शनिवार, 31 जनवरी 2009

आत्महीन का गौरव (व्यंग्य)

गणतंत्र दिवस के मौके पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत को दिए बधाई संदेश में कहा कि अमेरिका भारत का सबसे अच्छा दोस्त है। अमेरिका इज़ इंडियाज़ बेस्ट फ्रेंड! तमाम अख़बारों ने इसे प्रमुखता से जगह दी। ज़्यादातर लोगों ने माना कि ओबामा की ये घोषणा छब्बीस जनवरी पर मिला सबसे शानदार तोहफा है। मगर आप फिर पढ़िए उस स्टेटमेंट को....अमेरिका भारत का सबसे अच्छा दोस्त है। उन्होंने ये कतई नहीं कहा कि अमेरिका का सबसे अच्छा दोस्त भारत है। ओबामा ने तो भारत को बताया है कि उसका सबसे अच्छा दोस्त कौन है!

जहां तक मेरी समझ है चौथी क्लास में पढ़ने वाले बच्चों को भी टीचर खड़ा कर ये पूछती है कि बताओ चिंटू तुम्हारा बेस्ट फ्रेंड कौन है....आठ साल का चिंटू धर्म संकट में पड़ जाता है...मोनू को बताया तो सोनू नाराज़ हो जाएगा...सोनू का नाम लिया तो.....टिंकू बुरा मान जाएगा। फिर भी....अपनी समझ से पोलिटिकली सही जवाब देने की कोशिश करता है। निर्णय लेने की अपनी क्षमता पर गर्व करता है। अब सवाल ये है कि भारत की स्थिति क्या चौथी क्लास में पढ़ने वाले उस आठ साल के चिंटू से भी गई-गुज़री है।

अमेरिका हमसे पूछ नहीं रहा....बता रहा है कि हम तुम्हारे सबसे बढ़िया दोस्त हैं। बावजूद इसके हम गौरवान्वित हैं। इतना फूल गए हैं कि कभी भी फट सकते हैं! स्कूल में पढ़ने वाली सबसे खूबसूरत लड़की अगर ये घोषणा कर दे कि मैं तुम्हारे साथ डेट पर जाऊंगी तो आप निहाल हो जाते हैं। बिना ये सोचे कि उसने मेरी मर्ज़ी तो जानी नहीं...उसने कैसे मान लिया उसकी ये घोषणा मेरा सौभाग्य है.... अभ्यस्त बताएंगे कि ये सब लड़की के सोचने का विषय ही नहीं है...... बकौल प्रधानमंत्री जब गोरे बुश के साथ पूरा हिंदुस्तान प्यार कर सकता है तो हमरंग सांवले ओबामा से तो करेगा ही।

हम एतराज़ करते हैं कि फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर में भारत की ग़लत छवि दिखाई है....मगर खुश होते हैं गोल्डन ग्लोब लेने वाले ए आर रहमान पहले भारतीय हैं। हम तड़पते हैं जब अमेरिका के मुंह से कश्मीर निकलता है.....हम गुज़ारिश करते हैं अमेरिका से कि वो पाकिस्तान पर दबाव बनाए...हम फक्र करते हैं जब हमारी फिल्म ऑस्कर के लिए नॉमिनेट होती है....और जब वो नहीं जीतती पुरस्कार तो कहते हैं वो हमारी संस्कृति को समझते नहीं.....सोनिया गांधी के विदेशी मूल से हम एडजस्ट नहीं कर पाते...और सगर्व बताते हैं कि ओबामा कि टीम में कितने लोग भारतीय मूल के हैं...बाज़ार में लोकल, घटिया का पर्याय हो गया है, इम्पोर्टिड शान का...आत्महीनता का मारा, मान्यता का मुंतज़िर शख्स ताली भी पीटता है तो नहीं जान पाता ये विषय गर्व का है या शर्म का!

