शनिवार, 31 मई 2008

बहस की भसड़! (हास्य-व्यंग्य)

परिचयः-

मैं बहस हूं। लोग कहते हैं मेरा कोई फायदा नहीं, फिर भी मैं हर भारतीय की पहली पसंद हूं। पनवाड़ी की दुकान से पेज थ्री पार्टियों, और चाय के खोखे से कॉफी हाउस तक हर तरफ जमकर सुनी जा सकती हूं। इस तरह फ्रीक्वेंसी मे मैं एफएम स्टेशनों को भी पीछे छोड़ती हूं। महिलाएं, स्त्रीलिंग के तौर पर मेरे इस्तेमाल पर आपत्ति कर सकती हैं, मगर इसमें किसी का कोई दोष नहीं है।

हर इंसान के लिए मैं अलग मायने रखती हूं। बच्चों के लिए मैं ज़िद्द हूं, तो बेरोज़गारों के लिए कुंठा। औरतों के लिए दाम कम करवाने का ज़रिया हूं, तो बुद्धिजीवियों के लिए पहाड़ के साइज़ का नारियल, जिसमें सभी घंटों स्ट्रॉ ड़ाले मज़ा लेते हैं।

फायदे:-

सच कहूं तो मेरे इतने फायदे हैं कि हल्दी को भी हीनता होती है। मैं हूं तो संसद हैं, मैं हूं तो टीवी सीरियल हैं। मैं न होती तो संसद में सांसद क्या करते? टीवी सीरियलों में सास-बहुएं क्या करतीं? देश के बेरोज़गार क्या करते? और अहिंसा में विश्वास रखने वाले सरकारी बाबू, जो झक नहीं मारते, वो क्या करते ?

काम से बचने का भी मैं बेहतरीन तरीका हूं। कोई काम कहे, और आप न करना चाहें तो बहस करें। जैसे-तैसे ये साबित कर दें कि इस काम से कोई फायदा नहीं।

खुद ग़लती करके इल्ज़ाम सामने वाले पर लगा देने पर भी मैं छिड़ सकती हूं, इस तरह मैं 'सेल्फ डिफेंस' का भी पुख्ता बंदोबस्त हूं।

सावधानियां:-

-बॉस से किये जाने पर मैं नौकरी ले सकती हूं।
-गुस्सैल पिता से किये जाने पर घर से निकलवा सकती हूं।
-बीवी से किये जाने पर मैं जान भी ले सकती हूं।
-अधूरी जानकारी होने पर बेइज़्जती करवा सकती हूं।
-शौक बनने पर मैं आदत बन सकती हूं।
-आधे घंटे तक मेरा मतलब रहता है। फिर मैं रास्ता भटक जाती हूं । उसके बाद मैं ईगो का सवाल बन जाती हूं।
-हां, एक बात और, पूरे मज़े के लिए मुझे हमअक्ल लोगों के बीच ही किया जाये, वरना मैं बोरियत देनी लगती हूं।


आपत्तियां:-

न चाहते हुए भी अक्सर मुझे फिज़ूल के मुद्दों में ही घसीटा जाता है। खली की कुश्ती असली या नकली, मूर्ति ने दूध क्यों पीया? राखी सावंत ज़्यादा सैक्सी या मल्लिका शेरावत?

मैं उन बच्चों पर क्यों नहीं की जाती, जिन्हें पीने के लिए साफ पानी नहीं मिलता, बुनियादी शिक्षा नहीं मिलती, अच्छा खाना नहीं मिलता, मैं उन लोगों पर क्यों नहीं की जाती, जिनके लिए खुशी अब भी एक अफवाह है!
यही बात एक टीवी प्रोड्यूसर से पूछी तो कहने लगे, 'इन मुद्दों में विरोधाभास नहीं, कोई टकराहट नहीं तो बहस किस बात की? विरोध ही तुम्हारा यौवन है, उसी में तुम निखर कर आती हो और उसी में तुम्हारी टीआरपी भी आती है।'
मैं तिलमिलायी, 'आप लोग नेताओं को नैतिकता के मुद्दे पर कोड़े मारते हैं, आपकी खुद की कोई नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं? वो बोले-तुम अभी बच्ची हो, नहीं जानती। नैतिकता, जवाबदेही होने पर ही ज़िम्मेदारी बनती है। हमारी जवाबदेही नैतिकता के प्रति नहीं, टीआरपी के प्रति है। और डियर हम तो लोकतंत्र के चौथे खम्भे हैं। सभी सीसीटीवी कैमरे इसी खम्भे पर ही लगे हैं। इसी से हम सब पर नज़र रखते हैं। मैं बोली- 'लेकिन....' 'लेकिन-वेकिन छोड़ों दफा हो जाओ यहां से। बहस मत करो।‘

शुक्रवार, 30 मई 2008

न आपकी, न मेरी! (हास्य-व्यंग्य)

इतिहासकार इस बारे में कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है मोलभाव की शुरूआत भारत में आखिर कब हुई ? न किसी दरबारी कवि ने इस बारे में कोई संकेत दिया, न किसी शिलालेख में इसका सबूत मिला और न ही ऐसा किस्सा सुना कि किसी राजा ने दुकानदार को इसलिए हाथी के पैर के नीचे कुचलवा दिया क्योंकि उसने दो किलो कद्दू पांच रूपये फालतू में बेच दिये।

इतिहास मदद न करें फिर भी हर किसी ने बचपन से एक-एक रूपये के लिए 'जान दे भी सकता हूं और ले भी सकता हूं', टाइप बहसों के विहंगम दृश्य ज़रूर देखे हैं। इन बहसों से जु़ड़ी सबसे बड़ी खूबसूरती है दुकानदार और ग्राहक का ये विश्वास की सामने वाला मूर्ख है!

