बुधवार, 26 नवंबर 2008

इनाम और ईमान (हास्य-व्यंग्य)

युवराज सिंह को लगातार दूसरे वनडे में ‘मैन ऑफ द मैच’ चुना गया। इनाम के तौर पर बाइक मिली। बाइक पर वो स्टेडियम के चक्कर लगा रहे हैं। किसी ने मासूम जिज्ञासा हवा में उछाली। अरे! युवराज को तो पिछले मैच में भी बाइक मिली थी। अब फिर मिल गई। दो-दो बाइक का वो करेगा क्या?
इससे पहले दूसरी बाइक के ‘सम्भावित इस्तेमाल’ पर बात हो, उन्होंने एक और सवाल दागा। युवराज बाइक रखेगा या कम्पनी को दे, बदले में पैसे ले लेगा ? वैसे भी चालीस-पचास हज़ार रूपये मिल जाएं तो एक ढंग का एलसीडी आ जाएगा!
अधूरे ज्ञान और पूरे जोश के साथ किसी भी विषय पर राय देना हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। लिहाज़ा एक और सज्जन बीच में कूदते हैं। कुछ पता न हो तो नहीं बोलना चाहिए! तुम्हें क्या लगता है कि कम्पनी ने बाइक की फुल पेमेंट की होगी। अरे! आधा पैसा कम्पनी देती है बाकी खिलाड़ी को पल्ले से देने पड़ते हैं। अब ये पैसा वो लम-सम दे दें या किस्तों में....ये उसकी मर्ज़ी है।
पहले वाला सहमत होता है। हां यार, मुझे भी यही लग रहा था कि कम्पनियां इतनी दिलेर तो नहीं कि 50 हज़ार की चीज़ ऐंवे ही दे दें। मेरे भाई ने भी बाइक फाइनेंस करवा रखी है। एक किस्त भी इधर-उधर हो जाए तो रिकवरी वाले फोन खड़काना शुरू कर देते हैं। अब जो कम्पनी 1500 की किस्त नहीं छोड़ सकती वो 50 हज़ार की बाइक कैसे लंगर में दे सकती है?
बात पेमेंट से निकल कर दूसरी गाड़ी के ‘सम्भावित इस्तेमाल’ पर लौटती है। पहले वाला-मगर मैं सोच रहा हूं दो-दो बाइक का युवराज करेगा क्या? दूसरा तंज मारता है। तू फिक्र मत कर, तुझे तो नहीं देगा। मुझे तो लगता है ये बाइक वो किम शर्मा के भाई को दे देगा!
पहले वाला आस्तीन चढ़ाता है। तू भी अजीब मूर्ख है। किम शर्मा के भाई को क्यों देगा? उसे तो खुद अभी इतनी बड़ी गाड़ी मिली है। वो कोई कम बड़ा खिलाड़ी है। क्या बात कर रहे हो? कौन है उसका भाई? तुम स्साला रहते कौन-सी दुनिया में हो। ईशांत शर्मा और कौन? सच.....ये तो गजब बात बताई तुमने।
एक-दूसरे का सामान्य ज्ञान भ्रष्ट करने के बाद वो फिर बाइक पर लौटते हैं। मुझे तो लगता है वो ये बाइक किसी दोस्त-यार को दे देगा। दोस्त पर अहसान हो जाएगा और बाइक भी ठिकाने लग जाएगी। स्साला! हमारा ऐसा कोई ढंग का दोस्त क्यों नहीं है। सभी कंगले हमारे ही पल्ले पड़े हैं। इस बात पर दोनों सहमत हैं। युवराज ग्राउंड का चक्कर पूरा करते हैं और ये अपनी कल्पना का। मैं निकल लेता हूं।

बुधवार, 19 नवंबर 2008

हमें हमारे हाल पर छोड़ दो! (हास्य-व्यंग्य)

