मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

इस शहर में हम भी भेड़ें हैं!

ब्लूलाइन में घुसते ही मेरी नज़र जिस शख़्स पर पड़ी है, बस में उसका डेज़ीग्नेशन कन्डक्टर का है। पहली नज़र में जान गया हूं कि सफाई से इसका विद्रोह है और नहाने के सामन्ती विचार में इसकी कोई आस्था नहीं । सुर्ख होंठ उसके तम्बाकू प्रेम की गवाही दे रहे हैं और बढ़े हुए नाखून भ्रम पैदा करते हैं कि शायद इसे ‘नेलकटर’ के अविष्कार की जानकारी नहीं है।

इससे पहले कि मैं सीधा होऊं वो चिल्लाता है- टिकट। मुझे गुस्सा आता है। भइया, तमीज़ से तो बोलो। वो ऊखड़ता है, 'तमीज़ से ही तो बोल रहा हूं।' अब मुझे गुस्सा नहीं, तरस आता है। किसी ने तमीज़ के बारे में शायद उसे 'मिसइन्फार्म' किया है!

टिकिट ले बस में मैं अपने अक्षांश-देशांतर समझने की कोशिश कर ही रहा हूं कि वो फिर तमीज़ से चिल्लाता है-आगे चलो। मैं हैरान हूं ये कौन सा 'आगे' है, जो मुझे दिखाई नहीं दे रहा। आगे तो एक जनाब की गर्दन नज़र आ रही है। इतने में पीछे से ज़ोर का धक्का लगता है। मैं आंख बंद कर खुद को धक्के के हवाले कर देता हूं। आंख खोलता हूं तो वही गर्दन मेरे सामने है। लेकिन मुझे यकीन है कि मैं आगे आ गया हूं क्योंकि कंडक्टर के चिल्लाने की आवाज़ अब पीछे से आ रही है!

कुछ ही पल में मैं जान जाता हूं कि सांस आती नहीं लेना पड़ती है....मैं सांस लेने की कोशिश कर रहा हूं मगर वो नहीं आ रही। शायद मुझे आक्सीज़न सिलेंडर घर से लाना चाहिये था। लेकिन यहां तो मेरे खड़े होने की जगह नहीं, सिलेंडर कहां रखता।

मैं देखता हूं कि लेडीज़ सीटों पर कई जेन्ट्स बैठे हैं। महिलाएं कहती हैं कि भाईसाहब खड़े हो जाओ, मगर वो खड़े नहीं होते। उन्होंने जान लिया है कि बेशर्मी से जीने के कई फायदे हैं। वैसे भी 'भाईसाहब' कहने के बाद तो वो बिल्कुल खड़े नहीं होंगे। कुछ पुरुष महिलाओं से भी सटे खड़े हैं और मन ही मन 'भारी भीड़' को धन्यवाद दे रहे हैं!

इस बीच ड्राइवर अचानक ब्रेक लगाता है। मेरा हाथ किसी के सिर पर लगता है। वो चिल्लाता है। ढंग से खड़े रहो। आशावाद की इस विकराल अपील से मैं सहम जाता हूं। पचास सीटों वाली बस में ढाई सौ लोग भरे हैं और ये जनाब मुझसे 'ढंग' की उम्मीद कर रहे हैं। मैं चिल्लाता हूं - जनाब आपको किसी ने गलत सूचना दी है। मैं सर्कस में रस्सी पर चलने का करतब नहीं दिखाता। वो चुप हो जाता है। बाकी के सफर में उसे इस बात की रीज़निंग करनी है।

बस की इस बेबसी में मेरे अंदर अध्यात्म जागने लगा है। सोच रहा हूं पुनर्जन्म की थ्योरी सही है। हो न हो पिछले जन्म के कुकर्मों की सज़ा इंसान को अगले जन्म में ज़रुर भुगतनी पड़ती है। लेकिन तभी लगता है कि इस धारणा का उजला पक्ष भी है। अगर मैं इस जन्म में भी पाप कर रहा हूं तो मुझे घबराना नहीं चाहिये.... ब्लूलाइन के सफर के बाद नर्क में मेरे लिए अब कोई सरप्राइज नहीं हो सकता !

बहरहाल....स्टैण्ड देखने के लिए गर्दन झुकाकर बाहर देखता हूं। बाहर काफी ट्रैफिक है... कुछ समझ नहीं पा रहा कहां हूं। तभी मेरी नज़र भेड़ों से भरे एक ट्रक पर पड़ती है। एक साथ कई भेड़ें बड़ी उत्सुकता से बस देख रही हैं। एक पल के लिए लगा.... शायद मन ही मन वो सोच रही हैं.....भेड़ें तो हम हैं!