मोलभाव मेरे हिसाब से एक महान कला है जिसके लिए सबसे ज़रूरी गुण है बेशर्मी। दुकानदार के नाते सौ की चीज़ आठ सौ की बता रहे हैं तो एक पल के लिए भी माथे पर शिक़न नहीं आना चाहिये।

वहीं ग्राहक के नाते आपको दाम सुनते ही बिना कुछ बोले खड़े हो जाना है। दुकानदार प्रैशर में आ जायेगा। उसे लगने लगेगा कि उसने ज़्यादा होशियारी दिखा दी। गेंद अब उसके पाले में है। वो पूछेगा-क्या हुआ? आपको कुछ नहीं बोलना, वो फिर पूछेगा-बहनजी, कुछ तो बोलो। अब ऐसी जली बात करें कि उसकी आत्मा सड़ जाये। जली हुई बात सोचने के लिए दुकानदार में पति की सूरत देखें, बात खुद-ब-खुद सूझ जाएगी! इसी बहाने पति से ये शिकायत भी दूर हो जाएगी कि आपका इस्तेमाल क्या है ?

खैर, दुकानदार कहेगा बैठिये। आप बैठ जायें। हो सकता है इतनी देर में कोई लड़का ठंडा ले आए। मगर आप भूलकर भी इसे न पिएं। दस का ठंडा आपका तीन सौ का नुक़सान भी कर सकता है। दुकानदार के नाते कहिये बहनजी, हमारा उसूल नहीं कि दो सौ की चीज़ को आठ सौ का बता, पांच सौ में बेच दें, आप जानते हैं आप ऐसा ही करते हैं फिर भी एक्टिंग इतनी शानदार हो कि ऐल पचीनो भी शर्मा जाये!

ग्राहक के नाते बात काटते हुए बोले दो सौ लेने हैं। दुकानदार हैं तो लम्बी सांस खींच वही कहें, जो देश का हर दुकानदार दिन में तीन लाख तिहतर हज़ार बार चार सौ अड़सठ बार कहता है, वो ये कि 'इतनी तो हमें घर पर नहीं पड़ती'।

दुकानदार को टोके और कहिये फालतू बात मत करो। इसके बाद लम्बी बहस होगी। जिसमें बहस करने की आपकी मौलिक प्रतिभा के अलावा, आवाज़ का ऊंचा होना, दूसरी दुकान पर कम रेट का हवाला, पुराना ग्राहक होने की दुहाई, 'सारी कमाई हम से ही करोगे' जैसे घिसे हुए तर्क आप काम में ले सकते हैं। इसके बावजूद लगे दुकानदार नीचे नहीं आ रहा। तो आख़िर में मोलभाव विधा का ब्रह्मास्त्र 'न आपकी न मेरी' छोडें, पचास रूपये फालतू दें, चीज़ खरीदें और घर आ जायें।

बुधवार, 28 मई 2008

एक सलाम भारतीय पुलिस के नाम! (हास्य-व्यंग्य)

भारतीय पुलिस का इस दर्शन में गहरा यकीन है कि जो दिखता है वो होता नहीं। इसी विश्वास के चलते देश के हर चौराहे पर खड़े पुलिस वाले की कोशिश होती है कि कोई भी 'शरीफ दिखने वाला' आदमी बिना ज़लील हुए गुज़रने न पाए। इसके अलावा ऐसे और भी कई गुण हैं जिनमें भारतीय पुलिस की गहरी आस्था है।

क्वॉलिटी कंट्रोल- ऐसे वक़्त जब क्वॉलिटी कंट्रोल हर कम्पनी के लिए एक बड़ा मसला है, पुलिस महकमा एक अलग पहचान रखता है। आप पायेंगे कि मेरठ का पुलिस वाला जिस कर्कशता का धनी है, जिन गालियों का ज्ञाता है, जिस बेहूदगी का सिकंदर है, इंदौर का पुलिसवाला भी उन तमाम सदगुणों का आत्मसात किये है। इंसानियत के बुनियादी नियमों से जो दूरी आगरा पुलिस की है, उससे ठीक वैसा ही परहेज़ अमृतसर पुलिस को भी है। जिस पल कोई नई गाली बरेली पुलिस लांच करती है, ठीक उसी क्षण मुरादाबाद पुलिस भी अपना सॉफ़्टवेयर अपडेट कर लेती है। बदतमीज़ी के जितने दोहे दिल्ली पुलिस को याद हैं, उतने ही मुम्बई पुलिस ने भी कंठस्थ कर रखे हैं।

समान व्यवहार- हो सकता है आप अपने ऑफिस में सर हों, घर में बड़े भाई या फिर मौहल्ले में नेक आदमी। लेकिन, पुलिसवाले ऐसे किसी वर्गीकरण में यकीन नहीं करते। बाईक साइड में रोकने का इशारा कर पुलिसवाला कहता है चल बे, कागज़ दिखा। देश के तमाम डॉक्टर, इंजीनियर, कवि, लेखक, दादा, नाना, फूफा, चाचा, मामू पुलिस वालों के लिए 'चल बे' हैं। और अगर आपने इस 'चल बे' का विरोध किया तो वो 'अबे' पर आ जायेगा और पायेंगे कि महज़ पांच मिनट में आपका दूसरा नामाकरण हो गया!

महिला सम्मान- ट्रेनिंग के वक्त पुलिस वालों को हिदायत दी जाती है कि महिलाओं को विशेष सम्मान दें और जैसा कि नियम है सम्मान ज़रूरत से ज़्यादा होने पर श्रद्धा में बदल जाता है, श्रद्धा प्यार में तब्दील हो जाती है और प्यार अपने ही हाथों मजबूर हो अभिव्यक्ति तलाश्ता है। इसी कशमकश में बेचारे कुछ ऐसा कह बैठते हैं जिसे सभ्य समाज 'टोंट' कहता है। मेरी गुज़ारिश है आप टोंट का बुरा न मानें। उन बेचारों में भाषा के जो संस्कार हैं, उसमें प्यार अक्सर घटिया अभिव्यक्ति के हाथों शहीद होता रहा है!