छह महीने हो गए इस सड़क से गुज़रते। मगर पंद्रह फीट ऊपर टंगी इन लाइट्स को आज तक मैंने जलते नहीं देखा। 'न जलने' को लेकर इनमें ज़बरदस्त एकता है। एक-आध भी जलकर बगावत नहीं कर रही। शायद अब अस्तित्व बोध भी खो चुकी हैं। नहीं जानती कि इनका इस्तेमाल क्या है? इतनी ऊपर क्यों टंगी हैं? कुछ पोस्ट, जो आधे झुके हैं, लगता है अपने ही हाल पर शर्मिंदा है।
हमारे यहां ज़्यादातर लैम्प पोस्ट्स की यही नियति है। लगने के बाद कुछ दिन जलना और फिर फ्यूज़ हो, खजूर का पेड़ हो जाना! वक़्त आ गया है कि देश के तमाम डिवाइडरों से इन खम्बो को उखाड़ा जाए। विकसित देशों को संदेश दिया जाए कि विकास के नाम पर तुमने बहुत मूर्ख बना लिया। व्यवस्था के नाम पर तुम्हारे सभी षडयंत्रों को हम तबाह कर देंगे। वैसे भी व्यवस्था इंसान को मोहताज बनाती है। उसकी सहज बुद्धि ख़त्म करती है। हम हिंदुस्तानी हर काम अपने हिसाब से करने की आदी हैं। व्यवस्था में हमारा दम घुटता है। हमें मितली आती है।

हमने तय किया है कि स्ट्रीट लाइट्स के बाद हम ज़ैबरा क्रॉसिंग को ख़त्म करेंगे। वैसे भी जिस देश में नब्बे फीसदी लोगो ने कभी ज़ैबरा नहीं देखा वहां किसी व्यवस्था को ज़ैबरा से जोड़ना स्थानीय पशुओं का सरासर अपमान है। आवारा पशुओं की हमारे यहां पुरानी परम्परा है। क्या हम इस काबिल भी नहीं है कि हमारे पशुओं में ऐसी कोई समानता ढूंढ पाएं। सड़क पर घूमते किसी भी दो रंगें कुते को ये सम्मान दे उसे अमर किया जा सकता है।
इसके अलावा ट्रैफिक सिग्नल्स भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ खिलवाड़ है। क्या ये सिग्नल्स हमें बताऐंगे कि कब जाना और कब नहीं। इंसानों में जब तक संवाद कायम है उन्हें मशीन के हाथों नियंत्रित नहीं होने चाहिए। वैसे भी गालियों का हमारा शब्दोकोष काफी समृद्ध है। ईश्वर और पुलिस से ज्यादा यही गालियां हमारा साथ देती आई हैं। तेरी....तेरी.....

बीच सड़क में बैठी गाय के साइड से निकाल, सामने आते ट्रक से बच, पीछे बजते हॉर्न को बर्दाश्त कर, खुले ढक्कन वाले गटर के चंगुल से निकल हम अक्सर ही घर से ऑफिस और ऑफिस से घर आते जाते रहे हैं। और उस पर भी हमारा ज़िंदा होना इस बात का सबूत है हम किसी स्ट्रीट लाइट, ज़ैबरा क्रॉसिंग और ट्रैफिक सिग्नल के मोहताज नहीं। दुनिया वालो तुम्हारी व्यवस्था तुम्हें मुबारक! भगवान के लिए हमें हमारे हाल पर छोड़ दो।

शनिवार, 15 नवंबर 2008

कोलम्बस की पुश्तें! (हास्य-व्यंग्य)

रास्ते से गुज़रते हुए मेरी नज़र एक होर्डिंग पर पड़ती है। बीजेपी के नेता पराजय कुमार मल्होत्रा की तस्वीर लगी है। साथ में लिखा है, दिल्ली को पहला फ्लाइओवर देने वाले। मन श्रद्धा से भर गया। अचानक मैं खुद को ऋणी मानने लगा। घर गया तो रात भर नींद नहीं आई। बेचैनी देख बीवी ने पूछा-क्या हुआ? मैंने कहा-कैसे चुकाऊंगा मैं ये कर्ज? बीवी तपाक से बोली-कमेटी डालकर। अगले महीने लाख वाली कमेटी डाल लेंगे। जब ठीक लगेगा तब उठा कर दे देंगे। घबराते क्यों हो।