बुधवार, 28 जनवरी 2009

हंगामा यूं है बरपा! (व्यंग्य)

ऐसे लोगों के प्रति मेरे मन में गहरी आस्था है जो विरोध ज़ाहिर करने के लिए सड़क पर आ जाते हैं। ट्रैफिक जाम करते हैं, तोड़फोड़ करते हैं। यहां तक की लड़कियों पर हाथ उठाने में भी पीछे नहीं रहते। मैं भी इनके जैसा बनना चाहता है। लेकिन 'मैनेज' नहीं कर पा रहा। अपने ब्लॉग के माध्यम से ऐसे लोगों से कुछ सवाल करना चाहता हूं, अगर जवाब दे पाएं तो भला होगा।

1. सरोजनी नगर के 'चिंगारी सिंह' की किसी मामले पर अगर भावना आहत हुई, रोहिणी में भी किसी 'फसाद कुमार' का दिल दुखा, शाहदरा में भी 'विस्फोट सम्भव' को उसी बात पर ठेस पहुंची, बावजूद इसके तुम लोग इतना दूर-दूर रहते हो,एक-दूसरे को ढूंढ कैसे लेते हो? अरे, तुम्हारा भी इस मामले पर दिल दुखा है, मेरा भी दुखा है आओ भाई चलो चल कर विरोध करें।
2. विरोध पर जाने के लिए तुम्हें क्या फौरन ऑफिस से छुट्टी मिल जाती है। बॉस कुछ पूछता नहीं ? पूछता है तो क्या कहते हो.. सर, फलां मामले पर विरोध ज़ाहिर करने जाना है.... प्लीज़.... ये ऐप्लिकेशन साइन कर दो। और बॉस कहता होगा, बहुत बढ़िया। चलो मैं भी चलता हूं। मेरा साला कुछ दिनों से पटना से आया हुआ है, उसे भी साथ ले लेता हूं। कल ही वो कह रहा था जीजा जी दिल्ली घुमाओ। विरोध का विरोध हो जाएगा। साला दिल्ली घूम लेगा। बीवी खुश हो जाएगी। और जंतर-मंतर पर धूप भी सेक लेंगे। स्साला! एक तो इस नौकरी में धूप देखने को नहीं मिलती।


3. प्रिय विरोध-प्रदर्शनों में जो पूतले तुम फूंकते हो क्या ये बाज़ार से रेडिमेड लेकर आते हो, या खुद तैयार करते हो ? बाज़ार से लेकर आते हो तो ठीक है। खुद तैयार करते हो तो सलाह दूंगा कि इस काम को सीरियसली लो। तुम्हारे काम में क्रिएटिविटी की भारी कमी है। मैंने अक्सर देखा जिस नेता का तुम पूतला फूंक रहे होते हो, उसकी शक़्ल असली नेता से कम, और तुम्हारी ही पार्टी के नेता से ज़्यादा मिलती है। और जनता में संदेश जाता है कि तुम फलां पार्टी के कार्यकर्ता न हो कर बागी हो और किसी बात पर अपने ही नेता से नाराज़ हो!
4. घर जाकर तुम उस तोड़फोड़ की ख़बर भी देखते हो जिसमें तुम शामिल थे। देश भर में मौजूद रिश्तेदारों को फोन कर क्या तुम बताते हो देखो.. फलां चैनल पर पीले रंग की शर्ट में पुलिस जिसको दौड़ा-दौड़ा कर पीट रही है वो मैं हूं।
और आख़िर में ईमानदारी से बताना क्या ये इतेफाक है कि किसी एक-आध मामले पर तुम्हारी भावना आहत होती है। या फिर तुम पेशेवर असंतुष्ट हो। ऐसे पेशेवर, जो पचास-सौ रूपये लेकर असंतुष्ट और उग्र रहता है ?

