मंगलवार, 18 सितंबर 2012

राजनीतिक दलों में उठी एफडीआई की मांग!


रिटेल सेक्टर में एफडीआई की मंज़ूरी के बाद जिस तरह की राजनीति हो रही है उससे आम आदमी तंग आ चुका है। वो मांग कर रहा है कि क्यों न राजनीति में भी एफडीआई को मंज़ूरी दे दी जाए ताकि अमेरिका की डेमोक्रेट और इंग्लैंड की लेबर पार्टी भारत में आकर वैसे ही अपनी गतिविधियां संचालित कर पाएं, जैसे वॉल मार्ट या अन्य रिटेल कम्पनियां भविष्य में करेंगी। जो लोग राजनीति में एफडीआई की बात कर रहे हैं, उनके पास अपने तर्क हैं। इस बारे में मैंने प्रमुख राजनीतिक चिंतक दिलीप शूरवीर से बात की तो उनका कहना था, “देखिए, जब ये कहा जाता है कि भारत में राजनीति धंधा हो गई तो हमारा मतलब होता है कि राजनीति में हर आदमी पैसा बनाने आता है, और उसे किसी के नफे-नुकसान की कोई फिक्र नहीं होती। दूसरा, अगर आप राजनीतिक दलों पर नज़र डालें तो पाएंगे कि हर जगह बाप की विरासत को बेटा या बाकी रिश्तेदार संभाल रहे हैं। कांग्रेस से लेकर समाजवादी पार्टी और शिवसेना से लेकर डेएमके तक, हर पार्टी में यही नज़ारा है। इस रूप में ये पार्टियां राजनीतिक दल न होकर, राजनीति की दुकानें हैं और पार्टी अध्यक्ष का पद वो गल्ला है, जिसे बाप के बाद बेटा संभालता है। जैसे मिठाई की, जूस की, किराने की, नाई की दुकान होती है उसी तरह अलग-अलग पार्टियों के रूप में हिंदुस्तान में राजनीति की भी बहुत सारी दुकानें हैं। इसलिए मेरा मानना है कि अगर रीटेल सेक्टर में विदेशी कम्पनियों को आने की इजाज़त दी जा रही है, तो विदेशी राजनीतिक दलों को भी मौका मिलना चाहिए। वैसे भी एक ग्राहक के नाते हमारे लिए जितना ज़रूरी उचित कीमत और अच्छी क्वॉलिटी की चायपत्ती खरीदना है, उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरी है कि अपने लिए ईमानदार और सक्षम राजनेता चुनना। चाय का पैकेट तो फिर भी दस दिन में नया ला सकते हैं, मगर एक बार ख़राब नेता चुनने लिया तो पांच साल तक पछताना पड़ेगा।” इस पर जब मैंने उनसे पूछा कि मगर विदेशी जब भारत आएंगे तो क्या हमारी जनता उन्हें स्वीकार करेगी, वो तो हमारी भाषा तक नहीं जानते? तो श्री शूरवीर ने कहा, “देखिए पिछले डेढ़ दशक की हमारी राजनीति ने ये साबित किया है कि ‘विदेशी मूल’ हमारे लिए कोई मुद्दा नहीं है। रही बात भाषा की, तो जैसे हमारे बहुत-से नेता रोमन में लिखा भाषण हिंदी में पढ़ते हैं, उसी तरह विदेशी राजनेता भी पढ़ लेंगे।” “मगर क्या इस तरह का भाषण जनता को समझ आएगा और भाषण ही समझ नहीं आएगा तो फिर आम आदमी अपने नेता से संवाद कैसा करेगा?” श्री शूरवीर (हंसते हुए), “देखिए श्रीमानजी, गंभीर बात करते-करते अब आप मज़ाक पर उतर आए हैं। अगर हमारे नेता जनता से संवाद करते होते, तो राजनीति में एफडीआई की मांग उठती ही क्यों? वैसे भी बात कर आम आदमी नेताओं को अपनी हालत ही बताएगा और जो हालत उन्हें इतने सालों में देखकर समझ नहीं आ रही है, वो बात करने से भला ज़्यादा कैसे समझ आ जाएगी!” सशर्त समर्थन को तैयार बहरहाल, राजनीति में एफडीआई के बारे में जब हमने एक नेता जी से उनकी प्रतिक्रिया ली तो उनका कहना था कि कोई भी चीज़ एकतरफा नहीं होती। अगर विदेशी राजनीतिक दल भारत आना चाहतें हैं तो उनका स्वागत है, मगर हमारी पार्टियों को भी वहां न सिर्फ जाने की, बल्कि अपने तरीके से राजनीति करने की इजाज़त दी जाए! मसलन, अगर हमारी पार्टी की लॉस एंजेलिस में कोई सभा है तो हमें छूट मिले कि हम न्यूयार्क से ट्रालियों में लोगों को भरकर लॉस एंजेलिस ला सकें। चुनाव जीतने के बाद लंदन के हर गली-चौराहे पर अपनी मूर्तियां स्थापित कर सकें, यूरोपियन यूनियन की मज़बूती के लिए स्पेन से लेकर फ्रांस तक रथ यात्रा निकाल सकें, और तो और बारबाडोस और मालदीव में जब चाहें किसी भारतीय मूल के किसी दलित परिवार के घर धावा बोलकर खाना खा सकें। अब अगर वो अपने-अपने देशों में भारतीय नेताओं को ये सब गुल खिलाने देने के लिए तैयार हैं तो जब चाहें भारत आकर हमसे दो-दो हाथ कर सकते हैं!

