रविवार, 21 मार्च 2010

हम कमाते क्यों हैं?

मध्यवर्गीय नौकरीपेशा आदमी के नाते ये सवाल अक्सर मेरे ज़हन में आता है कि हम कमाते क्यों हैं? क्या हम इसलिए कमाते हैं कि अच्छा खा-पहन सकें, अच्छी जगह घूम सकें और भविष्य के लिए ढेर सारा पैसा बचा सकें। या हम इसलिए कमाते हैं कि एक तारीख को मकान मालिक को किराया दे सकें। पानी,बिजली, मोबाइल, इंटरनेट सहित आधा दर्जन बिल चुका पाएं। पांच तारीख को गाड़ी की ईएमआई दें और हर तीसरे दिन जेब खाली कर पैट्रोल टैंक फुल करवा सकें।


मुझे तो यहां तक लगता है कि मां-बाप बच्चों का स्कूल में एडमिशन ही इसलिए कराते हैं कि पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी और बड़ी तनख्वाह पा वो एक दिन मकान मालिक को दस-पंद्रह हज़ार किराया दे सके! इसीलिए वित्त मंत्री भी जब घोषणा करते हैं कि अगले एक साल में हम एक करोड़ नौकरियां पैदा करेंगे तो उसका मतलब है कि अगले एक साल में हम एक करोड़ किराएदार तैयार करेंगे। ऐसे में लगता है कि तनख्वाह आपकी-हमारी मेहनत का प्रतिफल नहीं बल्कि मकान मालिकों और कामवालियों की वो अमानत है जो मिलते ही हमें उन्हें लौटानी हैं।

और इन झटकों के बावजूद आपके सेविंग अकाउंट में अगर कुछ बच गया है तो मार्च आते-आते इसे भी तो टैक्स सेविंग की मजबूरी में उन म्यूचल फंडों में इनवेस्ट करना होगा, जो स्टार लगाकर ये हिदायत देते हैं कि इनवेस्टमेंट इन शेयरमार्किट इज़ सब्जिक्ट टू मार्केट रिस्क प्लीज़ रीड द् ऑफर डाक्यूमेंट क्लियरली बिफोर इनवेस्टिंग! ऐसे में या तो बंदा अपना सर पीट ले या फिर नौकरी छोड़ गांव में हल चलाकर समस्या का हल ढूंढें। आप भी सोचें कि इस सब पर हम अपना सर पीटें, या फिर लोन की गाड़ी, किराए के मकान और इनवेस्टमेंट पोर्टफोलियों में गर्व तलाशें और जो चल रहा है उसे चलने दें।

मंगलवार, 9 मार्च 2010

पपी और पापी!

जिस दुकान पर कल मैं सामान लेने गया, वहां एक जनाब अपने पपी के साथ कुछ खरीद रहे थे। वहां मौजूद एक लड़का जैसे ही पपी के पास से गुज़रा, तो वो जनाव बोल पड़े: देख के भइया, देख के... पैर मत रख देना इस पर…वरना खड़े-खड़े दस हज़ार का नुकसान हो जाएगा! हिंदी भाषा से अनजान पुअर पपी अब भी मालिक का जूता चाट रहा था, कायदे से जिस पर उसे अब तक सूसू कर देना चाहिए था!


मैं सोचने लगा कि इस शख़्स ने भी ‘थ्री इडियट्स’ देखी होगी। करीना के ‘प्राइज़ टैग’ मंगेतर पर ये भी हंसा होगा। इसने भी सोचा होगा कि कैसा घटिया आदमी है? बिना ये सोचे की जैसा ये घटिया है, वैसा ही मैं भी तो हूं, या फिर हॉल में ठहाके लगाते दो-तीन सौ लोगों पर इसे गुस्सा आया होगा? आख़िर आदमी अच्छा खाता-पहनता किसलिए है, इसीलिए न कि वक़्त आए (न भी आए) तो बता सके कि उसका दाम क्या है?

मैं सोचता हूं...पपी पर वयस्क आदमी पांव रख दे तो क्या होगा?....सुनने में भले ही लगे कि इस सवाल का ताल्लुक जीव विज्ञान से है, मगर इसका आर्थिक पक्ष भी है। और अगर कोई इन्हें कहे कि पपी कितना ‘क्यूट’ है तो ये उसे समझाएंगे कि इसका सम्बन्ध जीव विज्ञान से नहीं, अर्थशास्त्र से भी है। ‘क्यूट’ है तभी तो दस हज़ार का है! क्यूटनेस पपी से प्यार की नहीं, उसे घर लाने की भी नहीं, उस सवाल की वजह है जिसका जवाब है, 'ये दस हज़ार का है’! मैं सोचता हूं कि मानवीय या सामाजिक बुराईयों का ‘गवाह’ और ‘शिकार’ होना एक बात है और उसकी आलोचना कर या खिल्ली उड़ा खुद को ज़मानत देना दूसरी! सच...ऐसों का बीमार बाप भी मर जाए तो पहले मुंह से यही निकलेगा कि हाय! दो लाख का नुकसान हो गया....इतना पैसा लगा था दवाई पर!