पर्या्वरण प्रेम:-पुलिस वालों का पर्यावरण प्रेम भी उन्हें ज़्यादा मामले दर्ज करने से रोकता है। उन्हें लगता हैं जितनी ज़्यादा शिकायते लिखेंगे, उतने ही कागज़ बरबाद होंगे, उतनी ही नई पेड़ों की कटाई होगी और उतना ही पर्यावरण असंतुलन पैदा होगा। ऐसे में किसी घटिया शिकायत को न लिख अगर वो पर्यावरण बचाने में महान योगदान दे सकते हैं तो बुरा क्या है!

गुरुवार, 22 मई 2008

ब्लॉग बने जंगी जहाज!

एक महीने के अंदर ही अमिताभ बच्चन ने हमें बताया कि कैसे ब्लॉगिंग दुश्मनों को निपटाने का एक कारगार माध्यम हो सकता है। अपने ब्लॉग पर पहले उन्होंने शत्रुघ्न सिन्हा को हड़काया। केबीसी के आंकड़े दे शाहरुख को पटखनी दी। फिर ज़मीन मामले पर सलीम खान को लताड़ा और सिनेमा में सिगरेट के प्रतिबंध पर रामदौस की भी ख़बर ली। मतलब कंटेंट के हिसाब से ये ब्लॉग कम और जंगी जहाज ज्यादा लग रहा था।


अमिताभ के ब्लॉग पर शोध जारी ही था कि इस बीच आमिर खान ने अपने ब्लॉग पर डिटेल दी कि उनके कुत्ते का नाम शाहरुख कैसे पड़ा? सुभानल्लाह!!!!! उनके चाहने वाले बाकी सब तो जान ही चुके थे। अपने सत्रह अफेयर और दो शादियों के बारे में वो सब बता चुके। यही एक सनसनीखेज ख़बर बाकी रह गई थी और इक सुबह उन्हें लगा चलो... अपने फैन्स का ज्ञानवर्धन किया जाए!


वाकई, बदनीयत तो उस चलताऊ औरत की तरह होती है जिसे आप सौ दरवाज़ों में बंद रखें फिर भी वो बाहर झांक ही लेती है। सब को दिख ही जाती है!


खैर, मुझे आमिर-अमिताभ से कोई शिकायत नहीं है। मेरा तो मानना है इसी तर्ज पर तमाम बड़े लोगों को अपने झगड़े निपटाने और सफाई देने के लिए ब्लॉग खोल लेने चाहिए।


इसी क्रम में सबसे पहले अर्जुन सिंह ब्लॉग बनांए। नाम रखें-‘छूटे तीर’ डॉट ब्लॉगस्पॉट। पहली पोस्ट में वो बिना लाग लपेट माफी मांगे। गांधी-नेहरु परिवार के प्रति वफादारी का ट्रैक रिकॉर्ड बतांए। हो सके तो इस रिकॉर्ड को फिर बजाएं। चापलूसी से जुड़ी महत्ववपूर्ण घटनाओं और तिथियों का ज़िक्र करें। चमचागिरी के चार दशकों के अपने कार्यकाल को ग्राफिक्स के माध्यम से समझाएं और पार्टी से पूछें कि जब चापलूसी ने इतने सालों में मुझे इतना कुछ दिया है तो उम्र के इस पड़ाव पर मैं ट्राइड एंड टेस्टिड फार्मूला क्यों त्याग दूं?


इसके अलावा के पी एस गिल भी झट से एक ब्लॉग बना लें। अपने चाहने वालों को (जिस भी ग्रह पर वो हों) बताएं कैसे इस ज़ालिम दुनिया ने उनके साथ ज़्यादती की। ‘बाकी रह गए’ अपने कामों का ज़िक्र करें। (अपने अलावा) उन लोगों के नाम बताएं जिनके चलते भारतीय हॉकी का बेडागर्क हो गया है। उस पर्वत की भौगोलिक स्थिति बताएं जहां से वो भारतीय हॉकी के लिए संजीवनी लाने वाले थे मगर उनकी फ्लाइट कैंसिल करवा दी गई।

उस क्षेत्र-विशेष का नाम भी बताएं जहां अब वो अपनी सेवाएं देना चाहते हैं!


इनके अलावा ऐसे तमाम बड़े लोग जिन्हें लगता है ब्लॉगिंग बेलगाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या रचनात्मकता का माध्यम नहीं, बल्कि पर्सनल स्कोर सैटल करने का ज़रिया है वो जल्द से जल्द ब्लॉग बना लें। ये मंच उनके चरण-कमलों को तरस रहा है!

शुक्रवार, 16 मई 2008

मौसम की साजिश! (हास्य-व्यंग्य)

अध्यात्म बताता है कि जीवन को समझना है तो प्रकृति से जुड़ो। मैं जुड़ता हूं। ज़रुरी काम से बाहर जाना है, सोचता हूं जाऊं। मगर भीतर की प्रकृति हाथ पकड़ कर बिठा लेती है। क्या ज़रुरत पड़ी है आज जाने की? ये काम तो कल भी किया जा सकता है। बाहर देख कितनी धूप है। ये भला कोई मौसम है काम करने का। घर बैठ, तरबूज़ काट, कूलर चला, सीरियल देख। मगर बाहर मत जा। लू लग जाएगी।

भीतर और बाहर की प्रकृति फोर्स कर रही है और मैं फोर्स होने लिए तैयार बैठा हूं। धूप की दलील काम न करने की ग्लानि से बचाती है। आख़िरकार मौसम और मैं समझौता कर काम टाल देते हैं। काम टालने में मौसम ने हमेशा मदद की है। गर्मी में लू का डर पांव पकड़ घर बिठा देता है। सर्दी में शीतलहर के सम्मान में रजाई में पड़ा मूंगफली खाता हूं। बारिश में सहज ही मुंह से निकल जाता है-ये भी कोई टाइम है काम करने का? ये वक़्त तो पकौड़े खाने और अदरक वाली चाय पीने का है!