सोमवार, 17 सितंबर 2012

सरकार जनता को भंग कर दे!


ये कतई ज़रूरी नहीं है कि जनता को ही योग्य सरकार न मिले। ऐसा भी हो सकता है कि सरकार को ही योग्य जनता न मिल पाए। और मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि हम भारतवासी जनता के रूप में सरकार के योग्य नहीं। तभी तो सरकार जब बिना बोली के टेलीकॉम स्पेक्ट्रम और कोयला ब्लॉक बेचती है तो हम कहते हैं लाखों करोड़ का घोटाला हुआ है। वो समझाती है कि इससे तुम्हें ही कॉल रेट सस्ती पड़ेगी, सस्ती बिजली मिलेगी, मगर हम नहीं मानते। हम शिकायत करते हैं कि ये राष्ट्रीय संसाधनों के साथ खिलवाड़ है, इसकी उचित कीमत वसूली जानी चाहिए थी। सरकार अच्छे बच्चे की तरह हमारी बात मान अगले दिन जब डीज़ल और रसोई गैस की कीमत बढ़ाती है तो हम चिल्लाते हैं, अरे, ये तुमने क्या किया। हमारे ‘ओवररिएक्शन’ को सरकार समझ नहीं पाती और पूछती है, “क्यों अब क्या हुआ, तुमने ही तो कहा था कि राष्ट्रीय महत्व की चीज़ों की उचित कीमत वसूलनी चाहिए।” आम आदमी कहता है,“वो तो ठीक है, मगर हमसे क्यों?” सरकार को चूंकि अगले चुनाव में आपसे फिर वोट मांगना है इसलिए वो इस ‘हमसे क्यों’ का जवाब नहीं देती। मगर मैं पूछता हूं कि अगर तेल कम्पनियों को रोज़ाना लाखों का घाटा हो रहा है तो ये घाटा आपसे नहीं, तो क्या मिस्र की जनता से वसूला जाएगा? हर वक्त ये मानते रहना कि सारे बलिदान हम ही कर रहे हैं, खुद को ज़बरदस्ती शहीद मानने वाली बात है। अगर आपको सालभर में सब्सिडी वाले सिर्फ छह सिलेंडर ही मिलेंगे तो उन नेताओं के बारे में भी सोचिए, जिनके ग्यारह-ग्यारह बच्चे हैं। उनके तो सारे सब्सिडाइज्‍ड सिलेंडर पहले महीने में ही ख़त्म हो जाएंगे। इसी तरह डीज़ल की बढ़ी कीमतों पर ऐसे लोग भी हायतौबा मचा रहे हैं जो सालों से पेट्रोल कार यूज़ कर रहे हैं। जिस दुख से वो वाकिफ नहीं, उसके बारे में चिल्लाकर भ्रम पैदा कर रहे हैं। इससे समाज में तनाव फैल सकता है। लिहाज़ा मेरा सरकार से अनुरोध है कि सख्त कार्रवाई करते हुए ऐसे लोगों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाए तभी वो सुधरेंगे। ब्रेताल्ड ब्रेस्ट की एक कविता की पंक्ति है, “सरकार इस जनता को भंग कर दे और अपने लिए नई जनता चुन ले”! यूपीए सरकार चाहे तो ब्रेताल्ड की ये सलाह मान सकती है। (दैनिक हिंदुस्तान, 17 सितम्बर)

