शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

बाप रे बाप!



औसत भारतीय पिता पिटाई को अभिव्यक्ति का सबसे कारगर माध्यम मानता है, बच्चों से संवाद का सर्वोत्तम ज़रिया। और ये ऐसी मान्यता है जो हर बच्चे को उसके बाप से विरासत में मिलती है और यही बच्चा कल बाप बन, बच्चों को पीट इस विरासत को आगे बढ़ाता है।


यूं तो पिटाई के पीछे कई कारण हो सकते हैं....लेकिन ज़्यादातर भारतीय पिता पीटने के लिए 'वजह' के मोहताज नहीं होते। किसी भी बाहरी तनाव पर बच्चों की ठुकाई कर आप हल्के हो सकते हैं! इस तरह बच्चों की पिटाई 'स्ट्रेस बस्टर' का भी काम करती है। वैसे कुछ बाप बोरियत की स्थिति में बच्चों को झापड़ रसीद कर मनोरंजन करते भी देखे गए हैं। ऐसे बच्चों को शक़ होता है कि जैसे पिता जी 'पीटने की हसरत' पूरी करने के लिए मेरे पैदा होने का इंतज़ार ही कर रहे थे। इधर नर्स ने इत्तला दी....ठाकुर साहब लड़का हुआ है...उधर ठाकुर साहब आधा किलो लड्डू के साथ एक बॉक्सिंग किट ले आए। आज से प्रेक्टिस शुरू!

आम भारतीय बच्चा जीवन में तब से पिटना शुरू हो जाता है जब उसे ‘पीटना’ और ‘पिटना’ में फर्क तक मालूम नहीं होता। बाप को लगता है बच्चा ज़िद्द कर रहा है इसलिए पिटना चाहिए और वच्चा जानता ही नहीं, जो वो कर रहा है वो ज़िद्द है! हर बच्चे के पिटने की अलग-अलग फ्रीक्वेंसी होती है। कुछ दो-चार चपत में ही महीने-दो महीने टिके रहते हैं तो कुछ बच्चे 'शॉर्ट टर्म मैमरी लॉस' की वजह से दिन में तीन से चार बार पिटते हैं। सुबह जिस ग़लती पर ठुके, वही गुल दोपहर में भी खिला दिया। फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन और ये ठुके हैं हर-पल, हर-क्षण!


पिटने के मामले में कुछ बच्चों की निजता का भी ख़्याल रखा जाता है। पिता की कोशिश रहती है कि ये 'शुभ काम' घर की चारदीवारी में ही किया जाए। घर के अंदर भले ही इतना पीट लें की पूरा मोहल्ला उसकी चीख-पुकार सुन ले, लेकिन किसी के सामने नहीं। वहीं ज़्यादातर बाप ऐसा 'वहम' नहीं पालते। इस मामले में उनकी अप्रोच थोड़ी केज़ुअल होती है। नतीजतन इनके बच्चों की पिटाई के कई गवाह होते हैं। मेहमान के सामने 'भूख दिखाने' पर, आवाज़ अनसुनी करने पर गली में दोस्तों के सामने और चीज़ के लिए ज़िद्द करने पर दुकानदार की मौजूदगी में बच्चे का जुलूस निकाला जा सकता है।

नतीजतन ऐसे बच्चे उम्र के साथ ढीठ हो, आत्मसंशय का शिकार हो जाते हैं। मन ही मन कुढ़ते हैं और फिर इंतज़ार करते हैं शादी कर अपने बाप बनने का, ताकि अपने हिस्से की परम्परा का निर्वाह कर पाएं।

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

सत्ता का सेल्फ-डिफेंस!



इटली के प्रधानमंत्री के एक बयान से इन दिनों काफी खलबली मची हुई है। दरअसल बलात्कार के एक मामले में उनका कहना था कि इटली में लड़कियां इतनी खूबसूरत हैं कि इस तरह के मामलों को रोका नहीं जा सकता! मतलब लड़कियों के लिए संदेश साफ है कि अगर खूबसूरत हो तो प्लास्टिक सर्जरी करवा बदसूरत हो जाओ। तीखी नाक है तो टेढ़ी करवा लो, गोरा रंग है तो सांवलेपन की क्रीम लगाओ। बड़ी आंखे हैं तो वैल्डिंग करवा छोटी करवा लो और मां-बाप से इस आधार पर रिश्ता तोड़ लो कि तुमने हमारे साथ ये क्या किया? आख़िर क्या कसूर था हमारा!
मैं नहीं जानता इटली के प्रधानमंत्री ने ये बयान अनजाने में दिया या सोच-समझकर, मगर मेरे हिसाब से पश्चिमी देश के किसी राष्ट्राध्यक्ष की तरफ से बुर्के या पर्दा प्रथा के पक्ष में दी गई ये सबसे बड़ी दलील है! औरत की खूबसूरती आदमी को भड़का सकती है और आदमी के भड़कने पर औरत का ही नुकसान है इसलिए इससे बचने का उपाय भी वही खोजे। दुनिया समझती थी कि बलात्कार अपराध है....उन्होंने बताया कि वो तो सहज प्रतिक्रिया है!


इसी कड़ी में शीला दीक्षित के बयान को भी जोड़ सकते हैं जिसमें उन्होंने एक लड़की के देर रात को ऑफिस से घर जाने को दुस्साहस कहा था! उसकी मौत की वजह बताया था। मतलब, देश की राजधानी के सबसे पॉश इलाके में अगर किसी की हत्या हो तो वो कुछ हद तक कानून की चूक हो सकती है...मगर इसमें बड़ा कारण लड़की का दुस्साहस ही है!


मुझे याद है कुछ साल पहले राजस्थान से लगातार ये ख़बरे आ रही थीं कि ख़राब पानी पीने से लोगों की मौत हो रही है....सम्बंधित मंत्री से जब इस बारे में पूछा गया तो उनका कहना था कि जो इस दुनिया में आया है एक न एक दिन तो उसे जाना ही है..... इसलिए इस पर इतना हल्ला नहीं होना चाहिए! मुम्बई धमाकों के बाद आर आर पाटिल के भी बड़े शहरों में छोटी घटनाओं के बयान को भी कोई नहीं भूला होगा!


मतलब जब सत्ता निकम्मी हो जाए तो नेता ऐसे तर्क दें कि लोग बहस के लिए तर्क जुटाने में लग जाएं और ये भूल ही जाएं कि असल मामला क्या था.....सवाल ये है कि अगर फर्ज नैतिकता से जुड़ी चीज़ है तो क्या उसके लिए आग्रह किया जाए...आप किसी बच्चे को मजबूर तो नहीं कर सकते कि तुम मां-बाप का ख़्याल रखो...न उससे शास्त्रार्थ कर सकते हैं...मगर राजनीति आग्रह मांगती है....यहां फर्ज़ स्वाभाविक न हो, अहसान मान लिया गया है....नेता वक़्त-बेक़्त बताते हैं कि हमने इन सालों में ये-ये काम किए हैं...जैसे काम करना उनके कार्यक्षेत्र से बाहर हो!....आउट ऑफ सिलेबस हो.....और जब उन्होंने कर दिया है तो जनता माने कि उस पर कितना बड़ा एहसान हुआ है!