शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

प्लीज़! अपनी प्यास घटाओ!


चुनावों से पहले हर पार्टी दफ्तर के बाहर कार्यकर्ताओं की फौज लगी रहती है। हर किसी की यही कोशिश होती है कि जैसे-तैसे उसे टिकिट मिल जाए। इसी कोशिश में कार्यकर्ता अक्सर आपस में भिड़ पड़ते हैं। एक-दूसरे के सिर फोड़ देते हैं, गाली-गलौज करते हैं, लहूलुहान हो जाते हैं। और ये सब सिर्फ इसलिए कि किसी तरह उन्हें टिकिट मिल सके और चुनाव जीतकर वो देश की सेवा कर पाएं। अब अगर आप अपने आसपास नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि सेवा को लेकर ऐसी मारा-मारी शायद ही कहीं और मची हो। और अगर आप ये सोच रहे हैं कि सिर्फ चुनाव जीतने से राजनीति में लोगों की सेवा करने की तड़प शांत हो जाती है, तो आप ग़लत हैं। कोरा विधायक या सांसद बनने पर इन्हें व्यर्थता बोध सताने लगता है। ये महसूस करते हैं कि सेवा करने के जो ‘मंसूबे’ लेकर ये राजनीति में आए थे, वो तब तक पूरे नहीं हो सकते, जब तक कि इन्‍हें कोई मंत्री पद न मिल जाए। कुछ को मिल भी जाता है। मगर उनके अंदर का सेवादार इतना डिमांडिंग होता है कि कुछ समय बाद वो किसी महत्वपूर्ण मंत्रालय की मांग करने लगता है। इस तरह ये सिलसिला चलता रहता है। कालांतर में औकात के हिसाब से एक राजनेता राजनीति में सेवा करने की अपनी समस्त संभावनाओं को पा भी जाता है। मगर फिर किसी रोज़ पता चलता है कि उसने तो गरीब, बेसहारा लोगों की मदद के लिए एक ट्रस्ट भी खोल रखा है। बस, ये जानकर मैं अपने आंसू नहीं रोक पाता। खुद पर कोफ्त होने लगती है। अपने स्वार्थी जीवन पर मेरा सिर घुटने तक शर्म से झुक जाता है। दिल करता है कि इनसे पूछूं, भाई, एक जीवन में तुम इतनी सेवा कैसे मैनेज कर लेते हो। क्या लोगों की सेवा करते-करते तुम्हारा पेट नहीं भरता। तुम्हारी प्यास नहीं बुझती। मैं तो दिनभर में पांच मिनट से ज़्यादा अच्छी बात कर लूं तो मुझे मितली आने लगती है। और एक तुम हो कि...सच बताओ...कहीं तुम विज्ञापन वाली उस अभिनेत्री की बातों में तो नहीं आ गए जो कहती है...अपनी प्यास बढ़ाओ। अगर ऐसा है तो मैं आज ही उससे गुज़ारिश करता हूं कि एक बार तुमसे कह दे...अपनी प्यास घटाओ। प्लीज़ घटाओ...ये देश तुमसे रहम की भीख मांगता है। ************************************************************

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

घोटालेबाज़ों का क्रिएटिव ब्लॉक!


