गुरुवार, 22 नवंबर 2012

वो आया, खाया और चला गया!


ज़िंदगी में बहुत सी चीज़ें और लोग स्थायी चिढ़ बन हमेशा माहौल में रहते हैं। चाहकर भी हम उनका कुछ उखाड़ नहीं पाते और जो उखाड़ सकते हैं, वो कुछ करते नहीं। ऐसे में मजबूर होकर हम चिढ़ से निपटने के लिए उनका मज़ाक बनाते हैं। चिढ़ का मज़ाक बन जाना और बने रहना व्यवस्था पर उसकी नैतिक जीत है और अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि पिछले 4 सालों से कसाब ऐसी ही नैतिक जीत का आनन्द ले रहा था। आम आदमी उस पर चुटकुले बनाकर खुश था और वो डाइट कोक के साथ बिरयानी खाकर! ऐसे में जब उसे फांसी दी गई तो बहुतों की तरह मुझे भी यकीन नहीं हुआ। ये जांचने के लिए कि मैं सपना तो नहीं देख रहा, मैंने बीवी से दो बार मुझे नाखून से नोंचने के लिए कहा और उसने रूटीन वर्क समझ बड़ी सहजता से इसे अंजाम दे दिया। दसियों चैनल पर ख़बर देखने के बाद मैं उसकी मौत को लेकर आश्वस्त तो हो गया मगर तभी अंदर के आशंकाजीवी ने सवाल पूछा कि ऐसा तो नहीं कि कसाब डेंगू से ही मरा हो, और सरकार ने शर्मिंदगी से बचने के लिए बाद में उसे फांसी पर लटका दिया हो। अगर ऐसा है, तो वाकई शर्मनाक है। मच्छर बीएमसी की लापरवाही से पनपा। बीएमसी पर शिवसेना का कब्ज़ा है। लिहाज़ा कसाब की मौत का क्रेडिट कांग्रेस को नहीं, शिवसेना को जाता है। शाम होने तक चूंकि शिवसेना ने ऐसा कोई दावा नहीं किया, लिहाज़ा मैंने भी ज़िद्द छोड़ दी। मगर मन अब भी आशंकाओं से भरा था। सिवाय अफज़ल गुरू के, कसाब की मौत पर पूरा देश खुश था। उसकी हालत वैसी ही हो गई थी जैसे बड़ी बहन की शादी के बाद सभी छोटी के पीछे पड़ जाते हैं। उसे छोड़ दें तो हर कोई इस काम के लिए सरकार की तारीफ कर रहा था। तभी मुझे लगा कि माहौल का फायदा उठा सरकार फिर से कहीं तेल की कीमतें न बढ़ा दे। सब्सिडाइज़्ड सिलेंडर की संख्या छह से दो न कर दे। कलमाड़ी फिर से आईओसी अध्यक्ष न बन जाएं। मगर रात होते होते ऐसा भी कुछ नहीं हुआ। कसाब आया, खाया और चला गया। मगर मुझे उसके चले जाने पर अब भी यकीन नहीं हो रहा। शायद निराशाभरे माहौल में इंसान को आसमान में छाए बादल भी चिमनी का धुआं लगते हैं।

पानी नहीं, पार्किंग के लिए होगा तीसरा विश्व युद्ध!


