शनिवार, 26 जून 2010

धूल चाटने की हसरत!

भारत उन चंद गौरवशाली देशों में शामिल है जो फुटबॉल विश्व कप में आज तक एक भी मैच नहीं हारा! ये बात अलग है कि ये गौरव उसने विश्व कप में एक मैच भी न खेल कर हासिल किया है! मगर सवाल यही है कि कब तक हम भारतीय रात दो-दो बजे तक जागकर मुशायरे में सिर्फ तालियां ही पीटते रहेंगे, ये सोच कर खुश होते रहेंगे कि टूर्नामेंट के फलां गाने में भारतीय ने संगीत दिया या उदघाटन समारोह में फलां सेबीब्रिटी ने भारतीय डिज़ाइनर की ड्रेस पहनी। लानत है ऐसी संतुष्टि पर। खेल फुटबॉल का है और हम दर्जियों के हुनर पर गौरवान्वित हो रहे हैं। ड्रेस की जगह फुटबॉल भी सिली होती तो बात और होती।


दोस्तों, न तो हमें हार से परहेज़ है और न ही धूल से एलर्जी तो फिर कब तक हम क्रिकेट टीमों के हाथों क्रिकेट मैदानों की ही धूल चाटते रहेंगे। वो दिन कब आएगा जब हम भी ब्राज़ील के हाथों धूल चाटेंगे, अर्जेंटीना हमारी बख्खियां उधेड़ेगा और जर्मनी हमें रौंद डालेगा। कब तक हम सैफ खेलों में भूटान और मालदीव से हारते रहेंगे। कब तक नेपाल को हरा और बर्मा से हार हम खुश और दुखी होते रहेंगे। जितनी आबादी रोज़ाना डीटीसी की बसों में ‘खड़ी होकर’ सफर करती है; उससे भी कम आबादी वाले देश विश्व कप खेल रहे हैं और डीटीसी के डिपो जितने देश विश्व कप में धूम मचाए हुए हैं। और एक हम हैं कि विश्व कप के दौरान बिके रंगीन टीवी और खाली हुई बियर की बोतलें गिन कर ही खुश हो रहे हैं। टीम के कोच बॉब हॉटन दावा करते हैं कि हम भी 2018 के विश्व कप में क्वॉलिफाई कर जाएंगे मगर जैसे हालत अभी दिखते हैं, उसे देख लगता नहीं कि हम अठारह हज़ार दो तक भी क्वॉलिफाई कर पाएंगे।

शुक्रवार, 18 जून 2010

हारा हुआ चिंतन! (व्यंग्य)

औसत भारतीय ज़िंदगी में किस्मत, वक़्त और ईश्वर को कभी नहीं भूलता। किस्मत में हो तो अच्छी नौकरी मिल जाती है, वक़्त आने पर लड़की के लिए अच्छा रिश्ता मिल जाता है और ईश्वर चाहे तो इंसान का ‘नाम’ भी हो जाता है। अब ऐसे समाज में जब लोग इंसाफ की, कानून की बात करते हैं तो लगता है कि संस्कारों से बगावत हो रही है। मेरा मानना है कि दर्शन जब ज़िंदगी के हर पड़ाव पर सहारा बनता है तो फिर न्याय में भी बनता होगा। लिहाज़ा, जब लोग बात करते हैं कि हज़ारों लोगों की मौत के ज़िम्मेदार एंडरसन को भगा कर, उनके साथ अन्याय किया गया तो मुझे कोफ्त होती है। जब संसार में एक पत्ता भी ईश्वर की मर्ज़ी के बिना नहीं खड़कता तो ऐसे में एक शख्स की लापरवाही से हज़ारों लोगों की जान कैसे जा सकती है! लोग मरे... क्योंकि यही ईश्वर की मर्ज़ी थी और एंडरसन फरार हुआ क्योंकि उसमें ईश्वर की सहमति थी। अब ये कहना कि इसके लिए अर्जुन सिंह या राजीव गांधी दोषी हैं, सरासर ग़लत है।

दोषियों का क्या होगा...क्या नहीं होगा...इसकी चिंता हमें छोड़ देनी चाहिए। जब इंसान को उसके कर्मों का फल मिलना तय है और वो फल ईश्वर ने ही देना है और अर्जुन सिंह एंड कंपनी ने जो किया वो ईश्वर की मर्जी़ से ही किया तो फिर क्यों उन्हें बद्दुआएं दे हम अपना वक़्त बरबाद करें? ये लोग तो ईश्वरीय मर्ज़ी की पूर्ति के लिए माध्यम भर थे! जिसने जीवन दिया अगर उसी ने वापिस ले भी लिया तो क्या हर्ज़ है। क्या तुम्हारा था जो छिन गया।

उम्मीद को मरने वाली मैं दुनिया की आख़िरी चीज़ मान भी लूं तो भी इस बात की गुंजाइश बेहद कम है कि भगवान भी आत्मचिंतन करता होगा। ग़लती का एहसास होने पर वो भी प्रायश्चित करता होगा...और अगर आत्मचिंतन ईश्वर के भी संस्कार का हिस्सा है तो यकीन मानिए वॉरन एंडरसन अगले जन्म में एक गरीब के रूप में भारत में ही जन्म लेगा! उसके लिए सज़ा की इससे बड़ी बद्दुआ और क्या हो सकती है!