सोमवार, 19 जनवरी 2009

फिर न कहना सॉफ्ट नेशन ! (व्यंग्य)

साफ हो गया है कि आवाम चाहें तो भी सरकार और अदालतें उसे सुधरने नहीं देंती। बरसों से हमारे माथे पर एक कंलक लगा था। हमने सोचा.... बहुत हुआ... चलो अपने 'पुरुषार्थ' से इसे धोया जाये। ये राष्ट्रीय सम्मान का मामला था। कोई भला कैसे कह सकता है कि हम 'सॉफ्ट नेशन' हैं।

हर क्रांति की तरह इसकी शुरुआत भी हमने घर से की। पहले हमने बीवियों को पीटना शुरु किया। बीवियों को पीटने के दौरान हमने पाया कि सॉफ्ट नेशन के इल्ज़ाम की 'मुख्य अभियुक्त' तो वहीं है। बीवी तो एक सामाजिक सम्बन्ध का नाम है, असल में वो हमारे लिए 'मुफ़्त की नौकरानी' बनी रहती है। जो न रोटी बनाने का पैसा ले, न सफाई करने का। बहरहाल, शाम होते ही वो पति का इंतज़ार करती हैं कि वो आयें तो उन्हें खाना खिलाये। पति आता है साथ ही कई कुंठायें भी लाता है। काम की कुंठा है, तनख्वाह का रोना है, बॉस की ज़्यादती । क्या करें कोई रास्ता नहीं दिखता। चलो बीवी को पीटा जाये। वैसे भी उसे शरण दे कर जो एहसान उस पर किया है उसके लिए हज़ार पिटाइयां भी कम हैं।

बीवियां पिटती हैं और खुश रहती हैं। पिछले रोज़ एक बड़ी पत्रिका के सर्वे में ये बात सामने आयीं कि ज़्यादातर औरतों को पति की पिटाई से एतराज़ नहीं, इसे तो वो रिश्तों का हिस्सा मानती हैं।

अब आप बतायें ऐसी औरत जात का भला क्या किया जाये। जो खटती भी है, पिटती भी है और खुश रहती है। ऐसे में 'सॉफ्ट नेशन' के इल्ज़ाम की 'मुख्य अभियुक्त' उन्हें क्यों न कहा जाये। लिहाज़ा पुरुषों ने तय किया कि घर में औरत नाम का एक ही प्राणी काफी है। फिर हमने कन्या भ्रूण हत्याओं का दौर शुरु किया। न लड़की पैदा हो, न बड़ी हो, न किसी की बीवी बने, और न ही किसी के हाथ पिट कर देश को बदनाम करवाये!

लेकिन इस देश की सरकार और अदालतें न जानें क्या चाहती हैं। सरकार कहती है कि कन्या भ्रूण हत्या अपराध है। अदालत कहती है कि बीवी को पीटा.. तो जुर्माना होगा।

ठीक है नहीं पीटते। लेकिन सरकार हमारी मजबूरी भी तो समझे। आख़िर क्यों पैदा होने दो हम बच्चियों को? क्यों पढायें लिखायें? पढ़-लिख कर नौकरी भी करेंगी तो हमारे किस काम की? और फिर शादी पर दहेज का बंदोबस्त कौन करेगा? आख़िर इतने 'आक्रमक' तो हम हो नहीं पाये कि अपने स्वार्थों और सामाजिक रुढ़ियों से लड़ पायें। इतना आत्मबल तो हममें अभी नहीं आया कि अपनी कुंठाओं से ऊपर उठ पायें। तो आप ही बतायें एक रुढ़िवादी, कुंठित, दिशाहीन और दम्भी पुरुष न पीटे बीवियों को, न करें भ्रूण हत्याएं तो आख़िर क्या करे? हमें लड़ना होगा। लेकिन.......... हम तो सॉफ्ट नेशन हैं। क्या करें.... सरकार और अदालतें हमें आक्रमक भी तो नहीं होने देती!