मौसमी चक्र बताता है कि आलसियों के लिए ईश्वर के मन में सॉफ्ट कॉर्नर है। हर मौसम में पड़े रहने की ‘असीम सम्भावनाओं’ के लिए मैं ईश्वर का शुक्रिया अदा करता हूं। जब अख़बार और चैनल चिल्ला-चिल्ला कर बता रहे हैं कि लू से मरने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है, तो क्या ज़रुरत पड़ी है बाहर निकल इस आंकड़े में इज़ाफा करने की। आख़िर मीडिया की विश्वसनीयता जांचने के लिए मैं अपनी जान तो दांव पर नहीं लगा सकता। वैसे भी बुज़ुर्ग कह गये हैं कि किसी के जाने से कोई काम नहीं रुकता। सही बात है। जाने से नहीं रुकता, तो न जाने से भी नहीं रुकता होगा। तो फिर पड़े रहो। वैसे भी ये अहसास कि जो काम मुझे करना है बेहद ज़रुरी है, इंसान में दम्भ पैदा करता है।

प्रकृति चूंकि सैलफोन यूज़ नहीं करती, इसलिए कोई एसएमएस भी नहीं आएगा कि मौसम ठीक नहीं, बाहर मत निकलो। आपको अपने कॉमन सैंस (अगर है तो) का इस्तेमाल कर ही ये तय करना है कि मुझे बाहर नहीं जाना। हो सकता है लू से बचने के लिए बीवी प्याज़ साथ ले जाने का आइडिया दे, मगर आपको नहीं मानना। सोचिए ज़रा, ऑफिस में किसी को पता चले कि आप गर्मी से बचने के लिए जेब में प्याज लेकर आएं हैं तो क्या जवाब देंगे? हो सकता है कि कोई मान बैठे कि इस मंहगाई में आपने ये प्याज रेहड़ी से चुराया हो!

तो सवाल ये है कि क्या प्रकृति हमें अकर्मण्य बनाना चाहती है? शायद हां। हमारे ‘करने’ ने उसका जो नुकसान किया है, इसके बाद शायद वो यही चाहती हो! ये जानलेवा गर्मी, बेइंतहा सर्दी और ज़बरदस्त बाढ़। हमारा भी तो कुछ क्रेडिट है इसमें!

गुरुवार, 15 मई 2008

सिफारिश की सुरंग! (हास्य-व्यंग्य)

भलाई करने के मामले में 'सिफारिश' ने 'दुआ' को कहीं पीछे छोड़ दिया है। एक वक़्त था जब आदमी करीबी लोगों की भलाई के लिए दुआ मांगता था। अब यही लोग ज़्यादा 'डिमांडिंग' हो गये हैं। उनका मानना है कि दुआ तो ज़बानी जमा खर्च है, पेपर वर्क है, इसका ज़मीनी हक़ीकत से कोई सरोकार नहीं। कुछ करना ही है तो सिफारिश करो।

नाक़ाबिल लोगों के लिए सिफारिश ऐसी सुरंग है जिससे वो कहीं भी घुस जाते हैं। सिफारिशी टट्टू अक्सर पिछले दरवाज़े से एंट्री करते हैं, उन्हें डर रहता है कि मेन गेट से आये तो कोई काबलियत का सर्टिफिकेट न मांग ले।

सिफारिशी मोम के बने होते हैं। दबाव की आंच में वो जल्दी पिघल जाते हैं। ऑफिस में मौजूद उनके माई-बाप उनकी इस 'दक्षता' का ख़्याल रखते हैं। लिहाज़ा उन्हें ऐसे कामों में लगाया जाता है जिसके लिए न्यूनतम बुद्धि का आवश्यकता होती है। सिफारिशी भी अपने माई बापों का एहसान नहीं भूलते और उनके लिए चुगलखोरी का काम करते हैं। एक बॉस के लगाये दो सिफारिशी टट्टुओं में बेहतर चुगलखोर बनने की होड़ रहती है। सिफारिशियों द्वारा की गई चुगली की 'क्वालिटी' ही उनकी नौकरी को 'जस्टीफाई' करती है।

सिफारिशी जब भी सिर के ऊपर देखता है तो उसे आसमान नहीं, एक लटकती हुई तलवार दिखाई देती है। सिफारिशी जानता है कि हर सिफारिश का वैलीडिटी पीरियड होता है। सत्ता परिवर्तन के बाद चलने वाले सफाई अभियान में पहली झाडू सिफारिशी पर ही लगती है। उसका यही डर उसे दूरदर्शी बनाता है। वो सम्भावित बॉसेज़ पर नज़र रखता है और होली- दीवाली उन्हें मैसेज भेज विश करना नहीं भूलता। अपने बॉस के इधर-उधर होने पर वो सम्भावित बॉसेज़ के साथ चाय पीता है और बातों-बातों में कह डालता है कि सर, इस कम्पनी में जो जगह आप डिज़र्व करते हैं वो आपको मिली नहीं और यही वो वक़्त होता है जब सिफारिशी बिना यूनिवर्सिटी गये कूटनीति में पोस्ट ग्रेजुएशन कर लेता है!

