मध्यवर्गीय नौकरीपेशा आदमी के नाते ये सवाल अक्सर मेरे ज़हन में आता है कि हम कमाते क्यों हैं? क्या हम इसलिए कमाते हैं कि अच्छा खा-पहन सकें, अच्छी जगह घूम सकें और भविष्य के लिए ढेर सारा पैसा बचा सकें। या हम इसलिए कमाते हैं कि एक तारीख को मकान मालिक को किराया दे सकें। पानी,बिजली, मोबाइल, इंटरनेट सहित आधा दर्जन बिल चुका पाएं। पांच तारीख को गाड़ी की ईएमआई दें और हर तीसरे दिन जेब खाली कर पैट्रोल टैंक फुल करवा सकें।
मुझे तो यहां तक लगता है कि मां-बाप बच्चों का स्कूल में एडमिशन ही इसलिए कराते हैं कि पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी और बड़ी तनख्वाह पा वो एक दिन मकान मालिक को दस-पंद्रह हज़ार किराया दे सके! इसीलिए वित्त मंत्री भी जब घोषणा करते हैं कि अगले एक साल में हम एक करोड़ नौकरियां पैदा करेंगे तो उसका मतलब है कि अगले एक साल में हम एक करोड़ किराएदार तैयार करेंगे। ऐसे में लगता है कि तनख्वाह आपकी-हमारी मेहनत का प्रतिफल नहीं बल्कि मकान मालिकों और कामवालियों की वो अमानत है जो मिलते ही हमें उन्हें लौटानी हैं।
और इन झटकों के बावजूद आपके सेविंग अकाउंट में अगर कुछ बच गया है तो मार्च आते-आते इसे भी तो टैक्स सेविंग की मजबूरी में उन म्यूचल फंडों में इनवेस्ट करना होगा, जो स्टार लगाकर ये हिदायत देते हैं कि इनवेस्टमेंट इन शेयरमार्किट इज़ सब्जिक्ट टू मार्केट रिस्क प्लीज़ रीड द् ऑफर डाक्यूमेंट क्लियरली बिफोर इनवेस्टिंग! ऐसे में या तो बंदा अपना सर पीट ले या फिर नौकरी छोड़ गांव में हल चलाकर समस्या का हल ढूंढें। आप भी सोचें कि इस सब पर हम अपना सर पीटें, या फिर लोन की गाड़ी, किराए के मकान और इनवेस्टमेंट पोर्टफोलियों में गर्व तलाशें और जो चल रहा है उसे चलने दें।
रविवार, 21 मार्च 2010
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13 टिप्पणियां:
हिन्दुस्तान के बारे में हिन्दुस्तानी व्यंग्यकार द्वारा रचित इस रचना को दैनिक हिन्दुस्तान में पढ़ लिया था, सच्चाईयों का अच्छा खुलासा। इससे भी बंधती है इक आशा।
"ऐसे में लगता है कि तनख्वाह आपकी-हमारी मेहनत का प्रतिफल नहीं बल्कि मकान मालिकों और कामवालियों की वो अमानत है जो मिलते ही हमें उन्हें लौटानी हैं।"
dukhti rag ko thoda or dukhaane mazaa to bahoot aata hai!
hai na!
kunwar ji,
"ऐसे में लगता है कि तनख्वाह आपकी-हमारी मेहनत का प्रतिफल नहीं बल्कि मकान मालिकों और कामवालियों की वो अमानत है जो मिलते ही हमें उन्हें लौटानी हैं।"
dukhti rag ko thoda or dukhaane mazaa to bahoot aata hai!
hai na!
kunwar ji,
वापस आकर सोचता हूँ.. अभी मोबाईल का बिल जमा कराना है..
तनख्वाह आपकी-हमारी मेहनत का प्रतिफल नहीं बल्कि मकान मालिकों और कामवालियों की वो अमानत है जो मिलते ही हमें उन्हें लौटानी हैं।
एक विचारोत्तेजक मनन
बहुत रोचक है
ब्लॉग पर गूगल बज़ बटन लगायें, सबसे दोस्ती बढ़ायें
A great satire
बेहतरीन!!
सोचते हैं, शायद कोई हल निकल आए, वैसे नामुमकिन है :-)
:(
aur chara hi kya hai :(
behtareen post... kamaal ka vyang...
एकदम सौ टके सही....
परन्तु यह ऐसा व्यंग्य है जिसे पढ़कर हम हंस भी नहीं सकते...
तनख्वाह तन खपाकर तमाम योजनागत छिनैतियों की भेंट चढ़ने के लिए आती है। सो श्रीमान अपनी भावी पीढ़ियों के लिए यही करते रहिए क्योंकि उन्हें भी भविष्य में यही करना है।
fantastic as always!!!!!!
:)
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