हिंदुस्तान में एकमात्र ऐसी जगह जहां मैंने लोगों को बिना किसी तनाव के गाड़ी चलाते देखा है, वो है टीवी विज्ञापन! बंदे ने शोरूम से गाड़ी निकाली और खाली पड़ी सड़क पर बेधड़क चला जा रहा है। तीस सैकेंड के विज्ञापन में उसे न तो कोई रेडलाइट मिलती है, न कोई गड्ढ़ा आता है, न कोई बाइक वाला गंदा कट मारता है और न ही उसके आजू-बाजू से सरिये लहराते कोई हाथ-रिक्शा गुज़रता है। उसका सारा ध्यान बैकग्राउंड में बज रहे जिंगल पर लिप मूवमेंट करने और बगल में बैठी बीवी को देख फ़ेक स्माइल देने में होता है। उस बाप के बेटे को इस बात की रत्तीभर भी फिक्र नहीं कि रास्ते में कहीं कोई भिड़-विड़ न जाए, नई गाड़ी पर कहीं कोई स्क्रैच न मार दे। ऐसा लगता है शोरूम से गाड़ी खरीदने से पहले उसने ज़िला कलेक्टर को इसकी जानकारी दे दी थी और उन्हीं के आदेश पर शोरूम से लेकर उसके घर तक सारा ट्रैफिक क्लियर करवा दिया गया है ताकि नई गाड़ी खरीदने से हमारे शहज़ादा सलीम के मन में जो कविता उपजी है वो घर पहुंचने से पहले ही गद्य में तब्दील न हो जाए। कहीं उस बेचारे का मूड ख़राब न हो जाए। तभी मेरी नज़र विज्ञापन में ढल रहे सूरज पर पड़ती है और ख्याल आता है कि कलेक्टर की मेहरबानी से ये घर तो फिर भी पहुंच जाएगा मगर इस वक्त गाड़ी लगाने के लिए क्या इसे सोसाइटी में जगह मिलेगी? नहीं, बिल्कुल नहीं...शोरूम से निकलने के बाद हमारा हीरो गाड़ी लेकर मंदिर जाएगा और घर लौटते-लौटते उसे काफी देर हो चुकी होगी। और ये उम्मीद करना कि इसकी नई गाड़ी के सम्मान में पड़ौसी आज एक पार्किंग खाली छोड़ देंगे, गाड़ी के विज्ञापन में उसके माइलेज के दावे को सच मान लेने जैसी मूर्खता होगी। घर पहुंचने पर बंदे को पार्किंग मिली या नहीं, विज्ञापन इस बारे में कुछ नहीं बताता। वो उन्हें किसी अनजाने पहाड़ की हसीन वादियों में जिंगल गुनगुनाते छोड़ देता है। ठीक वैसे ही जैसे फिल्म में तमाम संघर्षों के बाद लड़का लड़की की शादी हो जाती है और आख़िर में लिखा आता है, ‘एंड दे लिव्‍ड हैप्पिली एवर आफ्टर’। जबकि शादी के बाद आज तक कितने लोग हैप्पिली जी पाए हैं, ये बताने की ज़रूरत नहीं। कुछ इसी अंदाज़ में ये विज्ञापन भी ख़त्म हो जाता है और आख़िर में लिखा आता है, ‘एंड दे ड्रोव हैप्पिली एवर आफ्टर’! और मेरा दिल करता है पलटकर पूछूं कि दे ड्रोव हैप्पिली एवर आफ्टर...बट कुड दे पार्क देयर कार ईज़ली एवर आफ्टर! मैं ऐसा कोई सवाल नहीं पूछता लेकिन जानता हूं कि फिल्मी हीरो के स्टाइल में लड़की को पा लेना कोई बड़ी चुनौती नहीं है, शादी के बाद उससे निभा लेना है। उसी तरह ड्राइविंग स्कूल से पंद्रह दिन में ड्राइविंग सीख लेना और ‘एक मिनट में कार लोन’ पास करने वाले किसी बैंक से लोन ले गाड़ी खरीदना कोई चैलेंज नहीं है; असली चुनौती उस कार के लिए पार्किंग ढूंढना है! घर से ऑफिस के लिए निकलो तो बचा हुआ असाइनमेंट, धूर्त सहकर्मी, नकचढ़ा बॉस इंसान की चिंताओं में बहुत पीछे होते हैं, सबसे पहले ये सोच-सोचकर उसका खून सूखने लगता है कि क्या ऑफिस पहुंचने पर मुझे पार्किंग मिलेगी! और अगर आप ऑफिस पहुंचने में ज़रा लेट हो गए तो पार्किंग में जगह बनाना, जवानी में किसी खूबसूरत लड़की के दिल में जगह बनाने से ज़्यादा मुश्किल हो जाता है। मेरा दावा है कि जब एक आदमी वर्कप्रेशर की बात करता है तो उसका 30 फीसदी हिस्सा ऑफिस जाकर खुद के लिए पार्किंग ढूंढने का होता है। व्यक्तिगत जीवन के तनाव का 40 फीसदी सोसाइटी में पार्किंग रिज़र्व न होने से होता है और जब वो कहता है कि आजकल खरीदारी मुश्किल हो गई है तो उसका मतलब महंगाई से नहीं, बाज़ार में पार्किंग न मिलने से होता है! मेरा मानना है कि ये समस्या इतनी गंभीर है कि ‘व्यावसायिक भविष्यफल’ और ‘प्रेम भविष्यफल’ की तर्ज पर अख़बारों को रोज़ ‘पार्किंग भविष्यफल’ भी देने चाहिए ताकि बंदा घर से निकलने से पहले पार्किंग में आने वाली मुश्किलों के लिए खुद को तैयार कर पाए। जानकार कहते हैं कि अगर तीसरा विश्वयुद्द हुआ तो पानी के लिए होगा मगर मुझे लगता है इस वक्त पार्किंग की जो स्थिति है उसमें तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए नहीं, पार्किंग के लिए होगा। हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर कल को ख़बर मिले कि किसी बड़े देश ने छोटे देश पर सिर्फ इसलिए हमला कर दिया ताकि उसे अपने पार्किंग लाउंज के तौर पर इस्तेमाल कर पाए! और जिस तरह आजकल चीन नेपाल के साथ नज़दीकी बढ़ा रहा है, मुझे उसका इरादा नेक नहीं लगता! (नवभारत टाइम्स 22 नवम्बर, 2012)