सिफारिशी गजब के व्यवहारकुशल भी होते हैं। ज़बान के बेहद मीठे। इतने मीठे की लगातार आधे घंटे तक उनकी बात सुनने पर डायबिटीज़ हो सकती है। काबिल लोगों से वो बेवजह नहीं भिड़ते। जानते हैं कि अगर कभी काम करने की नौबत आयी तो यही काबिल उनके काम आयेंगे।

इधर वक्त के साथ सिफारिशी को लेकर लोगों के नज़रिये में बदलाव आया है। पहले लोग सिफारिशियों की भर्ती को भ्रष्टाचार के तौर पर देखते थे, फिर मजबूरी मानने लगे और अब सभी ने इसे हक़ीकत मान लिया है। लेकिन इस हक़ीकत के चलते हालात बिगड़ने लगे हैं।

कम्पनियां सिफारिशी टट्टुओं की भर्ती को लेकर नियमों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन कर रही हैं। कई कम्पनियों में तो सिफारशी मैजोरटी में आ गये हैं। वक़्त आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में हस्तक्षेप करे और साफ निर्देश दे कि किसी भी कम्पनी में 50 फीसदी से ज़्यादा सिफारिशी भर्ती न किया जाये। आख़िर ऐसे लोग जिनके पास ‘प्रतिभा’ के नाम पर सिर्फ काबिलियत हैं उनका भी तो कुछ कोटा फिक्स होना चाहिए!

मंगलवार, 13 मई 2008

लौट के फिर न आने वाले! (हास्य-व्यंग्य)

नाम-खाऊमल पचाऊ लाल, कद-पांच फीट पौने पांच इंच, मुंह-काला, दांत-काले, कान पर हल्के बाल, माथे पर चाकू का निशान, चेहरे पर होशियारीमिश्रित स्थायी मुस्कान!

ये जनाब पिछले ढाई साल से चुनाव जीतने के बाद से गायब हैं। आखिरी बार टीवी पर लोकसभा की कार्यवाही के दौरान एक मंत्री की पिछली सीट पर ऊंघते पाए गए थे। उसके बाद से इनका कोई पता नहीं।

इलाके के लोगों ने इन्हें ढूंढनें की हरसम्भव कोशिश की। बस अड्डे, रेलवे स्टेशन पर पोस्टर चिपकाये । थाने में गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाई। गूगल में सर्च मारी .....मगर कोई फायदा नहीं हुआ।

फिर किसी ने सुझाव दिया कि अखबार में इनके नाम अपील की जाये। बात सब को जंची। 'जो बोला वो फंसा' के भारतीय सिद्धांत के चलते अपील का टैक्स्ट लिखने का ज़िम्मा सुझावदाता को ही दिया गया। इसके बाद खुले ख़त के रुप में जो अपील अख़बारों में छपी, वो इस तरह थी.....मुलाहिज़ा फरमाएं।

सांसद साहब,
ऐसा तो नहीं कहूंगा कि आपके भागने की हमें उम्मीद नहीं थी। मगर बेवफाई के सारे रिकार्ड आप इतनी जल्दी तोड़ देंगे ये हमने नहीं सोचा था। मुझे आज भी याद है 3 मई 2004 की वो गर्म दोपहर, जब भीड़ भरी सभा में आपने दावा किया था कि बस एक बार, बस एक बार मुझे चुन लें, मैं आपके इलाके का नक्शा बदल दूंगा। मगर..... सारा शहर गवाह है इन चार सालों में सिवाय आपके मकान के नक्शे के पूरे शहर में कुछ नहीं बदला। पहले वो एक मंज़िला था अब तीन मंज़िला हो गया।

सड़कों के लिए आपने कहा था कि इसे फिल्मी हीरोइन के गालों की तरह चिकना बना देंगे (इस फूहड़ तुलना पर तब खूब तालियां भी बजी थी।) लेकिन यकीन मानिये ये अब भी वैसी ही हैं जैसी कभी मौर्यकाल में रही होंगी। 18 घंटे बिजली का भी आप वायदा कर गये थे। लेकिन शायद विद्युत विभाग को बताना भूल गये कि 18 घंटे देनी है या काटनी!

पानी का भी कुछ ऐसा ही हाल है। वो नालियों में तो खूब है लेकिन टंकियों में कम। शहर में जब भी किसी का नहाने का दिल करता है तो वो शर्म से पानी-पानी हो जाता है और सोचता है नहा लिया।

खैर....आपको हमने ये सोचकर चुना था कि जब अपराधी ही सत्ता सम्भालेंगे... तो अपराध कौन करेगा। कुछ लोगों ने दलील भी दी कि स्कूलों में इस तर्क के चलते शरारती बच्चों को मॉनिटर बनाया जाता है। लेकिन हम भूल गये कि स्कूल की पाठशाला और राजनीति की पाठशाला में क्या फर्क है ? आप निश्चिंत रहे आज आप भले ही यहां नहीं है लेकिन, आपके गुर्गे आपका अपराधखाना उसी दक्षता से सम्भाले हैं, जिस दक्षता से संगीतघरानों में बेटे, बाप से ली दीक्षा को आत्मसात कर उसे दुनिया तक पहुंचाते हैं !

और अंत में आपसे पैर जोड़ कर गुज़ारिश है कि आप कहीं भी हों कुछ दिनों के लिए यहां ज़रुर आयें, हमारी धमनियों से रक्त निकल कर आपके होंठ छूने को बेकरार है। आखिर हर वोटर को अपने नेता से इतनी उम्मीद तो रहती है कि वो चुने जाने के बाद मुसलसल उसका खून चूसता रहे।

शेष कुशल है।

दर्शनेच्छु
आपका भावी वोटर !

सोमवार, 12 मई 2008

नींद क्यूं रात भर नहीं आती ! (व्यंग्य)


भारतीय दर्शन बताता है कि देह मिथ्या है और आत्मा अमर। यूं तो भारतीय दर्शन और भी कई बातें कहता है लेकिन इस देश में मुझे एक यही बात सच होती दिखती है और इसे सच साबित करने में सरकार पूरी शिद्दत से लगी है।

सच...इस शरीर के मायने क्या है ? सांसरिक जीवन में पड़ा क्या है ? और जब मौत ही आखिरी सच्चाई है तो फिर इधर-उधर भटकने की ज़रूरत क्या है ? तो तैयार रहें मरने के लिए। इस मामले में विकल्पों की कमी नहीं है। हर वक्त 'कुछ नये की मांग' करने वाली जनता कम से कम 'मरने के तरीकों' के मामले में कोई शिकायत नहीं कर सकती।

