सोमवार, 30 अगस्त 2010

हिंदी-चीनी, भाई-भाई!

इसे इत्तेफाक कहूं या फिर देश के सभी दुकानदारों की साज़िश...मेरी बतायी रेंज़ पर सब यही कहते हैं कि ‘इतने में तो फिर लोकल आएगी’। दुकानदार को तीन सौ तक की रेंज बता मैं बढ़िया बैड शीट दिखाने के लिए कह रहा हूं और वो कहता है कि ‘इतने में तो फिर लोकल आएगी’। उसका कहना है कि अच्छी, सस्ती और टिकाऊ की मेरी विचित्र डिमांड एक साथ पूरी कर पाना बेहद मुश्किल है। जो अच्छी होगी वो सस्ती नहीं होगी और जो टिकाऊ होगी, वो थोड़ी महंगी होगी। मैं ज़िद्द नहीं छोड़ रहा और वो इतने में तो फिर लोकल…का राग! मैं पूछता हूं कि वो इंडिया सैटल कब हुआ और वो कहता है कि वो तो शुरू से इंडिया में ही रह रहा है। मैं हैरानी जताता हूं...अच्छा तो तुम लोकल हो!

दोस्तों, ऐसा नहीं है कि एक रोज़ आसामान से ये मुहावरा टपका और पूरे देश ने उसे लपक लिया। ये हमारी सालों की आत्महीनता और ग्राहक को चूना लगाने की महान परम्परा ही है, जो आज हम लोकल को घटिया का पर्याय साबित कर चुके हैं। इसी लोकल से देश भर में लोगों की औकात मापी जा रही है। बताया जा रहा है कि जो चीज़ अच्छी है वो तुम्हारी औकात में नहीं है और जो तुम्हारी औकात में है वो लोकल है, उसी तरह जैसे तुम हो। मगर इधर मैं देख रहा हूं कि जो छवि भारतीय कम्पनियों ने इतने सालों में बनाई, वही रूतबा चीनी कम्पनियों ने कम समय में हासिल कर लिया है। जो दुकानदार कल तक सस्ता खरीदने की बात पर लोकल की सलाह दे ज़लील किया करते थे आज वही चाइनीज़ का विकल्प सुझा शर्मिंदा करने लगे हैं। इस हिदायत के साथ... मगर चाइनीज़ की कोई गारंटी नहीं है। कैसी त्रासदी है…जिन देशों को दुनिया आर्थिक महाशक्ति कहते नहीं थकती, उन्हीं शक्तियों की ताकत हिंदुस्तान के हर गली-ठेले-नुक्कड़ पर ‘लोकल’ और ‘चाइनीज़’ कह कर निचोड़ी जा रही है!

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

संदेसे आते हैं, हमें फुसलाते हैं!

एक ज़माने में ईश्वर से जो चीज़ें मांगा करता था, आज वो सब मेरी चौखट पर लाइन लगाए खड़ी हैं। कभी मेल तो कभी एसएमएस से दिन में ऐसे सैंकड़ों सुहावने प्रस्ताव मिलते हैं। लगता है कि ईश्वर ने मेरा केस मोबाइल और इंटरनेट कम्पनियों को हैंडओवर कर दिया है। पैन कार्ड बनवाने से लेकर, मुफ्त पैन पिज़्ज़ा खाने तक के न जाने कितने ही ऑफर हर पल मेरे मोबाइल पर दस्तक देते हैं! इन कम्पनियों को दिन-रात बस यही चिंता खाए जाती है कि कैसे ‘नीरज बधवार’ का भला किया जाए?