बीवी सो गयी। मगर मैं रात भर जागता रहा। मन में विचार आया कितनी निकम्मी निकली कोलम्बस की पुश्तें। क्या उसके खानदान में एक भी शख्स ऐसा नहीं हुआ जो अमेरिकियों को याद दिला सके कि अहसान मानो हमारा... इस देश की खोज हमारे बाप के बाप ने की थी। क्या डेमोक्रेट या रिपब्लिकन्स किसी के ज़हन में ये बात नहीं आई कि कोलम्बस के खानदान से किसी को पार्टी में लाया जाए। लोगो को बताया जाए कि इस देश पर राज करने का अगर किसी का सहज और पहला हक़ बनता है तो इनका। लिहाज़ा अपने मत को ईएमआई मानें और आपके प्रति इनके महान कर्ज़ की छोटी-सी किस्त अदा करे।

सोचिए ज़रा श्री मल्होत्रा या ऐसा कोई और अमेरिका में होता और कोलम्बस के खानादान से ताल्लुक रखता तो क्या वो ये बात देश को इतनी आसानी से भूल जाने देता। क्या नज़ारा होता। अमेरिका में भी होर्डिंग लगे हैं-स्टूअर्ट कोलम्बस-जिनके दादा जी ने अमेरिका की खोज की। सामने वाले उम्मीदवार की दावेदारी तो इसी आधार पर खारिज हो जाती कि तुम तो उस बिरादरी से हो जो बहुत बाद में अमेरिका में बसी।

इस मामले में मेरी शिकायत इतिहासकारों से भी है जिन्होंने ये बात फैलाई कि कोलम्बस निकले तो भारत की खोज करने थे मगर अमेरिका ढूंढ बैठे। इस एक जानकारी ने उस महान खोज को उपलब्धि न मान ‘दुर्घटना’ में तब्दील कर दिया (यह बात अलग है कि उस दुर्घटना का शिकार आज तक पूरी दुनिया हो रही है)। मगर हम इस बात के लिए संघर्ष करते कि नहीं ये सब झूठ है। हमारे दादा तो निकले ही अमेरिका की खोज करने थे। उनका तो बचपन से सपना था अमेरिका खोजना और अब जब अमेरिका मिल गया है तो भगवान के लिए हमे इसे अपने हिसाब से चलाने दें। दादा जी की विरासत से छेड़छाड़ न करें।

वक्त आ गया है कि अमेरिका भी भारत की तरफ देखे। हम दसियों साल बाद भी लोगों को ‘पहला फ्लाइओवर बनाने वाले’ नहीं भूलने देते और तुम्हारी एक बिरादरी ने स्साला ‘देश खोज लेने’ की उपलब्धि भुला दी। लानत है।

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

बस अड्डे का विहंगम दृश्य (हास्य-व्यंग्य)

