गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

अपराधी की सहमति! (व्यंग्य)

पाकिस्तान का कहना था, पहले सबूत दो। भारत ने कहा, ये लो। पाकिस्तान ने कहा, मिले नहीं। भारत ने कहा, भेज तो दिए। हमें और चाहिए....अरे और भिजवाए तो थे....क्या बकवास कर रहे हो...हमें कोई सबूत नहीं मिले।

तीन हफ्ते हो गए, दो देश ऐसे लड़ रहे हैं जैसे खाने का ऑर्डर दे कर आप रेस्टोरेंट वाले से लड़ते हैं। आधा घंटा हो गया अब तक खाना नहीं आया। सर, लड़का निकल चुका है, बस पहुंचता ही होगा। क्या पाकिस्तान के मामले में भी ऐसा ही है। लड़का निकल चुका है मगर पहुंचा नहीं।

एक नज़रिया ये है कि जिन ‘माध्यमों’ से सबूत मंगवाए जा रहे हैं कहीं उन्हीं में तो खोट नहीं। मसलन, जिस नम्बर पर सबूत फैक्स करवाए गए वो एमइए का न हो कर, रावलपिंडी के किसी पीसीओ बूथ का हो, जो ईमेल आईडी बताई गई, उसका इनबॉक्स फुल हो या जिस पते पर सबूत कूरियर करने को कहा गया हो वो किसी किराना स्टोर का हो। इधर सबूत का बंडल पहुंचा, उधर किराने वाले ने बंडल से पन्ने अलग कर उसमें खुला राशन बेचना शुरू कर दिया। काले चिट्ठे में काली मिर्च लपेट दी गई।

भारत ने भले ही पाकिस्तान के साथ क्रिकेट सीरीज़ खेलने से मना कर दिया हो लेकिन वो उससे ‘सबूत मिले नहीं, दे दिए’ टाइप एक बेतुके मैच में ज़रूर उलझा हुआ है, ऐसा मैच जो हर दिन नीरस होने के साथ-साथ ड्रा की ओर बढ़ रहा है।

सबूत के इस पूरे एपीसोड में कुछ बातें बहुत दिलचस्प हैं। पहला- ये मानना कि जो लोग (पाकिस्तान सरकार) कहते हैं हम आतंकवाद ख़त्म करना चाहते हैं, वो वाकई कुछ कर सकने की स्थिति में हैं! दूसरा-ऐसा करने के लिए उन्हें सबूत चाहिए। तीसरा-जो सबूत भारत उन्हें देगा वो उन्हें उत्तेजित करेंगे, वजह-उससे ज़्यादा सबूत तो खुद उनके पास है! किसी मां को ये बताना कि उसके बच्चे के दाएं कंधे पर तिल है और फिर उम्मीद करना कि वो इस जानकारी पर हैरान होगी, ये वाकई उच्च दर्जे का आशावाद और निम्न दर्जे की मूर्खता है।

आतंकी कहां से आए, किसने भेजा, कहां से पैसा आया, किसने ट्रेनिंग दी, क्या हम इतने दिनों से इस सबके सबूत पाकिस्तान को दे रहे हैं! उसकी आत्मकथा से उसका लाइफ स्कैच तैयार कर उसे पढ़ने के लिए दे रहे हैं।

अगर यही न्याय है तो बलात्कारियों और हत्यारों को भी ये छूट दी जाए। उनके अपराध के खिलाफ सबूत जुटा, उनके ही सामने पेश किए जाएं और सज़ा से पहले ये देखा जाए कि वो इन सबूतों से संतुष्ट हैं या नहीं। सबूतों से संतुष्टि अगर अपराधी की मौत है तो इस संतुष्टि का इंतज़ार आपकी मूर्खता!

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

सुधार आश्रम में प्रवेश!

बचपन में पिताजी 'ज़्यादा बोलने' और 'कम सुनने' पर मुझे खूब लताड़ते थे। उनका कहना था बेटा ऐसा करो, अपने कान दान दे दो। वजह, जब तुमने किसी की बात सुननी ही नहीं, तो इनको लटकाये रखने का फायदा क्या? साथ ही वो कहते थे कि भले ही स्कूटर की तरह ज़बान चलाने के लिए लाइसेंस की ज़रूरत नहीं, और न ही इसके बेलगाम होने पर चालान कटता है फिर भी हिदायत दूंगा कम बोला करो, वरना शादी के बाद पछताओगे!