सोमवार, 8 मार्च 2010

इंस्टैंट फल!

बाबा अपने शिष्यों को नैतिकता का पाठ पढ़ाते थे। संयम के मायने समझाते थे। उनका कहना था कि इस लोक में अगर सद्चरित्र रहे तो उस लोक में एक से बढ़कर एक सुख-सुविधाएं मिलेंगी। गुरू की इसी शिक्षा पर चलते हुए एक शिष्य ने कभी किसी को बुरी नज़र से नहीं देखा। हर किसी को बहन माना। हमेशा संयम रखा। यहां तक कि जीवनभर शादी भी नहीं की।

सारा जीवन वो इन्हीं आदर्शों पर चला और फिर एक दिन देह त्याग दी। कर्मों के आधार पर शिष्य को स्वर्ग में पार्क फेसिंग एमआइजी फ्लैट अलॉट हुआ, शॉफर ड्रिवन गाडी मिली। ये सब देख उसके मन में गुरू के प्रति आस्था और गहरी हो गई। उसी दिन शाम वो सैर पर निकला। दो कदम ही चला था कि क्या देखता है... जीवन भर चरित्र का उपदेश देने वाले उसके गुरू सोसायटी के ही पार्क में एक मशहूर अभिनेत्री के साथ रंगरलियां मना रहे हैं। ये देख शिष्य का खून खौल उठा। उसके पांव तले ज़मीन खिसक गई। वो चिल्लाया-ये क्या कर रहे हैं...शर्म नहीं आती आपको...जीवन भर मुझे नैतिकता का पाठ पढ़ाते रहे और यहां गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। इससे पहले की वो कुछ और कहता, गुरू ने टोका-शांत वत्स शांत...आख़िर क्यों इतना भड़क रहे हो...मैंने तो हमेशा तुम्हें चरित्रवान होने की शिक्षा दी, संत बनने को कहा और यही समझाया कि ऐसा करोगे तो स्वर्ग में एक से बढ़कर एक अप्सराएं मिलेंगी। अब तुम ही बताओ मुझसे बड़ा संत भला कौन है और इन सितारा देवी से बड़ी अप्सरा कौन हुई हैं!

दोस्तों, ठीक इसी तरह आसपास अगर किसी बाबा के रंगरलियां मनाने की ख़बर आप सुनें, तो बुरा न मानें। दरअसल, ‘सब कुछ इंस्टैंट’ के इस ज़माने में दुआएं भी इंस्टैंट कबूल होने लगी हैं...सुबह बाबा ने दुआ मांगी और रात को कबूल हो गई! वैसे भी स्वर्ग-नर्क सब यहीं है!

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

लिपस्टिक की लेडीफिंगर समझने की मुश्किल!

आम आदमी और आम बजट की शायद यही नियति है। हमेशा उम्मीद की जाती है कि शायद अब ये संघर्ष कर खुद को ख़ास बना लें, लेकिन नहीं। बजट और आदमी ने खुद के आम होने को स्वीकार कर लिया है। इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ है। इतनी बार छले जाने के बावजूद आम आदमी ने बजट से फिर उम्मीद लगा खुद को आम साबित किया, और बजट ने फिर से आम आदमी को कुछ न दे, खुद को ख़ास होने से बचा लिया। वहीं, आम आदमी के नाते बजट की इस बेरूखी पर मैं भारी गुस्से में हूं। समझ नहीं पा रहा हूं क्या करूं? फिर सोचा क्यों न सीधे वित्त मंत्री से मुलाकात कर उनसे अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करूं। लिहाज़ा वक्त लेकर मैं उनसे मिलने पहुंचा...उनसे जो बातचीत हुई उसका ब्यौरा नीचे दे रहा हूं। गौर फरमाएं-

मैं- सर,जो बजट आपने दिया है उससे आम आदमी की हालत पहले से कहीं ज्यादा ख़राब हो गई है...वो मरणासन्न हालत में पहुंच गया है। वित मंत्री-देखिए, मुझे पता था ऐसा होने वाला है तभी हमने दवाओं के दाम कम कर दिए हैं, चिकित्सा उपकरण सस्ते कर दिए हैं इसलिए आम आदमी बेफिक्र हो अपना इलाज करवाए और इलाज के बाद अगर उसे कमज़ोरी महसूस हो तो वो घर बैठे जितना चाहे उतना जूस पीए, हमने जूसर भी सस्ते कर दिए हैं।