जब कभी बस अड्डे जाता हूं ये सवाल अक्सर ज़हन में आता है कि इस बेचारे का आखिर क्या कसूर है ? किस ग़लती की सज़ा इसे दी जा रही है ? संसद में अटका वो कौन सा विधेयक है जिसके चलते यहां झाडू नहीं लग रही ? किस साजिश के तहत देश की विकास योजनाओं में इसे शामिल नहीं किया जा रहा? आखिर क्यों ये आज भी वैसा ही है जैसा कभी राणा सांगा के वक्त रहा होगा ?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके मैं जवाब जानना चाहता हूं। मगर अभी तो ये जानना है कि जिस बस से जाना है वो कहां से चलेगी। पूछताछ खिड़की पहुंचता हूं। बावजूद ये जानते हुए कि पूछताछ खिड़की बस अड्डे में वो जगह होती है जहां लोहे की जाली के उस तरफ एक कुर्सी होती है, एक टेलीफोन, पुराना टूटा पैन भी रहता है, लेकिन वो इंसान जिसे इस नौकरी के लिए दस हज़ार महीना मिलते हैं वो नहीं होता। कैसी विडम्बना है कि मैं गया तो बस का पूछने था मगर लोगों से पूछ रहा हूं कि इन्क्वायरी विंडों वाला किधर है?
सवाल ये है कि ये इन्क्वायरी विंडों वाला आखिर किधर गया ? क्या ये आज बिना किसको बताये आया ही नहीं, क्या ये ऊपर बने किसी कमरे में आराम फरमा रहा है? क्या ये किसी कोने में बैठा बीडी फूंक रहा है? क्या पिछले दो घंटे से ये 'दो मिनट' के किसी काम पर निकला था? मुझे लगता है कि बस अड्डे पर गुमशुदा लोगों के जो इश्तेहार लगे हैं वहीं पूछताछ खिड़की के उस शख्स का भी एक इश्तेहार लगा दूं, किसी को दिखे तो बतायें!
इस बीच भूख लगती है। गर्दन घुमा कर देखतें हूं। चारों तरफ सेहत के दुश्मन बैठे हैं। कोई भठूरा बेच रहा है तो कोई पकौडा, किसी के पास गंदे तेल में तला समोसा हैं तो किसी के पास पिलाने के लिए ऐसी शिकंजी जिसमें इस्तेमाल की गई बर्फ और पानी का रहस्य सिर्फ बेचना वाला ही जानता है। इन तमाम चीज़ों की हक़ीकत जानने के बावजूद खाने-पीने के भारतीय संस्कारों के हाथों मजबूर हैं। पहले शिकंज़ी पीता हूं, भठूरे भी खाता हूं, थोड़े पकौडे भी लेता हूं और आधी-कच्ची चाय का भी आनन्द लेता हूं।
खाने पीने को लेकर दिल से उठाया गया ये कदम पेट पर भारी पड़ने लगता है। बाथरूम की तरफ लपकता हूं। दोस्तों......भारतीय बस अड्डों में शौचालय वो जगह होती है जहां सतत जनसहयोग और सफाई कर्मचारियों की अकर्मण्यता से ज़हरीली गैसों का निर्माण किया जाता है। उस पर ये भी लिखा रहता है-स्वच्छता का प्रतीक। ऐसा लगता है मानों....लोगों को चिढ़ाया जा रहा है।
खैर, सांस रोके जो करना है वो कर बाहर आता हूं। सामने बस खडी है। खुशी से झूम उठता हूं। टिकट लेता हूं। बस में बैठता हूं। सफर शुरू होता है। और कुछ ही देर में जान जाता हूं कि बस अड्डे में जो देखा वो तो ट्रेलर था, फिल्म तो अभी शुरू हुई है।

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

जो दिल करे वो खाओ!

हर मोटे आदमी को ज़िंदगी में एक बार ज़रूर लगता है कि तोंद कम करने के लिए अफ़सोस के अलावा भी कुछ करना चाहिये। इसी अहसास के बाद जिम वाले से बात कर ली जाती है। खाने को लेकर बीवी को हिदायत दी जाती है, अलार्म लगा दिया जाता है।

सुबह अलार्म बजता है। दिल करता है अलार्म का गला घोंट दें। 15 मिनट बाद का अलार्म लगा आप फिर सोने लगते हैं कि बीवी उठ जाती है। अब आपकी खैर नहीं....चलिये उठिये... सैर पर नहीं जाना क्या? रात को तो बड़े-बड़े दावे कर सोये थे..... अब उठते क्यों नहीं? आपका दिल करता है कि अलार्म के साथ बीवी का भी.......।
खैर....भारी मन के साथ हल्के जूते पहन आप सैर के लिए निकलते हैं। घंटे बाद उत्साह से भरे आप घर लौटते हैं। इस उत्साह में सैर से मिला आनन्द कम, और जल्दी उठने की वीरता पर गुमान ज़्यादा है। आपके आफिस के सहतोंदू दोस्तों की अब खैर नहीं, जिनके सामने आप सुबह की सैर की महिमा गाने वाले हैं।
सैर करते अब आपको हफ्ता बीत चुका है। देशभर में फैले तमाम रिश्तेदार जान चुके हैं कि 'फलानां जी' सैर पर जा रहे हैं। ऐसा नहीं कि ये बात अखबार में छपी है बल्कि आप ही ने फोन पर किसी बहाने चिपकाई है।
सैर को अब दो हफ्ते बीत चुके हैं। ये जानने के लिए जोश में इंचीटेप उठाते हैं कि आख़िर 'कितना फर्क' पड़ा है। मगर ये क्या.... साढ़े चवालीस की साढ़े चवालीस। तमाम प्रपचों के बावजूद तोंद टस से मस नहीं हुई। आपको सदमा लगता है। दिल करता है कि कमरा अंदर से बंद करके तकिया मुंह में लेकर रोयें.....मगर आप ऐसा नहीं करेंगे। आप स्ट्रोंग आदमी है और आपकी तोंद भी इसकी गवाही दे रही है !