इसके अलावा भी अनुशासनहीनता के तमाम घरेलू और सामाजिक मोर्चों पर जो समझाइश दी जाती थी, उसमें अंतिम धमकी शादी की ही होती थी। कपड़े खुंटी पर टांगों, जूते रैक में रखो, झूठे बर्तन सिंक में रखो, जल्दी उठो, जल्दी सोओ, इंसान बनो, वरना.......बीवी आकर सुधार देगी!

कुल मिलाकर शादी को लेकर इम्प्रैशन ये मिला कि ये एक संस्थान न हो कर पुरूषों के लिए रिहैब कैंप है, जहां बीवियां चुन-चुन कर उनकी बुरी आदतें छुड़ाती हैं! और बुरी आदत किसे कहते हैं इसकी परिभाषा भी बीवी ही देगी!


खैर, कुछ रोज़ पहले मेरी ज़िदंगी में भी वो वक़्त आया जब प्यार में धोखा खा-खा कर मेरा पेट भर गया, और धोखा देने के सारे गोदामों पर अंतरआत्मा ने 'कुछ तो शर्म करो' कह कर ताला जड़वा दिया। आखिरकार मैंने तय किया चलो रिहैब कैंप ज्वॉयन किया जाये।

शादी के मंच पर किराए की शेरवानी में मैं काफी अच्छा दिख रहा हूं। सामने बैठे लोगों की आंखों में खुद के लिए तारीफ और तरस दोनों पढ़ पा रहा हूं। इतने में कैंप इंचार्ज बगल में बैठती हैं। मैं तारीफ की शटल उनकी तरफ फेंकता हूं, अच्छी लग रही हो, रिटर्न का इंतज़ार कर रहा हूं, वो खामोश हैं.....फिर रिटर्न आता है.....ये क्या मतलब है......मतलब..... क्या हुआ डियर......डीजे पर पंजाबी गाने लगे हैं.....आपको पता है न......'हमारे यहां' किसी को पंजाबी समझ नहीं आती.....देखो...कोई भी नहीं नाच रहा..........सोचता हूं 'लव ऑल' पर एक और सर्विस की तो कहीं 'डब्ल फॉल्ट' न हो जाये, लिहाज़ा मैं चुप हूं!

इसके बाद मंडप में पंडित जी इनडायरैक्ट स्पीच में बता रहे हैं कि कन्या पत्नी बनने से पहले तुमसे आठ वचन मांगती है। अगर मंज़ूर हो तो हर वचन के बाद तथास्तु कहो। जो वचन वो बात रहे हैं उसके मुताबिक मैं अपना सारा पैसा, अपनी सारी अक्ल, या कहूं सारा वजूद कन्या के हवाले कर दूं। फिर एक जगह कन्या कहती है अगर मैं कोई पाप करती हूं, तो उसका आधा हिस्सा तुम्हारे खाते में जायेगा, और तुम जो पुण्य कमाओगे उसमें आधा हिस्सा मुझे देना होगा....बोलो मंज़ूर है! मैं पिता जी की तरफ देखता हूं....वो मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं, मानो कह रहे हो....कहा था न सुधर जाओ!

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

डक इट लाइक बुश! (हास्य-व्यंग्य)

बुश पर हुई जूतेबाज़ी को लेकर अप्रत्याशित यही लगा कि किसी ने इसे अप्रत्याशित नहीं माना, यहां तक कि बुश ने भी! मानों वो इसे एंटीसिपेट कर रहे थे। दुनिया को 'उम्मीद' और उन्हें 'आशंका' थी कि ऐसा हो सकता है। जिस सफाई से वो जूते डक कर गए, ये किसी नौसीखिए का काम नहीं था। भला आदमी तो खा बैठता। गावस्कर भी ऐसी सफाई से बाउंसर डक नहीं कर पाए, जैसे बुश जूता कर गए। चारों तरफ वाह! वाह! हो उठी। सब ने एक सुर में कहा....डक इट लाइक बुश।

ख़बर तो ये है कि कुछ समय से वो जूते डक करने की बाकायदा प्रेक्टिस कर रहे थे। उन्हें बता दिया गया था कि सर, कभी भी पड़ सकते हैं, आप तैयारी रखिए। आख़िर वो शुभ घड़ी बगदाद में आ ही गई। बुश की बत्तीसी पर निशाना साधते हुए किसी ने दो जूते फेंके। मगर बुश ने झुक कर उन्हें खाने से मना कर दिया।