आप किसान हैं तो ये आपको तय करना है कि तिल-तिल के मरें या कर्ज के बोझ से परेशान हो कर आत्महत्या कर लें। आदिवासी हैं तो यहां भी आपकी मर्ज़ी है नक्सलवाद का रास्ता चुन पुलिस के हाथों जान गंवायें, या फिर सलवा जुडूम का हिस्सा बन नक्सलियों के हाथों शहीद हों।

इसके अलावा मौत को लेकर कई सरप्राइज पैकेज भी हैं। मसलन, मेलों में गाड़ियों में कहीं भी आतंकी हमले का शिकार हो सकते हैं, फुटपाथ पर सोयें हैं तो गाड़ी के नीचे आ सकते हैं, और अगर दिल्लावासी हैं तो कहीं भी, कभी भी, कैसे भी ब्लूलाइन बसों की चपेट में आ इस भवसागर से पार पा सकते हैं।

जिंदगी और मौत के इस पूरे भारतीय दर्शन में सरकारों ने जो क्लासीफिकेशन किया है वो भी गजब का हैं। जैसे सरकार मानती है इंसान के लिए इस जीवन के कोई मायने नहीं है लेकिन चूहों के लिए है। तभी तो भारत शायद पूरी दुनिया का इकलौता देश होगा जहां इंसान भूखा मर जाता है और चूहे गोदामों में गेंहूं का मज़ा लूटते हैं! इंसानों और पशुओं के बीच आध्यात्मिक नज़रिये के इस भेद की मिसाल शायद ही कहीं और देखने को मिले!

मौत की सुविधा देने के पीछे सरकार की एक और मंशा पीढ़ी दर पीढ़ी अनुभवों को साम्यता देना है। मसलन, अगर आज से तीस साल पहले आपके परदादा बिहार के किसी गांव में हर साल आयी बाढ़ का शिकार हुए, फिर पन्द्रह साल पहले आपके पिताजी भी उसी गांव में आयी सालाना बाढ़ की बलि चढ़े, तो आप निराश न हो सरकारों ने अपनी स्वाभाविक अकर्मण्यता से इस बात का पूरा प्रबंध किया है कि आप बाढ़ को दुर्घटना न मान घटना मानें, और इस घटना में होने वाली मौतों को दुर्भाग्य न मान जीवन की आखिरी सच्चाई मानें।

वैसे भी ग़ालिब ने कहा है मौत का एक दिन मुअय्यन (तय) है, नींद क्यूं रात भर नहीं आती। मेरा भी यही मानना है जब मरना ही है और उसका दिन भी तय है तो क्यों मौत की वजह पर बहस की जाए, अपनी नींद ख़राब की जाये ।

शुक्रवार, 9 मई 2008

इस शहर में हम भी भेड़ें हैं? (हास्य-व्यंग्य)

ब्लूलाइन में घुसते ही मेरी नज़र जिस शख़्स पर पड़ी है, बस में उसका डेज़ीग्नेशन कन्डक्टर का है। पहली नज़र में जान गया हूं कि सफाई से इसका विद्रोह है और नहाने के सामन्ती विचार में इसकी कोई आस्था नहीं । सुर्ख होंठ उसके तम्बाकू प्रेम की गवाही दे रहे हैं और बढ़े हुए नाखून भ्रम पैदा करते हैं कि शायद इसे ‘नेलकटर’ के अविष्कार की जानकारी नहीं है।

इससे पहले कि मैं सीधा होऊं वो चिल्लाता है- टिकट। मुझे गुस्सा आता है। भइया, तमीज़ से तो बोलो। वो ऊखड़ता है, 'तमीज़ से ही तो बोल रहा हूं।' अब मुझे गुस्सा नहीं, तरस आता है। किसी ने तमीज़ के बारे में शायद उसे 'मिसइन्फार्म' किया है !

टिकिट ले बस में मैं अपने अक्षांश-देशांतर समझने की कोशिश कर ही रहा हूं कि वो फिर तमीज़ से चिल्लाता है-आगे चलो। मैं हैरान हूं ये कौन सा 'आगे' है, जो मुझे दिखाई नहीं दे रहा। आगे तो एक जनाब की गर्दन नज़र आ रही है। इतने में पीछे से ज़ोर का धक्का लगता है। मैं आंख बंद कर खुद को धक्के के हवाले कर देता हूं। आंख खोलता हूं तो वही गर्दन मेरे सामने है। लेकिन मुझे यकीन है कि मैं आगे आ गया हूं, क्योंकि कंडक्टर के चिल्लाने की आवाज़ अब पीछे से आ रही है!

कुछ ही पल में मैं जान जाता हूं कि सांस आती नहीं लेना पड़ती है....मैं सांस लेने की कोशिश कर रहा हूं मगर वो नहीं आ रही। शायद मुझे आक्सीज़न सिलेंडर घर से लाना चाहिये था। लेकिन यहां तो मेरे खड़े होने की जगह नहीं, सिलेंडर कहां रखता।

मैं देखता हूं लेडीज़ सीटों पर कई जेन्ट्स बैठे हैं। महिलाएं कहती हैं कि भाईसाहब खड़े हो जाओ, मगर वो खड़े नहीं होते। उन्होंने जान लिया है कि बेशर्मी से जीने के कई फायदे हैं। वैसे भी 'भाईसाहब' कहने के बाद तो वो बिल्कुल खड़े नहीं होंगे। खैर.. कुछ पुरुष महिलाओं से भी सटे खड़े हैं, और मन ही मन 'भारी भीड़' को धन्यवाद दे रहे हैं!