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

छुट्टियां लेने का टेलेंट!


जैसे यूनिवर्सिटीज़ में विज़ि‍टिंग प्रोफेसर होते हैं, उसी तरह हर ऑफिस में कुछ विज़ि‍टिंग एम्पलॉई होते हैं। स्थायी होने के बावजूद, ये रोज़ ऑफिस आने की किसी बाध्यता को नहीं मानते। ऐसे लोग ऑफिस तभी आते हैं जब इन्हें ऑफिस की तरफ कुछ काम पड़ता है। और अगर ये दो दिन लगातार दफ्तर आ जाएं तो लोग इन्हें इस हैरानी से देखते हैं कि जैसे दिल्ली की सड़क पर किसी अफ्रीकन पांडा को देख लिया हो। मगर मेरा मानना है कि ज्यादा छुट्टी लेने वाले यही लोग किसी भी ऑफिस में सबसे ज्यादा क्रिएटिव होते हैं। अब अगर आप हर हफ्ते एक-दो छुट्टी ले रहे हैं तो बॉस को जाकर ये तो नहीं कहते होंगे कि सर, मैं ये वाहियात काम कर-करके थक गया हूं, मुझे छुट्टी चाहिए। न ही हर हफ्ते आपको ये कहने पर छुट्टी मिल सकती है कि मुझे कानपुर से आ रही बुआ की लड़की को लेने स्टेशन जाना है। बुआ की लड़की जो एक बार कानपुर से आ गई है, उसे वापिस कानपुर की ट्रेन में बैठाने के लिए आप ज्यादा से ज्यादा एक छुट्टी और ले सकते हैं। जाहिर है अगली बार छुट्टी लेने के लिए आपको कुछ और बहाना बनाना पड़ेगा। अब ये तो आपको मानना पड़ेगा कि जो आदमी हर हफ्ते इतने बहाने सोच पा रहा है, उसकी कल्पनाशक्ति अच्छी है। उसका दिमाग विचारों से भरा है। और देखा जाए तो एक तरह से ये काम सप्ताह में दो हास्य कॉलम लिखने से ज्यादा मुश्किल है। कालम लिखने के लिए आपको सिर्फ आइडिया सोचना है जबकि छुट्टी लेने के लिए आपको न सिर्फ आइडिया सोचना है बल्कि पूरी कंविक्शन के साथ बॉस के सामने उसे एग्‍ज़ीक्‍यूट भी करना है। मतलब आप जानते हैं कि आप झूठ बोल रहे हैं। बॉस भी जानता है कि आप झूठ बोल रहे हैं। बावजूद इसके बहाना इतना अकाट्य हो, एक्टिंग इतनी ज़बरदस्त हो कि बॉस को भी समझ न आए कि मैं इसे कैसे मना करूं। ऐसे ही छुट्टी लेने वाले एक साथी कर्मचारी से जब मैंने पूछा कि वो कैसे हर हफ्ते इतने बहाने कैसे सोच पाते हैं, तो उनका जवाब था...मेरे ऊपर कोई वर्कप्रेशर नहीं रहता न इसलिए! वैसे भी बनियान का विज्ञापन कहता है...लाइफ में हो आराम तो आइडियाज़ आते हैं। अब ये आइडिया आते रहें इसीलिए मैं छुट्टियां लेता रहता हूं।

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

क़ातिल भी तुम, मुंसिफ भी तुम!