कुछ समय पहले ही किन्हीं पीटर फूलन ने मेल से सूचित किया कि मेरा ईमेल आईडी दो लाख डॉलर के इनाम के लिए चुना गया है। हफ्ते भर में पैसा अकाउंट में ट्रांसफर कर दिया जाएगा। ‘सिर्फ’ दो हज़ार डॉलर की मामूली प्रोसेसिंग फीस जमा करवा मैं ये रक़म पा सकता हूं। ये जान मैं बेहद उत्साहित हो गया। कई दिनों से न नहाने के चलते बंद हो चुका मेरा रोम-रोम, इस मेल से खिल उठा। इलाके की सभी कोयलें कोरस में खुशी के गीत गाने लगीं, मोर बैले डांस करने लगे। मैं समझ गया कि मेरी हालत देख माता रानी ने स्टिमुलस पैकेज जारी किया है।


पहली फुरसत में मैंने ये बात बीवी को बताई। मगर खुश होने के बजाए वो सिर पकड़कर बैठ गई। फिर बोली...मैं न कहती थी आपसे कि अब भी वक़्त है... संभल जाओ....मगर आप नहीं माने...अब तो आपकी मूर्खता को भुनाने की अंतर्राष्ट्रीय कोशिशें भी शुरू हो गई हैं। मैंने वजह पूछी तो वो और भी नाराज़ हो गईं। कहने लगी कि आज के ज़माने में दुकानदार तक तो बिना मांगे आटे की थैली के साथ मिलने वाली मुफ्त साबुनदानी नहीं देता और आप कहते हैं कि किसी ने आपका ई-मेल आईडी सलेक्ट कर आपकी दो लाख डॉलर की लॉटरी निकाली है! हाय रे मेरा अंदाज़ा...आपकी जिस मासूमियत पर फिदा हो मैंने आपसे शादी की थी, मुझे क्या पता था कि वो नेकदिली से न उपज, आपकी मूर्खता से उपजी है!


दोस्तों, एक तरफ बीवी शादी करने का अफसोस जताती है तो दूसरी तरफ हर छठे सैकिंड मोबाइल पर शादी करने के प्रस्ताव आते हैं। बताया जाता है कि मेरे लिए सुंदर ब्राह्मण, कायस्थ, खत्री जैसी चाहिए, वैसी लड़की ढूंढ ली गई है। बंदी अच्छी दिखती है और उससे भी अच्छा कमाती है। सेल के आख़िरी दिनों की तरह चेताया जाता है कि देर न करूं। मगर मैं बिना देर किए मैसेज डिलीट कर देता हूं। ये सोच कर ही सहम जाता हूं कि बिना ये देखे कि मैसेज कहां से आया है, अगर बीवी ने उसे पढ़ लिया तो क्या होगा?

और जैसे ये संदेश अपनेआप में तलाक के लिए काफी न हों, अब तो सुंदर और सैक्सी लड़कियों के नाम और नम्बर सहित मैसेज भी आने लगे हैं। कहा जा रहा है कि मैं जिससे,जितनी और जैसी चाहूं, बात कर सकता हूं। बिना ये समझाए कि सुंदर और सैक्सी लड़की के लालच का भला फोन पर बात करने से क्या ताल्लुक है। साथ ही मुझे बिकनी मॉडल्स के वॉलपेपर मुफ्त में डाउनलोड करने का अभूतपूर्व मौका भी दिया जाता है। मानो, इस ब्रह्माण्ड में जितने और जैसे ज़रूरी काम बचे थे, वो सब मैंने कर लिए हैं, बस यही एक बाकी रह गया है!