मैं-वो क्या जूस पीएगा सर, जूस तो आपने उसका निकाल दिया है पैट्रोल महंगा कर के? वित्त मंत्री-देखिए, भारत की सत्तर फीसदी आबादी आज भी गांवों में रहती है और जहां तक मेरी जानकारी है खेत तक जाने के लिए किसान कार या मोटसाइकिल का इस्तेमाल तो करते नहीं, लान्ग ड्राइव पर जाने का उन्हें कोई शौक है नहीं, और रही बेकारी और भूखमरी से परेशान होकर आत्महत्या करने की बात, तो गांवों में आज भी पेड़ से लटक कर मरने का रिवाज़ है। पैट्रोल छिड़क कर प्राण देना तो निहायत ही सामंती और शहरी तरीका है!


मैं- और एक इल्ज़ाम आप पर ये भी है कि राहत देना तो दूर आपने आम आदमी से उसका फर्स्ट्रेशन निकालने का हक़ भी छीन लिया है। वित्त मंत्री-समझा नहीं। मैं- सर, आप शायद जानते नहीं इस देश में आम आदमी सालों से तम्बाकू, गुटखा खाकर अपनी कुंठा निकाल रहा है...नेताओं को ज़रदा समझ उन्हें दांतों तले कच्चा चबा रहा है और सिगरेट के धुंए में हर फिक्र धुंआ कर उसे उड़ाता आ रहा है, मगर आपने तो फिक्र को धुंए में उड़ाना तक महंगा कर दिया है! वित्त मत्री-ये इल्ज़ाम भी सरासर ग़लत है। मुझे नहीं लगता कि बातें करने से ज़्यादा किसी और तरीके से कुंठा निकली जा सकती है, इसीलिए हमने मोबाइल फोन सस्ते किए हैं। हर तरफ से थका-हारा इंसान दोस्तों से गपबाज़ी कर अपना मन हल्का कर सकता है, कॉ़ल रेट्स तो कम हैं ही, ऐसे में यारों के साथ पुराने दिन रीकॉल कर खुश हुआ जा सकता है!

मैं-मगर सर, ऊपर से इंसान खुश होने का कितना भी दिखावा क्यों न करे, मगर दिल का दर्द तो चेहरे पर आ ही जाता है। वित्त मंत्री-आपको क्या लगता है मुझे इन बातों का ख़्याल नहीं। क्या आपने मुझे इतना नौसीखिया समझ लिया है। आप फिर से सस्ती चीज़ों की लिस्ट देंखें, हमने कॉस्मेटिक का सामान भी सस्ता किया है। अंडरआई ब्लैक सर्किल्स को मेकअप से छिपाएं। पिचके गालों को पेनस्टिक से उभारिए। सडांध मारती ज़िंदगी पर डीओ छिड़किए। मैं-मगर सर, भूख का क्या करें, अब वो पाउडर को मिल्क पाउडर समझकर पी तो नहीं सकते! लिपस्टिक को लेडीफिंगर समझ भी लें, फिर भी उसकी सब्ज़ी तो नहीं बनेगी! सर, आदमी अगर कुछ खाएगा नहीं तो मर जाएगा न!

वित्त मंत्री-उसकी फिक्र मत करें। हम आपको किसी क़ीमत मरने नहीं देंगे। देखिए, आप ही की रक्षा के लिए हमने रक्षा बजट भी बढ़ा दिया है। पहले यह एक लाख इक्तालीस हज़ार करोड़ था अब बढ़ाकर एक लाख सैंतालीस हज़ार करोड़ कर दिया गया है! पूरे आठ फीसदी की बढ़ोतरी की है!

सोमवार, 1 मार्च 2010

नाम में क्या नहीं रखा! (हास्य-व्यंग्य)

नाम में क्या नहीं रखा!

जैसे ही नर्स डिलिवरी रूम से निकल ये बताती है कि ठाकुर साहब लड़का हुआ है, ठीक उसी समय इस सवाल की भी डिलिवरी हो जाती है कि बच्चे का नाम क्या रखा जाए? मौजूदा समय में बच्चे का नाम रखना उसे पैदा करने से भी कहीं बड़ी चुनौती है। मां-बाप चाहते हैं कि नाम कुछ ऐसा हो जो ‘डिफरेंट’ साउंड करे। सब्स्टेंस हो न हो, लेकिन स्टाइल होनी चाहिए। अर्थ में मात खा जाए, मगर अदा में खरा उतरे। फिर भले ही बच्चे को जीवन भर स्पष्टीकरण लेकर जेब में घूमना पड़े कि उसके नाम का मतलब क्या है? जब भी कोई पूछे कि बेटा आपके नाम का मतलब क्या है तो बच्चा पूछने वाले को बुकलेट थमा दे, ये पढ़ लीजिए, इसमें शब्द की उत्पत्ति से मेरी उत्पत्ति तक सब समझाया गया है।