तय रूटीन के मुताबिक रात को दलिया पेश किया जाता है। मगर आप बीवी पर उखड़ते हैं। ये क्या बकवास है। मेरी डाइटिंग ने तुम्हें 'कुछ न करने' का बहाना दे दिया है। बीवी हैरान है क्या हो गया आपको ? वो पूछती हैं-बॉस ने कुछ कहा क्या ? आप आपा खोते हैं-तुम्हारा दिमाग ख़राब हो गया है, मैं दलिये की बात कर रहा हूं, तुम बॉस को बीच में ला रही हो। पहले प्यार में धोखा खाई युवती की तरह आप अंदर ही अंदर घुटते हैं मगर किसी को कुछ बताते नहीं?
अगले दिन फिर अलार्म बजता है। मगर आपकी टांग में दर्द है, जिसके बारे में टांग को भी पता नहीं, आप सैर पर नहीं जाते। अब ये टांग ठीक नहीं होगी। धीरे-धीरे सैर बंद हो गई। नाश्ते से दूध सेब गायब । दलिया पर तो दस दिन से पाबंदी है। अरसे बाद फिर से आलू के परांठे का आर्डर दिया जाता है। परांठा खा रहे हैं और खाते-खाते आप नया खाद्य दर्शन दे डालते हैं.......स्साला 60 साल परहेज़ कर तीन साल उम्र बढ़ाई भी तो क्या बढ़ाई ! जो दिल करे वो खाओ।

शनिवार, 8 नवंबर 2008

लोमड़ी की संवेदनशीलता!

एंकर बता रही है कि भागती-दौड़ती और तनाव भरी ज़िंदगी में अगर हंसने-हंसाने के दो पल मिल जाएं तो क्या कहने। आपके इसी तनाव और थकान को दूर करने के लिए देखते हैं कॉमेडी का कॉकटेल।
मतलब हमारा धंधा तो ख़बर दिखाना है मगर आपकी तकलीफ दूर करने के लिए हम 'आउट ऑफ वे' जा कर आपको हंसाएंगे। वाह! इसे कहते हैं 'लोमड़ी की संवेदनशीलता'। ऐसा संवेदनशील इंसान दुनिया भर का बोझ उठाने को तैयार रहता है। वो किसी को कुछ नहीं करने देता। पडोसी खाना खा कर उठता है तो ये आवाज लगाता है भाईसाहब रुको झूठी प्लेट सिंक में रख देता हूं। मकसद पडोसी की मदद करना नहीं उसकी बीवी पर लाइन मारना है।
इसमें दो राय नहीं की तनाव भरी ज़िंदगी में हंसने की ज़रुरत होती है। मगर उस तनाव के दर्शन तो कराओ। क्या जीवन का तनाव ये है कि तमाम बदतमीज़ियों की बावजूद संभावना सेठ राखी सावंत नहीं बन पा रही। नॉमीनेट होने के बाद पायल बिकनी पहन स्विमिंग पूल में कूद पड़ी। या फिर शरलीन चोपडा ने थर्रटी सिक्स-ट्वेंटी फोर-थर्रटी सिक्स के में जो फोर-सिक्स की कमी थी उसे दूर करने के लिए कॉस्मेटिक सर्जरी करा ली। कम से कम चैनल की खिड़की से जो दुनिया का जो तनाव दिखता है वो यही है।
मैं सोचता हूं फूहड़ हो जाने के लिए 'आपका तनाव' कितनी खूबसूरत दलील है। आप जो कूड़ा चैनल पर देख रहे हैं वो इसलिए क्योंकि आप तनाव में है। और ये कूड़ा देखकर अगर आप और तनाव में आ गए हैं तो हम कहेंगे आप ग़लत जगह राहत ढूंढ रहे हैं। टीवी बंद कर दीजिए। अक्लमंदों के लिए यहां कोई आरक्षण नहीं है।
आप इंतज़ार कीजिए। कुछ वक़्त बाद ऐसा भी होगा। रात दस बजे चैनल 'जनहित में धुंधला' कर एक नीली फिल्म दिखाएगा। बिना एडिटिंग के घंटे भर फिल्म चलेगी। फिर एंकर कहेगा देखो क्या हो गया है हमारे बच्चों को। क्या-कुछ चल रहा है समाज में। खैर, गिरते नैतिक मूल्यों पर बात करने के लिए हमारे साथ स्टूडियों में मौजूद हैं........।
ये सब हो तो आप चैनल को दोष मत देना। उसकी संवेदनशीलता को समझना। आख़िर बात तो वो समस्या पर कर रहे है। ये तो टीवी की मजबूरी है कि बिना दृश्य के यहां बात स्थापित नहीं होती इसलिए 'मजबूरी' में थोड़ा-बहुत दिखाना पड़ता हैं। मगर उनका इरादा तो नेक है। अब फिर से आप ये मत कहना समस्या तो फूहड हो जाने की दलील है और मजबूरी की कोई भी दलील कितनी भी सक्षम क्यों न हो वो वेश्वावृति की इजाज़त नहीं देती।