कहीं न होने के बावजूद राजनीति में शुचिता के अपने मायने हैं। आरोपों का कलंक यहां बहुत बड़ा होता है। ये देखते हुए कि अदालतों पर काम का पहले ही काफी बोझ है, एक नेता ज़्यादा दिन तक खुद को आरोपी कहलवाना अफोर्ड नहीं कर सकता। ऐसे में क्या किया जाए....किया ये जाए कि प्राइवेट सिक्योरिटी की तर्ज पर खुद के लिए प्राइवेट जस्टिस की व्यवस्था की जाए। अपनी ही पार्टी के दो-चार लोग जिनके साथ चाय के ठेले पर आप अक्सर चाय पीने जाते हैं, उन्हें अपने ऊपर लगे आरोपों की जांच करने का ज़िम्मा सौंपा जाए। उनकी न्यायप्रियता का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि चाय के साथ एक मट्ठी लेने पर जब वो उसे तोड़ते हैं, तो खुद बड़ा टुकड़ा अपने पास तो नहीं रखते या फिर संसद की कैंटीन में आलू का परांठा लेने पर उसके किस हद तक बराबर हिस्से करते हैं। एक बार जब इन गंभीर मुद्दों पर इंसाफ करने की उनकी काबिलियत से आश्वस्त हो जाएं तो अपने ऊपर लगे आरोपों की जांच शुरू करवा सकते हैं। अपने लोगों से जांच करवाने एक फायदा ये है कि वो इस बात को समझते हैं कि बुरा इंसान नहीं, हालात होते हैं पर अदालतें ऐसी किसी ‘इमोश्नल अपील’ को काउंट नहीं करतीं। हिंदी फिल्मों के अंदाज़ में कहूं तो अदालत सिर्फ सबूत देखती है। वहीं आपके नज़दीकी लोग सबूत के अलावा आपकी नीयत भी देखते हैं। वो देखते हैं कि आपका इरादा तो नेक था पर बरसात की रात और फायरप्लेस में जल रही आग को देख आप भड़क गए और अनजाने में भूल कर बैठे। नतीजा आप बाइज्ज़त बरी कर दिए जाते हैं और आपके पार्टी प्रवक्ता मीडिया के सामने दावा करते हैं कि हमने उनकी पूरी जांच कर ली है और हम दावे से कह सकते हैं कि उन्होंने कोई गडकरी, सॉरी गड़बड़ी नहीं की! मेरे पड़ौसी कल ही शिकायत कर रहे थे कि उनका लड़का पढ़ने में बहुत होनहार है मगर पांच साल से दसवीं में फेल हो रहा है। मैंने सवाल किया कि अगर फेल हो रहा है तो होनहार कैसे हुआ, नालायक हुआ। उनका जवाब था... ये तो सीबीएसई का आकलन है, पर मेरी उम्मीदों पर वो हमेशा ख़रा उतरता है। मैं दावा करता हूं कि इस बार सीबीएसई की जगह मुझे उसकी कॉपियां जांचने दी जाएं, वो फर्स्ट डिवीज़न लाकर न दिखाए, तो फिर कहना! (दैनिक हिंदुस्तान 9 नवम्बर, 2012) *

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

हज़ार करोड़ तक के घोटालों को मिले कानूनी मान्यता!