गुरुवार, 10 जून 2010

पेशा बदलने का वक़्त! (हास्य-व्यंग्य)

इस देश में कुछ हस्तियों को देखकर एहसास होता है कि उनका अपने काम में मन नहीं लग रहा। वक़्त आ गया है कि वो पेश बदल लें। इस सूची में पहला नाम है युवराज सिंह का। कहा जाता है कि बचपन में क्रिकेट उनका पहला प्यार नहीं था। पिता के दबाव में वो क्रिकेट खेलने लगें। हाल-फिलहाल उनका खेल देख यही लग रहा है कि पिता के दबाव का असर उन पर से जाने लगा है। जिस शिद्दत से वो हर उपलब्ध मौके पर नाचते हैं...उसे देखते हुए यही सलाह है कि उन्हें क्रिकेट छोड़, कोई ऑर्केस्ट्रा ग्रुप ज्वॉइन कर लेना चाहिए। और चाहें तो अपने नचनिया मित्र श्रीसंत को भी साथ ले लें।

इसी तरह फिल्मी दुनिया में राम गोपाल वर्मा की हर फिल्म देख यही लगता है कि वो प्रतिभा से नहीं, अपनी ज़िद्द से फिल्म निर्देशक रह गए हैं। एक बाल हठ है...कि मैं फिल्में बनाऊंगा। फिल्म में कहानी और थिएटर में दर्शकों का होना तो कोई शर्त है ही नहीं। उदय चोपड़ा को देख भी यही लगता है कि किसी भावुक क्षण में पिता से किए वादे को निभाने के चक्कर में आज भी एक्टिंग कर रहे हैं। वरना तो सम्पूर्ण राष्ट्र की यही मांग है...हमारे अभिनेता कैसा हो...जैसा भी हो..उदय चोपड़ा जैसा न हो।

वहीं शरद पवार साहब...आईसीसी के चीफ भी बनने वाले हैं। आईपीएल में टीम खरीदने के अरमान भी रखते हैं मगर एक जगह, जहां उनका दिल नहीं लगता, वो है कृषि मंत्रालय। उनका मानना है कि जिस देश में साठ फीसदी लोग कृषि पर निर्भर हैं, उस मंत्रालय को आज भी पॉर्ट टाइम जॉब की तरह लिया जा सकता है। ममता बैनर्जी भी उस कर्मचारी की तरह बेमन से काम कर रही हैं, जिसकी नयी नौकरी लगने वाली है और पुरानी में उसका दिल नहीं लग रहा। और मालिक भी जानता है कि वो नोटिस पीरियड पर है!

मंगलवार, 8 जून 2010

लेखक का ख़त!

सम्पादक महोदय,
नमस्कार!

लेखक भले ही समाज में फैले भ्रष्टाचार, गिरते सामाजिक मूल्यों, स्वार्थपूर्ण राजनीति पर कितना ही क्यों न लिखे लेकिन उसकी असल चिंता यही होती है कि उसका भेजा लेख टाइम से छप जाए। मानवीय मूल्यों की गिरावट पर उसे दुख तो होता है लेकिन साथ ही इस बात की खुशी भी होती है, इस गिरावट पर जैसा वो लिख पाया वैसा किसी और ने नहीं लिखा। ये सही है कि ऐसा सोचना भी अपने आप में गिरावट है, मगर ये अलग बहस का विषय है।

ठीक इसी तरह पिछले कुछ लेखों में मैंने भले ही नेताओं से लेकर, मीडिया और खेल पर जो लिखा हो मगर इस दौरान मेरी असली चिंता यही रही कि आपने व्यंग्य कॉलम काफी छोटा कर दिया है। माना कि बड़ा कॉलम होने पर लेखक विषय से भटक जाते हैं मगर आपने ये कैसे मान लिया कि कॉलम छोटा होने पर लेखक भटकना बदं कर देंगें। मुझ जैसे को तो आप चुटकुला छाप कर भी भटकने से नहीं रोक सकते। कविता, कहानी, उपन्यास से भटकते हुए तो हम व्यंग्यकार बने हैं, अब व्यंग्य में भी नहीं भटकेंगें तो कहां जाएंगें, आप ही बताईये!

पहले आप इस कॉलम को पेज के बीचों-बीच छापते थे, फिर इसे नीचे ले गए और अब साहित्य में व्यंग्यकार की तरह, आपने इसे पूरी तरह हाशिये पर डाल दिया है। उस पर शब्द सीमा भी घटा दी है। जितने शब्द पहले मैं विषय पर आने में लेता था उतने में तो लेख ही ख़त्म हो जाता है। इससे बड़ी तो आप पाठकों की चिट्ठियां छापते हैं। सोच रहा हूं... लेख छोड़ चिट्ठियां लिखनी शुरू कर दूं। मेरा अनुरोध है कि या तो कॉलम फिर से बड़ा कर दें या फिर रचना मेल के बजाए एसएमएस से लेना शुरू कर दें!

छपने की आशा में...

शिकायती लेखक!