उठ कर उन्होंने कहा कि मुझे इसमें हैरान करने लायक कुछ नहीं लगा...बस उस एक पल....पहली बार... वो बाकी दुनिया से सहमत दिखे। उन्हें जूते पड़ने चाहिए, इस पर वे भी सहमत थे और दुनिया भी। मगर इससे पहले कि मैं उनकी ईमानदारी को सलाम करता उन्होंने जोड़ दिया कि राजनीतिक सभाओं में भी ऐसा हो जाता है। कुछ लोग ध्यान खींचने के लिए भी ऐसा करते हैं।

यहीं सारा कबाड़ा हो गया। मतलब उन्हें जूता 'अपनी योग्यता' की वजह से नहीं, किसी 'उन्मादी के चर्चा पाने की उत्कंठा' की वजह से पड़ा। मैं समझ गया की 'अंतरदृष्टि दोष' के चलते नेता अपने गिरेबां में झांक नहीं पाते हैं और दुविधा ये कि आत्मा में झांकने का कोई चश्मा बना नहीं।

खैर, इस घटना पर भारतीय नेताओं की भी प्रतिक्रिया देखी गई। इन तस्वीरों के दिखाए जाने के बाद एक नेता जी न्यूज़ चैनल्स से काफी नाराज़ दिखे। उनका आरोप था कि मुम्बई हादसे के बाद उन लोगों (नेताओं) के जूतियाने की सम्भावना बढ़ी हुई है। कुछ का तो जूत्यार्पण हो भी चुका है। जनता छू के इंतज़ार में है। ऐसे में चैनल्स ये सब दिखा जनता को और भड़का रहे हैं। कुछ चैनल्स ने तो ओपिनियन पोल्स तक चलवा दिए "आप नेता से ज्यादा नफरत करते हैं, या जूते से ज्यादा प्यार।" एक ने तो कार्यक्रम का नाम ही रख दिया "ये चूका, आप न चूकें।"

बोलते-बोलते नेता जी आपा खो बैठे- कहा-ये टीवी वाले ऐसे नहीं सुधरने वाले। इन्हें तो जूते पड़ने चाहिए...तभी किसी ने होशियार किया....सर जी, ख्याल रखना....बुश को जूता मारने वाला टीवी पत्रकार ही था। इतनी मंदी में जूता फेंक दिया...सोचो...कितना भरा बैठा होगा।

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

शर्म की भाषा!(व्यंग्य)

याद नहीं आता दिल्ली आने पर किस के कहने पर अंग्रेज़ी का अख़बार लगवाया। मुश्किल शब्दों का अर्थ लिखने के लिए एक रजिस्टर खरीदा। कुछ दिनों तक सिलसिला चला। फिर रजिस्टर में नोट किए शब्दों के साथ-साथ रजिस्टर भी खो गया। अख़बार फिर भी आता रहा। मैंने उसे उसके हाल पर छोड़ दिया। न पढ़ा, न हटाया। हॉकर रबड़ लगाकर बॉलकॉनी में फेंकता है। महीने-दो महीने बाद कबाड़ी के हवाले किए जाने तक रबड़ नहीं खुलता। दिल दुखता है जब पढ़ना नहीं तो लगवा क्यूं रखा है। सोचता भी हूं इसे हटाकर और एक हिंदी का अख़बार लगवा लूं। लेकिन हिम्मत नहीं होती। सोच कर दहल जाता हूं ऐसा कर दिया तो इस जन्म में अंग्रेज़ी सीखने का चांस ख़त्म हो जाएगा। ऐसा सिरेंडर मुझे मज़ूर नहीं। नहीं, मैं कदम पीछे नहीं हटाना चाहता।
बहरहाल, अख़बार आ रहा है। रबड़ नहीं खुल रहा। कभी-कभी तरस भी आता है। रिपोर्टर ने कितनी मेहनत की होगी, सब-एडिटर ने भी ज़ोर लगाया होगा, प्रूफ रीडर ने भी छत्तीस बार पढ़ा होगा, कम्पनियों ने भी पाठक को लुभाने के लिए लाखों का विज्ञापन दिया है। मगर ये 'बेशर्म पाठक' (मैं) अख़बार खोलता तक नहीं। और कुछ नहीं उस बेचारे हॉकर का तो ख़्याल कर जो तीसरी कोशिश में तीसरी मंज़िल की बॉलकॉनी में अख़बार फेंक पाता है।
ख़ैर, ग़लती से कभी अख़बार खोल भी लिया। कुछ पन्ने पलट भी लिये लेकिन बिज़नेस स्पलीमेंट देख मैं डिप्रेशन में चला जाता हूं। सोचता हूं कब तक इसका इस्तेमाल खाते वक़्त बिस्तर पर बिछाने के लिए करता रहूंगा। कब तक इसके पन्ने अलमारी के आलों में ही बिछते रहेंगे। और इस विचार से तनाव में आकर पढ़ने की कोशिश भी करता हूं तो लगता है शायद पाली भाषा में लिखा कोई शिलालेख पढ़ रहा हूं। तनाव और बढ़ जाता है। अख़बार छूट जाता है।
इस सबसे खुद पर गुस्सा भी आता है। मगर खुद की कमज़ोरी के बारे में सोचने पर आत्मविश्वास टूटता है। लिहाज़ा आज कल अंग्रेज़ी का ही विरोध करने लगा हूं। मुझे लगने लगा है कि अंग्रेजी सीखने या सुधारने की मजबूरी क्या है। पश्चिमी देशों ने क्या अंग्रेज़ी के दम पर तरक्की की है, चीन ने भी ऐसी किसी मजबूरी को नहीं माना। तो फिर हम क्यूं ऐसा सोचते हैं। ऐसा सोचने से मुझे हिम्मत मिलती है। इस तरह से हिम्मत जुटाने में मुझे शर्म भी आती है। मगर ये नहीं समझ पाता कि ये शर्म भाषा न सीख पाने की है या उस भाषा के अंग्रेज़ी होने की!

