शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

जैक फोस्टर, तुमने मुझे मरवा दिया


जो लोग हिंदी लेखकों से शिकायत करते हैं कि वो उन्हीं घिसे-पिटे पांच छह विषयों पर कलम चलाते हैं, ट्रैवल नहीं करते, दुनिया नहीं देखते, उन्हें समझना चाहिए कि किसी भी तरह की मोबिलिटी पैसा मांगती है और जिस लेखक की सारी ज़िंदगी दूसरों से पैसा मांगकर गुज़र रही हो, वो मोबाइल होना तो दूर, एक सस्ता मोबाइल रखना तक अफ़ोर्ड नहीं कर सकता। ये लेख चूंकि फ्रेंच से हिंदी में अनुवाद नहीं है, लिहाज़ा ये स्वीकारने में मुझे भी कोई शर्म नहीं कि हिंदी लेखक होने के नाते ये सारी सीमाएं मेरी भी हैं। मगर इस बीच मेरे हाथ अमेरिकी एडगुरु जैक फोस्टर की किताब ‘हाऊ टू गैट आइडियाज़’ लगी जिसमें उन्होंने बताया कि लेखक को रूटीन में फंसकर नहीं रहना चाहिए। लॉस एंजलिस के साथी लेखक का ज़िक्र करते हुए उन्होंने बताया कि कैसे नौ साल की नौकरी के दौरान कुछ नया देखने के लिए वो रोज़ नए रास्ते से ऑफ़ि‍स जाता था। ये पढ़ मैं भी जोश में आ गया। पूछने पर ऑफ़ि‍स में किसी ने बताया कि कचरे वाले पहाड़ के बगल में जो मुर्गा मंडी है, उस रास्ते से चाहो तो आ सकते हो। अगले दिन मैं उस सड़क पर था। कुछ ही चला था कि अचानक बड़े-बड़े गड्ढ़े आ गए। गाड़ी हिचकोले खाने लगी। कुछ गड्ढ़े तो इतने बड़े थे कि भ्रम हो रहा था कि यहां कोई उल्का पिंड तो नहीं गिरा। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता गाड़ी उछलकर ऐसे ही एक छिपे रुस्तम गड्ढ़े से जा टकराई। ज़ोरदार आवाज़ हुई। ऑफ़ि‍स पहुंचने से पहले गाड़ी गर्म होकर बंद हो गई। मैकेनिक ने बताया कि गड्ढ़े में लगने से इसका रेडिएटर और सपोर्ट सिस्टम टूट गया है। इंश्‍योरेंस के बावजूद आपका दस-बारह हज़ार खर्चा आएगा! ये सुनते ही गाड़ी के साथ मैं भी धुंआ छोड़ने लगा। दस हज़ार रुपये! मतलब अख़बार में छपे 18-20 लेख। मतलब अख़बार की छह महीने की कमाई और बीस नए आइडियाज़! जबकि मैं तो वहां सिर्फ एक नए आइडिया की तलाश में गया था। हे भगवान! रेंज बढ़ाने के चक्कर में मैं रूट बदलने के चक्कर में आख़िर क्यों पड़ा। रचनात्मकता साहस ज़रूर मांगती है मगर एक आइडिया के लिए दस हज़ार का नुकसान उठाने का साहस, हिंदी लेखक में नहीं है। शायद मैं ही बहक गया था। जैक फोस्टर, तुमने मुझे मरवा दिया!

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

काश! हम औपचारिक रूप से एलियन होते!


