शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

काश! हम औपचारिक रूप से एलियन होते!


एक राष्ट्र के रूप में भारत के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि अपनेआप में स्वतंत्र ग्रह न होकर हम इसी धरती का हिस्सा हैं जिसके चलते हमें बाकी राष्ट्रों से मेलमिलाप करना पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों का हिस्सा बनना पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय मापदंड़ों पर खरा उतरना पड़ता है। इस सबके चलते हम सफोकेशन फील करते हैं। हमें लगता है कि हमारी निजता भंग हो रही है। हमारे बेतरतीब होने को लेकर अगर कोई उंगली उठाता है तो हमें लगता है कि वो ‘पर्सनल’ हो रहा है। हमारी हालत उस शराबी पति की तरह हो जाती है जो कल तक घऱ में बीवी बच्चों को पीटता था और आज वो मोहल्ले में भी बेइज्जती करवाकर घर आया है। अब घर आने पर वो किस मुंह से कहे कि मोहल्ले वाले कितने गंदे हैं क्योंकि पति के हाथों रोज़ पिटाई खाने वाली उसकी बीवी तो अच्छे से जानती है कि मेरा पति कितना बड़ा देवता है। दुनिया देवता समान पति को घर में शर्मिंदा कर देती है। उसके लिए ‘डिनायल मोड’ में रहना कठिन हो जाता है। और नाराज़गी में वो घर बेचकर किसी निर्जन टापू पर चला जाता है। जहां वो ‘अपने तरीके’ से रहते हुए बीवी बच्चों को पीट सके और उसे शर्मिंदा करने वाला कोई न हो। मगर राष्ट्रों के लिए इस तरह मूव करना आसान नहीं होता। होता तो एक राष्ट्र के रूप में हम भी किसी और ग्रह पर शिफ्ट कर जाते जहां हम अपने तरीके से जीते। विकास नीतियों की आलोचना करते हुए जहां कोई रेटिंग एजेंसी हमारी क्रेडिट रेटिंग न गिराती, सरकारी दखल पर इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी ओलंपिक से बेदखल न करती, ट्रांसपेरंसी इंटरनेशनल जैसी संस्था हमें भ्रष्टतम देशों में न शुमार करती। एमनेस्टी इंटरनेशनल मानवाधिकारों के हनन पर हमें न धिक्कारती। और अगर कोई उंगली उठाता तो हम उसे विपक्ष का षड्यंत्र बताते, अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ का दलाल बताते, संवैधानिक संस्थाओं पर शक करते और आम आदमी के विरोध करने पर उसे 66ए के तहत भावनाएँ आहत करने का दोषी बता गिरफ्तार करवा देते। काश! हम एक स्वतंत्र ग्रह होते तो दुनिया से बेफिक्र, अपने ‘डिनायल मोड’ में जीते और खुश रहते। वैसे भी दुनिया का हिस्सा होते हुए दुनिया को एलियन लगने से अच्छा है, हम औपचारिक रूप से एलियन होते!

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जब कुछ बूझे नहीं तो सब एलीयन ही लगता है