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम है भ्रष्टाचार

दोस्तों, पहचान का इस बात से कोई ताल्लुक नहीं है कि वो अच्छी है या बुरी। ज्यादा मायने रखता है उस पहचान को बनाने के लिए की गई मेहनत। मसलन अगर कोई आदमी मोहल्ले का सबसे बड़ा गुंडा कहलाता है तो वो छह महीने पहले किसी को एक चपत लगाकर तो गुंडा बना नहीं। इसके लिए उसने सच्ची लगन और निष्ठा से महीनों तक न जाने कितनों की हड्डियां तोड़ी। उसी तरह कोई एक्टर एक हिट फिल्म देकर सुपरस्टार नहीं बनता, इसके लिए उसे दसियों सुपरहिट फिल्में देनी पड़ती है। मतलब, पहचान कोई ‘हादसा’ नहीं है, ये एक दिशा में किया गया ‘डेलीब्रेट एफर्ट’ हैं। इसलिए जब कोई इंसान या राष्ट्र अपनी पहचान नकारता है, तो मुझे समझ नहीं आता वो चाहता क्या है। सालों तक पहचान बनाने के लिए एक तो तुमने इतनी मेहनत की और जब दुनिया तुम्हें उस रूप में मान्यता देने लगी है, तो तुम नखरे कर रहे हो। और यही मेरी सबसे बड़ी आपत्ति है कि आज जब पूरी दुनिया भ्रष्ट राष्ट्र के रूप में भारत को मान्यता दे रही है, तो हम इतने नखरे क्यों कर रहे हैं। ऐसा करके हम दुनिया से तो अपने सम्बन्ध तो ख़राब कर ही रहे हैं, उस मेहनत का भी अपमान कर रहे हैं जो पिछले साठ सालों में हमारे हुक्मरानों ने की है। वक्त आ गया है कि दुनिया की इस मान्यता के लिए हम उसका शुक्रिया अदा करें और उसे बताएं कि कैसे भ्रष्टाचार हमारे यहां ‘सांस्कृतिक अभिव्यक्ति’ का सबसे बड़ा माध्यम है। उन्हें समझाए कि हमारी लाइफ में भ्रष्टाचार नहीं है बल्कि भ्रष्टाचार हमारे लिए ‘वे आफ लाइफ है’। और ये तमाम बातें निम्नलिखित बिंदुओं के ज़रिए समझाई जा सकती है। वस्तु से पहले व्यक्ति: ऐसे समय जब दुनिया, दुनिया न होकर एक बहुत बड़ा बाज़ार हो गई है और हर चीज़ बिकने के लिए उपलब्ध है, इसे हमारे संस्कार ही कहे जाएंगे कि आज भी हम हर बिक्री में वस्तु से पहले व्यक्ति को तरजीह देते हैं। तभी तो हम अरबों की कोयला खदानों को ‘जनता के फायदे’ के लिए बिना ऑक्शन के कौड़ियों के भाव बेच देते हैं और दो कोडी के खिलाड़ियों को आईपीएल के ऑक्शन में करोड़ों रूपये दिलवा देते हैं। ‘आम आदमी’ को काल रेट मंहगा नहीं पडे इसलिए टेलीकाम मंत्री स्पेक्ट्रम की बोली नहीं लगवाते और ऊर्जा मंत्री दलील देते हैं कि अगर खदानों की बोली लगाई जाती तो ‘आम आदमी’ को बिजली महंगी पड़ती। अब ध्यान देने लायक बात ये है कि जिसे दुनिया लाखों करोड़ का घोटाला कहते नहीं थक रही, उसके केंद्र में आम आदमी की चिंता है! अब आम