दोस्तों, ऐसा नहीं है कि ये लोग मेरा घर उजाड़ना चाहते हैं। इन बेचारों को तो मेरे घर बनाने की भी बहुत फिक्र है। नोएडा से लेकर गाज़ियाबाद और गुडगांव से लेकर मानेसर तक का हर बिल्डर मैसेज कर निवेदन कर कर रहा है कि सिर्फ मेरे लिए आख़िर कुछ फ्लैट बाकी हैं। ये सोच कभी-कभी खुशी होती है कि इतने बड़े शहर में आज इतनी इज्ज़त कमा ली है कि बड़े-बड़े बिल्डर पिछले एक साल से सिर्फ मेरे लिए आख़िर के कुछ फ्लैट खाली रखे हुए हैं। पिछली दिवाली पर शुरू किए ‘सीमित अवधि’ के डिस्काउंट को सिर्फ मेरे लिए खींचतान कर वो इस दिवाली तक ले आए हैं। उनके इस प्यार और आग्रह पर कभी-कभी आंखें भर आती हैं। मगर मकान भरी आंखों से नहीं, भरी जेब से खरीदा जाता है। मैं खाली जेब के हाथों मजबूर हूं और वो मेरा भला चाहने की अपनी आदत के हाथों। वो संदेश भेज रहे हैं और मैं अफसोस कर रहा हूं। मकान से लेकर ‘जैसी टीवी पर देखी, वैसी सोना बेल्ट’ खरीदने के एक-से-एक धमाकेदार ऑफर हर पल मिल रहे हैं। कभी-कभी सोचता हूं कि सतयुग में अच्छा संदेश सुन राजा अशर्फियां लुटाया करते थे, ख़ुदा न ख़ास्ता अगर उस ज़माने में वो मोबाइल यूज़ करते, तो उनका क्या हश्र होता!

शनिवार, 21 अगस्त 2010

इज्ज़त बचाने का एक्शन प्लान!

राष्ट्रमंडल खेलों से ठीक पहले अधूरे और घटिया निर्माण की शिकायतों, बेहिसाब फर्जीवाड़ों और आरोप-प्रत्यारोप के अंतहीन मैच के बीच आम आदमी ये सोच परेशान है कि कहीं ये खेल देश की बेइज्ज़ती का सबब न बन जाएं। जिन खेलों को हम अपनी ताकत दिखाने के लिए आयोजित कर रहे हैं, वो हमारी मक्कारी और नक्कारेपन को ज़ाहिर न कर दें। आम आदमी के नाते मैं भी इन सब बातों से बेहद परेशान हूं। मेरा मानना है कि आपस में तो हम कभी भी लड़-मर सकते हैं मगर अभी वक़्त ये सोचने का है कि काफी हद तक लुट चुकने के बावजूद, बची-खुची इज्ज़त को कैसे बचाया जाए। लिहाज़ा, आयोजन समिति और सरकार को मैं कुछ सुझाव देना चाहूंगा। उम्मीद है कि वो इन पर अमल करेंगे।

1.सबसे पहला काम तो सरकार ये करे कि भ्रष्टाचार से जुड़ी तमाम शिकायतों को दबा दे। आयोजकों के खिलाफ की जा रही किसी भी जांच को फौरन से पेशतर रोक दिया जाए। जैसे-तैसे ये साबित किया जाए कि आयोजकों ने कहीं कोई पैसा नहीं खाया। जिस तरह एक कुशल गृहिणी दो सौ की चीज़ के लिए पति से तीन सौ रूपये लेती हैं और सौ रूपये मुसीबत के लिए बचाकर रखती है, कुछ ऐसा ही खेल आयोजकों ने भी किया है। दरअसल ये जानते थे कि राष्ट्रमंडल खेलों के सफल आयोजन के बाद हम ओलंपिक भी आयोजित करेंगे। इसी को देखते हुए इन्होंने कॉमनवेल्थ की खरीदारी में ही इतना पैसा बचा लिया है कि वो उसी से ओलंपिक का खर्च भी निकाल सकते हैं। नाम न बताने की शर्त पर एक अधिकारी ने बताया कि हम लोगों ने इतना-इतना पैसा बचा लिया है कि हर वरिष्ठ अधिकारी एक निजी कॉमनवेल्थ खेल आयोजित कर सकता है।

लिहाज़ा, इन्हें भ्रष्ट साबित करने के बजाए इनकी मैनेजमेंट स्किल को दुनिया के सामने लाना चाहिए।