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

गौरव-खाली इतिहास! (हास्य-व्यंग्य)

इतिहास इस बारे में कोई सबूत नहीं देता कि आज़ादी की लड़ाई में एड एजेंसीज़ की मदद ली गई या नेताओं ने बात को प्रभावी ढंग से रखने के लिए किसी फ्रीलांस राइटर से स्लोगन लिखवाया। मतलब जो नारे उस वक़्त दिए गए वो नेताओं की अपनी क्रिएटिविटी थी। उसमें कोई ‘बाहरी हाथ’ नहीं था।
मुझे भी नहीं लगता कि सुभाष चंद्र बोस ने नेहरू पर स्कोर करने के लिए किसी परिचित बंगाली कवि से कहा हो कि यार, कोई ढंग का नारा बताओ। ये उन नेताओं के जज़्बे और प्रतिभा का ही प्रताप था कि जो उन्होंने कहा जनता ने उसे मूलमंत्र माना। आगे चल कर वो नारे इतिहास की किताबों का हिस्सा बनें और आने वाली पीढ़ियों ने जाना किस महापुरूष ने किस मौके पर क्या कहा।
मैं सोचता हूं जो वक़्त हम जी रहे हैं इसे भी कल इतिहास बनना है। इस दौरान जो भी ‘किया और कहा’ जा रहा है कल को उसकी भी चर्चा होगी और अगर ईमानदारी से इतिहास लिखा गया तो क्या पढ़ेंगें हमारे बच्चे?
26 नवम्बर 2008 को भारत पर आतंकी हमला। 200 लोग मरे, 400 घायल। महाराष्ट्र के गृहमंत्री ने कहा, बड़े-बड़े शहरों में ऐसी छोटी-मोटी घटनाएं होती रहती हैं। टीचर क्या जवाब देगी? बच्चों, श्री पाटिल मनोविज्ञान के भी अच्छे ज्ञाता थे। उन्हें लगता था कि अगर स्वीकार कर लिया गया कि ये एक बड़ा आतंकी हमला था तो लोगों को विश्वास टूटेगा।
मगर मैम उस वक़्त केरल के मुख्यमंत्री ने जो कहा उसका क्या मतलब था कि अगर मेजर संदीप शहीद नहीं होते तो उनके घर कुत्ता भी नहीं जाता। बच्चों, उनका ये बयान आज भी रहस्य का विषय बना हुआ है। इस बयान के बाद सरकार ने उनके कुछ नारको टेस्ट करवाए, जांच आयोग बने, कुत्तों ने धरने-प्रदर्शन किए, यहां तक कि अमेरिकी सैटेलाइट से उनके दिमाग का नक्शा भी मांगा गया, पर हाथ कुछ नहीं लगा।
लेकिन मैम कुछ और बयान पढ़कर लगता है कि लो कट जींस के साथ उस वक़्त मूर्खता भी फैशन में थी। क्या ऐसे बयान दे हर नेता खुद को फैशनेबल दिखाना चाहता था। नहीं बच्चों, अगर ऐसा होता तो उस वक़्त नेता बिंदी-लिपस्टिक लगाकर विरोध जताने का विरोध नहीं करते।
मैम उस वक़्त नारायण राणे नाम के एक नेता भी कांग्रेस के खिलाफ बोले थे...क्या वो आंतकी हमले के लिए अपनी पार्टी से नाराज़ थे?........नहीं बेटा, ऐसी बात नहीं है.......दरअसल वो खुद को मुख्यमंत्री न बनाए जाने से नाराज़ थे। तो मैम, क्या वो आतंकी हमलों के बाद से यही सोच रहे थे कि कब देशमुख हटें और मैं मुख्यमंत्री बनूं? ओह!....अब समझ आया आतंकी उसके बाद भी भारत पर लगातार हमले कैसे करते रहे!