बुराइयों का भी अपना अर्थशास्त्र होता है। फिर चाहे वह वेश्यावृत्ति हो या सट्टेबाज़ी। तभी तो दुनिया के बहुत से देशों ने इन पर लगाम लगाने के बजाए इन्‍हें कानूनी मान्यता दे दी। इससे हुआ ये कि जो पैसा पहले पिछले दरवाज़े से पुलिस और प्रशासन के हाथों में जाता था, वो सरकारी ख़जाने में आने लगा। इससे धंधे में शामिल लोगों को तो सुकून मिला ही, सरकार की भी आमदनी बढ़ी। अब ये देखते हुए कि भ्रष्टाचार भी हिंदुस्तानी समाज की एक बड़ी बुराई है और अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद हम इसे रोकने में कामयाब नहीं हो पा रहे, सरकार को चाहिए कि रोज़-रोज़ की किचकिच से बचने के लिए अब वो इसे कानूनी मान्यता दे दे। मंत्री से लेकर विधायक तक और अधिकारी से लेकर चपरासी तक, सभी को उनकी औकात के हिसाब से एक निश्चित सीमा तक भ्रष्टाचार करने की छूट दी जाए। मसलन, केंद्रीय मंत्री को छूट हो कि वो एक हज़ार करोड़ तक का घोटाला कर सकेगा जिसमें से दो सौ करोड़ तक का घोटाला टैक्स फ्री होगा और इसके बाद हज़ार करोड़ के घोटाले तक उसे एक निश्चित दर से सरकार को टैक्स देना होगा। साल के आख़िर में उसे फार्म 16 की तर्ज पर फार्म 420 दिया जाएगा। वित्तीय वर्ष के अंत में सीटीआर (करप्शन टैक्स रिटर्न) फाइल करना अनिवार्य होगा जिससे सरकार को पता लग पाए कि अमुक व्यक्ति ने तय सीमा में रहकर भ्रष्टाचार किया है या नहीं। और जिसने भ्रष्टाचार किया है, उसके लिए ये ‘सीटीआर’, अपने भ्रष्टाचार की वैधानिक मान्यता होगी। जैसे ही उस पर कोई घपला करने का आरोप लगाए तो वो ‘सीटीआर’ की कॉपी उसके मुंह पर मारकर कह सके कि मैंने ये सब कुछ कानून की हद में रहकर किया है। इससे घपला करने वाले आदमी की आत्मा पर कोई बोझ भी नहीं रहेगा और सरकार ये सोचकर ही तसल्ली कर लेगी कि टैक्स के बहाने ही सही, उसने अपना कुछ नुकसान तो कम किया। दूसरी तरफ जब हम घोटालों के अर्थशास्त्र की बात करते हैं तो हमें ये भी समझना होगा कि अगर हर किसी घोटाले से सरकार को नुकसान होता है, तो उस घोटाले के विरोध में होने वाले प्रदर्शनों से निपटने में भी तो उसका अच्छा-खासा पैसा खर्च हो जाता है। मसलन, पचास लाख के घोटाले के विरोध में अगर पांच हज़ार लोग सड़कों पर उतर आएं तो उनसे निपटने के लिए पुलिस के दस हज़ार जवान लगाने पड़ेंगे। अब ये जवान अगर दिनभर उन लोगों से निपटते रहे तो इनकी एक दिन की तनख्वाह जोड़िए। इन पांच हज़ार लोगों को काबू करने के लिए अगर एक रात स्टेडियम में रखना पड़ा तो स्टेडियम का किराया जोड़िए। अब बंदी बनाया है, तो भूखा तो रख नहीं सकते, लिहाजा पांच हज़ार लोगों को रात का खाना खिलाना पड़ेगा। सुबह छोड़ने से पहले चाय देनी होगी। इसके बाद जिस आदमी पर इल्ज़ाम लगाया है, अगर वो दिन में प्रेस कांफ्रेंस कर दो घंटे अपनी सफाई देगा तो उसे कवर करने वहां दसियों ओबी वैन लगेंगी। बीसियों रिपोर्टर होंगे। बाद में सरकार जांच कमीशन बैठाएगी। उसकी असंख्य बैठकें होंगी। उन अंसख्य बैठकों में बिस्किट-भुजिया के हज़ारों पैकेट खाए जाएंगे। और जब तक जांच कमीशन का रिपोर्ट आएगी, पता चला कि अकेले उस बिस्किट-भुजिया का खर्च ही पचास लाख से ऊपर चला गया और जिस आदमी पर आरोप लगा था उसके खिलाफ भी कोई सबूत नहीं मिला। और अगर सरकार इस तरह के विरोध-प्रदर्शनों से होने वाली फिज़ूलखर्ची से बचना चाहती है तो उसे भ्रष्टाचार की सीमा तय करते हुए उसे कानूनी मान्यता दे देनी चाहिए। वैसे भी निवेश को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि अभी अच्छी नहीं है। दुनिया क्या सोचेगी कि जिस देश में कल तक पौने दो-दो लाख के घोटाले हुआ करते थे, आज वो कुछ एक लाख के घोटाले पर हाय तौबा मचा रहा है। हो सकता है कि घोटालों की गिरती रकम देख कोई क्रेडिट एजेंसी फिर से भारत की साख गिरा दे। एक मंत्री तो पहले ही कह चुके हैं कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन की वजह से निवेशक भारत से दूर भाग रहे हैं, अगर ऐसा हुआ तो उन्हें सबूत और मिल जाएगा। (नवभारत टाइम्स 6 नवम्बर, 2012)

