते हैं। हमारे यहां अलग से एक फाइनेंस सैल भी है जो बाकायदा आपको बताएगी कि समर्थन के एवज़ में मिले दो नम्बर के पैसे को कैसे एडजस्ट किया जाए।

समर्थन की कीमत पर राजनीतिक प्रतिस्पर्धियों को निपटाने के भी सारे विकल्प हमारे यहां खुले हैं। अगर आपको लगता है कि फलां राज्य के मुख्यमंत्री को बर्खास्त कर वहां फिर से चुनाव करवाएं जाएं तो हम धारा 356 पर भी विचार कर सकते हैं। सत्ता में आने पर हमारे पास सीबीआइ भी होगी। आप जिसके ख़िलाफ जैसी कहेंगे, वैसी जांच बिठवा देंगे। खुद आपके खिलाफ चल रहे सत्रह हज़ार मामलों में आपको सत्रह दिनों में क्लीन चिट दिलवा देंगे।

इसके अलावा हमारे यहां ‘ज्वाइन टू, गैट वन फ्री’ का ऑफर भी है। अगर आप दो और सांसदों का समर्थन दिलाते हैं तो उन दोनों को दी जाने वाली रक़म का पचास फीसदी आपको कमीशन के रूप में मिलेगा। ऐसी ज्वाइनिंग करवाने पर आपसे अलग से कोई बांड भी नहीं भरवाया जाएगा। मतलब आपका भर्ती करवाया सांसद अगर कहीं और चला जाता है तो आपको लेबर कोर्ट नहीं घसीटा जाएगा।

इस मौके पर हम गठबंधन के पूर्व साथियों और ऐसे बागियों से अपील करना चाहेंगे, जो इस बार चुनाव जीत कर आए हैं, कि पुराने गिले-शिकवे भुलाकर हमारे साथ आ जाएं। आप हमें भी घटिया मानते हैं और हमारे विरोधियों को भी। नए सिरे से नए घटिया लोगों से जुड़ने से अच्छा है आप हमसे जुड़ें। कम से कम हमारे घटियापन का आपको अनुभव तो है। उनके साथ जुड़कर पछताने से अच्छा है आप हमारे साथ जुड़कर पछताएं। इसी बहाने ये भ्रम भी बना रहेगा कि उनके साथ गए होते तो अच्छा रहता। एक मीठे भ्रम के सहारे जीवन बिता देने से बेहतर भला और क्या हो सकता है। कम उम्र में ये जान लेना कि ‘सब मिथ्या है’, जीना दुश्वार कर देता है। मित्र, जीवन को आसान बनाओ और हमारे साथ आओ। नीचे नम्बर दिया गया है फोन कर लेना और अगर खुद बात करने में शर्म आए तो मिस कॉल कर देना, हमारा लड़का पलट कर फोन कर लेगा।

मंगलवार, 12 मई 2009

इतनी हिचकिचाहट क्यों! (हास्य-व्यंग्य)

मुलायम सिंह यादव ने हाल ही में कहा कि हम उसी गठबंधन को समर्थन देंगे जो मायावती सरकार को बर्खास्त करेगा। बहुत-सी पार्टियों और मीडिया ने उनके इस बयान का विरोध किया और कहा कि ऐसी मांग संवैधानिक व्यवस्था का मज़ाक है। मगर मुझे इस मांग में कुछ ग़लत नहीं लगता। मैं पूछता हूं चुनावों के वक़्त जनता बुनियादी ज़रूरतें बताते हुए जब ये मांग रख सकती है कि हम उसी को वोट देंगे जो हमारे इलाके में सड़क बनाएगा, बंद पड़ी फैक्ट्री खुलवाएगा या रेलवे ओवरब्रिज का निर्माण करवाएगा तो नेता अपनी बुनियादी ज़रूरत बता समर्थन देने की बात क्यों नहीं कर सकते।

फैक्ट्री बंद होने से लोग बेरोज़गार हो सकते हैं तो सत्ता जाने पर मुख्यमंत्री क्यों नहीं। आप पूर्व मुख्यमंत्री होने की मजबूरी तो समझिए। पूर्व मुख्यमंत्री या तो प्रधानमंत्री हो सकता है या फिर कैबिनेट मंत्री। सरकार जाने पर वो परचून की दुकान तो नहीं खोल सकता। मेरा जानकारी में अग्रवाल एंड संस, वर्मा एंड संस नाम की तो कई दुकानें हैं लेकिन चीफ मिनिस्टर एंड संस के नाम से एक भी दुकान नहीं है। साफ है कि एक बार मुख्यमंत्री बन जाने पर आप न तो अनाज मंडी में आढ़तिया बन सकते हैं और न रेलवे स्टेशन पर कैंटीन का ठेका ले सकते हैं।