(Archive)

शनिवार, 17 जनवरी 2009

प्रो-एक्टिव बधाईयां! (हास्य-व्यंग्य)

सोसाइटी के बाहर एक बैनर टंगा है। न जाने कब से टंगा है। मगर मेरी नज़र आज ही इस पर पड़ी है। लिखा है... "वार्ड नम्बर 43 के सभी निवासियों को स्थानीय पार्षद बंटी भईया की तरफ से क्रिसमस, नववर्ष, लोहड़ी, मकर संक्रात और गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।"

मैं सोच में पड़ जाता हूं। कैलेंडर के मुताबिक इनमें चार शुभ घड़ियां निकल चुकी हैं और घड़ी बताती है कि सिर्फ एक ही शुभ घड़ी (गंणतंत्र दिवस) बाकी हैं। ये जान मुझे अफसोस भी हुआ और खुशी भी। अफसोस ये कि जो शुभकामनाएं अब तक मिली थी उनमें बैनर वाली शुभकामना को मैंने नहीं जोड़ा और खुशी ये कि चलो... मैं ज़्यादा लेट नहीं हुआ। गणतंत्र दिवस पर बैनर देख ज़रूर कह दूंगा....आपको भी!

बंटी भईया का ये जेस्चर मुझे कई तरह से छू गया। ऐसे समय जब हम नेताओं की फिज़ूलखर्ची और साम्प्रदायिकता का ज़िक्र करते हैं ये बैनर मिसाल के तौर पर सामने आता है। सौ रूपये के बैनर में उन्होंने पांच त्यौहार निपटा दिए। प्रासंगिकता का ज़बरदस्त ख़्याल रखा गया है। सोचिए, अगर बैनर में सिर्फ क्रिसमस की मुबारकबाद दी जाती तो ये 26 दिसम्बर को ही रेलवेंस खो बैठता। फिर नववर्ष पर अलग से बैनर लगवाते और अगर प्रकाशोत्सव, लोहड़ी, मकरसंक्रात और गणतंत्र दिवस पर भी सिलसिला दोहराया जाता तो लोग कहते.. क्या फिज़ूल आदमी है। कोई काम नहीं बचा इसके पास! सच है.....काम तो उनके पास अब भी कुछ नहीं है, मगर तब लोग कह बैठते।

एक साथ पांच-छह त्यौहारों की मुबारकबाद देने से उनकी धर्मनिरपेक्ष छवि भी सामने आई है। पढ़ पा रहा हूं कि उन्होंने क्रिसमस, प्रकाशोत्सव और संक्रात की बधाई दी है। मुस्लिम पर्व की बधाई नहीं दी तो सिर्फ इसलिए कि वो इस रेंज में नहीं आया और 'बाद में' देना अच्छा नहीं लगता। वरना इसी में ईद की 'बिलेटिड' मुबारकबाद भी दी जा सकती थी।

आप लेख में ज़रा पीछे जा फिर से बधाई संदेश पढ़े तो जानेंगे कि ये बधाईयां 'स्थानीय पार्षद' की तरफ से आई है। ये उनका अदम्य साहस ही था कि इस 'हैसियत' में भी वो इतनी बधाईयां अफोर्ड कर गए। मामूली पार्षद होता तो इस विचार से ख़ौफ खा जाता। वो डरता कि इस दुस्साहस से आलाकमान नाराज़ न हो जाए और स्थानीय विधायक भी उसी पार्टी का है तो वो इसे 'सीधी चुनौती' न मान ले।

पार्षद की महानता का ये बखान जब मैंने अपने एक वॉर्डवासी से किया तो सहमत होते हुए उन्होंने कहा... ठीक है....मगर और अच्छा होता अगर बधाईयों की तरह ये समस्याओं को लेकर भी प्रो-एक्टिव होते....छोड़ो यार.....रिएक्टिव ही होते तो काफी था!