हिंदुस्तान में जैसे ही कोई घोटाला सामने आता है तो आप घपला करने वालों की कल्पनाशक्ति और मौलिकता पर फिदा हो जाते हैं। अकेले बैठे आप यही सोचते हैं कि क्या ऐसा भी हो सकता था, क्या ये भी किया जा सकता था? वाह! ये सब लोग कितने महान और क्रिएटिव हैं। मौका मिले तो ज़रूर इनके चरण स्पर्श करना चाहूंगा। मगर ये देख अफसोस होता है कि घोटालाशील व्यक्ति घोटाले के दौरान जितना कल्पनाशील होता है, पकड़े जाने पर वो उतना ही मामूली बर्ताव करने लगता है। तभी तो बचाव में हर भ्रष्टाचारी की दलीलें एक सी होती है। मसलन, ‘ये आरोप मेरे खिलाफ एक साज़िश हैं’। आप सोचते हैं, भाई, पांच साल में आम आदमी की तनख्वाह पांच हज़ार नहीं बढ़ी और तुमने अपनी सम्पत्ति पांच हज़ार गुणा बढ़ा ली। ऊपर से कहते हो कि ये आरोप मेरे खिलाफ साज़िश है। अगर ये साज़िश है तो तुम शुक्रिया अदा करो माता रानी का जिसने इस साजिश का शिकार बनने के लिए तुम्हें चुना। वरना तो पांच हज़ार कमाने वाले आदमी को ज़िंदगी ही अपने खिलाफ एक साज़िश लगने लगती है। वो फिर कहता है कि नहीं, ये आरोप मेरे खिलाफ साज़िश हैं और आप कहते हैं, यार, मज़ा नहीं आया। ऐसा करो तुम दो दिन और ले लो मगर किसी बढ़िया बहाने के साथ आओ। प्लीज़ बी मोर क्रिएटिव। इस लाइन में पंच नहीं है! वो दो दिन और लेता है और फिर कहता है, ‘मेरे खिलाफ ये आरोप सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लिए लगाए गए हैं’। आप अपना सिर पीटते हैं और कहते हैं, क्या हो गया है तुम्हें मेरे काबिल दोस्त। ‘सस्ती लोकप्रियता’ का बहाना तो शाहिद आफरीदी के बर्थ सर्टिफिकेट से भी पुराना है। वैसे भी महंगाई के इस दौर में जब तुम सस्ते या मुफ्त लोन ले सकते हो तो क्या दुनिया सस्ती लोकप्रियता नहीं बटोर सकती। कुछ नया बताओ। आपके बार बार कहने पर भी वो कुछ नया नहीं बता पाता और बताए भी कैसे? इस देश में भ्रष्टाचार करते वक्त आदमी को ये अटूट विश्वास होता है कि वो कभी पकड़ा नहीं जाएगा। इसलिए वो अपनी सारी कल्पनाशक्ति भ्रष्टाचार में तो लगा देता है मगर पकड़े जाने के बाद क्या कहना है, इस बारे में कभी नहीं सोचता। तभी तो जो नवीनता उनके घोटालों में होती है, वो उनके बहानों में नहीं।

बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

आलसियों से बची है दुनिया की शांति!