विदेशों में तो पूर्व प्रधानमंत्री आजीविका के लिए यूनिवर्सिटी, कॉलेज या कॉर्पोरेट हाउस में लेक्चर भी देते हैं मगर हमारे ज़्यादातर नेता तो लेक्चर मिस करके ही नेता बने हैं, वो भला छात्रों को क्या लेक्चर देंगे। वो बेचारे तो नेता के तौर पर दिए लेक्चरों की सफाई अब तक नहीं दे पाए हैं।

इसलिए मुलायम ने जो कहा उससे मुझे कोई शिकायत नहीं है उल्टे कुछ शिकायत कांग्रेस से ज़रूर है। जो कांग्रेस मायावती को, मेरे पास मां है स्टाइल में, हमारे पास है सीबाआइ है, की धमकी दे सकती है उसने मुलायम की मांग पर ऐसी तीखी प्रतिक्रिया क्यों दी। सत्ता में होने पर अगर सीबीआइ का दुरूपयोग हो सकता है तो धारा 356 का क्यों नहीं। ये समझना ज़रूरी है कि मौजूदा दौर गठबंधन की राजनीति का ही नहीं, बेशर्म राजनीति का भी है। इसलिए किसी भी मांग में स्वार्थ तलाशने के बजाए ये विचार होना चाहिए कि इसे पूरा कैसे किया जाए। सत्ता में आने पर जब थोक के भाव अधिकारियों के तबादले हो सकते हैं, सीबीआई का पार्टीकरण हो सकता है, राज्यपाल पालतू हो सकते हैं तो धारा 356 बेशर्मी की इस मुख्यधारा में शामिल क्यों नहीं हो सकती। सीमा तो बर्दाश्त की होती है, बेशर्मी की नहीं....वैसे भी हमने छोड़ा क्या है।

रविवार, 10 मई 2009

Missing you…

Last night before sleep
I thought where you were
Suddenly a tear
Spilled out of my eyes
Rolling down my lips
Fell on to my heart
Telling me where you were
Yes mom, you are here
In my heart
Still I am missing you…

(Hindustan Times, 11 April, 2002)

(Composed during my early days in Delhi)

बुधवार, 6 मई 2009

राजनीति और क्रिकेट का गठजोड़!

क्रिकेट और राजनीति हमारे जीवन के अहम हिस्से हैं। मगर ये देख बहुत अफसोस होता है कि इतने सालों में दोनों ने एक दूसरे से कुछ नहीं सीखा। टीवी पर आइपीएल देखने और राजनीतिक बहसें सुनने के दौरान मैंने महसूस किया कि अगर दोनों एक दूसरे की अच्छाइयां अपना लें तो खुद में बहुत सुधार ला सकते हैं। मतलब राजनीति का क्रिकेटीकरण और क्रिकेट का राजनीतिकरण हो जाए तो मज़ा आ जाए। कैसे? मुलाहिज़ा फरमाएं-

1 ये सभी जानते हैं कि खिलाड़ी भी बिकाऊ हैं और नेता भी। मगर त्रासदी देखिए, खिलाड़ियों की कीमत खेल शुरू होने से पहले लगती है और नेताओं की खेल ख़त्म होने के बाद। मैं पूछता हूं कि अगर क्रिकेटीय प्रतिभाओं को खेल खेलने से पहले अपनी कीमत जानने और लेने का हक़ है तो नेताओं को क्यों नहीं। राजनीतिक प्रतिभाओं से न्याय के लिए ज़रूरी है कि चुनाव से दो महीने पहले इनका भी ऑक्शन हो। चुनाव आयोग की तर्ज पर अलग से एक संस्था बना इच्छुक नेताओं का रजिस्ट्रेशन किया जाए। तमाम राष्ट्रीय और मान्यता प्राप्त पार्टियां उसमें आमंत्रित की जाएं। ऐसा होने पर देश के सभी सैटिंगबाज़, धंधेबाज़, ज़हरउगलू, सेंधमारू एक छत के नीचे बिकने के लिए तैयार होंगे। कोई भी पार्टी ज़रूरत और बजट के आधार पर खरीददारी कर पाएगी। इससे न तो उम्मीदवार उपेक्षा की शिकायत कर पाएंगे औ रन ही पार्टियां संगठनात्मक कमज़ोरी का रोना रो पाएंगी।