इस बीच ड्राइवर अचानक ब्रेक लगाता है। मेरा हाथ किसी के सिर पर लगता है। वो चिल्लाता है। ढंग से खड़े रहो। आशावाद की इस विकराल अपील से मैं सहम जाता हूं। पचास सीटों वाली बस में ढाई सौ लोग भरे हैं और ये जनाब मुझसे 'ढंग' की उम्मीद कर रहे हैं। मैं चिल्लाता हूं - जनाब आपको किसी ने गलत सूचना दी है। मैं सर्कस में रस्सी पर चलने का करतब नहीं दिखाता। वो चुप हो जाता है। बाकी के सफर में उसे इस बात की रीज़निंग करनी है।

बस की इस बेबसी में मेरे अंदर अध्यात्म जागने लगा है। सोच रहा हूं पुनर्जन्म की थ्योरी सही है। हो न हो पिछले जन्म के कुकर्मों की सज़ा इंसान को अगले जन्म में ज़रुर भुगतनी पड़ती है। लेकिन तभी लगता है कि इस धारणा का उजला पक्ष भी है। अगर मैं इस जन्म में भी पाप कर रहा हूं तो मुझे घबराना नहीं चाहिये.... ब्लूलाइन के सफर के बाद नर्क में मेरे लिए अब कोई सरप्राइज नहीं हो सकता !

बहरहाल....स्टैण्ड देखने के लिए गर्दन झुकाकर बाहर देखता हूं। बाहर काफी ट्रैफिक है... कुछ समझ नहीं पा रहा कहां हूं। तभी मेरी नज़र भेड़ों से भरे एक ट्रक पर पड़ती है। एक साथ कई भेड़ें बड़ी उत्सुकता से बस देख रही हैं। एक पल के लिए लगा.... शायद मन ही मन वो सोच रही हैं.....भेड़ें तो हम हैं!

शुक्रवार, 2 मई 2008

क्या थिंक टैंक लीक हो गया है? (हास्य-व्यंग्य)

राज भाई, मैं हैरान हूं। दुनिया देख रही है। आपने नहीं देखा? देखा तो अब तक कुछ किया क्यों नहीं? ठेका आपने ले रखा है। दिहाड़ी मज़दूर भी पास हैं, फिर देर क्यों हो रही है? जमीन और आसमान आलिंगन को तरस रहे हैं। उन्हें एक कर दीजिए।

आप तो तिल का ताड़ बनाते रहे हैं। यहां ताड़ सामने है। आप चाहें तो उसका पहाड़ बना सकते हैं। फिर चाहें तो चढ़ भी सकते हैं। मगर आप नहीं चढ़ रहे। क्या हुआ ट्रेकिंग शूज़ नहीं मिल रहे या ज़्यादा ज़हर उगलने की वजह से डिहाइड्रेशन हो गया है। आप लोगों को पानी पिलाते रहे हैं, आप कहें तो मैं आपको पिलाऊं। हिम्मत मत हारिए। आगे बढ़िये। हालिया कारनामों के बाद देश को आपसे काफी उम्मीदें हैं। आप तो संकीर्ण राजनीति के गौरव हैं, कुमार गौरव मत बनिए। वरना आप भी 'वन विवाद वंडर' कहलाएंगे।

आप लम्बी रेस के घोड़े हैं। और इस रेस में कितने ही गर्दभों का समर्थन आपको मिला हुआ है। उन्हें आदेश दीजिए कि इस मुद्दे की ज़मीन पर लोटकर अपनी खुजली मिटाएं। आख़िर ये मराठी अस्मिता मामला है।

जहां तक मेरी जानकारी है हरभजन सिंह जालंधर के हैं। जालंधर पंजाब में है। पंजाब भारतीय नक्शे के हिसाब से उत्तर भारत में है। शॉन पॉलक दक्षिण अफ्रीका से हैं। जयसूर्या श्रीलंका से हैं और दक्षिण अफ्रीका और श्रीलंका महाराष्ट्र की किसी ग्राम पंचायत के नाम नहीं, बल्कि अलग देश हैं।

उम्मीद करता हूं आप पांचवी पास से तेज़ हैं और ये आपको भी पता होगा। तो फिर ये तमाम गैर मराठी लोग मुम्बई आइपीएल टीम में क्या कर रहे हैं? इस मामले पर आपने अब तक ज़हर क्यों नहीं उगला? लट्ठ क्यों नहीं निकाले। कब तक उन्हें तेल पिलाते रहेंगे। मौका है ताड़ का पहाड़ बना इन्हीं लट्ठों के सहारे उस पर चढ़ जाइये।

खिलाड़ी तो खिलाड़ी चीयर गर्ल्स भी बाहर से बुलवाई गई हैं। सरकार से पूछिए, एक तरफ तो वो अश्लीलता की दुहाई देकर बार डांस पर रोक लगाती है, दूसरी ओर भोंडेपन की ऐसी सार्वजनिक नुमाइश। नाचना ज़रूरी भी है तो उन बार बालाओं को मौका क्यों न मिले, जो इस पाबंदी के बाद बेरोज़गार हुई हैं।

राज भाई, मैं हैरान हूं। आपने न सही आपके थिंक टैंक ने भी ये सब अब तक नहीं सोचा। ज़रा चैक तो कीजिए कहीं टैंक लीक तो नहीं हो रहा। हो रहा है तो मज़दूरों से मरम्मत करवा लीजिए। और हां, मज़दूर बुलाते वक़्त ये ज़रुर पूछ लीजिएगा, कौन जिला?