गुरुवार, 1 जनवरी 2009

शुभकामना नहीं...भरोसा चाहिए (हास्य-व्यंग्य)

संस्कार कहते हैं कि नये साल पर सबको शुभकामना दूं। तर्क पूछता है - ज़रुरत क्या है ? कौन मरा जा रहा है तुम्हारी शुभकामना के लिए। बहुत साल हो गये मुबारक हो, मुबारक हो का ढोंग करते। सब जान गये हैं कि ऐसा करने में सिवाय वक़्त की बर्बादी के कुछ नहीं होता। चेहरे पर बनावटी मुस्कान लाओ और फिर बिना किसी ख़ास उत्साह के बोल दो, भाईसाहब नया साल मुबारक हो। क्या बेहूदगी है।

देखो आईटीओ की रेड लाइट.....गर्दन घुमाओ..... चारों तरफ गाड़ियां ही गाड़ियां.... सुबह के पौने दस बजे हैं....दस बजे ऑफिस पहुंचना है....दस किलोमीटर का सफर बाकी है.....ये हाल पांच साल पहले भी था...बीते साल भी रहा और इस साल भी रहेगा। तुम ही बताओ बंधु..... ऐसे में क्या करेगी मेरी शुभकामना.....ज़्यादा से ज़्यादा वो तुम्हें दो-तीन गाड़ियों से आगे ले जायेगी। मगर फिर....फिर तुम अटक जाओगे।

आओ ज़रा रेलवे स्टेशन चलें.....देखो ....लगता है मानो पूरा दिल्ली आज शहर छोड़ कर जा रहा है। हिम्मत करो... आगे आओ... लाइन में लगो....मैं जानता हूं तुम सोच रहे हो कि जिस गति से लाइन आगे बढ़ रही है तुम्हारी आधी छुट्टियां यहीं बीत जाएंगी। ऐसा नहीं है प्रिय....हौसला रखो ऐसे वक़्त नये साल की मेरी शुभकामना तुम्हारे 'कुछ काम' आएगी। मगर ये उम्मीद मत करना ये शुभकामना तुम्हें एक झटके में आगे खिड़की के पास पहुंचा देगी। शुभकामना की भी अपनी सीमाएं होती है।

देखो प्रिय टीवी पर मैच आ रहा है....मोहम्मद कैफ बैटिंग के लिए तैयार ..उससे भी ज़्यादा आऊट होने के लिए। दूसरी तरफ ब्रेट ली ने रन अप लेना शुरु किया....वो भागता आ रहा....चेहरे पर गुस्सा...आखों में आग....वो अंपायर के पास पहुंचा और ......बस प्रिय बस...... टीवी बंद कर दो...इससे आगे तुम नहीं देख पाओगे। मैं जानता हूं तुम उच्च दर्जे के आशावादी हो। सोचते हो कि तुम्हारी शुभकामनाएं कैफ के साथ हैं, वो ज़रूर कुछ करेगा। मगर ये मत भूलो.... ब्रेट ली को भी उसके देश में बीस-पचास ने शुभकामनाएं दी होगी। लिहाज़ा, शुभकामना, शुभकामना से कट गयी। अब इनके बीच प्रतिभा का मुकाबला होगा और तुम जानते हो अगर ऐसा हुआ तो क्या होगा ?

चार महीनों में फिर गर्मी आ जायेगी और बिजली चली जायेगी। सुबह, दोपहर, शाम चार-चार घंटे बिजली का कट लगेगा। मगर तुम मत घबराना। चार घंटे के एक कट की ज़िम्मेदारी मेरी। उसे मेरी शुभकामनाएं सम्भाल लेंगी। शेष आठ घंटों के लिए एक अच्छा इनवर्टर ले लेना। कम्पनी का महंगा लगे, तो देसी खरीद लेना, और देसी वाला नकली न निकले इसके लिए मैं तुम्हें अलग से शुभकामनाएं दे देता हूं।

मगर फिर मैं कहूंगा ज़रूरत है कि तुम और मैं रियलिस्टिक हो जाएं। आख़िर एक अदद शुभकामना को तुम कहां-कहां एडजस्ट करोगे। ट्रैफिक से निकल गये और ट्रेन का टिकट ले भी पाये तो क्या गारंटी है कि तुम्हें जहां जाना है वहां पहुंच जाओगे ?