अगर आप बेहद आलसी हैं और हर वक्त इस गिल्ट में जीते हैं कि आपका सारा दिन पड़े रहने में बीतता है और कोई भी काम आप वक्त पर नहीं करते तो आपको ज़रा-भी शर्मिंदा होने की ज़रूरत नहीं है। मेरा मानना है कि मौजूदा समय में दुनिया में जो थोड़ी-बहुत शांति बची है, उसका सारा क्रेडिट आलसियों को जाता है। रजनीश ने कहा भी है, पश्चिम का दर्शन कर्म पर आधारित है और भारतीय दर्शन अकर्मण्यता पर। और अगर आप इतिहास पर नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि दुनिया का इतना कबाड़ा ‘न करने वालों’ ने नहीं किया, जितना ‘करने वालों ने’ किया है। दरअसल कर्म इक्कीसवीं सदी का सबसे बड़ा संकट है और वैश्विक शांति को लेकर आलसी; इक्कीसवीं सदी की आख़िरी ‘होप’ है। लिहाज़ा आलसियों को कोसने के बजाए, मानव व्यवहार के अध्येताओं को इन शांति दूतों को समझना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियां इनसे सबक ले अमन के रास्ते पर आगे बढ़ पाएं। दरअसल ज़्यादातर आलसी बचपन से ही मानकर चलते हैं कि उनका जन्म कुछ महान करने के लिए हुआ है। नहाने के बाद तौलिये को रस्सी पर सुखाने और खाने के बाद थाली को रसोई में रखने जैसे मामूली काम करने के लिए वो पैदा नहीं हुए। इसलिए वो हमेशा कुछ ‘अलग’ करने की सोचते हैं। मगर इस ‘सोचने’ में उन्हें इतना आनन्द आने लगता है कि वो ‘सोचने’ को ही अपना पेशा बना लेते हैं। घरवालों की नज़र में जिस समय एक आलसी ‘पड़ा’ होता है, उस समय वो दूसरी दुनिया से कनेक्ट होता है। वो कुछ सोच रहा होता है। उसे साफ-साफ कुछ दिखाई दे रहा होता है। घरवाले सोचते हैं कि उसने चाय पीकर गिलास जगह पर नहीं रखा, मगर वो ये नहीं देख पाते कि ‘शून्य’ में ताकता उनका लाडला उस समय किसी महान नतीजे पर पहुंच रहा होता है। दुनिया की किसी बड़ी समस्या का हल निकाल रहा होता है। अब सोचना चूंकि इत्मीनान का काम है, इसलिए वो कोई डिस्टरबैंस नहीं चाहते। यही वजह है कि ज़्यादातर आलसी बहस और झगड़े अवोयड करते हैं। उन्हें लगता है कि झगड़ने से सोचने का क्रम टूटेगा। बीवी से झगड़ा होने पर अपनी ग़लती न होने पर भी आलसी माफी मांग लेता है। इस तरह आसानी ने हथियार डालने पर आलसियों की बीवियां अक्सर नाखुश रहती हैं। पति से झगड़ों में कोई चैलेंज न मिलने पर उनमें एक अलग किस्म का डिप्रेशन आने लगता हैं। इस बारे में मैंने प्रसिद्ध मनोवैग्यानिक चिंटू कुमार से बात की तो उनका कहना था कि दरअसल झगड़ा एक ऐसी क्रिया है जिसके लिए किसी भी व्यक्ति को अपने कम्फर्ट ज़ोन से निकलना पड़ता है। उसके लिए या तो आपको अपना बिस्तर छोड़ना होगा या फिर अपने डेली रूटीन से समझौता करना होगा और दोनों ही बातें आलसी के बस की नहीं। चिंटू कुमार आगे कहते हैं “हम सभी ये तो कहते हैं कि मोटे लोग स्वभाव से बड़ा मज़ाकिया होते हैं मगर क्या कभी सोचा है, ऐसा क्यों है। दरअसल मोटे लोगों को उनका भारी भरकम शरीर झगड़ने की इजाज़त नहीं देता। ज़्यादा वजन के चलते वो न तो किसी को मार के भाग सकते हैं और न ही किसी के मारने पर भागकर खुद को बचा सकते हैं। इसलिए मोटा व्यक्ति या तो झगड़े की स्थिति पैदा ही नहीं होने देता और अगर कोई और बदतमीज़ी करे, तो बड़ा दिल दिखाते हुए उसे माफ कर देता है। इस तरह अपवाद को छोड़ दें तो पहले आप अपनी अकर्मण्यता की वजह से मोटे हुए और फिर इस मोटापे की वजह से शांतिप्रिय बनें और समाज में ये ख्याति बटोरी कि ‘भाईसाहब तो बड़े मज़ाकिया हैं’, सो अलग!” मुझे याद है दलाई लामा ने एक दफा कहा था कि ज़्यादातर भारतीय नई जगहों को इसलिए नहीं खोज पाएं क्योंकि वो स्वभाव से आलसी हैं। इसका दूसरा पहलू ये है कि जो लोग नई जगह खोजने गए भी, उन्होंने भी वहां जाकर स्थानीय लोगों को लूटने और उनसे झगड़ने के अलावा क्या गुल खिलाया। सोचें ज़रा...अगर कोलम्बस ज़रा भी आलसी होता तो ये दुनिया आज उससे कहीं अधिक शांत होती, जितनी आज ये है। सच... कोलम्बस की सक्रियता ने हमें मरवा दिया।

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

प्यार अंधा होता है, वो बर्थ सर्टिफिकेट नहीं देखता!