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

स्नानवादियों के खिलाफ श्वेतपत्र (हास्य-व्यंग्य)



सर्दी बढ़ने के साथ ही स्नानवादियों का खौफ भी बढ़ता जा रहा है। हर ऑफिस में ऐसे स्नानवादी ज़बरदस्ती मानिटरिंग का ज़िम्मा उठा लेते हैं। जैसे ही सुबह कोई ऑफिस आया, ये उन्हें ध्यान से देखते हैं फिर ज़रा सा शक़ होने पर सरेआम चिल्लाते हैं... क्यों..... नहा कर नहीं आये क्या? सामने वाला भी सहम जाता है...अबे पकड़ा गया। वो बजाय ऐसे सवालों को इग्नोर करने के सफाई देने लगता हैं। नहीं-नहीं... नहा कर तो आया हूं...बिजली गई हुई थी.. आज तो बल्कि ठंडें पानी से नहाना पड़ा।


लानत है ऐसे डिफेंस पर और ऐसी 'गिल्ट' पर। सवाल उठता है कि न नहाने पर ऐसी शर्मिंदगी क्यों? जिस पानी से हाथ धोने की हिम्मत नहीं पड़ रही...क्या मजबूरी है कि उससे नहाया जाये। एक तरफ प्रकृतिवादी कहते हैं कि नेचर से छेड़छाड़ मत करो और दूसरी तरफ बर्फीले पानी को गर्म कर नहाने की गुज़ारिश करते हैं। आख़िर ऐसा सेल्फ टोरचर क्यों? क्यों हम ऊपर वाले की अक्ल को इतना अंडरएस्टिमेट करते हैं। उसने सर्दी बनायी ही इसलिए है कि उसकी 'प्रिय संतान' को नहाने से ब्रेक मिले। सर्दी में नहाना ज़रुरत नहीं, एडवेंचर है। अब इस कारनामे को वही अंजाम दें, जिन्हें एडवेंचर स्पोर्ट्स में इंर्टस्ट है।
मगर जनाब नहाने की महिमा बताने वाले बड़े ही ख़तरनाक लोग हैं। ये लोग अक्सर ग्रुप में काम करते हैं। जैसे ही इन्हें पता चला कि फलां आदमी नहा कर नहीं आया..लगे उसे मैन्टली टॉर्चर करते हैं। बात उनसे नहीं करेंगे, लेकिन मुखातिब उनसे ही होंगे।
मसलन....भले ही कितनी सर्दी हो हम एक भी दिन बिना नहाये नहीं रह सकते। दूसरा एक क़दम आगे निकलता है। तुम रोज़ नहाने की बात करते हो...हम तो रोज़ नहाते हैं और वो भी ठंडें पानी से। साला एक आधे-डब्बे में तो जान निकलती है, फिर कुछ पता नहीं चलता। सारा दिन बदन में चीते-सी फुर्ती रहती है। अब वो बेचारा जो नहाकर नहीं आया...उसे इनकी बातें सुनकर ही ठंड लगने लगती है। उसका दिल करता है फौरन बाहर जाकर धूप में खड़ा हो जाऊं।
एक ग़रीब मुल्क का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि उसके धरतीपुत्र अपनी अनमोल विल पॉवर, सर्दी में नहा कर वेस्ट करें। इसी विल पॉवर से कितने ही पुल बनाये जा सकते हैं, कितनी ही महान कृतियों की रचना की जा सकती थी। लेकिन नहीं...हम ऐसा कुछ नहीं करेंगें। हम तो चार डिब्बे ठंडें पानी के डालकर ही गौरवान्वित होंगे।
नहाने में आस्था न रखने वाले प्यारे दोस्तों वक़्त आ गया है कि तुम काउंटर अटैक करो। देश में पानी की कमी के लिए इन नहाने वालों को ज़िम्मेदार ठहराओ। किसी भी झूठ-मूठ की रिपोर्ट का हवाला देते हुए लोगों को बताओ कि सिर्फ सर्दी में न नहाने से देश की चालीस फीसदी जल समस्या दूर हो सकती है। अपनी बात को मज़बूती से रखने के लिए एक मंच बनाओ। वैसे भी मंच बनने के बाद इस देश में किसी भी मूर्खता को मान्यता मिल जाती है। प्रिय मित्रों, जल्दी ही कुछ करो...इससे पहले की एक और सर्दी, शर्मिंदगी में निकल जाये !