डियर, मैं कहता हूं हमारे देश के सर्कसों में मौत के कुएं में मोटरसाइकिल चलाने का खेल अब बंद कर देना चाहिये। इस देश का हर बंदा चाहे वो सड़क पर गाड़ी चला रहा हो, या किसी गाड़ी में सफर कर रहा हो.... वो एक तरीके से मौत के कुएं मे गाड़ी ही चला रहा है। सड़क किनारे पुलिस के पकड़ में आये हर शख़्स को गौर से देखो, वो रस्सी पर चलने का करतब ही दिखा रहा है। गिरता-पड़ता.....जैसे-तैसे खुद को सम्भाले है।

प्रिय, मेरी समझ से वक्त आ गया है कि हम शुभकामनाएं देना बंद कर दें। ख़ास तौर पर नये साल की शुभकामनओं पर तो सख़्त पाबंदी लगनी चाहिये। पुलिस को निर्देश दिया जाये कि कोई भी शुभकामना देता पाया जाये तो उसे पकड़ कर हवालात में बंद कर दो। बहुत हो गई ये बेवकूफी। नाओ इट हैज़ टू स्टॉप!

दोस्तों, शुरू से लेकर अब तक जो पूरा गीत मैंने गाया है उसका मतलब ये कतई न निकाला जाये कि मैं शुभकामनाओं की इफैक्टिवनेस पर सवाल उठा रहा हूं। मेरी आपत्ति व्यक्तिगत शुभकामनाओं को लेकर है। आम आदमी जिसके पल्ले कुछ नहीं है उसे विश करने से रोका जाये। अगर शुभकामनाएं दी ही जानी है तो मेरा मानना है कि वो विभागीय हो और वो शुभकामना के रुप में नहीं आश्वासन के रुप में होनी चाहिये।

मसलन....साल के शुरू में विद्युत विभाग जनसाधारण के लिए अख़बार में विज्ञापन के ज़रिये ये आश्वासन दे कि आप विश्वास कीजिये कि इस साल हम अपनी मूर्खता के चलते आपको परेशान नहीं होने देंगे। हम सरकार पर दबाव डालेंगे कि जिस वितरण केन्द्र के अंतर्गत जितने इलाके पड़े हर जगह के लिए कम से कम 10 घंटे बिजली सप्लाई ज़रूर की जाये !

जल बोर्ड भरोसा दे कि हम आपको पहले से बता देंगे कि कब-कब पानी आयेगा, कब-कब साफ आयेगा और कब-कब सीवर लाइन मिक्स आयेगा। ताकि आम आदमी को कोई कष्ट न हो।

हर थाने का पुलिस अधीक्षक साल के शुरू में महिलाओं और लड़कियों को साफ-साफ बता दे कि कृपया इस-इस तारीख़ को इतने बजे से इतने बजे के बीच फलां जगह से न गुज़रे क्योंकि उस दिन हमारे आदमी ड्यूटी पर नहीं होंगे और उनकी जगह हमारे दूसरे स्टाफ मैम्बर, जिनमें बलात्कारी और चोर-लुटेरे शामिल हैं, वहां तैनात रहेंगे।

बस दोस्तों, मेरी यही सबसे गुज़ारिश है कि समस्यों से केस लड़ते हर शख़्स के लिए दूसरे की शुभकामना एक कमज़ोर दलील से ज़्यादा कुछ नहीं। ज़रुरत है कि वो लोग हमें भरोसा दिलायें जो मायने रखते हैं। मुझे उम्मीद है इस साल वो हमें भरोसा ज़रूर दिलायेंगे....और इस बात पर मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

नीरज बधवार