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

प्रेम और संगीत

दीपावली के बाद घर से लौट रहा हूं। बगल की सीट पर बीवी सो रही है। मैं उसका हाथ थामे हूं। इयरफोन लगा है। गाना चल रहा है.....यही वो जगह है...यही वो समां है...यहीं पर कभी आपसे हम मिले थे। गाना सुनते-सुनते फ्लैशबैक में चला गया हूं। कॉलेज के दिनों में ये गाना खूब सुना। सुनने की जायज़ वजह भी थी। ऐसे हालात भी उन दिनों कई बार बने। लगता था दुनिया तबाह हो गई। एक ही लड़की मेरे लिए बनी थी और वो भी नहीं मिली। मैं दुनिया में सबसे बदनसीब हूं। हे ईश्वर...तूने मेरे साथ ये क्या किया।

वहीं दिल तुड़वाने के अभ्यस्त सीनियर बताते थे कि तुम बदनसीब नहीं खुशनसीब हो। सोचो... दुनिया में तुम्हारे लिए एक ही लड़की बनी थी और 18 साल की उम्र में तुम उससे मिल भी लिए। हाऊ लकी। अगर यही लड़की किर्गीस्तान या रवांडा में रहती तो क्या करते? भगवान का शुक्रिया अदा करो। इस शैशव अवस्था में तुम अपने लिए बनी एकमात्र लड़की से मिले तो। हमें देखो....अभी तक सच्चा प्यार ढूंढ रहे हैं।

मैं समझ गया। प्यार में पड़ा आदमी जहां खुद को सबसे ज़्यादा गंभीरता से लेता है, वहीं बाकियों के लिए वो उस नमूने की तलाश ख़त्म करता है जिस पर वो हंस पाएं। रही बात घरवालों की सहानुभूति की....उसे हासिल करने के लिए ज़रूरी था कि उन्हें इस ‘हादसे’ की जानकारी होती....और जानकारी होने का मतलब था खुद के साथ उससे बड़ा हादसा होना। लिहाज़ा अकेले ही खुद पर तरस खाने के सिवा और कोई ऑप्शन नहीं था।

ऐसे में .......तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा.........टाइप गाने माहौल बनाते थे। मैं घंटों ऐसे गाने सुनता। खुद पर तरस खाता। लड़की को बेवफा मानता। दोस्तों को गद्दार, मां-बाप को रूढ़िवादी और खुद को बेचारा। जितने उम्दा बोल.. जितना दिलकश संगीत, उतनी हर पक्ष की छवि निखर कर आती थी। मतलब लड़की और बेवफा लगती और मैं और बेचारा।

बहरहाल, उम्र बढ़ती गई। दिल टूटता गया। उसी अनुपात में प्लेलिस्ट में गाने भी जुड़ते गए। मैं उस स्थिति में पहुंच गया जहां म्यूज़िक को मैंने अपना शौक बना लिया और दिल टूटने से जो शॉक मिला उसे अपना तजुर्बा।

इतने सालों बाद बीवी का हाथ थामे वही गाने फिर सुन रहा हूं। एक पल के लिए बीवी के चेहरे पर नज़र पड़ती है तो ग्लानि होती है। उन गानों को सुन आज भावुक होने पर शर्मिंदगी होती है। सोचता हूं कैसी विडम्बना है जो गाने दिल टूटने पर आसरा बने वही आज आसरा मिलने पर शर्मिंदा कर रहे हैं। इयरपीस निकालता हूं। सो जाता हूं।