2.जहां तक दायरा बढ़ाने की बात है राजनीति के मुकाबले क्रिकेट अब भी काफी पिछड़ा हुआ है। इन सालों में राजनीति व्यवसायीकरण, अपराधीकरण के रास्तों से होते हुई जहां साम्प्रदायिकरण तक पहुंच गई लेकिन, वहीं क्रिकेट सिर्फ व्यवसायीकरण तक ही पहुंच पाया। वक़्त आ गया है कि क्रिकेट भी राजनीति की तर्ज़ पर खुद को नए आयाम दे। राज्य के आधार पर टीम बनाने के बजाए जाति और धर्म के आधार पर टीमें बनाई जाए। ब्रहाम्ण, ठाकुर, कायस्थ, जाट, गुज्जर हर किसी की अलग से टीम हो। इससे होगा ये कि जिन लोगों को 'क्षेत्रीय टीम का विचार' अब तक मैच देखने के लिए प्रेरित नहीं कर पाया वो कम से कम 'बिरादरी के आदमी का हाल' जानने के लिए ही मैच देख लेंगे। वैसे भी जाति जब चुनावी उम्मीदवार की सबसे बड़ी योग्यता हो सकती है तो क्रिकेट में सबसे बड़ा आकर्षण क्यों नहीं।

इसी तरह क्रिकेट में परिवारवाद को बढ़ावा देने के लिए भी नियम बनाए जाएं। बड़े खिलाड़ियों के बेटे रणजी खेले बिना सीधा टेस्ट क्रिकेट खेलें। जैसे कोई बड़ा प्लेयर अगर पंद्रह साल से टेस्ट में नंबर चार पर बैटिंग करता रहा है तो कल को उसके बेटे को भी इसी स्लॉट पर खेलने की छूट दी जाए। जनता भी उसकी परफॉरमेंस भूल उसके पिताजी का नाम याद रखे। जिस तरह राजनीति में खानदानी सीट होती है उसी तरह क्रिकेट में खानदानी स्लॉट की परम्परा स्थापित की जाए।

3.जॉन बुकानन का बहुकप्तान का आइडिया भले ही उनकी टीम में लागू न हो पाया हो, लेकिन देश के मौजूदा राजनीतिक हालात में बहुप्रधानमंत्री का विचार बहुत जल्द लागू हो सकता है। मेरे विचार में 15 सीटों वाली पार्टी का भी वही महत्व है जो 150 सासंदों वाली पार्टी का। लिहाजा गठबंधन में शामिल पार्टियां अपनी कुल संख्या को पांच साल से भाग दें। इसके बाद जो संख्या आए, उतने समय तक हर पार्टी का एक प्रधानमंत्री रहे। मसलन गठबंधन में 20 पार्टियां हैं। पांच साल में साठ महीने हैं। ऐसे में पांच साल के लिए बीस प्रधानमंत्री बनाए जाएं जो क्रमश तीन-तीन महीने तक पीएम की कुर्सी पर बैठे। इससे न सिर्फ फ्रेशनेश बनी रहेगी बल्कि देश की दुर्दशा में सभी मिलकर योगदान दे पांएगे।

4. उदारता के मामले में क्रिकेट राजनीति से काफी कुछ सीख सकता है। जिस तरह राज्यसभा में कलाकारों, लेखकों, पत्रकारों, बुद्धजीवियों को जगह मिलती है उसी तरह क्रिकेट टीम में नहीं मिलती। लिहाज़ा क्रिकेट टीम में नेताओं के लिए कुछ स्थान आरक्षित किए जाएं। बीसीसीआइ की सहमति के बाद ये नियम बने कि जो भी सरकार सत्ता में होगी उसे क्रिकेट टीम में कम से कम तीन पद भरने का हक़ होगा। ऐसे में जो लोग कैबिनेट में जगह नहीं बना पाएंगे उन्हें क्रिकेट टीम में जगह दे दी जाएगी। इस तरह के 'नेता खिलाड़ियों' को कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया जाएगा। मैच खेलने भी वो लाल बत्ती की गाड़ी में आएंगे। बल्लेबाज़ी के वक़्त इन्हें अंडरआर्म गेंद फेंकी जाएगी। चौका-छक्का लगाने पर चीयरलीडर्स की बजाए इनके आवारा और नशेड़ी दोस्तों को नाचने की छूट होगी। तमाम सरकारी विज्ञापनों में भी इन्हें प्राथमिकता दी जाएगी। और अंत में मैंच कोई भी जीते मैच के आख़िर में भाषण यही देंगे।