आदमी की चिंता कर अगर हम कुछ नुकसान उठा रहे हैं तो ये हमारी मूर्खता नहीं, हमारे संस्कार हैं और जैसा कि सभी जानते हैं, व्यक्ति हो या राष्ट्र संस्कारवान होने की कुछ कीमत तो सभी को चुकानी ही पड़ती है! सामाजिक न्याय का अस्त्र: प्रमोशन में आरक्षण के लिए भले ही कुछ लोग राजनेताओं को कोस रहे हो मगर उन्हें ये भी देखना चाहिए राजनीति में भ्रष्टाचार के मौके सभी को देकर हमारे नेता अपने स्तर पर तो उसकी शुरूआत कर ही चुके हैं। तभी तो दलित होने के बावजूद ए राजा पौने दो लाख करोड़ का टेलीकाम स्पैक्ट्रम घोटाले कर देते हैं और आदिवासी होने के बावजूद मधु कोड़ा चार हज़ार करोड़ का मनी लांडरिंग घोटाला। पिछड़ी जाति के लालू यादव एक सौ पचास करोड़ का चारा घोटाला कर भैंसों का निवाली छीन लेते हैं और मुस्लिम होने के बावजूद हसन अली को 80,000 करोड़ की टैक्स चोरी करने में कोई दिक्कत नहीं आती। अगर इस देश में आप आदमी से पूछे कि क्या कभी उसे उसकी जाति या धर्म की वजह से कोई भेदभाव झेलना पड़ा तो हो सकता है वो आपको दसियों कारण बता दें मगर किसी घपलेबाज़ को शायद ही कभी उसकी जाति या धर्म की वजह से भ्रष्टाचार करने से किसी ने रोका हो। आर्थिक शक्ति का परिचायक: अगर आपके किसी पड़ोसी के यहां चोरी हो जाए और आपको पता लगे कि चोर उसके यहां से तीस तौले सोना और बीस लाख रुपये नगद ले उड़े तो आपको उसके लिए हमदर्दी बाद में होगी पहले ये ख्याल आएगा साले के पास इतना पैसा था क्या? ठीक इसी तरह हम सालों से खुद के आर्थिक महाशक्ति बनने का दावा कर रहे हैं मगर ट्रेन के सफर के दौरान विदेशी जब देखते हैं कि लाखों भारतीय सुबह सबुह अपनी सारी शक्ति खुले में फ्रेश होने में लगा रहे हैं तो उन दावे की पोल खुल जाती है। वो हमारी बातों पर यकीन नहीं करते। लेकिन जैसे ही वो अख़बारों में पढ़ते हैं कि भारत में पौने दो लाख करोड़ का स्पैक्ट्रम घोटाला हुआ, 1 लाख छियासी हज़ार करोड़ का कोयला घोटाला और 48 लाख करोड़ का थोरियम घोटाला तो उन्हें भी हमारे पैसा वाला होने पर यकीन करना पड़ता है। अंग्रेज़ लेखक चार्ल्स कोल्टन ने कहा था कि भ्रष्टाचार बर्फ के उस गोले की तरह है जो एक बार लुढ़कने लगता है तो फिर उसका आकार बढ़ता जाता है। 1948 में हुए 80 लाख के जीप घोटाले से लेकर 2012 में 1 लाख छियासी हज़ार करोड़ के कोयला आवंटन घोटाले तक भ्रष्टाचार रूपी ये बर्फ का गोला, गोला न रहकर बर्फ का पहाड़ बन चुका है। पूरे देश पर सफेद चादर बिछी है। ऐसा लगता है मानों मृत उम्मीदों को किसी ने कफन ओढ़ा दिया हो।