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

सेवादार बनने की जंग

सेवा एक ऐसा भाव है जो करने में आनन्द देता है और करवाने में परमानन्द! बचपन से हमें बताया जाता है कि बड़ों की सेवा करो पुण्य मिलेगा। वाक्य संरचना पर गौर करें तो इसकी शुरूआत उपदेश से होती है ...बड़ों की सेवा करो.....मन में सवाल उठता है.....मगर क्यों ? क्या फायदा ? लेकिन..... वाक्य का अगला हिस्सा भरोसा देता है.....पुण्य मिलेगा। अब पूरा प्रस्ताव हमारे सामने कुछ इस तरह से है कि बड़ों की सेवा करो.....तो पुण्य मिलेगा।
हम भारतीयों से कुछ भी करवाना बड़ी टेढ़ी खीर है, जब तक कोई मुनाफा न हो तो कुछ नहीं करेंगे, भले ही वो सेवा ही क्यों न हो ? तमाम मां-बाप बच्चों को कहते हैं बेटे दादा जी के पांव दबा दो...पुण्य मिलेगा। पुण्य की दलील बच्चे को मना नहीं पाती और आख़िर में उसे पांच रूपये का लालच दे पांव दबवाने पड़ते हैं। बच्चे को पांच रूपये मिलते हैं और तो वो दुकान से कुरकुरे का पैकट खरीद लेता है।
बच्चे की कम अक्ल ये मोटी बात जान लेती है कि सेवा फायदे का सौदा है। अब वो सेवा की 'ताक' में रहता है। दादा जी पांव दबाऊं....हां बेटा ज़रूर...पांच रूपये तो खुल्ले हैं न....हां बेटा है....। अब सिलसिला निकल पड़ा है। दादा जी को टांग दबाने वाल होम मसाजर मिल गया है...बच्चे का डेली कुरकुरे का बंदोबस्त हो गया है, और मां-बाप ये सोच कर खुश हैं कि चंद रूपयों के लालच में अगर बच्चा अच्छा काम कर रहा है तो बुरा क्या ?
लेकिन अभी कहानी में ट्वीस्ट है.....ये एक ज्वांयट फैमिली है। बच्चे के कज़न को पता चल गया है कि दादा जी टांग दबाने के पांच रूपये देते हैं। एक दिन वो भी दादा जी के पास जाता है। कहता है दादा जी मैं भी आपकी टांगे दबाऊंगा। दादा जी का सीना ये सोच खुशी से चौड़ा हो जाता है कि दुनिया के सबसे संस्कारी बच्चों की डिलीवरी उन्हीं के घर हुई है।

मगर पहला बच्चा इससे काफी परेशान है। उसे बर्दाश्त नहीं कि उसके अलावा कोई और दादा जी की सेवा करे। सेवा में हिस्सेदारी उसे पसंद नहीं। ये तकलीफ एक्सक्लूसिवली वो खुद ही उठाना चाहता है। खैर....
इस कहानी को मौजूदा संदर्भ में देखें तो पता नहीं क्यों मुझे दादा की हालत लोकतंत्र जैसी और खुंदकी बच्चों की हरक़तें नेताओं जैसी लग रही है। जो चाहते हैं कि लोकतंत्र रूपी दादा की सेवा सिर्फ वही करें और बदले में मिलने वाला सारा मेवा एकमुश्त वही खा जाये। दिल्ली से राजस्थान और मध्यप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ जहां-जहां चुनाव होने है आप देखिए नेता जनता की सेवा करने के लिए मरे जा रहे हैं।
जिन्हें सेवा करने का मौका मिल रहा है वो धन्य हो रहे हैं और जो इस पुण्य काम के लिए नहीं चुने गए वो मरने-मारने पर उतारू हैं।
सेवा करने की तड़प और मेवा खाने की उमंग! वाकई कितनी सुंदर स्थिति है! राजनीति का साम्प्रदायिकरण, खेलों का राजनीतिकरण और अब पेश है एक नया मॉडल संस्कारों का व्यवसायीकरण! सिर्फ मुझे ही सेवा करनी है! आख़िर.... राजनीति एक धंधा ही तो है।