2. कुछ लोगों का कहना है कि खेलों के दौरान खिलाड़ियों को साफ पानी पिलाने के लिए भले ही हमने अलग से वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट लगा दिया हो, दूसरे राज्यों से अतिरिक्त बिजली खरीद ली हो, सुंदर लो-फ्लोर बसें सड़कों पर उतार दी हों मगर तब क्या होगा जब यही खिलाड़ी खेलों के दौरान अख़बारों में दूषित पानी से बच्चों के बीमार पड़ने की ख़बर पढेंगे। तब इन्हें कैसा लगेगा जब बिजली कटौती से नाराज़ लोगों को सड़कों पर तोड़फोड़ करते देखेंगे, और तमाम बेहतरीन लो-फ्लोर बसों के बावजूद, पब्लिक ट्रांसपोर्ट को लेकर वो क्या छवि बनाएंगे, जब वो पढ़ेंगे कि बस की छत पर सफर कर रहे यात्री हाई वोल्टेज तार की चपेट में आ गए! अगर सरकार चाहती है कि खुद को विकसित और सभ्य दिखाने की उसकी कोशिशों पर पानी न फिरें और बच्चों के दूषित पानी से बीमार पड़ने की बात इन लोगों तक न पहुंचे तो उसे खेलों के दौरान ऐसी किसी भी नकारात्मक ख़बर के प्रकाशन-प्रसारण पर रोक लगा देनी चाहिए। तभी वो पानी-पानी होने से बच पाएगी।

3.हाल-फिलहाल ये देखा गया है कि ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड जैसी क्रिकेट टीमें जब भी भारत से कोई सीरीज़ हार कर जाती हैं तो व्यवस्था में खामिया निकालने लगती हैं। मसलन गर्मी बहुत थी, खाना अच्छा नहीं था, विकेट घटिया थे आदि-आदि। इसे देखते सरकार को तमाम खिलाड़ियों को हिदायत देनी चाहिए कि वो किसी भी इवेंट में अच्छा प्रदर्शन करने की हिमाकत न करें। सभ्य मेज़बान का ये फर्ज़ है कि वो कुछ भी ऐसा न करें जिससे मेहमान नाराज़ हो जाएं। होगा ये कि हार का गुस्सा विदेशी खिलाड़ी यहां की व्यवस्था पर निकालने लगेंगे। अपने खिलाड़ियों का घटिया प्रदर्शन तो हम फिर भी बर्दाश्त कर लेंगे, और करते भी आएं हैं, मगर कोई हमारे इंतज़ाम को बुरा कहे, ये हमें बर्दाश्त नहीं। वैसे भी हमारे लिए स्पोर्ट्स सुपरपॉवर बनने का मतलब बड़ी प्रतियोगिताओं का आयोजन करवाना है, न कि खिलाड़ियों का परफॉर्मेंस सुधारना!

4. आख़िर में एक सलाह इमेरजंसी के लिए। आख़िरी दिनो में अगर हमें लगे कि स्टेडियम और बाकी निर्माण कार्य अब भी पूरे नहीं हुए हैं तो उस स्थिति में खेल नहीं हो पाएंगे, हुए भी तो भद्द पिटेगी... ऐसे में हमें खुद किसी खाली स्टेडियम में दो-चार सूतली बम फोड़ देने चाहिए। इसके बाद दुनिया भर में हल्ला होगा। तमाम जगह से खिलाड़ियों के नाम वापिस लेने की ख़बरें आने लगेंगी। कॉमनवेल्थ समिति सुरक्षा कारणों से भारत से मेज़बानी छीन लेगी। भारत की बजाए किसी और देश में खेल करवाए जाएंगे। वैसे भी सुरक्षा इतंज़ामों के चलते आयोजन न कर पाने की बदनामी, घटिया आयोजन कर भद्द पिटवाने से कहीं छोटी है!