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

बेशर्मी का माइलेज (हास्य-व्यंग्य)

ख़बर है कि एनएसजी कमांडों को आदेश दिए थे कि ताज को आतंकियों से मुक्त कराने के बाद गृह मंत्रालय को शिवराज से मुक्त कराओ। इसी डर से शिवराज ने इस्तीफा दिया। जाते-जाते वो कह गए कि मैं नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे रहा हूं। राष्ट्र ने कहा सिर्फ इस्तीफा दे दो, तो भी चलेगा। मगर वो नहीं माने। नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने पर तुले थे। चार साल में बीस बड़े आतंकी हमलों के बाद उनकी नैतिकता जवाब दे गई। उसका पेट्रोल ख़त्म हो गया। कुछ देर रिज़र्व पर चलने के बाद आख़िरकार उसने इस्तीफा दे दिया।
ख़बर ये भी है कि हर आतंकी हमले के बाद उनकी 'नैतिकता' ने 'इंसानियत' के आधार पर उन्हें इस्तीफा सौंपा। मगर शिवराज ने उसे हर बार लौटा दिया। इस बात को लेकर उनका नैतिकता से झगड़ा हो गया। फिर किसी ने उनसे 'बेशर्मी' की सिफारिश की। उन्हें बताया कि बेशर्मी, नैतिकता जितनी डिमांडिंग नहीं है, सिर्फ बयान के आधार पर मान जाती है। बयान में भी वैरायिटी नहीं मांगती। एक ही बयान हर बार देने पर भी चलेगा। ऊपर से इसकी माइलेज भी ज़्यादा है। इसको आधार बनाइये बहुत दूर तक जाएंगे। इतनी दूर तक... जहां लोग कहेंगे....मेरे लिए तारे तोड़ कर लाना!
लोगों की बात ठीक निकली। उन्होंने लगभग अपना कार्यकाल पूरा कर लिया। मगर मेरी शिकायत ये है कि जब वो आख़िरी सालों में 'बेशर्मी' के आधार पर गृहमंत्री बने रहे तो उन्होंने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा क्यों दिया ? उन्हें बेशर्मी के आधार पर ही इस्तीफा देना चाहिए था। राष्ट्र को बताना चाहिए था कि बेशर्मी को लेकर मेरा स्टेमिना इतना ही है। मैं और ज़लील नहीं हो सकता। ख़तरे का निशान ऊपर उठा-उठा कर मैं तंग आ चुका हूं। मेरे हाथ थकने लगे हैं और उन लोगों के भी जिनके हाथ अपने ऊपर होने की वजह से मैं अब तक गृहमंत्री बना रहा।
खैर शिवराज चले गए। मगर वो तरह-तरह के कपड़ों और एक जैसे बयानों के लिए हमेशा जाने जाएंगें। इस बात का अफसोस हमेशा रहेगा जो तालमेल उनकी ड्रेसिंग में देखा गया उसके लिए सुरक्षा एजेंसियां तरस गई। ये बात हमेशा रहस्य का विषय बनी रहेगी कि जो उठ नहीं पाए और जो वो उठा नहीं पाए, आखिर वो कौन से कड़े कदम थे? क्या 'कड़े कदम' से उनका मतलब हर आतंकी हमले के बाद वो ज़ोर-ज़ोर से पैर पटक कर चलना था। हो सकता है वो हर हमले के बाद ज़ोर-ज़ोर से पैर पटक कर चलते रहे हों और लोग उन्हें यूं ही लताड़ते रहे। इसमें दो राय नहीं शिवराज का जाना देश के लिए बड़ा झटका है, मगर ज़्यादा खुशी तब होती जब वो देश भारत होता!
(Dainik Hindustan 4 dec, 2008)