मंगलवार, 5 मई 2009

सलाम बॉम्बे!

गाली देने के लिए राजनीति और नेता हमारे प्रिय पात्र हैं। ज़रा-सी फुरसत हो, तशरीफ रखने की जगह, चार-पांच निकम्मे दोस्त, अदरक वाली चाय और उसमें डुबो खाने के लिए दो-चार बिस्किट मिल जाएं तो किसी भी नेता को, किसी भी कोण से, कितनी भी देर तक, कहीं भी निपटा सकते हैं। सौभाग्य देखिए, गाली देने के लिए न तो हममें स्पिरिट की कमी है और न ही इस महान देश में गाली खाने वाले नेताओं की। भ्रष्टाचार अगर उनका व्यवहार बन चुका है तो गालियां उनका पसंदीदा आहार। इसे खाए बिना उन्हें लगता ही नहीं कि आज कुछ खाया है। ये गाली उनकी थाली का स्थायी हिस्सा बन चुकी है और हमने भी कुशल गृहिणी की तरह आज तक उन्हें कभी शिकायत का मौका नहीं दिया।

मगर दिक्कत ये है कि नेता अगर गालियां खाकर लोकतंत्र चला रहे हैं तो हम भी उन्हें सिर्फ गालियां दे कर लोकतंत्र में अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ रहे हैं। मुम्बई के लोगों ने तो इस मामले में कमाल ही कर दिया है। आतंकी हमलों के बाद जिस तरह मोमबत्तियां जलाने का आक्रामक अभियान चलाया गया उसमें मोमबत्तियां भी खुद को मशाल समझने की ग़लतफहमी पाल बैठी थी। दुनिया को भी लगने लगा मुम्बईवासियों ने सारे घर के बदलने की ठान ली है। भ्रष्ट और मक्कार नेताओं के दिन अब लद गए। ये शहर अब खुद को नए नेतृत्व के लिए तैयार कर रहा है।

मगर इसे उम्मीद का विपरीत अंत कहें या एंटी क्लाइमैक्स, चुनाव के दिन पैंतालीस फीसदी लोग भी वोट देने नहीं निकले। आग उगलते नेताओं को बुझ चुकी नेताओं के हवाले कर नेताओं ने अपने फर्ज़ से पिंड छुड़ा लिया। फ्रेंच मैनिक्योर्ड नाखूनों को नीली स्याही से ख़राब करने के बजाए उन्होंने मुम्बई के नज़दीक किसी हिल स्टेशन पर एक्सटैंडिड वीकएंड बिताना बेहतर समझा। वैसे भी जिन लोगों ने ज़िंदगी बर्बाद कर दी थी, उनकी ख़ातिर वो अपना वीक-ऑफ क्यों बर्बाद करते।

मुम्बईवासियों ने जो करना था कर दिया, अब बारी दिल्लीवासियों की है। भाई लोगों, मुम्बईवाले हमेशा से खुद को ज़्यादा एडवांस बता तुम्हें चिढ़ाते रहे हैं। जेसिका लाल से लेकर अमन काचरू हत्याकांड तक मोमबत्तियां तुमने भी कम नहीं जलाई हैं। लोकतंत्र की रक्षा के लिए तुम भी फर्ज़ निभा चुके हो। गुरूवार को चुनाव है। शनि, रवि की छुट्टी रहती है। शुक्र की छुट्टी के
लिए आज ही अप्लाई कर दो। मुम्बईवाले अगर खंडाला और महाबलेश्वर जा सकते हैं तो क्या नैनीताल और मसूरी के लिए बस चलनी बंद हो गई हैं। फौरन रिज़र्वेशन करवाओ। मक्कारी के मामले में अतिआत्मविश्वास अच्छा नहीं होता। शहर में पप्पू और भी हैं!