हिना रब्बानी खार और बिलावल भुट्टो के अफेयर की ख़बर सामने आने के बाद चारों ओर उसकी आलोचना हो रही है। पर मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इन आलोचनाओं में तर्क कम और लोगों की फ्रस्‍ट्रेशन ज्यादा झलक रही है। कुछ लोगों का कहना है कि हम तो समझते थे हिना रब्बानी खार पाकिस्तान की ‘एक्सटर्नल अफेयर्स मिनिस्टर’ हैं, मगर वो तो पाकिस्तान की ‘एक्सट्रा मैरिटल अफेयर्स मिनिस्टर’ निकलीं। वहीं कुछ का कहना है कि हिना ने खुद से 11 साल छोटे बिलावल से सम्बन्ध बनाए हैं, अब हमें ये समझ नहीं आ रहा कि वो उनसे शादी करेंगी, या उन्हें गोद लेंगी। वैसे उनकी पहले से दो बेटियां हैं, अगर वो बेटा गोद लेना चाहें, तो बिलावल लड़का बुरा नहीं है! बहरहाल लोगों की इसी तरह की आलोचनाओं और विवाहेतर सम्बन्धों के बारे में ज्ञान बढ़ाने के लिए मैंने स्थानीय कलंक कथाओं के एक जानकार से बातचीत की। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश: सर, बिलावल भुट्टो और हिना रब्बानी खार के सम्बन्ध के बारे में आपका क्या कहना है क्योंकि ज़्यादातर लोगों का मानना है कि दोनों की उम्र में 11 साल का फर्क है, इसलिए उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। जानकार: बरखुरदार, मुझे नहीं पता कि तुम प्यार के बारे में कितना जानते हो। मगर क्या तुमने सुना नहीं कि प्यार अंधा होता है। ये जात-पांत रंग-रूप कुछ नहीं देखता। अब जब वो जात-पांत नहीं देखता, तो बर्थ सर्टिफिकेट कैसे देख सकता है। लड़के को अगर लड़की से प्यार हुआ है तो क्या पहला सवाल वो उससे ये पूछेगा, “मैं आपसे प्यार तो करता हूं मगर आप बुरा न मानें तो क्या मैं आपकी दसवीं की मार्कशीट देखकर आपकी उम्र जान सकता हूं। एक बार अगर ये कंफर्म हो जाए कि आप उम्र में मुझसे बड़ी नहीं हैं, तो हम इस प्यार पर आगे बात कर सकते हैं।” ये कोई कमर्शिल डील नहीं होती बेटा। दिलों का लेन-देन सामान का लेन-देन नहीं है, जहां आप सौदा करने से पहले नियम और शर्तें पढ़ते हैं। ये तो बस हो जाता है। मैंने कहा, “सर वो तो ठीक है मगर एक शादीशुदा इंसान के अफेयर को आप कैसे जायज़ ठहरा सकते हैं”। जानकार (खीझते हुए): बच्चे उम्र के साथ-साथ अगर तुम्हारे दिमाग का भी बराबर विकास हुआ होता तो तुम ऐसा सवाल न पूछते! जी, मतलब? जानकार:मतलब ये कि मैंने तुम्हें अभी समझाया कि प्यार अंधा होता है। अब जब वो बर्थ सर्टिफिकेट नहीं देख सकता, तो भला मैरिज सर्टिफिकेट कैसे देखेगा...क्या तुम्हें इतनी सी बात भी समझ नहीं आती! लेकिन सर, विवाहेतर सम्बन्धों से आदमी का वैवाहिक जीवन ख़राब होता है, उसका क्या? जानकार:ये तुमसे किसने कह दिया। उल्टा एक्सट्रा मैरिटल अफेयर के बाद तो इंसान की वैवाहिक ज़िंदगी पहले से बेहतर हो जाती है। जो बीवी आपको सालों से खुद पर ध्यान न देने का ताना देती है, विवाहेतर सम्बन्धों के बाद आप जब भी उसे देखते हैं, तो आपको गिल्ट होता है। आप मन ही मन सोचते हैं कि ये मैं इसके साथ अच्छा नहीं कर रहा। और इसी गिल्ट से बचने के लिए आप उसे ज़्यादा प्यार करते हैं। बीवी ये सोचकर खुश होती है कि उसने जो 11 सोमवार के व्रत रखे हैं, ये उसका प्रताप है, फव्वारे वाले शनि मंदिर के पंडित जी से जो काला धागा बंधवाया है, उसकी कृपा है। इस सबका असर ये होता है कि बीवी पहले से ज्यादा धार्मिक हो जाती है और आप ‘आउट आफ गिल्ट’ ही सही, बीवी से प्यार तो करने लगते हैं। वैसे भी मेरा तजुर्बा है, शादी के कुछ साल बाद बिना किसी गिल्ट के बीवी से प्यार किया ही नहीं जा सकता। हां, विवाहेतर सम्बन्धों को लेकर अगर मेरी कोई शिकायत है, तो वो इसके नाम को लेकर है। अंग्रेज़ी का ‘एक्सट्रा मैरिटल अफेयर’ शब्द कितना खूबसूरत है। कितना म्यूज़िक है इस शब्द में। जबकि हिंदी का ‘विवाहेतर सम्बन्ध’ काफी औपचारिक साउंड करता है। अगर कोई नाम देना ही है तो हमें इसे ‘विवाहेतर सम्बन्ध’ नहीं, ‘विवाहेतर जीवन’ कहना चाहिए। विवाह के इतर जीवन। ऐसा जीवन जिससे एक उबाऊ वैवाहिक जीवन को नया जीवनदान मिलता है!