ऐसी ही मुसीबत में कुछ दिनों से मेरा एक मित्र भी फंसा हुआ है। धरती पर बच्चे का पदार्पण हुए दो महीने बीत चुके हैं, लेकिन बच्चा प्यारू, लड्डू, पुच्ची, गोलू, पपड़ू के बीच फंसा हुआ है। जिसकी ज़बान पर जो आता है वो पुकारता है। हर कोई उम्मीद करता है कि उसके पुकारे नाम पर बच्चा मुस्कुराए। उम्मीद करने वालों में भी ज़्यादातर वो हैं जो जीवन में दो मोबाइल नम्बर तक याद नहीं रख पाते और दो महीने के बच्चे से उम्मीद लगाए हैं कि वो पांच-पांच नाम याद रख ले!

इस सब पर ‘एक्सक्लूसिव’ नाम रखने की चाह ऐसी है कि जो नाम रखना है वो अपने रिश्तेदारों में तो दूर, पड़ौसियों तक के रिश्ते में किसी बच्चे का नहीं होना चाहिए। नेट से लेकर बच्चों के नाम सुझाने वाली कितनी ही किताबों की उन्होंने ख़ाक छानी, मगर नाम तय नहीं हुआ। एक-आध नाम जो उन्हें ठीक लगते वो बड़े-बुज़ुर्गों से पुकारे नहीं जाते और जो बड़े-बुज़ुर्ग सुझाते हैं वो पचास के दशक की ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के हीरो पहले ही रख चुके हैं।

फिर किसी ने सुझाव भी दिया कि अगर हिंदू धर्म या हिंदी भाषा इसमें मदद नहीं कर रही तो बच्चे का कोई चाइनीज़ नाम रख दो इससे वो डिफरेंट साउंड भी करेगा और बच्चा जीवन भर सिर्फ अपने नाम की वजह से चर्चा का विषय रहेगा। जैसे हू जिंताओ, ब्रूस ली, चूस ली टाइप कुछ। या फिर किसी विदेशी नाम के साथ भारतीय नाम मिक्स कर रखा जाए। जैसे-सर्गेई सुरेंद्र, निकोलस नरेन्द्र या मैथ्यू महेंद्र....मगर दोस्त इस पर भी सहमत नहीं हुआ।

फिर बात आई कि एक ट्रेंड ये भी रहा है कि बच्चे के पैदा होने के समय जो फिल्म या हीरो हिट रहा हो, उसके नाम पर बच्चे का नाम रख दिया जाए। इस तरह बच्चे का नाम ‘रैंचो’ रखना चाहिए जो ‘थ्री इडियट्स’ में आमिर का था। मगर रैंचो तो उसका कच्चा नाम था उसका असली नाम फुन्सुख वांगड़ु था! मगर किसी की हिम्मत नहीं हुई जो दोस्त से पूछे कि वो अपने बेटे का नाम फुन्सुख वांगड़ु रख दे। एक ने कहा भी अगर आप इस तरह का एक्सपेरीमेंट करने के लिए तैयार हैं तो बच्चे का नाम ‘इब्नेब्तूता’ रख दें... इससे पहले की वो और कुछ कहता दोस्त की नज़र उस जूते पर पड़ी जो बगल में ही पड़ा था। ब्तूता के चक्कर में उसका भुर्ता न बन जाए, ये सोच सुझाव देने वाला चुप हो गया। जब किसी नाम पर सहमति नहीं बनी तो मैंने सुझाव दिया कि अगर ये काम वाकई इतना मुश्किल है तो हाल-फिलहाल बच्चे का नाम ‘स्थगित’ रख दो, जब बड़ा होगा तब खुद-ब-खुद अपना नाम रख लेगा। कम-से-कम कुछ फैंसी नाम न रख पाने के लिए तुम्हें कोसेगा तो नहीं! मित्र ने इसे भी हंस कर टाल दिया।

खैर, एक सुबह मैं क्या देखता हूं कि उसी मित्र का मेरे पास एसएमएस आया है, “हमारे प्यारे बेटे जिसका जन्म फलां-फलां तारीख को हुआ था, उसका नाम रखने के लिए हम आपकी मदद चाहते हैं। नीचे कुछ ऑप्शन दिए हैं। आप अपनी पंसद का नाम बता हमारी मदद करें। पोल एक हफ्ते तक चलेगा। नतीजे फलां तारीख़ को घोषित किए जाएंगे!” मित्र को जवाब दे मैं सोचने लगा …शेक्सपियर अगर आज ज़िंदा होते तो ये मैसेज मैं उन्हें ज़रूर फॉरवर्ड करता!