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

ईमानदारी का परसेंटेज तय हो!


ज्यादा ईमानदारी जानलेवा भी साबित हो सकती है। आत्महत्या करना चूंकि विकल्प नहीं है इसलिए जानकार सलाह देते हैं कि ‘व्यवहारिक’ बनो। मतलब ईमानदारी का आह्वान मानों, मगर हालात के हिसाब से भ्रष्ट भी हो जाओ। और यहीं से सारी गड़बड़ शुरू होती है। जो स्वाभाविक तौर पर भ्रष्ट हैं, उन्हें लगता है ‘हमें बदलने की ज़रूरत नहीं’ और जो थोड़े बहुत ईमानदार हैं, वो ‘हालात के हिसाब से’ का ठीक से हिसाब से नहीं लगा पाते। तभी आप देखते हैं कि मंत्रिमंडल फेरबदल में एक मंत्री को इसलिए अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी क्योंकि उसने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए नज़दीकियों को फायदा पहुंचाया और दूसरे का विभाग इसलिए बदला गया क्योंकि उसने पद पर रहते हुए कुछ ख़ास लोगों को फायदा नहीं पहुंचने दिया। मतलब एक को बेईमानी की सज़ा मिली और दूसरे को ईमानदारी की। हर मंच से चूंकि आहवान ईमानदारी का ही किया जाता है, इसलिए जो इस फेरबदल से अप्रभावित रहे, वो तय नहीं कर पा रहे कि उन्हें ईमानदारी की कौनसी मुद्रा अपनानी है। अपनी कार्यशैली में ऐसे कौनसे भाव लाने हैं जिससे वो दुनिया को शराफत का पुतला दिखें और अपनी शराफत में इतना भी आक्रामक नहीं होना कि सरकार इस पुतले का ही दहन कर दे। लिहाज़ा मेरी सरकार से गुज़ारिश है कि वो आज ही ईमानदारी को लेकर एक गाइडलाइन जारी करे। गणितिय विश्लेषण में माहिर कपिल सिब्बल बताएं कि एक मंत्री और नौकरशाह को कितने परसेंट ईमानदार होना चाहिए। कितने प्रतिशत से कम ईमानदार होने पर उसे मंत्रिमंडल से निकाला जा सकता है और कितने फीसद से ज्यादा कर्तव्यनिष्ठ होने पर उसका विभाग बदला जा सकता है। सरकार, नौकरशाहों को आदेश दे कि तुम्हें किसी भी भ्रष्टाचारी को छोड़ना नहीं है सिवाए...अब इस ‘सिवाए’ के अंतर्गत उन कम्पनियों, रिश्तेदारों, परिचितों के नाम दिए जाएं जिनसे सरकार में बैठे लोगों के नज़दीकी सम्बन्ध हैं। जैसे ही ये लोग कोई ज़मीन हड़पें तो उसका लैंडयूज़ बदलकर उसे ‘एसआरज़ेड’ यानि स्पेशल रिलेटिव ज़ोन की श्रेणी में डाल दिया जाए। और एक बार कोई ज़मीन एसआरज़ेड की श्रेणी में आ जाए तो उस पर भूमि अधिग्रहण के मौजूदा कानून अमान्य माने जाएं। मेरी सलाह है कि इस गाइडलाइन को आज ही तबादलों की धमकी के साथ तमाम मंत्रियों और अधिकारियों को भेजा जाए। उम्मीद है वो मान जाएंगे। आख़िर ईमानदारी भी तो स्टेबिलिटी चाहती है।