एक राष्ट्र के रूप में भारत के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि अपनेआप में स्वतंत्र ग्रह न होकर हम इसी धरती का हिस्सा हैं जिसके चलते हमें बाकी राष्ट्रों से मेलमिलाप करना पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों का हिस्सा बनना पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय मापदंड़ों पर खरा उतरना पड़ता है। इस सबके चलते हम सफोकेशन फील करते हैं। हमें लगता है कि हमारी निजता भंग हो रही है। हमारे बेतरतीब होने को लेकर अगर कोई उंगली उठाता है तो हमें लगता है कि वो ‘पर्सनल’ हो रहा है। हमारी हालत उस शराबी पति की तरह हो जाती है जो कल तक घऱ में बीवी बच्चों को पीटता था और आज वो मोहल्ले में भी बेइज्जती करवाकर घर आया है। अब घर आने पर वो किस मुंह से कहे कि मोहल्ले वाले कितने गंदे हैं क्योंकि पति के हाथों रोज़ पिटाई खाने वाली उसकी बीवी तो अच्छे से जानती है कि मेरा पति कितना बड़ा देवता है। दुनिया देवता समान पति को घर में शर्मिंदा कर देती है। उसके लिए ‘डिनायल मोड’ में रहना कठिन हो जाता है। और नाराज़गी में वो घर बेचकर किसी निर्जन टापू पर चला जाता है। जहां वो ‘अपने तरीके’ से रहते हुए बीवी बच्चों को पीट सके और उसे शर्मिंदा करने वाला कोई न हो। मगर राष्ट्रों के लिए इस तरह मूव करना आसान नहीं होता। होता तो एक राष्ट्र के रूप में हम भी किसी और ग्रह पर शिफ्ट कर जाते जहां हम अपने तरीके से जीते। विकास नीतियों की आलोचना करते हुए जहां कोई रेटिंग एजेंसी हमारी क्रेडिट रेटिंग न गिराती, सरकारी दखल पर इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी ओलंपिक से बेदखल न करती, ट्रांसपेरंसी इंटरनेशनल जैसी संस्था हमें भ्रष्टतम देशों में न शुमार करती। एमनेस्टी इंटरनेशनल मानवाधिकारों के हनन पर हमें न धिक्कारती। और अगर कोई उंगली उठाता तो हम उसे विपक्ष का षड्यंत्र बताते, अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ का दलाल बताते, संवैधानिक संस्थाओं पर शक करते और आम आदमी के विरोध करने पर उसे 66ए के तहत भावनाएँ आहत करने का दोषी बता गिरफ्तार करवा देते। काश! हम एक स्वतंत्र ग्रह होते तो दुनिया से बेफिक्र, अपने ‘डिनायल मोड’ में जीते और खुश रहते। वैसे भी दुनिया का हिस्सा होते हुए दुनिया को एलियन लगने से अच्छा है, हम औपचारिक रूप से एलियन होते!

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

सम्मान की लड़ाई और लड़ाकों का कम्फ़र्ट ज़ोन


‘अहम’ आहत होने पर इंसान सम्मान की लड़ाई लड़ता है। वजूद को बचाए रखने के लिए लड़ाई चूंकि ज़रूरी है इसलिए लड़ने से पहले बहुत सावधानी से इस बात का चयन कर लें कि आपको किस बात पर ‘अहम’ आहत करवाना है! दुनिया अगर इस बात के लिए भारत को लानत देती है कि सवा अरब की आबादी में एक भी शख्स ऐसा नहीं जो सौ मील प्रति घंटा की रफ्तार से गेंद फेंक पाए, तो आपको ये सुनकर हर्ट नहीं होना। भले ही आप मौहल्ले के ब्रेट ली क्यों न कहलाते हों, जस्ट इग्नोर दैट स्टेटमेंट। सम्मान की लड़ाई आपको ये सुविधा देती है कि दुश्मन भी आप चुनें और रणक्षेत्र भी! इसलिए जिस गली में आप क्रिकेट खेलते हैं, उसे अपना रणक्षेत्र मानें और जिस मरियल-से लड़के से आपको बेबात की चिढ़ है, उसे कहिए, साले, तेरे को तो मैं बताऊंगा तू बैटिंग करने आइयो! ये एक ऐसा नुस्खा है जिसे आप कहीं भी लागू कर, कुछ ढंग का न कर पाने के व्यर्थता बोध से ऊपर उठ सकते हैं। मसलन, आपकी बिरादरी का कोई भी लड़का अगर आठ-दस कोशिशों के बाद भी दसवीं पास नहीं कर पा रहा, आपके समाज में बच्चों के दूध के दांत भी तम्बाकू खाने से ख़राब हो जाते हैं, तो इन सबसे एक पल के लिए भी आपके माथे पर शिकन नहीं आनी चाहिए। पढ़ने के लिए, कुछ रचनात्मक करने के लिए आपको पूरी दुनिया से लोहा लेना होगा और ये काम आपसे नहीं होगा, क्योंकि आप तो सारी ज़िंदगी पब्लिक पार्क की बेंच का लोहा बेचकर दारू पीते रहे हैं। दुश्मन के इलाके में जाकर हाथ-पांव तुड़वाने से अच्छा है, अपने ही इलाके में दुश्मन तलाशिए। ऐसे में औरत और प्रेमियों से आसान शिकार भला और कौन होगा? आप कह दीजिए... आज से लड़कियां मोबाइल इस्तेमाल नहीं करेंगी, जींस नहीं पहनेंगी, चाउमीन नहीं खाएंगी। लड़के-लड़कियां प्यार नहीं करेंगे। आप फ़रमान सुनाते जाइए और धमकी भी दे दीजिए किसी ने ऐसा किया, तो फिर देख लेंगे। इन फ़रमानों को अपने ‘अहम’ से जोड़ लीजिए। औरत जात आपसे लड़ नहीं सकती। दो प्रेमी पूरे समाज से भिड़ नहीं सकते। आप ऐसा कीजिए और करते जाइए क्योंकि सम्मान की लड़ाई का इससे बेहतर कम्फर्ट ज़ोन आपको कहीं और नहीं मिलेगा।