( यह लेख ‘झापड़ कांड’ और चीयर गर्ल्स विवाद से पहले लिखा था। प्रकाशित आज हुआ है। इसलिए वैसा ही छाप रहा हूं जैसा उस वक़्त लिखा था)

गुरुवार, 1 मई 2008

आलसी जीवन का दर्शनशास्त्र! (हास्य-व्यंग्य)

आलसी जीवन का दर्शनशास्त्र! (हास्य-व्यंग्य)

तीन साल की उम्र तक मैंने चलना नहीं सीखा और पांच साल तक बोलना। मां-बाप घबरा गये। सोचा.. बच्चे में कुछ कमज़ोरी है। कई डॉक्टर्स के पास ले गये। लेकिन फायदा नहीं हुआ। फिर उन्हीं दिनों एक पहुंचे हुए बाबा हमारे शहर पहुंचे। मुझे उनके सामने पेश किया गया। बाबा ने आंखों में आखें डाली। मैं भोली सूरत बनाये बैठा रहा। और फिर वो चिल्लाये। कुछ नहीं है इस बच्चे को। ढोंग करता है ये। पांच साल का बच्चा और ‘ढोंग’ ,पिता जी हड़बड़ाये। 'सही कह रहा हूं। सिर्फ आलस का मारा कुछ नहीं करता। न बोलता है,न चलता है।'

बहरहाल, ज़िंदगी आगे बढ़ती गई और आलस के से चिपका मैं भी दो किलोमीटर प्रति हफ्ते की गति से आगे बढ़ता गया। उम्र बीतने के साथ-साथ आलस के कारण भी बदलते गये। पहले दुकान से सामान लाने में आलस करता था, बड़ा हुआ तो कॉम्पिटीशन के फार्म लाने में आलस करने लगा। इसी आलस के कारण 20 साल की उम्र में 20 बार भी उगता हुआ सूरज नहीं देख पाया। कोई भी काम को करने के लिए मैंने आज के बजाय कल पर ज़्यादा भरोसा किया। वर्तमान मुझे हमेशा मनहूस लगा। ऐसे मनहूस समय मैं बाहर नहीं निकला और 'पड़े रहना' ही बेहतर समझा। उम्मीदों के सारे द्वार मुझे भविष्य में ही खुलते दिखाई दिये। कल करूंगा, कल जाऊंगा, कल ला दूंगा, कल बता दूंगा। फ्यूचर इनडेफिनेट टेंस में ही मुझे वर्तमान के सभी काम ‘डेफिनेट’ होते दिखाई दिये।

कॉलेज पहुंचा तो आलस से मेरा रिश्ता 17 साल पुराना हो चुका था। इस बीच झगड़ा तो दूर एक बार भी हमारी कहा-सुनी तक नहीं हुई। दिन-ब-दिन रिश्ते की जड़ें गहराती जा रही थी। फिर बिना किसी बड़ी वजह के अचानक मुझे लगने लगा की मैं शक्ल सूरत से ठीक-ठाक हूं। पूछ-पड़ताल करने पर पता चला कि मैं ठीक न सही 'ठिक' तो ज़रूर हूं। मेरी हिम्मत बढ़ी। मैं दिन में बीस-पचास लड़कियों को देखने लगा। बदले में एक-दो लड़कियां मुझे भी देखने लगी। दोस्तों नें हौसला बढ़ाया (बाद में पता चला वो मेरे मज़े लेते थे)। हिम्मत करो, आगे बढ़ो, पीछा करो देखकर आओ कहां रहती है। मेरी भी हिम्मत बढ़ी। मैं भी ‘कुछ लड़कियों’ से सच्चा प्यार करने लगा। लेकिन 'पीछा करो और घर देखकर आओ' मुझे काफी मुश्किल लगा। कॉलेज ख़त्म होते ही दिल करता था घर जाऊं, खाना खाऊं और सो जाऊं। इस दोपहर में कौन जायेगा लड़की के पीछे। बहरहाल, 'घर जाकर सो जाने की इच्छा' ने 'पीछा कर घर देखने' की इच्छा को मात दे दी। नतीजा, कॉलेज के तीन सालों में मैं सभी फिल्में अपने पुरूष मित्रों के साथ ही देखता रहा।

ग्रेजुएशन होते ही मैं बेरोज़गार हो गया। लेकिन एमए का फार्म भर मैंने अपनी बरोज़गारी को दो साल तक एक्सटैंड कर दिया। फिर मुझे क्लेक्टर और एसपी बनने के भी कुछ मौके मिले, लेकिन फॉर्म न भर पाने के कारण मैं मौका चूक गया। घर वालों ने इसके लिए मुझे दोषी बताया। पिता जी ने एक दिन पूछा-बेटा आख़िर चाहते क्या हो? किस फितूर में हो? क्यों नहीं किसी नौकरी के लिए कोशिश करते। तुम्हारे दोस्तों को देखो वो कितने अनुशासित हैं, कुछ बनने को लेकर कितने परेशान है।

प्लीज़, दोस्तों की बात मत करो। अनुशासन और 'ज़बरदस्ती की गम्भीरता' तो मूर्खों का गहना हैं। ये कथित अनुशासन और परेशानी उन्हें कलेक्टर तो क्या ग्रामसेवक भी नहीं बनवा पायेगी।

पिता जी का गुस्सा बढ़ा-उनकी छोड़ो तुम अपनी बताओ। चाय पी कर तुम गिलास तक रसोई में नहीं रखते। पढ़ कर किताबे टेबल पर नहीं रखते। जूते, कपड़े आज तक एक चीज़ तुमने सही जगह पर नहीं रखी। मैंने काटा-पिता जी, समझिये दुनिया में हर रचनात्मक इंसान ऐसा ही होता है। आप जिसे पड़े रहना कहते हैं, वो उस वक़्त सोच रहे होते हैं। उनके तार दूसरी दुनिया से जुड़े होते हैं। उन्हें कुछ साफ-साफ दिखाई दे रहा होता है। लेकिन मुझे अफसोस है कि आप बिखरे हुए सामान को तो देखते हैं उसके चेहरे पर जो तेज़ है उसे नहीं देखते।

पिताजी का चेहरा भावशून्य था। मुझे लगा वो गर्व से मुझे गले लगा लेंगे। लेकिन.... 'बकवास बंद करो। नहीं सुनना मुझे तुम्हारा आलसवाद। अभी घर से निकाल दूं तो दो मिनट में ये तेज़ भी निकल जायेगा और एक झटके में दूसरी दुनिया से पहली दुनिया में भी जाओगे।'

(पहली प्रकाशित रचना)